प्रत्याहार
From जैनकोष
म.पु./२१/२३० प्रत्याहारस्तु तस्योपसंहृतौ चित्तनिर्वृत्तिः ।२३०। = मन की प्रवृत्ति का संकोच कर लेने पर जो मानसिक सन्तोष होता है उसे प्रत्याहार कहते हैं ।२३०।
ज्ञा./३०/१-३ समाकृष्येन्द्रियार्थेभ्यः साक्षं चेतः प्रशान्तधीः । यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते ।१। निःसङ्गसंवृतस्वान्तः कूर्मवत्संवृतेन्द्रियः । यमी समत्वमापन्नो ध्यानतन्त्रे स्थिरीभवेत् ।२। गोचरेभ्यो हृषीकाणि तेभ्यश्चित्तमनाकुलम् । पृथक्कृत्य वशी धत्ते ललाटेऽत्यन्तनिश्चलम् ।३। = जो प्रशान्त-बुद्धि-विशुद्धता युक्त मुनि अपनी इन्द्रियाँ और मन को इन्द्रियों के विषयों से खैंच कर जहाँ-जहाँ अपनी इच्छा हो तहाँ-तहाँ धारण करें सो प्रत्याहार कहा जाता है ।१। निःसंग और संवर रूप हुआ है मन जिसका कछुए के समान संकोच रूप हैं इन्द्रियाँ जिसकी, ऐसा मुनि ही राग-द्वेष रहित होकर ध्यानरूपी तन्त्र में स्थिरस्वरूप होता है ।२। वशी मुनि विषयों से तो इन्द्रियों को पृथक् करै और इन्द्रियों को विषयों से पृथक् करे, अपने मन को निराकुल करकै अपने ललाट पर निश्चलता पूर्वक धारण करै । यह विधि प्रत्याहार में कही है ।३।
- प्रत्याहार योग्य नेत्र ललाट आदि १० स्थान - देखें - ध्यान / ३ / ३ ।