प्रभु
From जैनकोष
न.च.वृ/१०८ घाईकम्मखयादो केवलणाणेण विदिदपरमट्ठो । उवदिट्ठसयलतत्तो लद्धसहावो पहू होई ।१०८। = घाति कर्मों के क्षय से जिसने केवलज्ञान केद्वारा परमार्थ को जान लिया है, सकल तत्त्वों का जिसने उपदेश दिया है, तथा निजस्वभाव को जिसने प्राप्त कर लिया है, वह प्रभु होता है । १०८।
पं.का./त.प्र./२७ निश्चयेन भावकर्मणां, व्यवहारेण द्रव्यकर्मणामास्रवणबंधनसंवरणनिर्जरणमोक्षणेषु स्वयमीशत्वात् प्रभुः । = निश्चय से भाव कर्मों के आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करने में स्वयं समर्थ होने से आत्मा प्रभु है । व्यवहार से द्रव्यकर्मों के आस्रव, बंध आदि करने में स्वयं ईश होने से वह प्रभु है ।
पं.का./ता.वृ./२७/६०/१९ निश्चयेन मोक्षमोक्षकारणरूपशुद्धपरिणाम- परिणमनसमर्थत्वात्तथैव चाशुद्धनयेन संसारसंसारकारणरूपाशुद्धपरिणामपरिणमन-समर्थत्वात् प्रभुर्भवति । = निश्चय से मोक्ष और मोक्ष के कारण रूप शुद्ध परिणाम से परिणमन में समर्थ होने, और अशुद्ध नय से संसार और संसार के कारण रूप परिणाम से परिणमन में समर्थ होने से यह आत्मा प्रभु होता है ।