प्रायश्चित्त
From जैनकोष
प्रतिसमय लगने वाले अन्तरंग व बाह्य दोषों की निवृत्ति करके अन्तर्शोधन करने के लिए किया गया पश्चात्ताप या दण्ड के रूप से उपवास आदि का ग्रहण प्रायश्चित कहलाता है, जो अनेक प्रकार का होता है । बाह्य दोषों का प्रायश्चित पश्चात्ताप मात्र से हो जाता है । पर अन्तरंग दोषों का प्रायश्चित्त गुरु के समक्ष सरल मन से आलोचना पूर्वक दण्ड को स्वीकार किये बिना नहीं हो सकता है । परन्तु इस प्रकार के प्रायश्चित्त अर्थात् दण्ड शास्त्र में अत्यन्त निपुण व कुशल आचार्य ही शिष्य की शक्ति व योग्यता को देखकर देते हैं, अन्य नहीं ।
- भेद व लक्षण
- प्रायश्चित्त सामान्य का लक्षण
- निरुक्त्यर्थ;
- निश्चय की अपेक्षा;
- व्यवहार की अपेक्षा ।
- प्रायश्चित्त के भेद ।
- प्रायश्चित्त के भेदों के लक्षण ।
- प्रायश्चित्त सामान्य का लक्षण
- आलोचन, प्रतिक्रमण, विवेक, व्युत्सर्ग, तप व परिहार प्रायश्चित्त सम्बन्धी विषय । - देखें - वह -वह नाम ।
- प्रायश्चित्त निर्देश
- प्रायश्चित्त की व्याप्ति अंतरंग के साथ है ।
- प्रायश्चित्त के अतिसार ।
- अपराध होते ही प्रायश्चित्त लेना चाहिए ।
- बाह्य दोष का प्रायश्चित्त स्वयं तथा अन्तरंग दोष का गुरु के निकट लेना चाहिए ।
- शिष्य के दोषों को गुरु अन्य पर प्रगट न करे ।- देखें - गुरु / २ / ३
- आत्म भावना से च्युत होने पर पश्चात्ताप ही प्रायश्चित्त है ।
- दोष लगने पर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं ।
- प्रायश्चित्त शास्त्र को जाने बिना प्रायश्चित्त देने का निषेध ।
- प्रायश्चित्त ग्रन्थ के अध्ययन का अधिकार सबको नहीं । - देखें - श्रोता / ६
- शक्ति आदि के सापेक्षा ही देना चाहिए ।
- आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है ।
- प्रायश्चित्त के योग्यायोग्य काल व क्षेत्र ।
- प्रायश्चित्त का प्रयोजन व माहात्म्य ।
- प्रायश्चित्त की व्याप्ति अंतरंग के साथ है ।
- शंका समाधान
- दूसरे के परिणाम कैसे जाने जा सकते हैं ।
- तदुभय प्रायश्चित्त के पृथक् निर्देश की क्या आवश्यकता ?
- दूसरे के परिणाम कैसे जाने जा सकते हैं ।
- प्रायश्चित्त विधान
- प्रायश्चित्त के योग्य कुछ अपराधों का परिचय ।
- अपराधों के अनुसार प्रायश्चित्त विधान ।
- शूद्रादि छूने के अवसर योग्य प्रायश्चित्त ।
- अयोग्य आहार ग्रहण सम्बन्धी प्रायश्चित्त ।- देखें - भक्ष्याभक्ष्य / १ / ६
- यथा दोष प्रायश्चित्त में कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण ।- देखें - व्युत्सर्ग / १ / ६
- प्रायश्चित्त के योग्य कुछ अपराधों का परिचय ।
- भेद व लक्षण
- प्रायश्चित्त सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
रा.वा./९/२२/१/६२०/२८ प्रायः साधुलोकः, प्रायस्य यस्मिन्कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् । ... अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धिः, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तम्, अपराधविशुद्धिरित्यर्थः । = प्रायः साधु लोक, जिस क्रिया में साधुओं का चित्त हो वह प्रायश्चित्त । अथवा प्राय- अपराध उसका शोधन जिससे हो वह प्रायश्चित्त ।
ध. १३/५,४,२६/गा./९/५९ प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।९। प्रायः यह पद लोकवाची है और चित्त से अभिप्राय उसके मनका है । इसलिए उस चित्त को ग्रहण करने वाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिए ।९। (भ.आ./वि./५२९/७४७ पर उद्धृत गा.)
नि.सा./ता.वृ./११३,११६ प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम् ।११३। बोधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम् ।११६। = प्रायश्चित अर्थात् प्रायः चित्त-प्रचुर रूप से निर्विकार चित्त ।११३। बोध, ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं हैं ।११६।
अन.ध./७/३७ प्रायो लोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धिकृत्क्रिया । प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तन्निरुच्यते ।३७। = प्रायः शब्द का अर्थ लोक और चित्त शब्द का अर्थ मन होता है । जिसके द्वारा साधर्मी और संघ में रहने वाले लोगों का मन अपनी तरफ से शुद्ध हो जाये उस क्रिया या अनुष्ठान को प्रायश्चित्त कहते हैं । (का.अ./टी./४५१)
पद्मचन्द्र कोष/पृ. २५८ प्रायस् + चित्+ क्त । प्रायस्-तपस्या, चित्त निश्चय । अर्थात् निश्चय संयुक्त तपस्या को प्रायश्चित्त कहते हैं ।
- निश्चय की अपेक्षा
नि.सा./मू./गा. कोहादिसब्व्भाववखयपहुदिभावणाए णिग्गहणं । पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ।११४। उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं । जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स ।११६। किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं । पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेउ ।११७। अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहारं । सक्कदि काउ जीवो तम्हा झाणं हवे सव्वं ।११९। = क्रोधादि स्वकीय भावों के (अपने विभाव भावों के) क्षयादिकी भावना में रहना और निज गुणों का चिन्तवन करना वह निश्चय से प्रायश्चित्त कहा है ।११४। उसी (अनन्त धर्म वाले) आत्मा का जो उत्कृष्ट ज्ञान अथवा चित्त उसे जो मुनि नित्य धारण करता है, उसे प्रायश्चित्त है ।११६। बहुत कहने से क्या ? अनेक कर्मों के क्षय का हेतु ऐसा जो महर्षियों का उत्तम तपश्चरण वह सब प्रायश्चित्त जान ।११७। आत्म स्वरूप जिसका अवलम्बन है, ऐसे भावों से जीव सर्व भावों का परिहार कर सकता है, इसलिए ध्यान सर्वस्व है ।११९। (विशेष विस्तार देखें - नि . सा./मू. व ता.वृ./११३-१२१) ।
का.अ./मू./४५५ जो चिंतइ अप्पाणं णाण-सरूवं पुणो-पुणो णाणी । विकह-विरत्त चित्तो पायच्छित्तं वरं तस्स ।४५५। = जो ज्ञानी मुनि ज्ञान स्वरूप आत्मा का बारम्बार चिन्तवन करता है, और विकथादि प्रमादों से जिसका मन विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट प्रायश्चित्त होता है ।४५५।
- व्यवहार की अपेक्षा
मू.आ./३६१,३६३ पायच्छित्तं ति तवो जेण विसुज्झदि हु पुव्वकयपावं । पायिच्छत्तं पत्तोति तेण वुत्तं ...।३६१। पोराणकम्मखमणं खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुमणं । पुच्छणमुच्छिवणं छिदणं ति पायचित्तस्स णामाइं ।३६३। = व्रत में लगे हुए दोषों को प्राप्त हुआ यति जिससे पूर्व किये पापों से निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित्त तप है ।३६१। पुराने कर्मों का नाम, क्षेपण, निर्जरा, शोधन, धावन, पुच्छन (निराकरण) उत्क्षेपण, छेदन (द्वैधीकरण) ये सब प्रायश्चित्त के नाम हैं ।३६३।
स.सि./९/२०/४३९/६ प्रमाददोषपरिहारः प्रायश्चित्तम् । = प्रमाद जन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित्त तप है । (चा.सा./१३७/२) (अन.ध./७/३४) ।
ध. १३/५,४,२६/५९/८ कयावराहेण ससंवेयणिव्वेएण सगावराहणिरायरहणट्ठं जममुट्टाणं कीरदि तप्पायच्छित्तं णाम तवोकम्मं । = संवेग और निर्वेद से युक्त अपराध करने वाला साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है वह प्रायश्चित्त नाम का तपःकर्म है ।
का.अ./मू./४५१ दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं । कुव्वाणं पि ण इच्छदि तस्स विसोही परा होदि ।४५१। = जो तपस्वी मुनि मन वचन काय से स्वयं दोष नहीं करता, अन्य से भी दोष नहीं कराता तथा कोई दोष करता हो तो उसे अच्छा नहीं मानता, उस मुनि के उत्कृष्ट विशुद्धि (प्रायश्चित्त) होती है ।४५१।
- निरुक्ति अर्थ
- प्रायश्चित्त के भेद
मू.आ./३६२ आलोयण पडिकमणं उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो । तव छेदो मूलंविय परिहारो, चेव सद्दहणा ।३६२। = आलोचना,प्रतिक्रममण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये दश भेद प्रायश्चित्त के हैं ।३६२। (ध. १३/५,४,२६/गा.११/६०) (चा. सा./१३७/३) (अन. ध./७/३७ की भाषा अथवा ३७-५७) ।
त.स./९/२२ आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारो-पस्थापनाः ।२२। आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना यह नव प्रकार का प्रायश्चित्त है ।२२।
अन.ध./७/५९ व्यवहारनयादित्थं प्रायश्चित्तं दशात्मकम् । निश्चयात्तदसंख्येयलोकमात्रभिदिष्यते ।५९। = व्यवहार नय से प्रायश्चित्त के दश भेद हैं । किन्तु निश्चयनय से उसके असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते हैं ।
- प्रायश्चित्त के भेदों के लक्षण
- तदुभय
स.सि./९/२२/४४०/७ (तदुभय) संसर्गे सति विशोधनात्तदुभयम् । = आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों का संसर्ग होने पर दोषों का शोधन होने से तदुभय प्रायश्चित्त है । (रा.वा./९/२२/४/६२१/२०) (अन.ध./७/४८) ।
ध.१३/५,४,२६/६०/१० सगावराहं गुरुणमालोचिय गुरुसक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पायच्छित्तं । = अपने अपराध की गुरु के सामने आलोचना करके गुरु की साक्षिपूर्वक अपराध से निवृत्त होना उभय नाम का प्रायश्चित्त है ।
- उपस्थापना या मूल
स.सि.९/२२/४४०/१० पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना । = पुनः दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है । (रा.वा./९/२२/१०/६२१/३४) (ध.१३/५,४,२६/६२/२) (चा.सा./१४४/३) (अन.ध./७/५५) ।
- श्रद्धान
ध. १३/५,४,२६/६३/३मिच्छत्तं गंतूण ट्ठियस्स महव्वयाणि घेत्तूण अत्तागम-पयत्थसद्दहणा चेव (सद्दहणं) पायच्छित्तं । = मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित हुए जीव के महाव्रतों को स्वीकार कर आप्त आगम और पदार्थों का श्रद्धान करने पर श्रद्धान नाम का प्रायश्चित्त होता है । (चा.सा./१४७/२) (अन.ध./७/५७) ।
- तदुभय
- प्रायश्चित्त सामान्य का लक्षण
- प्रायश्चित्त निर्देश
- प्रायश्चित्त की व्याप्ति अन्तरंग के साथ है
भ.आ./मू./४०५/५९४ आलोचणापरिणदो सम्मं संपच्छिओ गुरुसयासं । जदि अंतरम्मि कालं करेज्ज आराहओ होई । = मैं अपने अपराधों का स्वरूप गुरु के चरण समीप जाकर कहूँगा, ऐसा मन में विचाकर निकला मुनि यदि मार्ग में ही मरण करे तो भी वह आराधक होता है ।४०५। (भ.आ./मू./४०६-४०७/५९५) ।
देखें - प्रतिक्रमण / १ / २ / २ निजात्म भावना से ही निन्दन गर्हण आदि शुद्धि को प्राप्त होता है ।
- प्रायश्चित्त के अतिचार
भ.आ./वि./४८७/७०७/२० प्रायश्चित्तातिचारनिरूपणा-तत्रातिचाराः । आकंपियअणुमाणियमित्यादिकाश्च । भूतातिचारेऽस्य मनसा अजुप्सा । अज्ञानतः, प्रामादात्कर्मगुरुत्वादालस्याच्चेदं अशुभकर्मबन्धननिमित्तं अनुष्ठितं, दुष्टं कृतमिति एवमादिक:प्रतिक्रमणातिचार:। उक्तोभयातिचारसमवायस्तदुभयातिचारः । = प्रायश्चित्त तपके अतिचार-आकंपित अनुमानित वगैरह दोष ( देखें - आलोचना / २ / १ ) इस तपक के अतिचार हैं । ये अतिचार होने पर इसके विषय में मन में ग्लानि न करना अज्ञान से, प्रमाद से, तीव्र कर्म के उदय से और आलस्य से मैंने यह अशुभ कर्म का बंधन करने वाला कर्म किया है, मैंने यह दुष्टकर्म किया है, ऐसा उच्चारण करना प्रतिक्रण के अतिचार हैं । आलोचना और प्रतिक्रमण के अतिचार को उभयातिचार कहते हैं ।
नोट - विवेक, आलोचना आदि तप के अतिचार - देखें - वह -वह नाम ।
- अपराध होते ही प्रायश्चित लेना चाहिए
भ.आ./मू.व.वि./५४१/७५७ उत्थानिका-जाते अपराधे तदानीमेव कथितव्यं न कालक्षेपः कार्य इति शिक्षयति कल्ले परे व परदो काहं दंसणचरित्तसोधित्ति । इस संकप्पमदीया गयं पि कालं ण याणंति।५४१। ततः सशल्यं मरणं तेषां भवति इति । व्याधय:-, कर्माणि, शत्रवश्चोपेक्षितानि बद्धमूलानि पुनर्न सुखेन विनाश्यन्ते । अथवा अतिचारकालं गतं चिरातिक्रान्तं नैव जानन्ति । ये हि अतिचाराः प्रतिदिनं जातास्तेषां कालं, संध्या रात्रिदिनं इत्यादिकं पश्चादालो-चनाकाले गुरुणा पृष्टास्तावन्न वक्तुं जानन्ति विस्मृतत्वाच्चिरातीतस्य । ... अपि शब्देन क्षेत्रभावौ वातिचारस्य हेतु न जानन्ति । ... इह स्मृतिज्ञानागोचर इति केषांचिद्व्याख्यानं । = आराधना में अतिचार होने पर उसी क्षण में उनका गुरु के समक्ष कथन करना चाहिए, कालक्षेप करना योग्य नहीं, ऐसा उपदेश देते हैं । -- कल परसों अथवा नरसों मैं दर्शन-ज्ञान व चारित्र की शुद्धि करूँगा, ऐसा जिन्होंने अपने मन में संकल्प किया है, ऐसे मुनि अपना आयु कितना नष्ट हुआ है यह नहीं जानते अर्थात् उनका सशल्य मरण होता है ।५४१। रोग, शत्रु और अपराध इनकी उपेक्षा करने से ये दृढ़ मूल होते हैं . पुनः उनका नाश सुख से कर नहीं सकते । अथवा जो अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, उनका स्मरण होता नहीं । जो अतिचार हुए हैं, उनके सन्ध्या, दिन, रात्रि, इत्यादि रूप काल का स्मरण गुरु के पूछने पर शिष्यों को होता नहीं, क्योंकि अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं । ... इसी प्रकार क्षेत्र, भाव और अतिचार के कारण इनका भी स्मरण नहीं होता, वे अतिचार स्मृतिज्ञान के अगोचर हैं । ... ऐसा कोई आचार्य इस गाथा का व्याख्यान करते हैं ।
- कल परसों अथवा नरसों मैं दर्शन-ज्ञान व चारित्र की शुद्धि करूँगा, ऐसा जिन्होंने अपने मन में संकल्प किया है, ऐसे मुनि अपना आयु कितना नष्ट हुआ है यह नहीं जानते अर्थात् उनका सशल्य मरण होता है ।५४१। रोग, शत्रु और अपराध इनकी उपेक्षा करने से ये दृढ़ मूल होते हैं . पुनः उनका नाश सुख से कर नहीं सकते । अथवा जो अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, उनका स्मरण होता नहीं । जो अतिचार हुए हैं, उनके सन्ध्या, दिन, रात्रि, इत्यादि रूप काल का स्मरण गुरु के पूछने पर शिष्यों को होता नहीं, क्योंकि अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं । ... इसी प्रकार क्षेत्र, भाव और अतिचार के कारण इनका भी स्मरण नहीं होता, वे अतिचार स्मृतिज्ञान के अगोचर हैं । ... ऐसा कोई आचार्य इस गाथा का व्याख्यान करते हैं ।
- बाह्य दोष का प्रायश्चित स्वयं तथा अन्तरंग दोष का गुरु के निकट लेना चाहिए
प्र.सा./मू./२११-२१२ पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्ठम्हि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया ।२११। छेदुवजुत्ता समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि । आसेज्जालोचित्ता उवदिट्ठं तेण कायव्वं ।२१२। = यदि श्रमण के प्रयत्न पूर्वक की जाने वाली कायचेष्टा में छेद होता है तो उसे आलोचना पूर्वक क्रिया करना चाहिए ।२११. किन्तु यदि श्रमण छेद में (अन्तरंग छेद में) उपयुक्त हुआ हो तो उसे जैनमत में व्यवहार कुशल श्रमण के पास जाकर आलोचना करके (दोष का निवेदन करके) जैसा उपदेश दें वैसा करना चाहिए ।२१२।
- आत्म भावना से च्युत होने पर पश्चात्ताप ही प्रायश्चित्त है
इ.उ./मू./३९ निशामयति निःशेषमिन्द्रजालोपमं जगत । स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते ।३९। = योगीजन इस समस्त जगत् को इन्द्रजाल के समान देखते हैं, क्योंकि उनके आत्म स्वरूप की प्राप्ति की प्रबल अभिलाषा उदित रहती है । यदि कारणवश अन्य कार्य में प्रवृत्ति हो जाती है, तब उसे संताप होता है ।
- दोष लगने पर प्रायश्चित्त होता है सर्वदा नहीं
रा.वा./९/२२/१०/६२२/१ भयत्वरणविस्मरणानवबोधाशक्तिव्यसना-दिभिर्महाव्रतातिचारे सति प्राक् छेदात् षड्विधं प्रायश्चित्तं विधेयं । = डरकर भाग जाना, सामर्थ्य की हीनता, अज्ञान, विस्मरण, यवनादिकों का आतंक, इसी तरह के रोग अभिभव आदि और भी अनेक कारणों से महाव्रतों में अतिचार लग जाने पर तपस्वियों के छेद से पहले के छहों प्रायश्चित्त होते हैं । (चा.सा./१४२/५); (अन.ध.७/५३) ।
- प्रायश्चित्त शास्त्र को जाने बिना प्रायश्चित्त देने का निषेध
भ.आ./मू./४५१-४५३/६७८ मोत्तूण रागदोसे ववहारं पट्ठवेइ सो तस्स । ववहारकरणकुसलो जिणवयणविसारदो धीरो ।४५१। ववहारमयणंतो ववहरणिज्जं च ववहरंतो खु । उस्सीयदि भवपं के अयसं कम्मं च आदियदि ।४५२। जह ण करेदि तिगिंच्छं वाधिस्स तिरिच्छओ अणिम्मादो । ववहारमयणंतो ण सोधिकामो विसुज्झेइ ।४५३। =जिन प्रणीत आगम में निपुण, धैर्यवान्, प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता ऐसे आचार्य राग-द्वेष भावना छोड़कर मध्यस्थ भाव धारण कर मुनि को प्रायश्चित्त देते हैं।४५१। ग्रन्थ से, अर्थ से और कर्म से प्रायश्चित्त का स्वरूप जिसको मालूम नहीं है वह मुनि यदि नव प्रकार का प्रायश्चित्त देने लगेगा तो वह संसार के कीचड़ में फँसेगा और जगत् में उसकी अकीर्ति फैलेगी ।४५२। जैसे - अज्ञवैद्य रोग का स्वरूप न जानने के कारण रोग की चिकित्सा नहीं कर सकता । वैसे ही जो आचार्य प्रायश्चित्त ग्रन्थ के जानकार नहीं हैं वे रत्नत्रय को निर्मल करने की इच्छा रखते हुए भी निर्मल नहीं कर सकते ।४५३।
- शक्ति आदि के सापेक्ष ही देना चाहिए
रा.वा./९/२२/१०/६२२/८ तदेतन्नवविधं प्रायश्चित्तं देशकालशक्तिसंयमाद्यविरोधेनाल्पानल्पापराधानुरूपं दोषप्रशमनं चिकित्सितवद्वि-धेयं । जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिमाणाः । परिणामविकल्पाः अपराधाश्च तावन्त एव न तेषां तावद्विकल्पं प्रायश्चित्तमस्ति व्यवहार- नयापेक्षया पिण्डीकृत्य प्रायश्चित्तविधानमुक्तं । = देश, काल, शक्ति और संयम में किसी तरह का विरोध न आने पावे और छोटा बड़ा जैसा अपराध हो उसके अनुसार वैद्य के समान दोषों का शमन करना चाहिए । प्रत्येक जीव के परिणामों के भेदों की संख्या असंख्यात लोक मात्र है, और अपराधों की संख्या भी उतनी है, परन्तु प्रायश्चित्त के उतने भेद नहीं कहे हैं । ऊपर के लिखे (९ वा १०) भेद तो केवल व्यवहार नय की अपेक्षा से समुदाय रूप से कहे गये हैं । (भ.आ./वि./६२६/८२८/२०); (चा.सा./१४७/२); (अन.ध./७/५८) ।
- आलोचना पूर्वक ही लिया जाता है
भ.आ./मू./६२०-६२१ एत्थ दु उज्जगभवा ववहारिदव्वा भवंति ते पुरिसा संका परिहरिदव्वा सो से पट्टाहि जहि विसुद्धा ।६२०। पडिसेवणादिचारे जदि आजंपदि तहाकम्मं सव्वे । कुव्वंति तहो सोधिं आगमववहारिणो तस्स ।६२१। = जो ऋजु भाव से आलोचना करते हैं, ऐसे पुरुष प्रायश्चित्त देने योग्य हैं और जिनके विषय में शंका उत्पन्न हुई हो उनको प्रायश्चित्त आचार्य नहीं देते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सर्वातिचार निवेदन करने वालों में ही ऋजुता होती है, उसको ही प्रायश्चित्त देना योग्य है ।६२०। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से हुए सम्पूर्ण दोष क्षपक अनुक्रम से कहेगा तो प्रायश्चित्त दान कुशल आचार्य उसको प्रायश्चित्त देते हैं ।६२१।
- प्रायश्चित्त के योग्यायोग्य काल व क्षेत्र
भ.आ./मू./५५४-५५९ आलोयणादिया पुण होइ पसत्थे य सुद्धभावस्स । पुव्वण्हे अवरण्हे व सोमतिहिरक्खवेलाए ।५५४। णिप्पत्तकंटइल्लं विज्जुहदं सुवखरुवखकडुदड्ढं । सुण्णघररुद्ददेउलपत्थररासिट्टि- यापुंजं ।५५५। तणपत्तकठ्ठछारिय असुइ सुसाणं च भग्गपडिदं वा । रूद्दाणं खुद्दाणं अधिउत्ताणं च ठाणाणि ।५५६। अण्णं व एवमादी य अप्पसत्थं हवेज्ज जं ठाणं । आलोचणं ण पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थ ।५५७। अरहंतसिद्धसागरपउमसरंखीरपुप्फफलभरियं । उज्जाणभवणतोरणपासादं णागजक्खधरं ।५५८। अण्णं च एवमादिया सुपसत्थं हवइ जं ठाणं । आलोयणं पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थं ।५५९। =- विशुद्ध परिणामाले इस क्षपक की आलोचना प्रतिक्रमणादिक क्रियाएं दिन में और प्रशस्त स्थान में होती हैं । दिवस के पूर्व भाग में अथवा उत्तर भाग में, सौम्य तिथि, शुभ नक्षत्र, जिस दिन में रहते हैं उस दिन होती है ।५५४।
- जो क्षेत्र पत्तों से रहित है, काँटों से भरा हुआ है, बिजली गिरने से जहाँ जमीन फट गयी है, जहाँ शुष्क वृक्ष हैं, जिसमें कटुरससे वृक्ष भरे हैं, जो जल गया है, शून्य घर, रुद्र का मन्दिर, पत्थरों का ढेर और ईंटों का ढेर है, ऐसा स्थान आलोचना के योग्य नहीं है ।५५५। जिसमें सूखे पान, तृण, काठके पुंज हैं, जहाँ भस्म पड़ा है, ऐसे स्थान तथा अपवित्र श्मशान, तथा फूटे हुए पात्र,गिरा हुआ घर जहाँ है वह स्थान भी वर्ज्य है । रूद्र देवताओं, और क्षुद्र देवताओं इनके स्थान भी वर्ज्य समझने चाहिए । ५५६। ऊपर के स्थान वर्ज्य है वैसे ही अन्य भी जो अयोग्य स्थान हैं, उनमें भी क्षपककी आलोचना आचार्य सुनते नहीं । क्योंकि ऐसे स्थानों में आलोचना करने से क्षपक की कार्य सिद्धि नहीं होगी । ५५७।
- अर्हन्त का मन्दिर, सिद्धों का मन्दिर, समुद्र के समीप का प्रदेश, जहाँ क्षीर वृक्ष है, जहाँ पुष्प व फलों से लदे वृक्ष हैं ऐसे स्थान,उद्यान, तोरण द्वार सहित मकान, नाग देवता का मन्दिर, यक्ष मन्दिर, ये सब स्थान क्षपक की आलोचना सुनने के योग्य हैं ।५५८। और भी अन्य प्रशस्त स्थान आलोचना के योग्य हैं, ऐसे प्रशस्त स्थानों में क्षपक का कार्य निर्विघ्न सिद्ध हो इस हेतु से आचार्य बैठकर आलोचना सुनते हैं ।५५९।
- प्रायश्चित्तका प्रयोजन व माहात्म्य
रा.वा./९/२२/१/६२०/२६ प्रमाददोषव्युदासः भावप्रसादो नैःशल्यम् अनवस्थावृत्तिः मर्यादात्यागः संयमादाढर्यमाराधनमित्येवमादीनां सिद्धय्यर्थ प्रायश्चित्तं नवविधं विधीयते । = प्रमाद दोष व्युदास, भाव प्रसाद, निःशल्यत्व, अव्यवस्था निवारण, मर्यादा का पालन, संयम की दृढता, आराधना सिद्धि आदि के लिए प्रायश्चित्त से विशुद्ध होना आवश्यक है । (भा.पा./टी./७८/२२४/९) ।
ध./१३/५,४,२६/गा. १०/६०) कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि तनूभवन्त्यत्मविगर्हणेन । प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषामत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि ।१०। = अपनी गर्हा करने से, दोषों का प्रकाशन करने से और उनका संवर करने से किये गये अतिदारुण कर्म कृत हो जाते हैं । अब उनका समूल नाश कैसे हो जाता है, यह कहते हैं ।१०। (का.अ./मू./४५१-४५२) ।
- प्रायश्चित्त की व्याप्ति अन्तरंग के साथ है
- शंका का समाधान
- दूसरे के परिणाम कैसे जाने जाते हैं
भ.आ./वि./६२६/८२८/२० कथं परिणामो ज्ञायते इति चेत् सहवासेन तीव्रक्रोधस्तीव्रमान इत्यिादिकं सुज्ञातमेव । तत्कार्योपलम्भात्, तमेव वा परिपृच्छय, कीदृग्भवतः परिणामोऽतिचारसमकालं वृत्तः । = प्रश्न - दूसरों के परिणाम कैसे जाने जा सकते हैं ? उत्तर-- सहवास से परिणाम जाने जा सकते हैं ।
- अथवा उसके कार्य देखने पर उसके तीव्र या मन्द क्रोधादि का स्वरूप मालूम होता है ।
- अथवा जब तुमने अतिचार किये थे तब तुम्हारे परिणाम कैसे थे ऐसा उसको पूछकर भी परिणामों का निर्णय किया जा सकता है । (विशेष - देखें - विनय / ५ / १ ) ।
- तदुभय प्रायश्चित्त के पृथक् निर्देश की क्या आवश्यकता ?
देखें - प्रतिक्रमण / २ / २ सभी प्रतिक्रमण नियम से आलोचना पूर्वक होते हैं । गुरु स्वयं अन्य किसी से आलोचना नहीं करता है । इसलिए गुरु से अतिरिक्त अन्य शिष्यों की अपेक्षा से तदुभय प्रायश्चित्त का पृथक् निर्देश किया गया है ।
- दूसरे के परिणाम कैसे जाने जाते हैं
- प्रायश्चित्त विधान
- प्रायश्चित्त के कुछ योग कुछ अपराधोंका परिचय
भ.आ./वि./४५०/६७६/८ पृथिवी, आपस्तेजो वायुः ... सचित्त द्रव्य ... तृणफलकादिकं ... अचित्तम् । संसक्तं उपकरणं मिश्रम् । एवं त्रिविधा द्रव्यप्रतिसेवना । वर्षासु ... अर्धयोजनम् । ततोऽधिकक्षेत्रगमनं ... प्रति-षिद्धक्षेत्रगमनं, विरुद्धराजगमनं, छिन्नाध्वगमनं, ततो रक्षणीया गमनम् । ... उन्मार्गेण वा गमनम् । अन्तःपुरप्रवेशः । अनुज्ञातगृहभूमि- गमनम् - इत्यादिना क्षेत्रप्रतिसेवना । आवश्यककालादन्यस्मिन्काले आवश्यककरणम् । वर्षावग्रहातिक्रमः- इत्यादिना कालप्रतिसेवना । दर्पः, प्रमादः, अनाभोग भयं, प्रदोषः इत्यादिकेषु परिणामेषु प्रवृत्ति- र्भावसेवा । = पृथ्वी, पानी आदि ... सचित्त द्रव्य, तृण का संस्तर फलक वगैरे अचित्त द्रव्य, जीव उत्पन्न हुए हैं ऐसे उपकरणरूप मिश्राद्रव्य, ऐसे तीन प्रकार के द्रव्यों का सेवन करने से दोष लगते हैं यह द्रव्य प्रति सेवना है । वर्षाकाल में (मुनि) आधा योजन से अधिक गमन करना,... निषिद्ध स्थान में जाना, विरुद्ध राज्य में जाना, जहाँ रास्ता टूट गया ऐसे प्रदेश में जाना, उन्मार्ग में जाना, अन्तःपुर में प्रवेश करना, जहाँ प्रवेश करने की परवानगी नहीं है ऐसे गृह के जमीन में प्रवेश करना यह क्षेत्रप्रति-सेवना है । आवश्यकों के नियत काल को उल्लंघन कर अन्य समय में सामायिकादि करना, वर्षाकाल योग का उल्लंघन करना यह काल प्रतिसेवना है । दर्प, उन्मत्तता, असावधानता, साहस, भय इत्यादि रूप परिणामों में प्रवृत्त होना भाव प्रतिसेवना है ।
- अपराधों के अनुसार प्रायश्चित्त विधान
- आलोचन
रा.वा./९/२२/१०/६२१/३६विद्यायोगोपकरणग्रहणादिषु प्रश्नविनय-मन्तरेण प्रवृत्तिरेव दोष, इति तस्य प्रायश्चित्तमालोचनमात्रम् । = विद्या और ध्यान के साधनों के ग्रहण करने आदि में प्रश्न विनय के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त आलोचना मात्र है ।
भा.वा./टी./७८/२२३/१४ आचार्यमपृष्ट्वा आतापनादिकरणे पुस्तक-पिच्छादिपरोपकरणग्रहणे परपरोक्षे प्रमादतः आचार्यादिवचनाकरणे संघनामपृष्ट्वा स्वसंघगमने देशकालनियमेनावश्यकर्तव्यव्रतविशेषस्य धर्मकथादि व्यासंगेन विस्मरणे सति पुनः करणे अन्यत्रापि चैवंविधे आलोचनमेव प्रायश्चित्तम् । = आचार्य के बिना पूछे आतापनादि करना, दूसरे साधु की अनुपस्थिति में उसकी पीछी आदि उपकरणों का ग्रहण करना, प्रमाद से आचार्यादि की आज्ञा का उल्लंघन करना, आचार्य से बिना पूछे संघ में प्रवेश करना, धर्म कथादि के प्रसंग से देश काल नियत आवश्यक कर्त्तव्य व व्रत विशेषों का विस्मरण होने पर उन्हें पुनः करना, तथा अन्य भी इसी प्रकार के दोषों का प्रायश्चित्त आलोचना मात्र है । (अन.ध./७/५३ भाषा) ।
- प्रतिक्रमण
रा.वा./९/२२/१०/६२१/३७ देशकालनियमेनावश्यं कर्तव्यमित्यास्थितानां योगानां धर्मकथादिव्याक्षेपहेतुसन्निधानेन विस्मरणे सति पुनरनुष्ठाने प्रतिक्रमणं तस्य प्रायश्चित्तम् । = देश और काल के नियम से अवश्य कर्तव्य विधानों को धर्म कथादि के कारण भूल जाने पर पुनः करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है ।
ध. १३/५,४,२६/६०/९ एदं (पडिक्कमणं पायच्छित्तं) कत्थ होदि । अप्पावराहे गुरुहि विणा वट्टमाणम्हि होदि । = जब अपराध छोटा सा हो, गुरु पास न हों तब यह प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है ।
भा.पा./टी./७८/२२३/१८ षडिन्द्रियवागादिदुष्परिणामे, आचार्यादिषु हस्तपादादिसंघट्टने, व्रतसमितिगुप्तिषु, स्वल्पातिचारे, पैशुन्यकलहादिकरणे, वैयावृत्यस्वाध्यायादिप्रमादे, गोचरगतस्य लिंगोत्थाने, अन्यसंक्लेशकरणादौ च प्रतिक्रमणप्रायश्चित्तं भवति । दिवसान्ते रात्र्यन्ते भोजनगमनादौ च प्रतिक्रमणंप्रायश्चित्तं । = छहों इन्द्रिय तथा वचनादि का दुष्प्रयोग, आचार्यादि के अपना हाथ-पाँव आदि का टकरा जाना, व्रत, समिति गुप्ति में छोटे-छोटे दोष लगा जाना, पैशुन्य तथा कलह आदि करना, वैयावृत्त्य तथा स्वाध्यायादि में प्रमाद करना, गोचरी को जाते हुए लिंगोत्थान हो जाना, अन्य के साथ संक्लेश करने वाली क्रियाओं के होने पर प्रतिक्रमण करना चाहिए । यह प्रायश्चित्त सायंकाल, और प्रातःकाल तथा भोजनादि के जाने के समय होता है । (अन.ध./७/५३ भाषा) ।
- तदुभय
ध. १३/५,४,२६/६०/११ उभयं णाम पायच्छित्तं । एदं कत्थ होदि ? दुस्सुमिणदंसणादिसु । = दुःस्वप्न देखने आदि के अवसरों पर तदुभय प्रायश्चित्त होता है । (चा.सा./१४१/६) ।
भा.पा./टी./७७/२२४/१ लोचनखच्छेदस्वप्नेन्द्रियातिचाररात्रिभोजनेषु पक्षमाससंवत्सरादिदोषादौ च उभयं आलोचनप्रतिक्रमणप्रायश्चित्त । = केश लोंच, नख का छेद, स्वप्नदोष, इन्द्रियों का अतिचार, रात्रि भोजन, तथा पक्ष, मास व संवत्सरादि के दोषों में तदुभय प्रायश्चित्त होता है । (अन.ध./७/५३ भाषा ) ।
- विवेक
रा.वा./९/२२/१०/६२२/२ शक्तयनिगूहनेन प्रयत्नेन परिहरतः कुतश्चित्कारणादप्रासुकग्रहणग्राहणयो: प्रासुकस्यापि प्रत्याख्यातस्य विस्मरणात् प्रतिग्रहे च स्मृत्वा पुनस्तदुत्सर्जनं प्रायश्चित्तम् । = शक्ति को न छिपा कर प्रयत्न से परिहार करते हुए भी किसी कारणवश अप्रासुक के स्वयं ग्रहण करने या ग्रहण कराने में छोड़े हुए प्रासुक का विस्मरण हो जाये और ग्रहण करने पर उसका स्मरण आ जाये तो उसका पुनः उत्सर्ग करना ( ही विवेक) प्रायश्चित्त है । (चा.सा./१४२/२) ।
ध. १३/५,४,२६/६०/१२ एदं (विवेगो णाम पायच्छित्तं) कत्थ होदि । जम्हि संते अणियत्तदोसो सो तम्हि होदि । = जिस दोष के होने पर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, उस दोष के होने पर यह विवेक नाम का प्रायश्चित्त होता है ।
- व्युत्सर्ग
रा.वा./९/२२/१०/६२२/४ दुस्वप्नदुश्चिन्तनमलोत्सर्जनमूत्रातिचारमहानदीमहाटवीतरणादिषु व्युत्सर्गप्रायश्चित्तम् । = दुस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्र का अतिचार, महानदी और महाअटवी के पार करने आदि में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । (चा.सा./१४२/३) ।
ध. १३/५,४,२६/६१/३ विउस्सग्गो णाम पायच्छित्तं । ... सो कस्स होदि । कयावराहस्स माणेण दिट्ठणवट्ठस्स वज्जसंघडणस्स सीदवादादवसहस्स ओघसूरस्स साहूस्स होदि । = यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त जिसने अपराध किया है, किन्तु जो अनपे विमल ज्ञान से नौ पदार्थों के स्वरूप को समझता है, वज्र संहननवाला है; शीत-वात और आतप को सहन करने में समर्थ है, तथा सामान्य रूपसे शूर है, ऐसे साधु के होता है ।
भा.पा./टी./७८/२२४/३ मौनादिना लोचकरणे, उदरकृमिनिर्गमे. हिममशकादिमहावातादिसघर्षातिचारे, स्निग्धभूहरिततृणपंकोपरिगमने, जानुमात्रजलप्रवेशकरणे, अन्यनिमित्तवस्तुस्वोपयोगकरणे, नावादिनदीतरणे, पुस्तकप्रतिमापातने, पंचस्थावरविघाते, अदृष्टदेशतनुमलविसर्गादौ, पक्षादिप्रतिक्रमणक्रियायां, अन्तर्व्याख्यानप्रवृत्यन्तादिषु कायोत्सर्ग एव प्रायश्चित्तम् । उच्चारप्रस्रवणादौ च कायोत्सर्गः प्रसिद्ध एव । = मौनादिधारण किये बिना ही लौंच करने पर ; उदर में से कृमि निकलने पर; हिम, दंश-मशक यद्वा महावातादि के संघर्ष से अतिचार लगने पर; स्निग्ध भूमि, हरित तृण, यद्वा कर्दम आदि के ऊपर चलने पर, घोटुओं तक जल में प्रवेश कर जाने पर; अन्य निमित्तक वस्तुको उपयोग में ले जाने पर; नाव के द्वारा नदी पार होने पर; पुस्तक या प्रतिमा आदि के गिरा देने पर; पंचस्थावरों का विघात करने पर; बिना देखे स्थान पर शारीरिक मल छोड़ने पर, पक्ष से लेकर प्रतिक्रमण पर्यन्त व्याख्यान प्रवृत्त्यन्तादिकों में केवल कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है । और थूकने और पेशाब आदि के करने पर कायोत्सर्ग करना प्रसिद्ध ही है । (अन.ध./७/५३ भाषा) ।
- तप
ध.१३/५,४,२६/६१/६ एदं (तवो पायच्छित्तं) कस्स होदि । तिव्विंदियस्स जोव्वणभरत्थस्स बलवंतस्स सत्तसहायस्स कयावराहस्स होदि । = जिसकी इन्द्रियाँ तीव्र हैं, जो जवान हैं, बलवान् हैं, और सशक्त हैं, ऐसे अपराधी साधु को दिया जाता है । (चा.सा./१४२/५) ।
- छेद
ध. १३/५,४,२६/६१/९ छेदो णाम पायच्छित्तं । एदं कस्स होदि । उववासादिखमस्स ओघबलस्स ओघसूरस्स गव्वियस्स कयावराहस्स साहुस्स होदि । = जिसने (बार-बार) अपराध किया है । (रा.वा./९/२२/०/६२२/५) । जो उपवास आदि करने में समर्थ हैं, सब प्रकार बलवान् है, सब प्रकार शूर और अभिमानी है, ऐसे साधु को दिया जाता है । चा.सा./१४३/१); (अन.ध./७/५४) ।
- मूल
भ.आ./मू./२९२/५०६ पिंडं उवधिं सेज्जामविसोधिय जो खु भुंजमाणो हु । मूलट्ठाणं पत्तो बालोत्तिय णो समणबालो ।२९२। = उद्गमादि दोषों से युक्त आहार, उपकरण, वसतिका इनका जो साधु ग्रहण करता है वह मूलस्थान को प्राप्त होता है । वह अज्ञानी है, केवल नग्न है, न यति है न गणधर ।
ध. १३/५,४,२६/६२/२ मूलं णाम पायच्छित्तं । एदं कस्स होदि । अवरिमिय अवराहस्स पासत्थोसण्ण-कुसीलसच्छंदादिउव्वट्टट्ठियस्स होदि । = अपरिमित अपराध करने करनेवाला जो साधु (रा.वा./९/२२/१०/६२२/५) । पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, और स्वच्छन्द आदि होकर कुमार्ग में स्थित है, उसे दिया जाता है । (चा.सा./१४२/३); (अन.ध./७/५५); (आचारसार/पृ.६३) ।
- अनवस्थाप्य परिहार
चा.सा./१४४/४ प्रमादादन्यमुनिसंबन्धिनमृषिं छात्रं गृहस्थं वा परपाखण्डिप्रतिबद्धचेतनाचेतनद्रव्यं वा परस्त्रियं वा स्तेनयतां मुनीन् प्रहरतो वाऽन्यदप्येवमादिविरुद्धाचरितमाचरतो नवदशपूर्वधरस्यापि त्रिकसंहननस्य जितपरिषहस्य दृढधर्मिणो धीरस्य भवभीतस्य निजगुणानुपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । ... दर्पादनन्तरोक्तान्दोषानाचारतः परगणोपस्थापनं प्रायश्चित्तं भवति । =- प्रमाद से अन्य मुनि सम्बन्धी ऋषि, विद्यार्थी, गृहस्थ वा दूसरे पाखंडी के द्वारा रोके हुए चेतनात्मक वा अचेतनात्मक द्रव्य, अथवा परस्त्री आदि को चुरानेवाले, मुनियों को मारनेवाले, अथवा और भी ऐसे ही विरुद्ध आचरण करने वाले, परन्तु नौ वा दस पूर्वों के जानकार, पहले तीन संहनन को धारण करने वाले परीषहों को जीतनेवाले, धर्म में दृढ़ रहने वाले, धीर, वीर और संसार से डरने वाले मुनियों के निजगणानुपस्थापन नाम का प्रायश्चित्त होता है ।
- जो अभिमान से उपरोक्त दोषों को करते हैं, उनके परगणानुपस्थापना प्रायश्चित्त होता है । (आचार सार/पृ.६४); (अन.ध./७/५६ भाषा ) ।
देखें - आगे पारंचिक में ध ./१३ विरुद्ध आचरण करने वालों को दिया जाता है ।
- पारंचिक परिहार
भ.आ./मू./१६३७/१४८३ तित्थयरपवयणसुदे आइरिए गणहरे महढ्ढीए । एदे आसादंतो पावइ पारंचियं ठाणं ।१६३७। = तीर्थंकर, रत्नत्रय, आगम, आचार्य, गणधर, और महर्द्धिक मुनिराज इनकी आसादना करने वाला पारंचिक नामक प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है ।१६३७।
ध.१३/५,४,२६/६३/१ एदाणि दो वि पायच्छित्ताणि णरिंदविरुद्धाचरिदे आइरियाणं णव-दसपुव्वहरणं होदि । = ये दोनों (अनवस्थाप्य, तथा पारंचिक) दो प्रकार के प्रायश्चित्त राजा के विरुद्ध आचरण करने पर (रा.वा./९/२२/१०/६२२/५) नौ और दश पूर्वों को धारण करने वाले आचार्य करते हैं ।
चा.सा./१४६/३ तीर्थंकरगणधरगणिप्रवचनसंघाद्यासादनकारकस्य नरेन्द्रविरुद्धाचरितस्य राजानमभिमतामात्यादीनां दत्तदीक्षस्य नृपकुलवनितासेवितस्यैवमाद्यन्यैर्दोषैश्च धर्मदूषकस्य पारंचिकं प्रायश्चित्तं भवति । = जो मुनि, तीर्थंकर, गणधर, आचार्य और शास्त्र व संघ आदि की झूठी निन्दा करने वाले हैं, विरुद्ध आचरण करते हैं, जिन्होंने किसी राजा को अभिमत ऐसे मन्त्री आदि को दीक्षा दी है, जिन्होंने राजकुल की स्त्रियों का सेवन किया है, अथवा ऐसे अन्य दोषों के द्वारा धर्म में दोष लगाया है, ऐसे मुनियों के पारंचिक प्रायश्चित्त होता है । (आचारसार/पृ.६४). (अन. ध./७/५६ भाषा ) ।
- श्रद्धान या उपस्थापन
अन.ध./७/५७ गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यद्दीक्षाग्रहणं पुनः । तच्छद्धानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ।५७। = जो साधु सम्यग्दर्शन को छोड़कर मिथ्यात्व में (मिथ्यामार्ग में) प्रवेश कर गया है उसको पुनः दीक्षारूप यह प्रायश्चित्त दिया जाता है । इसका दूसरा नाम उपस्थापन है । कोई-कोई महाव्रतों का मूलोच्छेद होने पर पुनः दीक्षा देने को उपस्थापन कहते हैं ।
- आलोचन
- शूद्रादि छूने के अवसर योग्य प्रायश्चित्त
आराधनासार/२/७० कपाली, चाण्डाल, रजस्वला स्त्री को छूने पर सिर पर कमण्डल से पानी की धार डाले जो पैरों तक आ जाये । उपवास करे तथा महामन्त्र का जाप करे ।
- प्रायश्चित्त के कुछ योग कुछ अपराधोंका परिचय