बहिरात्मा
From जैनकोष
- स्वरूप व लक्षण
मो.पा./मू./८.९ बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ । णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठीओ ।८। णियदेहसरित्थं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण । अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभाएण ।९। = बाह्य धनादिक में स्फुरत् अर्थात् तत्पर है मन जिसका, वह इन्द्रियों के द्वारा अपने स्वरूप से च्युत है अर्थात् इन्द्रियों को ही आत्मा मानता हुआ अपनी देह को ही आत्मा निश्चय करता है, ऐसा मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है ।८। (स.श./७) (प.प्र./मू./१/१३) वह बहिरात्मा मिथ्यात्व भाव से जिस प्रकार अपने देह को आत्मा मानता है, उसी प्रकार पर का देह को देख अचेतन है फिर भी उसको आत्मा मानै है, और उसमें बड़ा यत्न करता है ।९।
नि.सा./मू./१४९-१५१ ... आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ।१४९। अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा ...।१५०। ... झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ।१५१। = षट् आवश्यक क्रियाओं से रहित श्रमण वह बहिरात्मा है । १४९। और जो अन्तर्बाह्य जल्प में वर्तता है, वह बहिरात्मा है ।१५०। अथवा ध्यान से रहित आत्मा बहिरात्मा है ऐसा जान ।१५१।
र.सा./१३५-१३७ अप्पाणाणज्झाणज्झयणसुहमियरसायणप्पाणं । मोत्तूणक्खाणसुहं जो भुंजइ सो हु बहिरप्पा ।१३५। देहकलत्तं पुत्तं मित्ताइ विहावचेदणारूवं । अप्पसरूवं भावइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ।१३७। = अपनी आत्मा के ज्ञान, ध्यान व अध्ययन रूप सुखामृत को छोड़कर इन्द्रियों के सुख को भोगता है, सो ही बहिरात्मा है ।१३५। देह, कलत्र, पुत्र व मित्रादिक जो चेतना के विभाविक रूप हैं, उनमें अपनापने की भावना करनेवाला बहिरात्मा होता है ।१३७।
यो.सा.यो./७ मिच्छा-दंसण-मोहियउ परु अप्पा ण मुणेइ । सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुण संसार भमेइ ।७। = जो मिथ्यादर्शन से मोहित जीव परमात्मा को नहीं समझता, उसे जिन भगवान् ने बहिरात्मा कहा है, वह जीव पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करता है ।७।
ज्ञानसार/३० मदमोहमानसहितः रागद्वेषैर्नित्यसंतप्तः । विषयेषु, तथा शुद्धः बहिरात्मा भण्यते सैषः ।३०। = जो मद, मोह व मान सहित है, राग-द्वेष से नित्य संतप्त रहता है, विषयों में अति आसक्त है, उसे बहिरात्मा कहते हैं ।३०।
का./अ./मू./१९३ मिच्छत्त- परिणदप्पा तिव्व- कसाएण सुट्ठु आविट्ठो । जीवं देहं एक्कं मण्णं तो होदि बहिरप्पा ।१९३। = जो जीव मिथ्यात्व कर्म के उदय रूप परिणत हो, तीव्र कषाय से अच्छी तरह आविष्ट हो, और जीव तथा देह को एक मानता हो, वह बहिरात्मा है ।१९३।
प्र.सा./ता.वृ./२३८/३२९/१२ मिथ्यात्वरागादिरूपा बहिरात्मावस्था । = मिथ्यात्व व राग-द्वेषादि कषायों से मलीन आत्मा की अवस्था को बहिरात्मा कहते हैं ।
द्र.सं./टी./१४/४६/८ स्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवास्तवसुखात्प्रतिपक्षभूतेनेन्द्रियसुखेनासक्तो बहिरात्मा, ... अथवा देहरहितनिजशुद्धात्मद्रव्यभावनालक्षणभेदज्ञानरहितत्वेन देहादिपरद्रव्येष्वेकत्वभावनापरिणतो बहिरात्मा, ... अथवा हेयोपादेयविचारकचित्तं निर्दोष परमात्मनो भिन्ना रागादयो दोषाः, शुद्धचैतन्यलक्षण आत्मा, इत्युक्तलक्षणेषु चित्तदोषात्मासु त्रिषु वीतरागसर्वज्ञप्रणीतेषु अन्येषु वा पदार्थेषु यस्य परस्परसापेक्षनयविभागेन श्रद्धानं ज्ञानं च नास्ति स बहिरात्मा । =- निज शुद्धात्मा के अनुभव से उत्पन्न यथार्थ सुख से विरुद्ध जो इन्द्रिय सुख उसमें आसक्त सो बहिरात्मा है ।
- अथवा देह रहित निज शुद्धात्म द्रव्य को भावना रूप भेदविज्ञान से रहित होने के कारण देहादि अन्य द्रव्यों में जो एकत्व भावना से परिणत है यानी - देह को ही आत्मा समझता है सो बहिरात्मा है ।
- अथवा हेयोपादेयका विचार करने वाला जो ‘चित्त’ तथा निर्दोष परमात्मा से भिन्न रागादि ‘दोष’ और शुद्ध चैतन्य लक्षण का धारक ‘आत्मा’ इन (चित्त, दोष व आत्मा) तीनों में अथवा सर्वज्ञ कथित अन्य पदार्थों में जिसके परस्पर सापेक्ष नयों द्वारा श्रद्धान और ज्ञान नहीं है वह बहिरात्मा है ।
- बहिरात्मा विशेष
का.अ./टी./१९३ उत्कृष्टा बहिरात्मा गुणस्थानादिमे स्थितः । द्वितीये मध्यमा, मिश्रे गुणस्थाने जघन्यका इति । = प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा है, दूसरे सासादन गुणस्थान में स्थित मध्यम बहिरात्मा है, और तीसरे गुणस्थान वाले जघन्य बहिरात्मा है ।