भोग
From जैनकोष
- भोग
- सामान्य भोग व उपभोग की अपेक्षा
र.क.श्रा/८३ भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य;। उपभोगोऽशनवसनप्रभृति: पञ्चेन्द्रियो विषय:। =भोजन-वस्त्रादि पंचेन्द्रिय सम्बन्धी विषय जो भोग करके पुनः भोगने में न आवें वे तो भोग हैं और भोग करके फिर भोगने योग्य हों तो उपभोग हैं। (ध.१३/५,५,१३७/३८९/१४)।
स.सि./२/४४/१९५/८ इन्द्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग:। =इन्द्रियरूपी नालियों के द्वारा शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं।
स.सि./७/२१/३६१/७उपभोगोऽशनपानगन्धमाल्यादिः। परिभोगआच्छादनप्रावरणालंकारशयनासनगृहयानवाहनादि:। = भोजन, पान, गन्ध, मालादि उपभोग कहलाते हैं। तथा ओढना-बिछाना, अलंकार, शयन, आसन, घर, यान और वाहन आदि परिभोग कहलाते हैं।
रा.वा./७/२१/९-१०/५४८/११ उपेत्यात्मसात्कृत्य भुज्यते अनुभूयत इत्युपभोगः। अशनपानगन्धमाल्यादि:।९। सकृद् भुक्त्वा परित्यज्य पुनरपि भुज्यते इति परिभोग इत्युच्यते।आच्छादनप्रावरणालंकार ... आदि:।१०। = उपभोग अर्थात् एक बार भोगे जानेवाले अशन, पान, गन्ध, माला आदि। परिभोग अर्थात् जो एक बार भोगे जाकर भी दुबारा भोगे जा सकें जैसे -वस्त्र अलंकार आदि। (चा.सा./२३/२)। - क्षायिक भोग व उपभोग की अपेक्षा
स.सि./२/४/१५४/७ कृत्स्नस्य भोगान्तरायस्य तिरोभावादाविर्भूतोऽतिशयवाननन्तो भोग: क्षायिक:। यत: कुसुमवृष्टय्यादयो विशेषाः प्रादुर्भवन्ति। निरवशेषस्योपभोगान्तरायस्य प्रलयात्प्रादुर्भूतोऽनन्त-उपभोगः क्षायिक:। यत: सिंहासनचामरच्छत्रत्रयादयो विभूतय:। = समस्त भोगान्तराय कर्म के क्षय से अतिशयवाले क्षायिक अनन्त भोगका प्रादुर्भाव होता है, जिससे कुसुमवृष्टि आदि आश्चर्य विशेष होते हैं। समस्त उपभोगान्तराय के नष्ट हो जाने से अनन्त क्षायिक उपभोग होता है, जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती हैं।(रा.वा./२/४/४-५/१०६/३)।
- सामान्य भोग व उपभोग की अपेक्षा
- क्षायिक भोग-उपभोग विषयक शंका-समाधान― देखें - दान / २ / ३ ।
- भोग व काम में अन्तर
आ./११३८ कामो रसो य फासो सेसा भोगेत्ति आहीया /११३८/=रस और स्पर्श तो काम हैं, और गन्ध, रूप, शब्द भोग हैं ऐसा कहा है। (स.सा./ता.वृ./४/११/१५)।
देखें - इन्द्रिय / ३ / ७ दो इन्द्रियों के विषय काम हैं तीन इन्द्रियों के विषय भोग हैं। - भोग वन उपभोग में अन्तर
रा.वा./८/१३/१/५८१/२ भोगोपभोगयोरविशेषः। कुत:। सुखानुभवननिमित्तत्वाभेदादिति; तन्न; किं कारणम्।...गन्धमाल्यशिर:स्नानवस्त्रान्नपानादिषुभोगव्यवहार:।१। शयनासनाङ्गनाहस्त्यश्वरथ्यादिषूपभोगव्यपदेशः। = प्रश्न–भोग और उपभोग दोनों सुखानुभव में निमित्त होने के कारण अभेद हैं।उत्तर–नहीं, क्योंकि एक बार भोगे जाने वाले गन्ध, माला, स्नान, वस्त्र और पान आदि में भोग व्यवहार तथा शय्या, आसन, स्त्री, हाथी, रथ, घोड़ा आदि में उपभोग व्यवहार होता है। - निश्चय व्यवहार भोक्ता-भोग्य भाव निर्देश
द्र.सं./मू./९ ववहारासुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि। आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स।९। = व्यवहार नय से आत्मा सुख-दुःखरूप पुद्गल कर्मों के फल का भोक्ता है और निश्चयनय से अपने चेतनभाव को भोगता है।९।
देखें - भोक्ता / १ निश्चयनय से कर्मों से सम्पादित सुख व दुःख परिणामों का भोक्ता है, व्यवहार से शुभाशुभ कर्मों से उपार्जित इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ता है।
- अभेद भोक्ता भोग्य भाव का मतार्थ
पं.का./ता.वृ./२७/६१/११ भोक्तत्वव्याख्यानं कर्त्ताकर्मफलं न भुक्तं इति बौद्धमतानुसारि शिष्यप्रतिबोधनार्थं। =कर्म के करने वाला स्वयं उसका फल नहीं भोगता है ऐसा माननेवाले बौद्ध मतानुयायी शिष्य के प्रतिबोधनार्थ जीव के भोगतापने का व्याख्यान किया है। - भेदाभेद भोक्ता-भोग्य भाव का समन्वय
पं.का./त.प्र./६८ यथात्रोभयनयाभ्यां कर्मकर्तृ, तथैकेनापि नयेन न भोक्तृ। कुत:। चैतन्यपूर्वकानुभूतिसद्भावाभावात्। ततश्चेतनत्वात् केवल एव जीव: कर्मफलभूतानां कथं चिदात्मनः सुखदुखःपरिणामानां कथंचिदिष्टानिष्टविषयाणां भोक्ता प्रसिद्ध इति। = जिस प्रकार यहाँ दोनों नयों से कर्म कर्ता है, उसी प्रकार एक भी नय से वह भोक्ता नहीं है।किसलिए–क्योंकि उसे चैतन्यपूर्वक अनुभूतिका सद्भाव नहीं है। इसलिए चेतनपने के कारण मात्र जीव ही कर्मफल का-कथंचित् आत्मा के सुख-दुःख परिणामों का और कथंचित् इष्टानिष्ट विषयों का भोक्ता प्रसिद्ध है। - लौकिक व अलौकिक दोनों भोग एकान्त में होते हैं
नि.सा./मू./१५७ लद्धूणंणिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्तें। तह णाणी णाणणिहिं भंजेइ चइत्तु परत्तिं।१५७। =जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य) निधि को पाकर अपने वतन में (गुप्तरूप से) रहकर उसके फल को भोगता है, उसी प्रकार ज्ञानी परजनों के समूह को छोड़कर ज्ञाननिधि को भोगता है।
नि.सा./ता.वृ./१५७/२६८ अस्मिन् लोके लौकिक: कश्चिदेको लब्ध्वा पुण्यात्काञ्चनानां समूहम्। गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्तसङ्गो, ज्ञानी तद्वत् ज्ञानरक्षां करोति।२६८। = इस लोक में कोई एक लौकिक जन पुण्य के कारण धन के समूह को पाकर, संगको छोड़ गुप्त होकर रहता है, उसी की भाँति ज्ञानी (परके संग को छोड़कर गुप्त रूप से रहकर) ज्ञान की रक्षा करता है।२६८।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- जीव पर पदार्थों का (कर्त्ता) भोक्ता कब कहलाता है।– देखें - चेतना / ३ ।
- सम्यग्दृष्टि के भोग सम्बन्धी– देखें - राग / ६ ।
- लौकिक भोगों का तिरस्कार–देखें - सुख।
- ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में भोगों की हीनता–देखें - देव ./II/२।
- चक्रवर्ती के दशांग भोग– देखें - शलाका पुरुष / २ ।
- जीव पर पदार्थों का (कर्त्ता) भोक्ता कब कहलाता है।– देखें - चेतना / ३ ।