मधु
From जैनकोष
- मधु की अभक्ष्यता का निर्देश―( देखें - भक्ष्याभक्ष्य / २ )।
- मधु-निषेध का कारण
देखें - मांस / २ नवनीत, मद्य, मांस व मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं।
पु.सि.उ./६९-७० मधुशकलमपि प्रायो मधुरकरहिंसात्मको भवति लोके। भजति मधुमूढधीको य: स भवति हिंसकोऽत्यन्तकम्।६९। स्वयमेव विगलितं यो गृह्णोयाद्वा छलेन मधुगोलात्। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात्।७०। = मधु की बूँद भी मधुमक्खी की हिंसारूप ही होती है, अत: जो मन्दमति मधु का सेवन करता है, वह अत्यन्त हिंसक है।६९। स्वयमेव चूए हुए अथवा छल द्वारा मधु के छत्ते से लिये हुए मधु का ग्रहण करने से भी हिंसा होती है, क्योंकि इस प्रकार उसके आश्रित रहने वाले अनेकों क्षुद्रजीवों का घात होता है।
यो.सा./अ/८/३२ बहुजीवप्रघातोत्थं बहुजीवोद्भवास्पदम्। असंयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि वर्ज्यते।६२। = संयम की रक्षा करने वालों को बहुत जीवों के घात से उत्पन्न तथा बहुत जीवों की उत्पत्ति के स्थानभूत मधु को मन वचन काय से छोड़ देना चाहिए।
अ.ग.श्रा./५/३२ योऽत्ति नाम भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुःखमुल्वणम्। किं न नाशयति जीवितेच्छया, भक्षितं झटिति जीवितं विषम्।३२। = जो औषध की इच्छा से भी मधु खाता है, सो भी तीव्र दुःख को शीघ्र प्राप्त होता है, क्योंकि, जीने की इच्छा से खाया हुआ विष, क्या शीघ्र ही जीवन का नाश नहीं कर देता है।
सा.ध./२/११ मधुकृद्व्रातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिन्दुश:। खादन् बध्नात्यघं सप्तग्रामदाहांहसोऽधिकम्।३२। = मधु को उपार्जन करने वाले प्राणियों के समूह के नाश से उत्पन्न होने वाली तथा अपवित्र, ऐसी मधु की एक बूँद भी खानेवाला पुरुष सात ग्रामों को जलाने से भी अधिक पाप को बाँधता है।
ला.सं./२/७२-७४ माक्षिकं मक्षिकानां हि मांसासृक् पीडनोद्भवम्। प्रसिद्धं सर्वलोके स्यादागमेष्वपि सूचितम्।७२ न्यायात्तद्भक्षणे नूनं पिशिताशनदूषणम्। त्रसास्ता मक्षिका यस्मादामिषं तत्कलेवरम्।७३। किञ्च तत्र निकोतादि जीवा: संसर्गजा क्षणात्। संमूर्च्छिमा न मुञ्चन्ति तत्सनं जातु क्रव्यवत्।७४। = मधु की उत्पत्ति मक्खियों के मांस रक्त आदि के निचोड़ से होती है, यह बात समस्त संसार में प्रसिद्ध है, तथा शात्रों में भी यही बात बतलायी है।७२। इस प्रकार न्याय से भी यह बात सिद्ध हो जाती है कि मधु के खाने में मांस-भक्षण का दोष आता है, क्योंकि मक्खियाँ त्रस जीव होने से उनका कलेवर मांस कहलाता है।७३। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जिस प्रकार मांस में सूक्ष्म निगोदराशि उत्पन्न होती रहती है, उसी प्रकार जिस किसी भी अवस्था में रहते हुए भी मधु में सदा जीव उत्पन्न होते रहते हैं। उन जीवों से रहित मधु कभी नहीं होता है।७४। - मधुत्याग के अतिचार
सा.ध./३/१३ प्राय: पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुव्रतविशुद्धये। वस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोगं नार्हति व्रती।१३। = मधुत्याग व्रती के लिए फूलों का खाना तथा वस्तिकर्म आदि (पिण्डदान या औषधि आदि) के लिए भी मधु को खाना वर्जित है। ‘प्राय:’ शब्द से, अच्छी तरह से शोधे जाने योग्य महुआ व नागकेसर आदि के फूलों का अत्यन्त निषेध नहीं किया गया है। (यह अर्थ पं. आशाधर जी ने स्वयं लिखा है )।
ला.सं./२/७७ प्राग्वदत्राप्यतीचारा: सन्ति केचिज्जिनागमात्। यथा पुष्परस: पीत: पुष्पाणामासवो यथा।७७। = मद्य व मांसवत् मधु के अतिचारों का भी शात्रों में कथन किया गया है। जैसे -फूलों का रस या उनसे बना हुआ आसव आदि का पीना। गुलकन्द का खाना भी इसी दोष में गर्भित है। - मधु नामक पौराणिक पुरुष
- म.पु./५९/८८ पूर्वभव में वर्तमान नारायण का धन जुए में जीता था। और वर्तमान भव में तृतीय प्रतिनारायण हुआ। अपर नाम ‘मेरक’ था।–विशेष देखें - शलका पुरुष / ५ ।
- प.पु./सर्ग/श्लोक।–मथुरा के राजा हरिवाहन का पुत्र था। (१२/३)। रावण की पुत्री कृतिचित्रा का पति था। (१२/१८)। रामचन्द्रजी के छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ युद्ध करते समय प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। (८९/९६)। हाथी पर बैठे-बैठे दीक्षा धारण कर ली। (८९/१११)। तदनन्तर समाधिमरण-पूर्वक सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ। (८९/११५)।
- ह.पु./४३/श्लोक–अयोध्या नगरी में हेमनाभ का पुत्र तथा कैटभ का बड़ा भाई था।१५९। राज्य प्राप्त करके। (१६०)। राजा वीरसेन की त्री चन्द्राभा पर मोहित हो गया। (१६५)। बहाना कर दोनों को अपने घर बुलाया तथा चन्द्राभा को रोककर वीरसेन को लौटा दिया। (१७१-१७६)। एक बार एक व्यक्ति को परत्रीगमन के अपराध में राजा मधु ने हाथ-पाँव काटने का दण्ड दिया। इस चन्द्रभा ने उसे उसका अपराध याद दिलाया। जिससे उसे वैराग्य आ गया और विमलवाहन मुनि के संघ में भाई कैटभ आदि के साथ दीक्षित हो गया। चन्द्राभा ने भी आर्यिका की दीक्षा ली। (१८०-२०२)। शरीर छोड़ आरण अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ। (२१६)। यह प्रद्युम्न कुमार का पूर्व का दूसरा भव है।–देखें - प्रद्मुम्न।