माघनंदि
From जैनकोष
- मूलसंघ की पट्टावली के अनुसार आप आ. अर्हद्बलि के शिष्य होते हुए भी उनके तथा धरसेन से स्वामी के समकालीन थे। पूर्वधर तथा अत्यन्त ज्ञानी होते हुए भी आप बड़े तपस्वी थे। इसकी परीक्षा के लिये प्राप्त गुरु अर्हद्वली के आदेश के अनुसार एक बार आपने नन्दिवृक्ष (जो छायाहीन होता है) के नीचे वर्षायोग धारण किया था। इसी से इनको तथा इनके संघ को नन्दि की संज्ञा प्राप्त हो गयी थी। नन्दिसंघ की पट्टावली में आपका नाम क्योंकि भद्रबाहु तथा गुप्तिगुप्त (अर्हद्बलि) को नमस्कार करने के पश्चात् सबसे पहले आता है और वहाँ क्योंकि आपका पट्टकाल वी.नि. ५७५ से प्रारम्भ किया गया है, इसलिये अनुमान होता है कि उक्त घटना इसी काल में घटी थी और उसी समय आ. अर्हद्बलि के द्वारा स्थापित इस संघ का आद्य पट आपको प्राप्त हुआ था। यद्यपि नन्दिसंघ की पट्टावली में आपकी उत्तरावधि केवल ४ वर्ष पश्चात् वी.नि. ५७९ बताई गई, तदपि क्योंकि मूलसंघ की पट्टावली के अनुसार यह ६१४ है इसलिये आपका काल वी.नि. ५७५ से ६१४ सिद्ध होता है। (विशेष देखें - कोष / १/परिशिष्ट २/९)।
- नन्दिसंघ के देशीयगण की गुर्वावली के अनुसार आप कुलचन्द्र के शिष्य तथा माघनन्दि त्रैविद्यदेव तथा देवकीर्ति के गुरु थे। ‘कोल्लापुरीय’ आपकी उपाधि थी। समय–वि. श. १०३०-१०५८ (ई. ११०८-११३६)–( देखें - इतिहास / ७ / ५ )।
- शात्रसार समुच्चय के कर्ता। माघनन्दि नं. ४ (वि. १३१७) के दादा गुरु। समय–ई. श. १२ का अन्त। (जै. /२/३८५)। ४
- माघनन्दि नं. ३ के प्रशिष्य और कुमुद चन्द्र के शिष्य। कृति–शात्रसार समुच्चय की कन्नड़ टीका। समय–वि. १३१७ (ई. १२६०)। (जै. /२/३६६)।
- माघनन्दि कोल्हापुरीय के शिष्य (ई. ११३३)। ( देखें - इतिहास / ७ / ५ )।