माया
From जैनकोष
- सामान्य स्वरूप
स.सि./६/१६/३३४/२ आत्मनः कुटिलभावो माया निकृतिः। = आत्मा का कुटिल भाव माया है। इसका दूसरा नाम निकृति (या वंचना) है। (स.सि./७/१८/३५६/८); (रा.वा./६/१६/१/५२६/६;७/१८/२/५४५/१४); (ध.१/१,१,१११/३४९/७); (ध.१,९-१,२३/४१/४)।
रा.वा./८/९/५/५७/३१ परातिसंधानतयोपहितकौटिल्यप्राय: प्रणिधिर्माया प्रत्यासन्नवंशपर्वोपचितमूलमेषशृंग-गोमूत्रिकाऽवलेखनीसदृशी चतुर्विधा। = दूसरे को ठगने के लिए जो कुटिलता या छल आदि किये जाते हैं वह माया है। यह बाँस की गँठीली जड़, मेढे का सींग, गाय के मूत्र की वक्र रेखा और लेखनी के समान चार प्रकार की है। (और भी देखें - कषाय / ३ )।
ध.१२/४,२,८,८/२८३/७ स्वहृदयप्रच्छादार्थमनुष्ठानं माया। = अपने हृदय के विचार को छुपाने की जो चेष्टा की जाती है उसे माया कहते हैं।
नि.सा./ता.वृ./११२ गुप्तापापतो माया। = गुप्त पाप से माया होती है।
द्र.सं./टी./४२/१८३/६ रागात् परकलत्रादिवाञ्छारूपं, द्वेषात् परवधबन्धच्छेदादिवाञ्छारूपं च मदीयापध्यानं कोऽपि न जानातीति मत्वा स्वशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसनिर्मलजलेन चित्तशुद्धिमकुर्वाण: सन्नयं जीवो बहिरङ्गबकवेशेन यल्लोकरञ्जनां करोति तन्मायाशल्यं भण्यते। = राग के उदय से परत्री आदि में वाञ्छारूप और द्वेष से अन्य जीवों के मारने, बाँधने अथवा छेदनेरूप जो मेरा दुर्ध्यान बुरा परिणाम है, उसको कोई भी नहीं जानता है, ऐसा मानकर निज शुद्धात्म भावना से उत्पन्न, निरन्तर आनन्दरूप एक लक्षण का धारक जो सुख-अमृतरसरूपी निर्मल जल से अपने चित्त की शुद्धि को न करता हुआ, यह जीव बाहर में बगुले जैसे वेष को धारणकर जो लोकों को प्रसन्न करता है वह मायाशल्य कहलाती है।
- माया के भेद व उनके लक्षण
भ.आ./वि./२५/९०/३ माया पञ्चविकल्पा–निकृतिः, उपाधिः, सातिप्रयोगः, प्रणिधिः, प्रतिकुञ्चनमिति। अतिसंधानकुशलता धने कार्ये वा कृताभिलाषस्य वञ्चना निकृतिः उच्यते। सद्भावं प्रच्छाद्य धर्मव्याजेन स्तैन्यादिदोषे प्रवृत्तिरुपधिसंज्ञिता माया। अर्थेषु विसंवाद: स्वहस्तनिक्षिप्तद्रव्यापहरणं, दूषणं, प्रशंसा, वा सातिप्रयोग:। प्रतिरूपद्रव्यमानकरणानि, ऊनातिरिक्तमानं, संयोजनया द्रव्यविनाशनमिति प्रणिधिमाया। आलोचनं कुर्वतो दोषविनिगूहनं प्रतिकुञ्चनमाया। = माया के पाँच प्रकार हैं–निकृति, उपधि, सातिप्रयोग, प्रणिधि और प्रतिकुंचन। धन के विषय में अथवा किसी कार्य के विषय में जिसको अभिलाषा उत्पन्न हुई है, ऐसे मनुष्य का जो फँसाने का चातुर्य उसको, निकृति कहते हैं। अच्छे परिणाम को ढँककर धर्म के निमित्त से चोरी आदि दोषों में प्रवृत्ति करना उपधि संज्ञक माया है। धन के विषय में असत्य बोलना, किसी की धरोहर का कुछ भाग हरण कर लेना, दूषण लगाना अथवा प्रशंसा करना सातिप्रयोग माया है। हीनाधिक कीमत की सदृश वस्तुएँ आपस में मिलाना, तोल और माप के सेर, पसेरी वगैरह साधन पदार्थ का–ज्यादा रखकर लेन-देन करना, सच्चे और झूठे पदार्थ आपस में मिलाना, यह सब प्रणिधि माया है। आलोचना करते समय अपने दोष छिपाना यह प्रतिकुंचन माया है।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- माया कषाय सम्बन्धित विषय।–देखें - कषाय।
- आहार का एक दोष।– देखें - आहार / II / ४ / ४ ।
- वसतिका का एक दोष।–देखें - वसतिका।
- जीव को मायी कहने की विवक्षा।– देखें - जीव / १ / ३ ।
- माया की अनिष्टता।– देखें - आयु / ३ / ५ ।