व्यंतर लोक निर्देश
From जैनकोष
- व्यंतर लोक निर्देश
- व्यंतर लोक सामान्य परिचय
ति.प./६/५ रज्जुकदी गुणिदव्वा णवणउदिसहस्स अधियलक्खेणं। तम्मज्झे तिवियप्पा वेंतरदेवाण होंति पुरा।५। = राजु के वर्ग को १९९००० से गुणा करने पर जो प्राप्त हो उसके मध्य में तीन प्रकार के पुर होते हैं।५।
त्रि.सा./२९५ चित्तवइरादु जावय मेरुदयं तिरिय लोयवित्थारं। भोम्मा हवंति भवणे भवणपुरावासगे जोग्गे।२९६। = चित्रा और वज्रा पृथिवी की मध्यसंधि से लगाकर मेरु पर्वत की ऊँचाई तक, तथा तिर्यक् लोक के विस्तार प्रमाण लम्बे चौड़े क्षेत्र में व्यंतर देव भवन भवनपुर और आवासों में वास करते हैं।२९६।
का.अ./मू./१४५ खरभाय पंकभाए भावणदेवाण होंति भवणाणि। विंतरदेवाण तहा दुण्हं पि य तिरियलोयम्मि।१४५। = खरभाग और पंकभाग में भवनवासी देवों के भवन हैं और व्यंतरों के भी निवास हैं। तथा इन दोनों के तिर्यकलोक में भी निवास स्थान हैं।१४५। (पंकभाग = ८४००० यो. ; खरभाग = १६००० यो. ; मेरु की पृथिवी पर ऊँचाई = ९९००० यो.। तीनों का योग = १९९००० यो.। तिर्यक् लोक का विस्तार १ राजु२। कुल घनक्षेत्र = १ राजु२ x१९९००० यो.)।
- निवासस्थानों के भेद व लक्षण
ति.प./६/६-७ भवणं भवणपुराणिं आवासा इय भवंति तिवियप्पा। ...।६। रंयणप्पहपुढवीए भवणाणिं दीउवहिउवरिम्मि। भवणपुराणिं दहगिरि पहुदीणं उवरि आवासा।७। = (व्यंतरों के) भवन, भवनपुर व आवास तीन प्रकार के निवास कहे गये हैं।६। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में अर्थात् खर व पंक भाग में भवन, द्वीप व समुद्रों के ऊपर भवनपुर तथा द्रह एवं पर्वतादि के ऊपर आवास होते हैं।(त्रि.सा./२९४-२९५)।
म.पु./३१/११३ वटस्थानवटस्थांश्च कूटस्थान् कोटरोटजान् । अक्षपाटान् क्षपाटांश्च विद्धि नः सार्व सर्वगान्।११३। = हे सार्व (भरतेश) ! वट के वृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ों के शिखरों पर, वृक्षों की खोलों और पत्तों की झोपड़ियों में रहनेवाले तथा दिन रात भ्रमण करने वाले हम लोगों को आप सब जगह जाने वाले समझिए।
- व्यंतरों के भवनों व नगरों आदि की संख्या
ति.प./६/गा. एवंविहरुवाणिं तींस सहस्साणि भवणाणिं।२०। चोद्दससहस्समेत्ता भवणा भूदाण रक्खसाणं पि। सोलससहस्ससंखा सेसाणं णत्थि भवणाणिं।२६। जोयणसदत्तियकदीभजिदे पदरस्स संखभागम्मि । जं लद्धं तं माणं वेंतरलोए जिणपुराणं। =- इस प्रकार के रूपवाले ये प्रासाद तीस हजार प्रमाण हैं।२०। तहाँ (खरभाग में) भूतों के १४००० प्रमाण और (पंकभाग में) राक्षसों के १६००० प्रमाण भवन हैं।२६। (ह.पु./४/६२); (त्रि.सा./२९०)= (जं.प. /११/१३६)।
- जगत्प्रतर के संख्यातभाग में ३०० योजन के वर्ग का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तरलोक में जिनपुरों का प्रमाण है।१०२।
- भवनों व नगरों आदि का स्वरूप
ति.प./६/गा. का भावार्थ।- भवनों के बहुमध्य भाग में चार वन और तोरण द्वारों सहित कूट होते हैं।११। जिनके ऊपर जिनमन्दिर स्थित हैं।१२। इन कूटों के चारों ओर सात आठ मंजिले प्रासाद होते हैं।१८। इन प्रासादों का सम्पूर्ण वर्णन भवनवासी देवों के भवनों के समान है।२०। (विशेष देखें - भवन / ४ / ५ ); त्रि.सा./२९९)।
- आठों व्यंतरदेवों के नगर क्रम से अंजनक वज्रधातुक, सुवर्ण, मनःशिलक, वज्र, रजत, हिंगुलक और हरिताल इन आठ द्वीपों में स्थित हैं।६०। द्वीप की पूर्वादि दिशाओं में पाँच पाँच नगर होते हैं, जो उन देवों के नामों से अंकित हैं। जैसे किन्नरप्रभ, किन्नरक्रान्त, किन्नरावर्त, किन्नरमध्य।६१। जम्बूद्वीप के समान इन द्वीपों में दक्षिण इन्द्र दक्षिण भाग में और उत्तर इन्द्र उत्तर भाग में निवास करते हैं।६२। सम चौकोण रूप से स्थित उन पुरों के सुवर्णमय कोट विजय देव के नगर के कोट के (देखें - अगला सन्दर्भ ) चतुर्थ भागप्रमाण है।६३। उन नगरों के बाहर पूर्वादि चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक तथा आम्रवृक्षों के वन हैं।६४। वे वन १,००,००० योजन लम्बे और ५०,००० योजन चौड़े हैं।६५। उन नगरों में दिव्य प्रसाद हैं।६६। (प्रासादों का वर्णन ऊपर भवन व भवनपुर के वर्णन में किया है।) (त्रि. सा./२८३-२८९)।
ह.पु./५/श्लोक का भावार्थ – विजयदेव का उपरोक्त नगर १२ योजन चौड़ा है। चारों ओर चार तोरण द्वार हैं। एक कोट से वेष्टित है।३९७-३९९। इस कोट की प्रत्येक दिशा में २५-२५ गोपुर हैं।४००। जिनकी १७-१७ मंजिल हैं।४०२। उनके मध्य देवों की उत्पत्तिका स्थान है जिसके चारों ओर एक वेदिका है।४०३-४०४। नगर के मध्य गोपुर के समान एक विशाल भवन है।४०५। उसकी चारों दिशाओं में अन्य भी अनेक भवन हैं।४०६। (इस पहले मण्डल की भाँति इसके चारों तरफ एक के पश्चात् एक अन्य भी पाँच मण्डल हैं)। सभी में प्रथम मंडल की भाँति ही भवनों की रचना है। पहले, तीसरे व पाँचवें मण्डलों के भवनों का विस्तार उत्तरोत्तर आधा-आधा है। दूसरे, चौथे व छठे मण्डलों के भवनों का विस्तार क्रमश: पहले, तीसरे, व पाँचवें के समान है।४०७-४०९। बीच के भवन में विजयदेव का सिंहासन है।४११। जिसकी दिशाओं और विदिशाओं में उसके सामानिक आदि देवों के सिंहासन हैं।४१२-४१५। भवन के उत्तर में सुधर्मा सभा है।४१७। उस सभा के उत्तर में एक जिनालय है, पश्चिमोत्तर में उपपार्श्व सभा है। इन दोनों का विस्तार सुधर्मा सभा के समान है। ४१८-४१९। विजयदेव के नगर में सब मिलकर ५४६७ भवन हैं।४२०।
ति.प./४/२४५-२४५२ का भावार्थ – लवण समुद्र की अभ्यन्तर वेदी के ऊपर तथा उसके बहुमध्य भाग में ७०० योजन ऊपर जाकर आकाश में क्रम से ४२००० व २८००० नगरियाँ हैं।
- मध्य लोक में व्यन्तरों व भवनवासियों के निवास
ति.प./४/गा.नं.
- व्यंतर लोक सामान्य परिचय
ति.प./४/गा. |
स्थान |
देव |
भवनादि |
२५ |
जम्बूद्वीप की जगती का अभ्यंतर भाग |
महोरग |
भवन |
७७ |
उपरोक्त जगती का विजय द्वार के ऊपर आकाश में |
विजय |
नगर |
८६ |
उपरोक्त ही अन्य द्वारों पर |
अन्य देव |
नगर |
१४० |
विजयार्ध के दोनों पार्श्व |
आभियोग्य |
श्रेणी |
१४३ |
उपरोक्त श्रेणी का दक्षिणोत्तर भाग |
सौधर्मेन्द के वाहन |
श्रेणी |
१६४ |
विजयार्ध के ८ कूट |
व्यंतर |
भवन |
२७५ |
वृषभगिरि के ऊपर |
वृषभ |
भवन |
१६५४ |
हिमवान् पर्वत के १० कूट |
सौधर्मेन्द्र के परिवार |
नगर |
१६६३ |
पद्म ह्रद के कूट |
व्यंतर |
नगर |
१३६५ |
पद्म ह्रद के जल में स्थित कूट |
व्यंतर |
नगर |
१६७२-१६८८ |
पद्म द्रह के कमल |
सपरिवार श्री देवी |
भवन |
१७१२ |
हैमवत क्षेत्र का शब्दवान् पर्वत |
शाली |
भवन |
१७२६ |
महाहिमवान् पर्वत के ७ कूट |
कूटों के नाम वाले |
नगर |
१७३३ |
महापद्म द्रह के बाह्य ५ कूट |
व्यंतर |
नगर |
१७४५ |
हरि क्षेत्र में विजयवान् नाभिगिरि |
चारण |
भवन |
१७६० |
निषध पर्वत के आठ कूट |
कूटों के नामवाले |
नगर |
१७६८ |
निषध पर्वत के तिगिंछ ह्रद के बाह्य ५ कूट |
व्यंतर |
नगर |
१८३६-१८३९ |
सुमेरु पर्वत का पाण्डुक वन की पूर्व दिशा में |
लोकपाल सोम |
भवन |
१८४३ |
उपरोक्त वन की दक्षिण दिशा |
यम |
भवन |
१८४७ |
उपरोक्त वन की पश्चिम दिशा |
वरुण |
भवन |
१८५१ |
उपरोक्त वन की उत्तर दिशा |
कुबेर |
भवन |
१९१७ |
उपरोक्त वन की वापियों के चहुँ ओर |
देव |
भवन |
१९४३-१९४५ |
सुमेरु पर्वत के सौमनस वन की चारों दिशाओं में |
उपरोक्त ४ लोकपाल |
पुर |
१९८४ |
उपरोक्त वन का बलभद्र कूट |
बलभद्र |
पुर |
१९९४ |
सुमेरु पर्वत के नन्दन वन की चारों दिशाओं में |
उपरोक्त ४ लोकपाल |
भवन |
१९९८ |
उपरोक्त वन का बलभद्र कूट |
बलभद्र |
भवन |
२०४२-२०४४ |
सौमनस गजदन्त के ६ कूट |
कूटों के नामवाले देव |
भवन |
२०५३ |
विद्युत्प्रभ गजदन्त के ६ कूट |
कूटों के नामवाले देव |
भवन |
२०५८ |
गन्धमादन गजदन्त के ६ कूट |
कूटों के नामवाले देव |
भवन |
२०६१ |
माल्यवान गजदन्त के ८ कूट |
कूटों के नामवाले देव |
भवन |
२०८४ |
देवकुरु के २ यमक पर्वत |
पर्वत के नाम |
भवन |
२०९२ |
देवकुरु के १० द्रहों के कमल |
द्रहों के नामवाले |
भवन |
२०९९ |
देवकुरु के कांचन पर्वत |
कांचन |
भवन |
२१०५-२१०८ |
देवकुरु के दिग्गज पर्वत |
यम (वाहन देव) |
भवन |
२११३ |
देवकुरु के दिग्गज पर्वत |
वरुण (वाहनदेव) |
भवन |
२१२४ |
उत्तर कुरु के २ यमक पर्वत |
पर्वत के नाम वाले देव |
भवन |
२१३१-२१३५ |
उत्तरकुरु के दिग्गजेन्द्र पर्वत |
वाहनदेव |
भवन |
२१५८-२१९० |
देवकुरु में शाल्मली वृक्ष व उसका परिवार |
सपरिवार वेणु युगल |
भवन |
२१९७ |
उत्तरकुरु में सपरिवार जंबू वृक्ष |
सपरिवार आदर-अनादर |
भवन |
२२६१ |
विदेह के कच्छा देश के विजयार्ध के ८ कूट |
वाहनदेव |
भवन |
२२९५-२३०३ |
(इसी प्रकार शेष ३१ विजयार्ध) |
वाहनदेव |
भवन |
२३०९-२३११ |
विदेह के आठ वक्षारों के तीन-तीन कूट |
व्यंतर |
नगर |
२३१५-२३२४ |
पूर्व व अपर विदेह के मध्य व पूर्व पश्चिम में स्थित देवारण्यक |
सौधर्मेन्द्र का परिवार |
भवन |
२३२६ |
व भूतारण्यक वन |
सौधर्मेन्द्र का परिवार |
भवन |
२३३० |
नील पर्वत के आठ कूट |
कूटों के नामवाले |
भवन |
२३३६ |
रम्यक क्षेत्र का नाभिगिरि |
कूटों के नामवाले |
भवन |
२३४३ |
रुक्मि पर्वत के ७ कूट |
कूटों के नामवाले |
भवन |
२३५१ |
हैरण्यवत क्षेत्र का नाभिगिरि |
प्रभास |
भवन |
२३५९ |
शिखरी पर्वत के १० कूट |
कूटों के नामवाले |
भवन |
२३६५ |
ऐरावत क्षेत्र के विजयार्ध, वृषभगिरि आदि पर |
( भरत क्षेत्रवत् ) |
भवन |
२४४९-२४५४ |
लवण समुद्र के ऊपर आकाश में स्थित ४२००० व २८००० नगर |
वेलंधर व भुजग |
नगर |
२४५६ |
उपरोक्त ही अन्य नगर |
देव |
नगर |
२४६३ |
लवणसमुद्र में स्थित आठ पर्वत |
वेलंधर |
नगर |
२४७३-२४७६ |
लवणसमुद्र में स्थित मागध व प्रभास द्वीप |
मागध |
भवन |
२५३९ |
धातकी खण्ड के २ इष्वाकार पर्वतों के तीन-तीन कूट |
व्यंतर |
भवन |
२७१६ |
जम्बूद्वीपवत् सर्व पर्वत आदि |
व्यंतर |
भवन |
२७७५ |
मानुषोत्तर पर्वत के १८ कूट |
व्यंतर |
भवन |
ति.प./५/गा. |
|
|
|
७९-८१ |
नन्दीश्वर द्वीप के ६४ वनों में से प्रत्येक में एक-एक भवन |
व्यंतर |
भवन |
१२५ |
कुण्डलगिरि के १६ कूट |
कूटों के नामवाले |
नगर |
१३८ |
कुण्डलगिरि की चारों दिशाओं में ४ कूट |
कुण्डलद्वीप के अधिपति |
नगर |
१७० |
रुचकवर पर्वत की चारों दिशाओं में चार कूट |
चार दिग्गजेन्द्र |
आवास |
१८० |
असंख्यात द्वीप समुद्र जाकर द्वितीय जम्बूद्वीप |
विजय आदि देव |
नगर |
२०९ |
पूर्वदिशा के नगर के प्रासाद |
विजय |
भवन |
२३६ |
पूर्वदिशा के नगर के प्रासाद |
अशोक |
भवन |
२३७ |
दक्षिणादि दिशाओं में |
वैजयंतादि |
नगर |
ति.प./५/५० |
सब द्वीप समुद्रों के उपरिम भाग |
उन उनके स्वामी |
नगर |
- मध्यलोक में व्यंतर देवियों का निवास
ति.प./४/गा. |
स्थान |
देवी |
भवनादि |
२०४ |
गंगा नदी के निर्गमन स्थान की समभूमि |
दिक्कुमारियाँ |
भवन |
२०९ |
गंगा नदी में स्थित कमलाकार कूट |
वला |
भवन |
२५१ |
जम्बूद्वीप की जगती में गंगा नदी के बिलद्वार पर |
दिक्कुमारी |
भवन |
२५८ |
सिन्धु नदी के मध्य कमलाकार कूट |
अवना या लवणा |
भवन |
२६२ |
हिमवान् के मूल में सिन्धुकूट |
सिन्धु |
भवन |
१६५१ |
हिमवान् पर्वत के ११ में से ६ कूट |
कूट के नामवाली |
भवन |
१६७२ |
पद्म ह्रद के मध्य कमल पर |
श्री |
भवन |
१७२८ |
महा पद्म ह्रद के मध्य कमल पर |
ह्री |
भवन |
१७६२ |
तिगिंछ ह्रद के मध्य कमल पर |
धृति |
भवन |
१९७६ |
सुमेरु पर्वत के सौमनस वन की चारों दिशाओं में ८ कूट |
मेघंकरा आदि ८ |
निवास |
२०४३ |
सौमनस गजदन्त का कांचन कूट |
सुवत्सा |
निवास |
२०४३ |
सौमनस गजदन्त विमलकूट |
श्रीवत्समित्रा |
निवास |
२०५४ |
विद्युत्प्रभ गजदन्त का स्वस्तिक कूट |
वला |
निवास |
२०५४ |
विद्युत्प्रभ गजदन्त का कनककूट |
वारिषेणा |
निवास |
२०५९ |
गन्धमादन गजदन्त पर लोहितकूट |
भोगवती |
निवास |
२०५९ |
गन्धमादन गजदन्त पर स्फटिक कूट |
भोगंकृति |
निवास |
२०६२ |
माल्यवान् गजदन्त पर सागरकूट |
भोगवती |
निवास |
२०६२ |
माल्यवान् गजदन्त पर रजतकूट |
भोगमालिनी |
निवास |
२१७३ |
शाल्मलीवृक्ष स्थल की चौथी भूमि के चार तोरण द्वार |
वेणु युगल की देवियाँ |
निवास |
२१९६ |
जम्बूवृक्ष स्थल की भी चौथी भूमि के चार तोरण द्वार |
|
निवास |
जं.पं./६/३१-४३ |
देवकुरु व उत्तरकुरु के २० द्रहों के कमलों पर |
सपरिवार नीलकुमारी आदि |
भवन |
ति.प./५/ १४४-१७२ |
रुचकवर पर्वत के ४४ कूट |
दिक्कन्याएँ |
भवन |
- द्वीप समुदों के अधिपति देव
(ति.प./५/३८-४९); (ह.पु./५/६३७-६४६); (त्रि.सा./९६१-९६५)
संकेत—द्वी=द्वीप; सा=सागर; ß=जो नाम इस ओर लिखा है वही यहाँ भी है।
द्वीप या समुद्र |
ति.प./५/३८-४९ |
ह.पु./५/६३७-६४६ |
त्रि.सा./९६१-९६५ |
|||
|
दक्षिण |
उत्तर |
दक्षिण |
उत्तर |
दक्षिण |
उत्तर |
जम्बू द्वीप |
आदर |
अनादर |
अनावृत |
ß |
||
लवण सागर |
प्रभास |
प्रियदर्शन |
सुस्थित |
ß |
||
धातकी |
प्रिय |
दर्शन |
प्रभास |
प्रियदर्शन |
ß |
ß |
कालोद |
काल |
महाकाल |
ß |
ß |
ß |
ß |
पुष्करार्ध |
पद्म |
पुण्डरीक |
ß |
ß |
पद्म |
पुण्डरीक |
मानुषोत्तर |
चक्षु |
सुचक्षु |
ß |
ß |
ß |
ß |
पुष्करार्ध |
× |
× |
× |
× |
चक्षुष्मान् |
सुचक्षु |
पुष्कर सागर |
श्रीप्रभु |
श्रीधर |
ß |
ß |
ß |
ß |
वारुणीवर द्वीप |
वरुण |
वरुणप्रभ |
ß |
ß |
ß |
ß |
वारुणवर सागर |
मध्य |
मध्यम |
ß |
ß |
ß |
ß |
क्षीरनर द्वीप |
पाण्डुर |
पुष्पदन्त |
ß |
ß |
ß |
ß |
क्षीरनर सागर |
विमल प्रभ |
विमल |
विमल |
विमलप्रभ |
ß |
ß |
घृतवर द्वीप |
सुप्रभ |
घृतवर |
सुप्रभ |
महाप्रभ |
ß |
ß |
घृतवर सागर |
उत्तर |
महाप्रभ |
कनक |
कनकाभ |
कनक |
कनकप्रभ |
क्षौद्रवर द्वीप |
कनक |
कनकाभ |
पूर्ण |
पूर्णप्रभ |
पुण्य |
पुण्यप्रभ |
क्षौद्रवर सागर |
पूर्ण |
पूर्णप्रभ |
गन्ध |
महागन्ध |
ß |
ß |
नंदीश्वर द्वीप |
गन्ध |
महागन्ध |
नन्दि |
नन्दिप्रभ |
ß |
ß |
नंदीश्वर सागर |
नन्दि |
नन्दिप्रभु |
भद्र |
सुभद्र |
ß |
ß |
अरुणवर द्वीप |
चन्द्र |
सुभद्र |
अरुण |
अरुणप्रभ |
ß |
ß |
अरुणवर सागर |
अरुण |
अरुणप्रभ |
सुगन्ध |
सर्वगन्ध |
ß |
ß |
अरुणाभास द्वीप |
सुगन्ध |
सर्वगन्ध |
× |
× |
× |
× |
अन्य— |
ß कथन नष्ट है à |
- भवनों आदि का विस्तार
- सामान्य प्ररूपणा
ति.प./६/गा. का भावार्थ – १. उत्कृष्ट भवनों का विस्तार और बाहल्य क्रम से १२००० व ३०० योजन है। जघन्य भवनों का २५ व १ योजन अथवा १ कोश है।८-१०। उत्कृष्ट भवनपुरों का १०००,०० योजन और जघन्य का १ योजन है।२१। (त्रि.सा./३०० में उत्कृष्ट भवनपुर का विस्तार १००,००० योजन बताया है।) उत्कृष्ट आवास १२२०० योजन और जघन्य ३ कोश प्रमाण विस्तार वाले हैं। (त्रि.सा./२९८-३००)। (नोट – ऊँचाई सर्वत्र लम्बाई व चौड़ाई के मध्यवर्ती जानना, जैसे १०० यो. लम्बा और ५० यो. चौड़ा हो तो ऊँचा ७५ यो. होगा। कूटाकार प्रासादों का विस्तार मूल में ३, मध्य में २ और ऊपर १ होता है। ऊँचाई मध्य विस्तार के समान होती है। - विशेष प्ररूपणा
- सामान्य प्ररूपणा
ति.प./४/गा. |
स्थान |
भवनादि |
ज.उ.म. |
आकार |
लम्बाई |
चौड़ाई |
ऊँचाई |
२५-२८ |
जम्बूद्वीप की जगती पर |
भवन |
ज. |
चौकोर |
१०० ध. |
५० ध. |
७५ ध. |
३० |
जगती पर |
भवन |
उ. |
चौकोर |
३०० ध. |
१५० ध. |
२२५ ध. |
३२ |
|
भवन |
म. |
चौकोर |
२०० ध. |
१०० ध. |
१५० ध. |
७४ |
विजय द्वार |
पुर |
|
चौकोर |
× |
२ यो. |
४ यो. |
७७ |
|
नगर |
|
चौकोर |
१२००० यो. |
६००० यो. |
|
१६६ |
विजयार्ध |
प्रासाद |
|
चौकोर |
१ को. |
१/२ को. |
३/४ को. |
२२५ |
गंगाकुण्ड |
प्रासाद |
|
कूटाकार |
× |
३००० ध. |
२००० ध. |
१६५३ |
हिमवान् |
भवन |
|
चौकोर |
× |
३१<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0000.gif" alt="" width="7" height="28" /> यो. |
६२<img src="JSKHtmlSample_clip_image004.gif" alt="" width="7" height="28" /> यो. |
१६७१ |
पद्म ह्रद |
भवन |
|
चौकोर |
१ को. |
१/२ को. |
३/४ को. |
१७२९ |
अन्य ह्रद |
भवन |
|
चौकोर |
ß पद्म ह्रद से उत्तरोत्तर दूना à |
||
१७५९ |
महाहिमवान आदि |
भवन |
|
चौकोर |
ß हिमवान से उत्तरोत्तर दूना à |
||
१८३६-३७ |
पांडुकवन |
प्रासाद |
|
चौकोर |
३० को. |
१५ को. |
१ को. |
१९४४ |
सौमनस |
पुर |
|
चौकोर |
ß पांडुकवन वाले से दुगुने à |
||
१९९५ |
नन्दन |
भवन |
|
चौकोर |
ß सौमनस वाले से दुगुने à |
||
२०८० |
यमकगिरि |
प्रासाद |
|
चौकोर |
× |
१२५ को. |
२५० को. |
२१०७ |
दिग्गजेंद्र |
प्रासाद |
|
चौकोर |
१२५ को. |
६२<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0000.gif" alt="" width="7" height="28" /> को. |
९३<img src="JSKHtmlSample_clip_image006.gif" alt="" width="7" height="28" /> को. |
२१६२ |
शाल्मली वृक्ष |
प्रासाद |
|
चौकोर |
१ को. |
१/२ को. |
३/४ को. |
२१८५ |
शाल्मली स्थल |
प्रासाद |
|
चौकोर |
१ को. |
१/२ को. |
३/४ को. |
२५४० |
इष्वाकार |
भवन |
|
चौकोर |
ß निषध पर्वतवत् à |
||
८० |
नंदीश्वर के वनों में |
प्रासाद |
|
चौकोर |
३१ यो. |
३१ यो. |
६२ यो. |
१४७ |
रुचकवर द्वीप |
प्रासाद |
|
चौकोर |
ß गौतमदेव के भवन के समान à |
||
१८१ |
द्वि. जम्बूद्वीप विजयादि के |
नगर |
|
चौकोर |
१२००० यो. |
६००० यो. |
× |
१८५ |
उपरोक्त नगर के |
भवन |
|
चौकोर |
६२ यो. |
३१ यो. |
|
१८९ |
उपरोक्त नगर के मध्य में |
प्रासाद |
|
चौकोर |
× |
१२५ यो. |
२५० यो. |
१९५ |
उपरोक्त नगर के प्रथम दो मंडल |
प्रासाद |
|
चौकोर |
ß मध्य प्रासादवत् à |
||
१९५ |
तृ. चतु. मंडल |
प्रासाद |
|
चौकोर |
ß मध्य प्रासाद से आधा à |
||
२३२-२३३ |
चैत्य वृक्ष के बाहर |
प्रासाद |
|
चौकोर |
× |
३१<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0001.gif" alt="" width="7" height="28" /> यो. |
६२<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0001.gif" alt="" width="7" height="28" /> यो. |
ति.प./६/गा. ७९ |
व्यंतरों की गणिकाओं के |
नगर |
|
चौकोर |
८४००० यो. |
८४००० यो. |
× |