ऋजुसूत्रनय निर्देश
From जैनकोष
- ऋजुसूत्र नय का लक्षण
- निरुक्त्यर्थ
स.सि./१/३३/१४२/९ ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयतीति ऋजुसूत्र:। =ऋजु का अर्थ प्रगुण है। ऋजु अर्थात् सरल को सूचित करता है अर्थात् स्वीकार करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। (रा.वा./१/३३/७/९६/३०) (क.पा.१/१३-१४/१८५/२२३/३) (आ.प./९)
- वर्तमानकालमात्र ग्राही
स.सि./१/३३/१४२/९ पूर्वापरांस्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयानादत्ते अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् । =यह नय पहिले और पीछेवाले तीनों कालों के विषय को ग्रहण न करके वर्तमान काल के विषयभूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत के विनष्ट और अनागत के अनुत्पन्न होने से उनमें व्यवहार नहीं हो सकता। (रा.वा./१/३३/७/९६/११), रा.वा./४/४२/१७/२६१/५), (ह.पु./५८/४६), (ध.९/४,१,४५/१७१/७), (न्या.टी./३/८५/१२८)।
और भी दे० (नय/III/१/२) (नय/IV/३)
- निरुक्त्यर्थ
- ऋजुसूत्र नय के भेद
ध.९/४,१,४९/२४४/२ उजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो चेदि।=ऋजुसूत्रनय शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का है।
आ.प./५ ऋजुसूत्रो द्विविध:। सूक्ष्मर्जुसूत्रो...स्थूलर्जुसूत्रो।=ऋजुसूत्रनय दो प्रकार का है–सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र।
- सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्रन्य के लक्षण
ध.९/४,१,४९/२४२/२ तत्थ सुद्धो वसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाणासेसत्थो अप्पणो विसयादो ओसारिदसारिच्छ-तब्भाव-लक्खणसामण्णो। ‘‘...तत्थ जो असुद्धो उजुसुदणओ ओ चक्खुपासिय वेंजणपज्जयविसओ।’’ =अर्थपर्याय को विषय करने वाला शुद्ध ऋजुसूत्र नय है। वह प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले समस्त पदार्थों को विषय करता हुआ अपने विषय से सादृश्यसामान्य व तद्भावरूप सामान्य को दूर करने वाला है। जो अशुद्ध ऋजुसूत्र नय है, वह चक्षु इन्द्रिय की विषयभूत व्यंजन पर्यायों को विषय करने वाला है?
आ.प./५ सूक्ष्मर्जुसूत्रो यथा‒एकसमयावस्थायी पर्याय: स्थूलर्जसूत्रो यथा‒मनुष्यादिपर्यायास्तदायु: प्रमाणकालं तिष्ठन्ति।=सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय एकसमय अवस्थायी पर्याय को विषय करता है। और स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा मनुष्यादि पर्यायें स्व स्व आयुप्रमाणकाल पर्यन्त ठहरती हैं। (न.च.वृ./२११-२१२) (न.च./श्रुत/पृ.१६)
का.अ./मू./२७४ जो वट्टमाणकाले अत्थपज्जायपरिणदं अत्थं। संतं साहदि सव्वं तं पि णयं उज्जुयं जाण।२७४।=वर्तमानकाल में अर्थ पर्यायरूप परिणत अर्थ को जो सत् रूप साधता है वह ऋजुसूत्रनय है। (यह लक्षण यद्यपि सामान्य ऋजुसूत्र के लिए किया गया है, परन्तु सूक्ष्मऋजुसूत्र पर घटित होता है)
- ऋजुसूत्राभास का लक्षण
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.६२/१४८ निराकरोति यद्द्रव्यं बहिरन्तश्च सर्वथा। स तदाभोऽभिमन्तव्य: प्रतीतेरपलापत:।...एतेन चित्राद्वैतं, संवेदनाद्वैतं क्षणिकमित्यपि मननमृजुसूत्राभासमायातीत्युक्तं वेदितव्यं। (पृ.२५३/४)।=बहिरंग व अन्तरंग दोनों द्रव्यों का सर्वथा अपलाप करने वाले चित्राद्वैतवादी, विज्ञानाद्वैतवादी व क्षणिकवादी बौद्धों की मान्यता में ऋजुसूत्रनय का आभास है, क्योंकि उनकी सब मान्यताएँ प्रतीति व प्रमाण से बाधित हैं। (विशेष देखें - श्लो .वा.४/१/३३/श्लो.६३-६७/२४८-२५५); (स्या.म./२८/३१८/२४)
- ऋजुसूत्रनय शुद्ध पर्यायार्थिक है
न्या.दी./३/८५/१२८/७ ऋजुसूत्रनयस्तु परमपर्यायार्थिक:।=ऋजुसूत्रनय परम (शुद्ध) पर्यायार्थिक नय है। (सूक्ष्म ऋजुसूत्र शुद्ध पर्यायार्थिक नय है और स्थूल ऋजुसूत्र अशुद्ध पर्यायार्थिक‒नय/IV/३) (और भी दे०/नय/III/१/१-२)
- ऋजुसूत्रनय को द्रव्यार्थिक कहने का कथंचित् विधि निषेध
- कथंचित् निषेध
ध.१०/४,२,२,३/११/४ तब्भवसारिच्छसामण्णप्पयदव्वमिच्छंतो उजुसुदो कधं ण दव्वट्ठियो। ण, घड-पडत्यंभादिवंजणपज्जायपरिच्छिण्णसगपुव्वावरभावविरहियउजुवट्टविसयस्स दव्वट्ठियणयत्तविरोहादो। =प्रश्न‒तद्भावसामान्य व सादृश्यसामान्यरूप द्रव्य को स्वीकार करने वाला ऋजुसूत्रनय (देखें - स्थूल ऋजुसूत्रनय का लक्षण ) द्रव्यार्थिक कैसे नहीं है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, ऋजुसूत्रनय घट, पट व स्तम्भादि स्वरूप व्यंजनपर्यायों से परिच्छिन्न ऐसे अपने पूर्वापर भावों से रहित वर्तमान मात्र को विषय करता है, अत: उसे द्रव्यार्थिक नय मानने में विरोध आता है।
- कथंचित् विधि
ध.१०/४,२,३,३/१५/९ उजुसुदस्स पज्जवट्ठियस्स कधं दव्वं विसओ। ण, वंजणपज्जायमहिट्ठियस्स दव्वस्स तव्विसयत्ताविरोहादो। ण च उप्पादविणासलक्खणत्तं तव्विसयदव्वस्स विरुज्झदे, अप्पिदपज्जायभावाभावलक्खण-उप्पादविणासविदिरित्त अवट्ठाणाणुवलंभादो। ण च पढमसमए उप्पण्णस्स विदियादिसमएसु अवट्ठाणं, तत्थ पढमविदियादिसमयकप्पणए कारणाभावादो। ण च उत्पादो चेव अवट्ठाणं, विरोहादो उप्पादलक्खणभावविदिरित्तअवट्ठाणलक्खणाणुवलंभादो च। तदो अव्वट्ठाणाभावादो उप्पादविणासलक्खणं दव्वमिदि सिद्धं। =प्रश्न‒ऋजुसूत्र चूँकि पर्यायार्थिक है, अत: उसका द्रव्य विषय कैसे हो सकता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, व्यंजन पर्याय को प्राप्त द्रव्य उसका विषय है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। (अर्थात् अशुद्ध ऋजुसूत्र को द्रव्यार्थिक मानने में कोई विरोध नहीं है‒ध./९) (ध.९/४,१,५८/२६५/९), (ध.१२/४,२,८,१४/२९०/५) (निक्षेप/३/४) प्रश्न‒ऋजुसूत्र के विषयभूत द्रव्य को उत्पाद विनाश लक्षण मानने में विरोध आता है? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय का सद्भाव ही उत्पाद है और उसका अभाव ही व्यय है। इसके सिवा अवस्थान स्वतन्त्र रूप से नहीं पाया जाता। प्रश्न‒प्रथम समय में पर्याय उत्पन्न होती है और द्वितीयादि समयों में उसका अवस्थान होता है? उत्तर‒यह बात नहीं बनती; क्योंकि उसमें प्रथम व द्वितीयादि समयों की कल्पना का कोई कारण नहीं है। प्रश्न‒फिर तो उत्पाद ही अवस्थान बन बैठेगा ? उत्तर‒सो भी बात नहीं है; क्योंकि, एक तो ऐसा मानने में विरोध आता है, दूसरे उत्पादस्वरूप भाव को छोड़कर अवस्थान का और कोई लक्षण पाया नहीं जाता। इस कारण अवस्थान का अभाव होने से उत्पाद व विनाश स्वरूप द्रव्य है, यह सिद्ध हुआ। (वही व्यंजन पर्यायरूप द्रव्य स्थूल ऋजुसूत्र का विषय है।
ध.१२/४,२,१४/२९०/६ वट्टमाणकालविसयउजुसुदवत्थुस्स दवणाभावादो ण तत्थ दव्वमिदि णाणावरणीयवेयणा णत्थि त्ति वुत्ते‒ण, वट्टमाणकालस्स वंजणपज्जाए पडुच्च अवट्टियस्स सगाससावयवाणं गदस्स दव्वत्तं पडि विरोहाभावादो। अप्पिदपज्जाएण वट्टमाणत्तमा वण्णस्स वत्थुस्स अणप्पिद पज्जाएसु दवणविरोहाभावादो वा अत्थि उजुसुदणयविसए दव्वमिदि।=प्रश्न‒वर्तमानकाल विषयक ऋजुसूत्रनय की विषयभूत वस्तु का द्रवण नहीं होने से चूँकि उसका विषय, द्रव्य नहीं हो सकता है, अत: ज्ञानावरणीय वेदना उसका विषय नहीं है ? उत्तर‒ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं, कि ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्तमानकाल व्यंजन पर्याय का आलम्बन करके अवस्थित है (देखें - अगला शीर्षक ), एवं अपने समस्त अवयवों को प्राप्त है, अत: उसके द्रव्य होने में कोई विरोध नहीं है। अथवा विवक्षित पर्याय से वर्तमानता को प्राप्त वस्तु को अविवक्षित पर्यायों में द्रव्य का विरोध न होने से, ऋजुसूत्र के विषय में द्रव्य सम्भव है ही।
क.पा.१/१,१३-१४/२१३/२६३/६ वंजणपज्जायविसयस्स उजुसुदस्स बहुकालावट्ठाणं होदि त्ति णासंकणिज्ज; अप्पिदवंजणपज्जायअवट्टाणकालस्स दव्वस्स वि वट्टमाणत्तणेण गहणादो।=यदि कहा जाय कि व्यंजन पर्याय को विषय करने वाला ऋजुसूत्रनय बहुत काल तक अवस्थित रहता है; इसलिए, वह ऋजुसूत्र नहीं हो सकता है; क्योंकि उसका काल वर्तमानमात्र है। सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, विवक्षित पर्याय के अवस्थान कालरूप द्रव्य को भी ऋजुसूत्रनय वर्तमान रूप से ही ग्रहण करता है।
- कथंचित् निषेध
- सूक्ष्म व स्थूल ऋजुसूत्र की अपेक्षा वर्तमान काल का प्रमाण
दे०/नय/III/१/२ वर्तमान वचन को ऋजुसूत्र वचन कहते हैं। ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेद रूप समय से लेकर एक समय पर्यन्त वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (अर्थात् मुखद्वार से पदार्थ का नामोच्चारण हो चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय पर्यन्त ही उस पदार्थ की स्थिति का निश्चय करने वाला पर्यायार्थिक नय है।
ध.९/४,१,४५/१७२/१ कोऽत्र वर्तमानकाल:। आरम्भात्प्रभृत्या उपरमादेष वर्तमानकाल:। एष चानेकप्रकार:, अर्थव्यञ्जनपर्यायास्थितेरनेकविधत्वात् ।
ध.९/४,१,४९/२४४/२ तत्थ सुद्धो विसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाण...जो सो असुद्धो... तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा। कुदो। चक्खिदियगेज्झवेंजणपज्जायाणमप्पहाणीभूदव्वाणेमेत्तियं कालमवट्ठाणुवलंभादो। जदि एरिसो वि पज्जवट्ठियणओ अत्थि तो‒उप्पज्जंति वियंति य भावा णियमेव पज्जवणयस्स। इच्चेएण सम्मइसुत्तेण सह विरोहो होदि त्ति उत्ते ण होदि, असुद्धउजुसुदेण विसईवयवेंजणपज्जाए अप्पहाणीकयसेसपज्जाए पुव्वावरकोटीणमभावेण उप्पत्तिविणासे मोत्तूण उवट्ठाणमुवलंभादो।=प्रश्न‒यहाँ वर्तमानकाल का क्या स्वरूप है ? उत्तर‒विवक्षित पर्याय के प्रारम्भकाल से लेकर उसका अन्त होने तक जो काल है वह वर्तमान काल है। अर्थ और व्यंजन पर्यायों की स्थिति के अनेक प्रकार होने से यह काल अनेक प्रकार है। तहाँ शुद्ध ऋजुसूत्र प्रत्येक क्षण में परिणमन करने वाले पदार्थों को विषय करता है (अर्थात् शुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा वर्तमानकाल का प्रमाण एक समय मात्र है) और अशुद्ध ऋजुसूत्र के विषयभूत पदार्थों का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से छ: मास अथवा संख्यात वर्ष है; क्योंकि, चक्षु इन्द्रिय से ग्राह्य व्यंजनपर्यायें द्रव्य की प्रधानता से रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती हैं। प्रश्न‒यदि ऐसा भी पर्यायार्थिकनय है तो‒पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं, इस सन्मतिसूत्र के साथ विरोध होगा? उत्तर‒नहीं होगा; क्योंकि, अशुद्ध ऋजुसूत्र के द्वारा व्यंजन पर्यायें ही विषय की जाती हैं, और शेष पर्यायें अप्रधान हैं। (किन्तु प्रस्तुत सूत्र में शुद्धऋजुसूत्र की विवक्षा होने से) पूर्वा पर कोटियों का अभाव होने के कारण उत्पत्ति व विनाश को छोड़कर अवस्थान पाया ही नहीं जाता।