कालानुयोग 01
From जैनकोष
- कालानुयोगद्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम
- कालानुयोगद्वार का लक्षण
रा.वा./१/८/६/४२/३ स्थितिमतोऽर्थस्यावधि: परिच्छेत्तव्य:। इति कालोपादानं क्रियते।=किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थ की काल मर्यादा निश्चय करना काल है।
ध.१/१,१,७/१०३/१५९ कालो ट्ठिदिअवधारणं...।...।१०३।
ध.१/१,१,७/१५८/६ तेहिंतो अवगय-संत-पमाण-खेत्त-फोसणाणं ट्ठिदिंपरूवेदि कालाणियोगो।=१. जिसमें पदार्थों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन हो उसे काल प्ररूपणा कहते हैं।१०३। २. पूर्वोक्त चारों (सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन) अनुयोगों के द्वारा जाने गये सत्-संख्या-क्षेत्र और स्पर्श रूप द्रव्यों की स्थिति का वर्णन कालानुयोग करता है।
- काल व अन्तरानुयोगद्वार में अन्तर
ध.१/१,१,७/१५८/६ तेहिंतो अवगय-संत-पमाण-खेत्त-फोसणाणं ट्ठिदिंपरूवेदि कालाणियोगो। तेसिं चेव विरहं परूवेदि अंतराणियोगो। =चारों (सत्, संख्या, क्षेत्र व स्पर्शन) अनुयोगों के द्वारा जाने गये सत्-संख्या–क्षेत्र और स्पर्शरूप द्रव्यों की स्थिति का वर्णन कालानुयोगद्वार करता है। जिन पदार्थों के अस्तित्व, संख्या, क्षेत्र, स्पर्श और स्थिति का ज्ञान हो गया है उनके अन्तरकाल का वर्णन अन्तरानुयोग करता है।
- काल प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम
ध.७/२,८,१७/४६९/२ किंतु जस्स गुणट्ठाणस्स मग्गणट्ठाणस्स वा एगजीवावट्ठाणकालोदोपवेसंतरकालो बहुगो होदि तस्सण्णयवोच्छेदो। जस्स पुण कयावि ण बहुओ तस्स ण संताणस्स वोच्छेदो। जस्स पुण कयावि ण बहुओ तस्सण संताणस्स वोच्छेदो ति घेत्तत्वं।=जिस गुणस्थान अथवा मार्गणा स्थान के एक जीव के अवस्थान काल से प्रवेशान्तरकाल बहुत होता है, उसको सन्तान का व्युच्छेद होता है। जिसका वह काल कदापि बहुत नहीं है, उसकी सन्तान का व्युच्छेद नहीं होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
- ओघ प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम
ध.३/१,२,८/९०/३ अपमत्ताद्धादो पमत्तद्धाए दुगुणत्तादो। =अप्रमत्त संयत के काल से प्रमत्त संयत का काल दुगुणा है।
ध.५/१,६,२५०/१२५/४ उवसमसेढि सव्वद्धाहिंतो पमत्तद्धा एक्का चेव संखेज्जगुणा त्ति गुरूवदेसादो।
ध.५/१,६,१४/१८/८ एक्को अपुव्वकरणो अणियट्टिउवसामगो सुहुमउवसामगो उवसंत-कसाओ होदूण पुणो वि सुहुमउवसामगो अणियट्टिउवसामगो होदूण अपुव्वउवसामगो जादो। एदाओ पंच वि अद्धाओ एक्कट्ठं कदे वि अंतोमुहुत्तमेव होदि त्ति जहण्णंतरमंतोमुहुत्तं होदि।=१. उपशम श्रेणी सम्बन्धी सभी (अर्थात् चारों आरोहक व तीन अवरोहक) गुणस्थानों सम्बन्धी कालों से अकेले प्रमत्तसंयत का काल ही संख्यातगुणा होता है। २. एक अपूर्वकरण उपशामक जीव, अनिवृत्ति उपशामक, सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और उपशान्तकषाय उपशामक होकर फिर भी सूक्ष्म साम्परायिक उपशामक और अनिवृत्तिकरण उपशामक होकर अपूर्वकरण उपशामक हो गया। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त्तकाल प्रमाण जघन्य अन्तर उपलब्ध हुआ। ये अनिवृत्तिकरण से लगाकर पुन: अपूर्वकरण उपशामक होने के पूर्व तक के पाँचों ही गुणस्थानों के कालों को एकत्र करने पर भी वह काल अन्तर्मुहूर्त्त ही होता है, इसलिए जघन्य अन्तर भी अन्तर्मुहूर्त्त ही होता है। - ओघ प्र॰ में नानाजीवों की जघन्यकाल प्राप्ति विधि
ध.४/१,५,५/३३९/९ दो वा तिण्णि वा एगुत्तरवढ्ढीए जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उवसमसम्मादिट्ठिणो उवसमसमत्तद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति सासणं पडिवण्णा एगसमयं दिट्ठा। विदिएसमये सव्वं वि मिच्छत्तं गदा, तिसु वि लोएसु सासणमभावो जादो त्ति लद्धो एगसमओ।=दो अथवा तीन, इस प्रकार एक अधिक वृद्धि से बढ़ते हुए पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र उवसमसम्यग्दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व के काल में एक समय मात्र (जघन्य) काल अवशिष्ट रह जाने पर एक साथ सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुए एक समय में दिखाई दिये। दूसरे समय में सबके सब (युगपत्) मिथ्यात्व को प्राप्त हो गये। उस समय तीनों ही लोकों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों का अभाव हो गया। इस प्रकार एक समय प्रमाण सासादन गुणस्थान का नाना जीवों की अपेक्षा (जघन्य) काल प्राप्त हुआ। नोट—इसी प्रकार यथायोग्य रूप से अन्यगुणस्थानों पर भी लागू कर लेना चाहिए। विशेष यह है कि उस उस गुणस्थान का एक जीवापेक्षा जो जघन्य काल है उस सहित ही प्रवेश करना।
- ओघ प्र॰ में नाना जीवों की उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि
ध./४/१,५,६/३४०/२ दोण्णि वा, तिण्णि वा एवं एगुत्तरवड्ढीए जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उवसमसम्मादिट्ठिणो एगसमयादि कादूण जावुक्कस्सेण छआवलिओ उवसमताद्धाए अत्थि त्ति सासणत्तं पडिवण्णा। जाव ते मिच्छत्तं ण गच्छंति ताव अण्णे वि अण्णे वि उवसमसम्मदिट्ठिणो सासणत्तं पडिवज्जंति। एवं गिम्हकालरुक्खछाहीव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं कालं जीवेहि असुण्णं होदूण सासाणगुणट्ठाणं लब्भदि।=दो, अथवा तीन, अथवा चार, इस प्रकार एक-एक अधिक वृद्धि द्वारा पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समय को आदि करके उत्कर्ष से छह आवलियाँ उपशम सम्यक्त्व के काल में अवशिष्ट रहने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुए। वे जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होते हैं, तब तक अन्य-अन्य भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकार से ग्रीष्मकाल के वृक्ष की छाया के समान उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र काल तक जीवों से अशून्य (परिपूर्ण) होकर, सासादन गुणस्थान पाया जाता है। (पश्चात् वे सर्वजीव अवश्य ही मिथ्यात्व को प्राप्त होकर उस गुणस्थान को जीवों से शून्य कर देते हैं) नोट—इसी प्रकार यथायोग्य रूप से अन्य गुणस्थानों पर भी लागू कर लेना। विशेष यह है कि उस उस गुणस्थान तक का एक जीवापेक्षया जो भी जघन्य या उत्कृष्ट काल के विकल्प हैं उन सबके साथ वाले सर्व ही जीवों का प्रवेश कराना।
- ओघ प्र॰ में एक जीव की जघन्यकाल प्राप्ति विधि
ध./४/१,५,७/३४१-३४२ एक्को उवसमसम्मादिट्ठि उवसमसमत्तद्धाए एगसमओ अत्थित्ति सासणं गदो।...एगसमयं सासाणगुणेण सह ट्ठिदो, विदिए समए मिच्छत्तं गदो। एवं सासाणस्स लद्धो एगसमओ।...
ध./४/१,५,१०/३४४-३४५ एक्को मिच्छदि विसुज्झमाणे सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो। सव्वलहुमंतोमुहुत्तकालमिच्छिदूण विसुज्झमाणे चेव सासंजमं सम्मत्तं पडिवण्णो।...अधवा वेदगसम्मादिट्ठी संकलिस्समाणगोसम्मामिच्छत्तं गदो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तकालमिच्छिदूण अविणट्ठसंकिलेसो मिच्छदं गदो।...एवं दोहि पयारेहि सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णकालपरूवणा गदा।
ध./४/१,५,२४/३५३ एक्को अणियट्ठि उवसामगो एगसमयं जीविदमत्थि त्ति अपुव्व उवसामगो जादो एवासमयं दिट्ठो, विदियसमए मदो लयसत्तमोदेवोजादो।=१ एक उपशम सम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व के काल में एक समय अवशिष्ट रहने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त हुआ।...एकसमय मात्र सासादन गुणस्थान के साथ दिखाई दिया। (क्योंकि जितना काल उपशम का शेष रहे उतना ही सासादन का काल है), दूसरे समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। २. एक मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्ध होता हुआ सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। पुन: सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त काल रहकर विशुद्ध होता हुआ असंयत सहित सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ।...अथवा संक्लेश को प्राप्त होने वाला वेदक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त हुआ और वहाँ पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रह करके अविनष्ट संक्लेशी हुआ ही मिथ्यात्व को चला गया।....इस तरह दो प्रकारों से सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्यकाल की प्ररूपणा समाप्त हुई। ३. एक अनिवृत्तिकरण उपशामक जीव एकसमय जीवन शेष रहने पर अपूर्वकरण उपशामक हुआ, एक समय दिखा, और द्वितीय समय में मरण को प्राप्त हुआ। तथा उत्तम जाति का विमानवासी देव हो गया। नोट—इसी प्रकार अन्य गुणस्थानों में भी यथायोग्य रूप से लागू कर लेना चाहिए।
- देवगति में मिथ्यात्व के उत्कृष्टकाल सम्बन्धी नियम
ध./४/१,५,२९३/४६३/६ ‘मिच्छादिट्ठी जदि सुह महंतं करेदि। तो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणब्भधियवेसागरोवमाणि करेदि। सोहम्मे उप्पज्जमाणमिच्छादिट्ठीणं एदम्हादो अहियाउट्ठवणे सत्तीए अभावा।...अंतोमुहुत्तूणड्ढाइज्जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिट्ठिस्स सोहम्मणिवासिस्स मिच्छत्तगमणे संभवाभावो...भवणादिसहस्सारंतदेवेसु मिच्छाइट्ठिस्स दुविहाउट्ठिदिपरूवण्णा हाणुववत्तीदो।=मिथ्यादृष्टि जीव यदि अच्छी तरह खूब बड़ी भी स्थिति करे, तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग से अभ्यधिक दो सागरोपम करता है, क्योंकि सौधर्म कल्प में उत्पन्न होने वाले मिथ्यादृष्टि जीवों के इस उत्कृष्ट स्थिति से अधिक आयु की स्थिति स्थापन करने की शक्ति का अभाव है।...अन्तर्मुहूर्त्त कम ढाई सागरोपम की स्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी सम्यग्दृष्टि देव के मिथ्यात्व में जाने की सम्भावना का अभाव है।...अन्यथा भवनवासियों से लेकर सहस्रार तक के देवों में मिथ्यादृष्टि जीवों के दो प्रकार की आयु स्थिति की प्ररूपणा हो नहीं सकती थी।
- इन्द्रिय मार्गणा में उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि
ध.९/४,१,६६/१२६-१२७/२९५ व इनकी टीका का भावार्थ−‘‘सौधम्मे माहिंदे पढमपुढवीए होदि चदुगुणिदं। बम्हादि आरणच्चुद पुढवीणं होदि पंचगुणं।१२६। पढमपुढवीए चदुरोपण (पण) सेसासु होंति पुढवीसु। चदु चदु देवेसु भवा वावीसं तिं सदपुधत्तं।१२७।’’=प्रथम पृथिवी में ४ बार=१×४=४ सागर; २ से ७ वीं पृथिवी में पाँच-पाँच बार=५×३, ५×७, ५×१०, ५×१७, ५×२२, ५×३३=१५+३५ ५०+८५+११०+१६५=४६० सागर; सौधर्म व माहेन्द्र युगलों में चार-चार बार=४×२, ४×७=८+२८=३६ सागर; ब्रह्म से अच्युत तक के स्वर्गों में पाँच-पाँच बार=५×१०+५×१४+५×१६+५×१८+५×२०+५×२२=५०+७०+८०+९०+१००+११०=५०० सागर। इन सर्व के ७१ अन्तरालों में पंचेन्द्रिय भवों की कुल स्थिति=पूर्व पृथक्त्व है। अत: पंचेन्द्रियों में यह सब मिलकर कुल परिभ्रमण काल पूर्वकोडि पृथक्त्व अधिक १००० सागर प्रमाण है।१२६। अन्य प्रकार प्रथम पृथिवी चार बार=उपरोक्त प्रकार ४ सागर; २−७ पृथिवी में पाँच-पाँच बार होने से उपरोक्त प्रकार ४६० सागर और सौधर्म से अच्युत युगल पर्यन्त चार-चार बार=उपरोक्तवत् ४३६ सागर अन्तरालों के ७१ भवों की कुल स्थिति पूर्वकोडि पृथक्त्व। इस प्रकार कुल स्थिति पूर्वकोडि पृथक्त्व अधिक ९०० सागर भी है।१२७।
- काय मार्गणा में त्रसों की उत्कृष्ट भ्रमण प्राप्ति विधि
ध.९/४,१,६६/१२८−१२९/२९८ व इनकी टीका का भावार्थ-सोहम्मे माहिंदे पढमपुढवीसु होदि चदुगुणिदं। बम्हादि आरणच्चुद पुढवीणं होदि अट्ठगुणं।१२८। गेवज्जेसु च विगुणं उवरिम गेवज्ज एगवज्जेमु। दोण्णि सहस्साणि भवे कोडिपुधत्तेण अहियाणि।१२९।’’=कल्पों में सौधर्म माहेन्द्र युगलों में चार-चार बार=(४×२)+(४×७)=८+२८=३६ सागर, ब्रह्म से अच्युत तक के युगलों में आठ-आठ-बार=८×१०+८×१४+८×१६+८×१८+८×२०+८×२२=८० +११२+१२८+१४४+१६०+१७६ = ८०० सागर। उपरिम रहित ८ ग्रैवेयकों में दो-दो बार=२×२१२ (२३+२४+२५+२६+२७+२८+२९+३० = ४२४ सागर। प्रथम पृथिवी में चार बार=४×१=४ सागर। २−७ पृथिवियों में आठ-आठ बार = ८×३+८×७+८×१०+८×१७+८×२२+८×३३ = २४+५६+८०+१३६+१७६+२६४ = ७३६ सागर। अन्तराल के त्रस भवों की कुल स्थिति=पूर्व कोडि पृथक्त्व। कुल काल=२००० सागर+पूर्वकोडि पृथक्त्व।
- योग मार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्यकाल प्राप्ति विधि
ध.४/१,५,१६३/४०९/१० ‘‘गुणट्ठाणाणि अस्सिदूण एगसमयपरूवणा कीरदे। एत्थ ताव जोगपरावत्ति-गुणपरावत्ति-मरण-वाघादेहि मिच्छत्तगुणट्ठाणस्स एगसमओ परूविज्जदे।’’ तं जघा–१. एक्को सासणो सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदा संजदो पमत्तसंजदो वा मणजोगेण अच्छिदो। एगसमओ मणजोगद्धाए अत्थित्ति मिच्छत्तं गदो। एगसमयं मणजोगेण सह मिच्छत्तं दिट्ठं। विदियसमए मिच्छादिट्ठी चेव, किन्तु वचिजोगी कायजोगी व जादो। एवं जोगपरिवत्तीए पंचविहा एगसमयरूवणा कदा। (५ भंग) २. गुणपरावत्तीए एगसमओ वुच्चदे। तं जहा-एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तस्स वचिजोगद्धासु कायजोगद्धासु खीणासुहुमणजोगो आगदो। मणजोगेण सह एगसमयं मिच्छत्तं दिट्ठं। विदियसमए वि मणजोगी चेव। किंतु सम्मामिच्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा संजमासंजमं वा अपमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो। एवं गुणपरावत्तीए चउव्विहा एगसमयपरूवणा कदा। (४ भंग)। ३. एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तेसिं खएण मणजोगो आगदो। एगसमयं मणजोगेण सह मिच्छत्तं दिट्ठं। विदियसमए मदो। जदि तिरिक्खेसु वा मणुसेसु वा उप्पण्णो, तो कम्मइकायजोगी वा जादो। एवं मरणेण लद्ध एग भंगे...। ४. वाघादेण एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो। तेसिं वचि-कायजोगाणं खएण तस्स मणजोगो आगदो। एगसमयं मणजोगेण मिच्छत्तं दिट्ठं। विदियसमए वाघादिदो कायजोगी जादो। लद्धो एगसमओ। एत्थ उववुज्जंती गाहा-गुण-जोग परावत्ती वाघादो मरणमिदि हु चत्तारि। जोगेसु होंति ण वरं पच्छिल्लदुगुणका जोगे।३९। नोट—एदम्हि गुणट्ठाणे ट्ठिदजीवा इमं गुणट्ठाणं पडिवज्जंति, ण पडिवज्जंति त्ति णादूण गुणपडिवण्णा वि इमं गुणट्ठाणं गच्छंति, ण गच्छंति त्ति चिंतिय असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद-पमत्तसंजदाणं च चउव्विहा एगसमयपरूवणा परूविदव्वा। एवमप्पमत्तसंजदाणं। णवरि वाघादेण विणा तिविधा एगसमयपरूवणा कादव्वा।=मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान को आश्रय करके एक समय की प्ररूपणा की जाती है—उनमें से पहले योग परिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन, मरण और व्याघात, इन चारों के द्वारा मिथ्यात्व गुणस्थान का एक समय प्ररूपण किया जाता है। वह इस प्रकार है–१. योगपरिवर्तन के पाँच भंग—सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्त संयत (इन पाँचों) गुणस्थानवर्त्ती कोई एक जीव मनोयोग के साथ विद्यमान था। मनोयोग के काल में एक-एक समय अवशिष्ट रहने पर वह मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। वहाँ पर एक समय मात्र मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया। द्वितीय समय में वही जीव मिथ्यादृष्टि ही रहा, किन्तु मनोयोगी से वचनयोगी हो गया अथवा काययोगी हो गया। इस प्रकार योग परिवर्तन के साथ पाँच प्रकार से एक समय की प्ररूपणा की गयी। (योग परिवर्तन किये बिना गुणस्थान परिवर्तन सम्भव नहीं है—देखें - अन्तर / २)। २. गुणस्थान परिवर्तन के चार भंग—अब गुणस्थान परिवर्तन द्वारा एक समय की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है—कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोग से अथवा काययोग से विद्यमान था। उसके वचनयोग अथवा काययोग का काल क्षीण होने पर मनोयोग आ गया और मनोयोग के साथ एक समय में मिथ्यादृष्टि गोचर हुआ। पश्चात् द्वितीय समय में भी वह जीव यद्यपि मनोयोगी ही है, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व को अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को अथवा अप्रमत्त संयम को प्राप्त हुआ। इस प्रकार गुणस्थान परिवर्तन के द्वारा चार प्रकार से एक समय की प्ररूपणा की गयी। (एक विवक्षित गुणस्थान से अविवक्षित चार गुणस्थानों में जाने से चार भंग)। ३. मरण का एक भंग—कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचन योग से अथवा काययोग से विद्यमान था पुन: योग सम्बन्धी काल के क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आ गया। तब एक समय मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दिखाई दिया और दूसरे समय में मरा। सो यदि वह तिर्यंचों में या मनुष्यों में उत्पन्न हुआ तो कार्माण काययोगी अथवा औदारिक मिश्र काययोगी हो गया। अथवा यदि देव और नारकियों में उत्पन्न हुआ तो कार्माण काययोगी अथवा वैक्रियक मिश्र काययोगी हो गया। इस प्रकार मरण से प्राप्त एक भंग हुआ। ४. व्याघात का एक भंग—अब व्याघात से लब्ध होने वाले एक भंग की प्ररूपणा करते हैं—कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोग से अथवा काययोग से विद्यमान था। सो उन वचन अथवा काययोग के क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आ गया तब एक समय मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दृष्ट हुआ और दूसरे समय वह व्याघात को प्राप्त हुआ काययोगी हो गया, इस प्रकार से एक समय लब्ध हुआ। भंगों को यथायोग्य रूप से लागू करना—इस विषय में उपयुक्त गाथा इस प्रकार है--‘‘गुणस्थान परिवर्तन, योगपरिवर्तन, व्याघात और मरण ये चारों बातें योगों में अर्थात् तीन योगों के होने पर हैं। किन्तु सयोग केवली के पिछले दो अर्थात् मरण और व्याघात तथा गुणस्थान परिवर्तन नहीं होते।१३९।’’ इस विवक्षित गुणस्थान में विद्यमान जीव इस अविवक्षित गुणस्थान को प्राप्त होते हैं या नहीं, ऐसा जान करके तथा गुणस्थानों को प्राप्त जीव भी इस विवक्षित गुणस्थान को जाते हैं अथवा नहीं ऐसा चिन्तवन करके असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्त संयतों की चार प्रकार से एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए। इसी प्रकार से अप्रमत्त संयतों की भी प्ररूपणा होती है, किन्तु विशेष बात यह है कि उनके व्याघात के बिना तीन प्रकार से एक समय ही प्ररूपणा करनी चाहिए। क्योंकि अप्रमाद और व्याघात इन दोनों का सहानवस्था लक्षण विरोध है। (अत: चारों उपशामकों में भी अप्रमत्तवत् ही तीन प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए तथा क्षपकों में मरण रहित केवल दो प्रकार से ही।) ५. भंगों का संक्षेप–(अविवक्षित मिथ्यादृष्टि योग परिवर्तन कर एक समय तक उस योग के साथ रहकर अविवक्षित सम्यग्मिथ्यात्वी, या असंयतसम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, या अप्रमत्त संयत हो गया। विवक्षित सासादन, या सम्यग्मिथ्यात्व, या असंयत सम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, या प्रमत्तसंयत विवक्षित योग एक समय अवशिष्ट रहने पर अविवक्षित मिथ्यादृष्टि होकर योग परिवर्तन कर गया। विवक्षित स्थानवर्ती योगपरिवर्तन कर एक समय रहा, पीछे मरण या व्याघात पूर्वक योग परिवर्तन कर गया।)
- योग मार्गणा में एक जीवापेक्षा उत्कृष्ट काल प्राप्ति विधि
ध.७/२,२,९८/१५२/२ अणप्पिदजोगादो अप्पिदजोगं गंतूण उक्कस्सेण तत्थ अंतोमुहुत्तावट्ठाणं पडि विरोहाभावादो।
ध.७/२,२,१०४/१५३/७ बावीसवाससहस्साउअपुढवीकाइएसु उप्पज्जिय सव्वजहण्णेण कालेण ओरालियमिस्सद्धं गमिय पज्जत्तिगदापढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तूणबावीसवाससहस्साणि ताव ओरालियकायजोगुवलंभादो।
ध.७/२,२,१०७/१५४/९ मणजोगादो वचिजोगादो वा वेउव्विय-आहार-कायजोगं गंतूण सव्वुक्कस्सं अंतोमुहुत्तमच्छिय अण्णजोगं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो, अणप्पिदजोगादो ओरालियमिस्सजोगं गंतूण सव्वुक्कस्सकालमच्छिय अण्णजोगं गदस्स ओरालियमिस्सस्स अंतोमुहुत्तमेतुक्कस्सकालुवलंभादो।=१. (मनोयोगी तथा वचनयोगी) अविवक्षित योग से विवक्षित योग को प्राप्त होकर उत्कर्ष से वहाँ अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है। २. (अधिक से अधिक बाईस हज़ार वर्ष तक जीव औदारिक काययोगी रहता है। (ष.ख./७/२,२/सू. १०५/१५३) क्योंकि, बाईस हज़ार वर्ष की आयु वाले पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होकर सर्व जघन्य काल से औदारिकमिश्र काल को बिताकर पर्याप्ति को प्राप्त होने के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्तकम बार्इस हज़ार वर्ष तक औदारिक काययोग पाया जाता है। ३. मनोयोग अथवा वचनयोग से वैक्रियक या आहारककाययोग को प्राप्त होकर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर अन्य योग को प्राप्त हुए जीव के अन्तर्मुहूर्त मात्र काल पाया जाता है, तथा अविवक्षित योग से औदारिकमिश्रयोग को प्राप्त होकर व सर्वोत्कृष्ट काल तक रहकर अन्य योग को प्राप्त हुए जीव के औदारिकमिश्र का अन्तर्मुहूर्त मात्र उत्कृष्ट काल पाया जाता है।
- वेद मार्गणा में स्त्रीवेदियों की उत्कृष्ट भ्रमणकाल प्राप्ति विधि
ध९/४,१,६६/१३०−१३१/३०० सोहम्मे सत्तगुणं तिगुणं जाव दु ससुक्ककप्पो त्ति। सेसेसु भवे विगुणं जाव दु आरणच्चुदो कप्पो।१३०। पणगादी दोही जुदा सत्तावीसा ति पल्लदेवीणं। तत्तो सत्तुतरियं जाव दु आरणच्चुओ कप्पो।१३१।=सौधर्म में सात बार=७×५ पल्य। ईशान से महाशुक्र तक तीन तीन बार=३ (७+९+११+१३+१५+१७+१९+२१+२३) =२१+२७+३३+३९+४५+५१+५७+६३+६९=४०५ पल्य। शतार से अच्युत तक दो दो बार=२ (२५+२७+३४+४१+४८+५५) =५०+५४+६८+८२+९६+११०=४६० पल्य। अन्तरालों के स्त्री भवों की स्थिति=? कुल काल ९०० पल्य+?
- वेद मार्गणा में पुरुषवेदियों की उत्कृष्ट भ्रमण काल प्राप्ति विधि
ध.९/४,१,६६/१३२/३०० पुरिसेसु सदपुधत्तं असुरकुमारेसु होदि तिगुणेण। तिगुणे णवगेवज्जे सग्गठिदी छग्गुणं होदि।१३२।=असुरकुमार में ३ बार=३×१=३ सागर। नव ग्रैवेयकों में तीन बार=३ (२४+२७+३०) =७२+८१+९०=२४३ सागर। आठ कल्प युगलों अर्थात् १६ स्वर्गों में छ: छ: बार=६ (२+७+१०+१४+१६+१८+२०+२२) =१२+४२+६०+८४+९६+१०८+१२०+१३२=६५४ सागर। अन्तरालों के भवों की कुल स्थिति=?। कुल काल=९०० सागर+?।
- कषाय मार्गणा में एक जीवापेक्षा जघन्यकाल प्राप्ति विधि
ष.खं./७/२,२/सू.१२९/१६० जहण्णेण एयसमओ।१२९।
ध.७/२,२,११९/१६०/१० कोधस्स बाघादेण एगसमओ णत्थि, बाघादिदे वि कोधस्सेव समुप्पत्तीदो। एवं सेसतिण्हं कसायाणं पि एगसमयपरूवणा कायव्वा। णवरि एदेसिं तिण्हं कसायाणं वाघादेण वि एगसमयपरूवणा कायव्वा।=कम से कम एक समय तक जीव क्रोध कषायी आदि रहता है (योगमार्गणावत् यहाँ भी योग परिवर्तन के पाँच, गुणस्थान परिवर्तन के चार मरण का एक तथा व्याघात का एक इस प्रकार चारों के, ११ भंग यथायोग्यरूप से लागू करना। विशेष इतना कि क्रोध के व्याघात से एक समय नहीं पाया जाता, क्योंकि व्याघात को प्राप्त होने पर भी पुन: क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार शेष तीन कषायों के भी एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए (विशेष इतना है कि इन तीन कषायों के व्याघात से भी एक समय की प्ररूपणा करना चाहिए।
क.पा.१/३६८/चूर्ण सू./३८५ दोसो केवचिरं कालादो होदि। जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं।
क पा.१/३६९−३८५/१० कुदो। मुदे वाघादिदे वि कोहमाणाणं अंतोमुहुत्तं मोतूण एग-दोसमयादीणमणुवलंभादो। जीवट्ठाणे एगसमओ कालम्मि परूविदो, सोकधमेदेण सह ण विरुज्झदे; ण; तस्स अण्णाइरियउवएसत्तादो। कोहमाणाणमेगसमयमुदओ होदूण विदियसमयकिण्ण फिट्टदे। ण; साहावियादो।=प्रश्न—दोष कितने काल तक रहता है? उत्तर—जघन्य और उत्कृष्ट रूप से दोष अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। प्रश्न—जघन्य और उत्कृष्टरूप से भी दोष अन्तर्मुहूर्त काल तक ही क्यों रहता है? उत्तर—क्योंकि जीव के मर जाने पर या बीच में किसी प्रकार रुकावट के आ जाने पर भी क्रोध और मान का काल अन्तर्मुहूर्त छोड़कर एक समय, दो समय, आदि रूप नहीं पाया जाता है। अर्थात् किसी भी अवस्था में दोष अन्तर्मुहूर्त से कम समय तक नहीं रह सकता। प्रश्न—जीवस्थान में कालानुयोगद्वार का वर्णन करते समय क्रोधादिक का काल एक समय भी कहा है, अत: वह कथन इस कथन के साथ विरोध को क्यों प्राप्त नहीं होता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि जीवस्थान में क्रोधादिक का काल जो एक समय कहा है वह अन्य आचार्य के उपदेशानुसार कहा है। प्रश्न—क्रोध और मान का उदय एक समय तक रहकर दूसरे समय में नष्ट क्यों नहीं हो जाता? उत्तर—नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त तक रहना उसका स्वभाव है।
- लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा एक समय जघन्यकाल प्राप्ति विधि
ध.४/१,५,२९६/४६६−४७५ का भावार्थ (योग मार्गणावत् यहाँ भी लेश्या परिवर्तन के पाँच, गुणस्थान परिवर्तन के चार, मरण का एक और व्याघात का एक इस प्रकार चारों के ११ भंग यथायोग्य रूप से लागू करना। विशेष इतना कि वृद्धिगत गुणस्थान लेश्या को भी वृद्धिगत और हीयमान गुणस्थानों के साथ लेश्या को भी हीयमान रूप परिवर्तन कराना चाहिए। परन्तु यह सब केवल शुभ लेश्याओं के साथ लागू होता है, क्योंकि अशुभ लेश्याओं का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है।
ध.४/१,५,२९७/४६७/३ एगो मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी वा वड्ढमाणपम्मलेस्सिओ पम्मलेस्सद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति संजमासंजमं पडिवण्णो। विदिएसमए संजमासंजमेण सह सुक्कलेस्सं गदो। एसा लेस्सापरावत्ती (३)। अधवा वड्ढमाणतेउलेस्सिओ संजदासंजदो तेउलेस्सद्धाए खएण पम्मलेस्सिओ जादो। एगसमयं पम्मलेस्साए सह संजमासंजमं दिट्ठं, विदियसमए अप्पमत्तो जादो। एसा गुणपरावत्ती। अधवा संजदासंजदो हीयमाणसुक्कलेस्सिओ सुक्कलेस्सद्धाखएण पम्मलेस्सिओ जादो। विदियसमए पम्मलेस्सिओ चेव, किंतु असंजदसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी वा जादो। एसा गुणपरावत्ती (४)।
ध.४/१,५,३०७/४७५/१ (एक्को) अप्पमत्तो हीयमाणसुक्कलेस्सिगो सुक्कलेस्सद्धाए सह पमत्तो जादो। विदियसमये मदो देवत्तं गदो (३)। =१. वर्धमान पद्मलेश्या वाला कोई एक मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि जीव, पद्मलेश्या के काल में एक समय अवशेष रहने पर संयमासंयम को प्राप्त हुआ। द्वितीय समय में संयमासंयम के साथ ही शुक्ललेश्या को प्राप्त हुआ। यह लेश्या परिवर्तन सम्बन्धी एक समय की प्ररूपणा हुई। अथवा, वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई संयतासंयत तेजोलेश्या के काल के क्षय हो जाने से पद्मलेश्या वाला हो गया। एक समय पद्मलेश्या के साथ संयमासंयम दृष्टिगोचर हुआ। और वह द्वितीय समय में अप्रमत्तसंयत हो गया। वह गुणस्थान परिवर्तन की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा हुई। अथवा, हीयमान शुक्ललेश्या वाला कोई संयतासंयत जीव शुक्ललेश्या के काल पूरे हो जाने पर पद्मलेश्या वाला हो गया। द्वितीय समय में वह पद्मलेश्या वाला ही है, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा सासादन सम्यग्दृष्टि, अथवा मिथ्यादृष्टि हो गया। यह गुणस्थान परिवर्तन की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा हुई (४)। २. हीयमान शुक्ललेश्या वाला कोई अप्रमत्तसंयत, शुक्ललेश्या के ही काल के साथ प्रमत्तसंयत हो गया, पुन: दूसरे समय में मरा और देवत्व को प्राप्त हुआ। (यह मरण की अपेक्षा एक समय की प्ररूपणा हुई।) नोट—इस प्रकार यथायोग्य से सर्वत्र लागू कर लेना।
- लेश्या मार्गणा में एक जीवापेक्षा अन्तर्मुहूर्त जघन्यकाल भी है
यह काल अशुभलेश्या की अपेक्षा है—क्योंकि—
ध.४/१,५,२८४/४५६/१२ एत्थ (असुहलेस्साए) जोगस्सेव एगसमओ जहण्णकालो किण्ण लब्भदे। ण, जोगकसायाणं व लेस्साए तिस्सा परावत्तीए गुणापरावत्तीए मरणेण वाघादेण वा एगसमयकालस्सासंभवा। ण ताव लेस्सापरावत्तीए एगसमओ लब्भदि, अप्पिदलेस्साए परिणमिदविदियसमए तिस्से विणासाभावा, गुणंतरं गदस्स विदियसमए लेस्संतरगमणाभावादो च। ण गुणपरावत्तीए, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए गुणंतरगमणाभावा। ण च वाघादेण, तिस्से वाघादाभावा। ण च मरणेण, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए मरणाभावा।=प्रश्न—यहाँ पर (तीनों अशुभ लेश्याओं के प्रकरण में) योगपरावर्तन के समान एक समय रूप जघन्यकाल क्यों नहीं पाया जाता है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, योग और कषायों के समान लेश्या में—लेश्या परिवर्तन, अथवा गुणस्थान का परिवर्तन, अथवा मरण और व्याघात से एक समयकाल का पाया जाना असम्भव है। इसका कारण यह कि न तो लेश्या परिवर्तन के द्वारा एक समय पाया जाता है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में उस लेश्या के विनाश का अभाव है। तथा इसी प्रकार से अन्य गुणस्थान को गये हुए जीव के द्वितीय समय में अन्य लेश्याओं में जाने का अभाव है। न गुणस्थान परिवर्तन की अपेक्षा एक समय सम्भव है, क्योंकि विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में अन्य गुणस्थान के गमन का अभाव है। न व्याघात की अपेक्षा ही एक समय सम्भव है, क्योंकि, वर्तमान लेश्या के व्याघात का अभाव है। और न मरण की अपेक्षा ही एक समय सम्भव है, क्योंकि, विवक्षित लेश्या से परिणत हुए जीव के द्वितीय समय में मरण का अभाव है। (ध.४/१,५,२९६/४६८/९) - लेश्या परिवर्तन क्रम सम्बन्धी नियम
ध.४/१,५,२८४/४५६/३ किण्हलेस्साए परिणदस्स जीवस्स अणंतरमेव काउलेस्सापरिणमणसत्तीए असंभवा।
ध.८/३,२,५८/३२२/७ सुक्कलेस्साए ट्ठिदो पम्म-तेउ-काडणीललेस्सासु परिणमीय पच्छा किण्णलेस्सापज्जाएण परिणमणव्भुवगमादो।=कृष्ण लेश्या परिणत जीव के तदनन्तर ही कापोत लेश्यारूप परिणमन शक्ति का होना असम्भव है। शुक्ललेश्या से क्रमश: पद्म, पीत, कापोत और नील लेश्याओं में परिणमन करके पीछे कृष्ण लेश्या पर्याय से परिणमन स्वीकार किया गया है। - वेदक सम्यक्त्व का ६६ सागर उत्कृष्टकाल प्राप्ति विधि
ध.७/२,२,१४१/१६४/११ देवस्स णेरइयस्स वा पडिवण्णउवसमसम्मत्तेण सह समुप्पण्णमदि-सुद-ओट्ठि-णाणस्स वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय अविणट्ठतिणाणेहि अंतोमुहुत्तमच्छिय एदेणंतोमुहुत्तेणूणपुव्वकोडाउ अमणुस्सेसुववज्जिय पुणो वीससागरोवमिएसु देवेसुववज्जिय पुणो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववज्जिय बावीससागरोवमट्ठिदीएसु देवेसुववज्जिदूण पुणो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववज्जिय खइयं पट्ठविय चउबीससागरोवमाउट्ठिदिएसु देवेसुववज्जिदूण पुणो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववज्जिय थोवावसेसे जीविए केवलणाणी होदूण अबंधगत्तं गदस्स चदुहि पुव्वकोडीहि सादिरेयछावट्ठिसागरोवमाणमुवलंभादो।=देव अथवा नारकी के प्राप्त हुए उपशम सम्यक्त्व के साथ मति, श्रुत व अवधि ज्ञान को उत्पन्न करके, वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त कर, अनिष्ट तीनों ज्ञानों के साथ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहकर, इस अन्तर्मुहूर्त से हीन पूर्व कोटि आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर, पुन: बाईस सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर, पुन: पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, क्षायिक सम्यक्त्व का प्रारम्भ करके, चौबीस सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर, पुन: पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, जीवित के थोड़ा शेष रहने पर केवलज्ञानी होकर अबन्धक अवस्था को प्राप्त होने पर चार पूर्वकोटियों से अधिक छियासठ सागरोपम पाये जाते हैं।
- कालानुयोगद्वार का लक्षण