जयसेन
From जैनकोष
- (म.पु./४८/श्लो.नं.)। जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में वत्सकावती का राजा था।५८। पुत्र रतिषेण की मृत्यु पर विरक्त हो दीक्षा धर ली।६२-६७। अन्त में स्वर्ग में महाबल नाम का देव हुआ।६८। यह सगर चक्रवर्ती का पूर्व भव नं.२ है।–देखें - सगर।
- (म.पु./६९/श्लो.नं.) पूर्व भव नं.२ में श्रीपुर नगर का राजा वसुन्धर था।७४। पूर्वभव नं.१ में महाशुक्र विमान में देव था।७७। वर्तमान भव में ११वाँ चक्रवर्ती हुआ।७८। अपर नाम जय था।– देखें - शलाका पुरुष / २ ।
- जयसेन―
- श्रुतावतार की पट्टावली के अनुसार आप भद्रबाहु श्रुतकेवली के पश्चात् चौथे ११ अंग व १४ पूर्वधारी थे। समय–वी.नि.२०८-२२९ (ई.पू./३१९-३९८) दृष्टि नं.३ के अनुसार वी.नि.२६८-२८९। – देखें - इतिहास / ४ / ४ ।
- पुन्नाटसंघ की गुर्वावली के अनुसार आप शान्तिसेन के शिष्य तथा अमितसेन के गुरु थे। समय–वि.७८०-८३० (ई.७२३-७७३)। – देखें - इतिहास / ७ / ८ ।
- पंचस्तूप संघ की गुर्वावली के अनुसार आप आर्यनन्दि के शिष्य तथा धवलाकार श्री वीरसेन के सधर्मी थे। समय–ई.७७०-८२७– देखें - इतिहास / ७ / ७ ।
- लाड़बागड़ संघ की गुर्वावली के अनुसार आप भावसेन के शिष्य तथा ब्रह्मसेन के गुरु थे। कृति-धर्म-रत्नाकर श्रावकाचार। समय–वि.१०५५ (ई.९९८)। – देखें - इतिहास / ७ / १० । (जै/१/३७५)
- आचार्य वसुनन्दि (वि.११२५-११७५; ई.१०६८-१११८) का अपर नाम। प्रतिष्ठापाठ आदि के रचयिता।– देखें - वसुनन्दि / ३
- लाड़बागड़ संघ की गुर्वावली के अनुसार आप नरेन्द्रसेन के शिष्य तथा गुणसेन नं.२ व उदयसेन नं.२ के सधर्मा थे। समय-वि.११८०– देखें - इतिहास / ७ / १० । वीरसेन के प्रशिष्य सोमसेन के शिष्य। कृतियें–समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय पर सरल संस्कृत टीकायें। समय–पं.कैलाशचन्दजी के अनुसार वि.श.१३ का पूर्वार्ध, ई.श.१२ का उत्तरार्ध। डा०नेमिचन्द के अनुसार ई.श.११ का उत्तरार्ध १२ का पूर्वार्ध। (जै./२/१९४), (ती./३/१४३)।