ज्योतिष लोक
From जैनकोष
ज्योतिष देवों के विमान मध्य लोक के ही अन्तर्गत चित्रा पृथिवी से ७९० योजन ऊपर जाकर स्थित हैं। इनमें से कुछ चर हैं और कुछ अचर।
- ज्योतिष लोक सामान्य निर्देश
स.सि./४/१२/२४४/१३ स एष ज्योतिर्गणगोचरो नभोऽवकाशो दशाधिकयोजनशतबहलस्तिर्यगसंख्यातद्वीपसमुद्रप्रमाणो घनोदधिपर्यन्त:। =ज्योतिषियों से व्याप्त नभ:प्रदेश ११० योजन मोटा और घनोदधि पर्यन्त असंख्यात द्वीपसमुद्र प्रमाण लम्बी है।
ति.प./७/५-८ {१ राजू२×११०}–अगम्यक्षेत्र १३०३२९२५०१५ योजन प्रमाण क्षेत्र में सर्व ज्योतिषी देव रहते हैं। लोक के अन्त में पूर्वपश्चिम दिशा में घनोदधि वातवलय को छूते हैं। उत्तर-दक्षिण दिशा में नहीं छूते।
भावार्थ–१ राजू लम्बे व चौड़े सम्पूर्ण मध्यलोक की चित्रा पृथिवी से ७९० योजन ऊपर जाकर ज्योतिष लोक प्रारम्भ होता है, जो उससे ऊपर ११० योजन तक आकाश में स्थित है। इस प्रकार चित्रा पृथिवी से ७९० योजन ऊपर १ राजू लम्बा, १ राजू चौड़ा ११० योजन मोटा आकाश क्षेत्र ज्योतिषी देवों के रहने व संचार करने का स्थान है, इससे ऊपर नीचे नहीं। तिसमें भी मध्य में मेरु के चारों तरफ १३०३२९२५०१५ योजन अगम्य क्षेत्र है, क्योंकि मेरु से ११२१ योजन परे रहकर वे संचार करते हैं, उसके भीतर प्रवेश नहीं करते।
ज्योतिष लोक में चन्द्र सूर्यादि का अवस्थान
चित्रा पृथिवी से ऊपर निम्न प्रकार क्रम से स्थित है। तिसमें भी दो दृष्टियाँ हैं–
दृष्टि नं.१=(स.सि./४/१२/२४४/८); (ति.प./७/३६-१०८); (ह.पु./६/१-६); (त्रि.सा./३३२-३३४); (ज.प./१२/९४); (द्र.सं./टी./३५/१३४/२)।
दृष्टि नं.२=(रा.वा./४/१२/१०/२१९/१)।
ति.प./७/गा. |
कितने ऊपर जाकर |
कौन विमान |
प्रमाण |
कितने ऊपर जाकर |
कौन विमान |
|
दृष्टि नं.१– |
|
(रा.वा./४/१२/१०/२१९/१) |
दृष्टि नं.२– |
|
१०८ |
७९० यो. |
तारे |
७९० यो. |
तारे |
|
६५ |
८०० यो. |
सूर्य |
८०० यो. |
सूर्य |
|
३६ |
८८० यो. |
चन्द्र |
८८० यो. |
चन्द्र |
|
१०४ |
८८४ यो. |
नक्षत्र |
८८३ यो. |
नक्षत्र |
|
८३ |
८८८ यो. |
बुध |
८८६ यो. |
बुध |
|
८९ |
८९१ यो. |
शुक्र |
८८९ यो. |
शुक्र |
|
९३ |
८९४ यो. |
वृहस्पति |
८९२ यो. |
वृहस्पति |
|
९६ |
८९७ यो. |
मंगल |
८९६ यो. |
मंगल |
|
९९ |
९०० यो. |
शनि |
९०० यो. |
शनि |
|
१०१ |
८८८-९०० यो. |
शेष ग्रह |
|
|
त्रि.सा./३४० राहुअरिट्ठविमाणधयादुवरि पमाणअंगुलचउक्कं। गंतूण ससिविमाणा सूर विमाणा कमे होंति। =राहु और केतु के विमाननिका जो ध्वजादण्ड ताके ऊपर च्यार प्रमाणांगुल जाइ क्रमकरि चन्द्र के विमान अर सूर्य के विमान हैं। राहु विमान के ऊपर चन्द्रमा का और केतु विमान के ऊपर सूर्य का विमान है। (ति.प./७/२०१,२०२)।
नोट–विशेषता के लिए देखें - पृ वाला चित्र। / ०३४८
- ज्योतिष-विमानों में चर-अचर विभाग
स.सि./४/१३/२४५/८ अर्धतृतीयेषु द्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयोर्ज्योतिष्का नित्यगतयो नान्यत्रेति। =अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में (अर्थात् ३४७ पेज का चार्ट बाकी है
जम्बूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक के मनुष्य लोक में पाँचों प्रकार के) ज्योतिषी देव निरन्तर गमन करते रहते हैं अन्यत्र नहीं। (ति.प./७/११६); (रा.वा./४/१३/४/२२०/११)।
ति.प./७/६११-६१२ सव्वे कुणंति मेरु पदाहिणं जंबूदीवजोदिगणा। अद्धपमाणा धादइसंडे तह पोक्खरद्धम्मि।६११। मणुस्सुत्तरादो परदो संभूरमणो त्ति दीवउवहीणं। अचरसरूवठिदाणं जोइगणाणं परूवेमो।६१२। =जम्बूद्वीप में सब ज्योतिषीदेवों के समूह मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं, तथा धातकी खण्ड और पुष्करार्ध द्वीप में आधे ज्योतिषीदेव मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं।६११। मानुषोत्तर पर्वत से आगे, स्वयंभूरमण पर्यंत द्वीप समुद्रों में अचर स्वरूप से स्थित ज्योतिषी देवों के समूह का निरूपण करते हैं।६१२।
- ज्योतिष विमानों का प्रमाण
संकेत–सं.प्र.अं=संख्यात प्रतरांगुल; ज.श्रे.=जगश्रेणी।
प्रमाण–प्रत्येक विकल्प का प्रमाण उसके निचे दिया गया है। जहाँ केवल ब्रैकेट में नं.दिया है वहाँ ति.प./७/गा.समझना।
लोक के किस भाग में |
चन्द्र |
सूर्य |
ग्रह |
नक्षत्र |
तारे |
||
अचल तारे |
कुल तारे कोड़ा कोड़ी |
||||||
प्रत्येक चन्द्र का परिवार |
१ ज्योतिषी/१/५ |
१ ज्योतिषी/१/५ |
८८ ज्योतिषी/१/५ |
२८ ज्योतिषी/१/५ |
|
६६९७५ (ज्योतिषी/१/५) |
|
नोट–(यहाँ से आगे केवल चन्द्र व अचर ताराओं का प्रमाण दिया गया है, शेष विकल्प उपरोक्त उनपात के गुणाकार से प्राप्त हो जाते हैं।) (ज.प./१२/८७) |
|||||||
जंबू द्वी. |
२ (११६) |
२ |
१७६ |
५६ |
३६ (४९५) |
१३३९५० (*) |
|
लवण. |
४ (५५०) |
४ |
३५२ |
११२ |
१३९(६०४) |
२६७९०० |
|
धातकी |
१२(५५०) |
१२ |
१०५६ |
३३६ |
१०१०(६०४) |
८०३७०० |
|
कालोद |
४२(५५०) |
४२ |
३६९६ |
११७६ |
४११२०(६०४) |
२८१२९५० |
|
पुष्करार्द्ध |
७२(५५०) |
७२ |
६३३६ |
२०१६ |
५३२३०(६०४) |
४८२२२०० |
|
|
(ह.पु./६/२६-२७), (ज.प./१२/१०६-१०७), (त्रि.सा./३४६) |
(त्रि.सा.३४७) |
|
||||
मनुष्य लोक |
१३२ |
१३२ |
११६१६ |
३६९६ |
―― |
८८४०७०० |
|
(ति.प./७/६०६-६०९) |
|||||||
सर्व लोक |
ज.श्रे.२ ÷ (सं.प्र.अं × ४३८९२७३६०००००००००३३२४८) |
चन्द्र के बराबर (१४) |
ज.श्रे.२÷(सं.प्र.अं×५४८६५९२००००००००००९६६६५६)×११ (ति.प्र.७/२३) |
ज.श्रे.२÷(सं.प्र.अं×१०९७३१८४०००००००००१९३३३१२)×७ (ति.प्र.७/२९-३०) |
|
ज.श्रे.२÷(सं.प्र.अं×२६७९०००००००००००४७२) × ४९८७८२९५८९८४३७५ (ति.प्र./७/३३-३५) |
|
*–ताराओं का विशेष अवस्थान देखें - अगला शीर्षक |
( देखें - ज्योतिषी / २ / ९ ) जितने विमान आदि हैं उतने ही देव हैं।
नोट–विशेषता के लिए देखें - पृष्ठ का चित्र। / ३४७
- क्षेत्र व पर्वतों आदि पर ताराओं के प्रमाण का विभाग
त्रि.सा./३७१ णउदिसयभजिदतारा सगदुगुणसलासमब्भत्था। भरहादि विदेहोत्ति य तारा वस्से य वस्सधरे। =(जम्बूद्वीप के कुल १३३९५० कोड़ाकोड़ी तारों का क्षेत्रों व कुलाचल पर्वतों की अपेक्षा विभाग करते हैं।) जम्बूद्वीप के दो चन्द्रों सम्बन्धी तारे १३३९५० को.को. हैं। इनको १९० का भाग दीजिए जो प्रमाण होय ताको भरतादिक्षेत्र या कुलाचल की १/२/४/८/१६/३२/६४/३२/१६/८/४/२/१ शलाका करि गुणें उन उनके ताराओं का प्रमाण होता है। अर्थात् उपरोक्त सर्व ताराओं की राशि को उपरोक्त अनुपात (Ratio) से विभाजित करने पर क्रम से भरतादि क्षेत्रों व कुलाचलों के तारों का प्रमाण होता है।
- अचर ज्योतिष विमान
ह.पु./६/३१-३४ सारार्थ–मानुषोत्तर पर्वत से ५०,००० योजन आगे चलकर सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी वलय के रूप में स्थित हैं। अर्थात् मानुषोत्तर से ५०,००० यो. चलकर ज्योतिषियों का पहला वलय है। उसके आगे एक-एक लाख योजन चलकर ज्योतिषियों के वलय (अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त) है। प्रत्येक वलय में चार-चार सूर्य और चार-चार चन्द्र अधिक हैं, एवं एक दूसरे की किरणें निरन्तर परस्पर में मिली हुई हैं।३१-३४।
(अन्तिम वलय स्वयंभूरमण समुद्र की वेदी से ५०,००० योजन इधर ही रह जाता है। प्रत्येक द्वीप या समुद्र के अपने-अपने वलयों में प्रथम वलय से लेकर अन्तिम वलय तक चन्द्र व सूर्यों का प्रमाण उत्तरोत्तर चार चय करि अधिक होता गया है। इससे आगे अगले द्वीप या समुद्र का प्रथम वलय प्राप्त होता है। प्रत्येक द्वीप या सागर के प्रथम वलय में अपने से पूर्ववाले द्वीप या सागर के प्रथम वलय से दुगुने चन्द्र और सूर्य होते हैं। यह क्रम अपर पुष्करार्ध के प्रथम वलय से स्वयंभूरमण सागर के अन्तिम वलय तक ले जाना चाहिए) (ति.प./७/६१२-६१३ पद्य व गद्य। पृ.७६१-७६७); (ज.प./१२/१५-८६); (त्रि.सा./३४९ ३६१)।
द्वीप या सागर |
वलय |
प्रथम वलय में चन्द्र |
पुष्करार्द्ध |
८ |
१४४ |
पुष्करोद |
३२ |
२८८ |
वारुणीद्वी. |
६४ |
५७६ |
वारुणी सा. |
१२८ |
११५२ |
क्षीरवर द्वी. |
२५६ |
२३०४ |
क्षीरवर सा. |
५१२ |
४६०८ |
घृतवर द्वी. |
१०२४ |
९२१६ |
घृतवर सा. |
२०४८ |
१८४३२ |
क्षौरवर द्वी. |
४०९६ |
३६८६४ |
क्षौरवर सा. |
८१९२ |
७३७२८ |
(ज.प./१२/२१-४०) |
||
नंदीश्वर द्वी. |
१६३८४ |
१४७४५६ |
नंदीश्वर सा. |
३२७६८ |
२९४९१२ |
स्वयंभूरमण सा. |
|
ज.श्रे.९÷२८ लाख+२७/४ (ति.प.) |
सब वलय |
ज.श्रे.÷१४ लाख–२३ (ति.प.) |
|
(ति.प./७/६१२-६१३ गद्य) (त्रि.सा./३४९-३६१ गद्य) (ज.प./१२/१८-३२) |
- चर ज्योतिष विमानों का चार क्षेत्र―
टिप्पण–गमनशील बिम्ब मनुष्यक्षेत्र अर्थात् जम्बूद्वीप, लवणोसमुद्र
धातकीखण्ड, कालोद समुद्र और पुष्करार्धद्वीप में ही है (त.सू./४/१३-१५); (स.सि./४/१३/२४५/११); (ह.पु./६/२५); (त्रि.सा./३४५); (ज.प./१२/१३)। तिनमें पृथक्-पृथक् चन्द्र आदिकों का प्रमाण पहले बताया गया है ( देखें - ज्योतिषी / २ / ३ )। ये सभी ज्योतिषी देव ११२१ योजन छोड़कर मेरुओं की प्रदक्षिणा रूप से स्व-स्व मार्ग में गमन करते रहते हैं।
उनके गमन करने के मार्ग को चार क्षेत्र कहते हैं। अर्थात् आकाश में इतने भाग में ही ये गमन करते हैं इसके बाहर नहीं। यद्यपि चन्द्रादि की संख्या आगे-आगे के द्वीपों में बढ़ती गयी है पर उनके चार क्षेत्र का विस्तार सर्वत्र एक ही है। दो-दो चन्द्र व सूर्य का एक ही चारक्षेत्र है। अत: चन्द्रों व सूर्यों को दो से भाग देने पर उस-उस द्वीप व सागर में उनके चार क्षेत्रों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है। (देखो नीचे सारिणी)
चन्द्रमा व सूर्य दोनों ही के चार क्षेत्र सर्वत्र ५१०<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0018.gif" alt="" width="12" height="30" /> योजन चौड़े तथा उस-उस द्वीप व सागर की परिधि प्रमाण होते हैं। चन्द्रमा के प्रत्येक चार क्षेत्र में १५ तथा सूर्य के प्रत्येक चार क्षेत्र में १८४ गलियाँ कल्पित की गयी हैं। चन्द्रमा की गलियों के बीच अन्तराल सर्वत्र ही ३५<img src="JSKHtmlSample_clip_image008_0018.gif" alt="" width="18" height="30" /> योजन तथा सूर्य की गलियों के बीच २ योजन होता है, क्योंकि चारक्षेत्र समान होते हुए गलियाँ हीनाधिक हैं। प्रत्येक गली का विस्तार अपने-अपने बिम्ब के विस्तार के जितना ही समझना चाहिए अर्थात् चन्द्र पथ का विस्तार <img src="JSKHtmlSample_clip_image010_0013.gif" alt="" width="12" height="30" /> × <img src="JSKHtmlSample_clip_image012_0024.gif" alt="" width="12" height="30" /> योजन तथा सूर्य पथ का विस्तार <img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0019.gif" alt="" width="12" height="30" /> × <img src="JSKHtmlSample_clip_image014_0010.gif" alt="" width="12" height="30" /> योजन चौड़ा व ऊँचा है। (देखें - नीचे सारणी )
चन्द्र व सूर्य प्रतिदिन आधी-आधी गली का अतिक्रमण करते हुए अगली-अगली गली को प्राप्त होते रहते हैं शेष आधी गली में वे नहीं जाते हैं, क्योंकि वह द्वितीय चन्द्र व सूर्य से भ्रमित होता है (ति.प./७/२०९)। यहाँ तक कि १५वें दिन चन्द्रमा और १८४वें दिन सूर्य अन्तिम गली में पहुँच जाते हैं। वहाँ से पुन: भीतर की गलियों की ओर लौटते हैं, और क्रम से एक-एक दिन में एक-एक गली का अतिक्रमण करते हुए एक महीने में चन्द्र और एक वर्ष में सूर्य अपने पहली गली को पुन: प्राप्त कर लेते हैं।
नोट–राहुकेतु के गमन के लिए (देखो ज्योतिषी/२/८)।
ति.प./७/गा./सारार्थ―जम्बूद्वीप सम्बन्धी सूर्य व चन्द्रमा १८० योजन तो द्वीप विषै और ३३०<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0020.gif" alt="" width="12" height="30" /> योजन लवण समुद्र विषै विचरते हैं, अर्थात् उनके ५१०<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0021.gif" alt="" width="12" height="30" /> यो. प्रमाण चार क्षेत्र का इतना इतना भाग द्वीप व समुद्र की प्रणिधियों में पड़ता है। ११८,२१८। (त्रि.सा./३७५)।
(सभी) द्वीप व समुद्रों में अपने-अपने चन्द्रों में से आधे एक भाग में अर्थात् पूर्व दिशा में और आधे दूसरे भाग में अर्थात् पश्चिम दिशा में पंक्तिक्रम से संचार करते हैं।५५१। पश्चात् चन्द्रबिम्ब अग्निदिशा से लांघकर वीथी के अर्धभाग में जाता है। द्वितीय चन्द्र से भ्रमित होने के कारण शेष अर्ध भाग में नहीं जाता।२०९। (इसी प्रकार) अपने-अपने सूर्यों से आधे एक भाग में और दूसरे आधे दूसरे भाग में पंक्तिक्रम से संचार करते हैं।५७२।
अठासी ग्रहों का एक ही चार क्षेत्र है (अर्थात् प्रत्येक चन्द्र सम्बन्धी ८८ ग्रहों का पूर्वोक्त ही चार क्षेत्र है।) जहाँ प्रत्येक वीथी में उनके योग्य वीथियाँ हैं और परिधियाँ हैं। (चन्द्रमावाली वीथियों के बीच में ही यथायोग्य ग्रहों की विथियाँ है) वे ग्रह इन परिधियों में संचार करते हैं। इनका मेरु पर्वत से अन्तराल तथा और भी जो पूर्व में कहा जा चुका है इसका उपदेश कालवश नष्ट हो चुका है।४५७-४५८।
चन्द्र की १५ गलियों के मध्य उन २८ नक्षत्रों की ८ ही गलियाँ होती हैं। अभिजित आदि ९ (देखो नक्षत्र), स्वाति, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी ये १२ नक्षत्र चन्द्र के प्रथम मार्ग में संचार करते हैं। चन्द्र के तृतीय पथ में पुनर्वसु और मघा, ७वें में रोहिणी और चित्रा, ६ठे में कृत्तिका और ८वें में विशाखा नक्षत्र संचार करता है। १०वें में अनुराधा, ११वें में ज्येष्ठ, और १५वें मार्ग में हस्त, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, मृगशिरा, आर्द्रा, पुष्य और आश्लेषा ये आठ नक्षत्र संचार करते हैं। (शेष २,४,५,९,१२,१३,१४ इन सात मार्गों में कोई नक्षत्र संचार नहीं करता)।४५९-४६२। स्वाति, भरणी, मूल, अभिजित और कृत्तिका ये पाँच नक्षत्र अपने-अपने मार्ग में क्रम से ऊर्ध्व, अध:, दक्षिण, उत्तर और मध्य में संचार करते हैं।४९१। तथा (त्रि.सा./३४४)। ये नक्षत्र मन्दर पर्वत के प्रदक्षिणा क्रम से अपने-अपने मार्गों में नित्य ही संचार करते हैं।४९२। नक्षत्र व तारे एक ही पथ विषै गमन करते हैं, अन्य अन्य वीथियों को प्राप्त नहीं होते हैं (त्रि.सा./३४५)।
नक्षत्रों के गमन से सब ताराओं का गमन अधिक जानना चाहिए। इसके नामादिक का उपदेश इस समय नष्ट हो गया।४९६।
लवणोद आदि के ज्योतिषी मण्डल की कुछ विशेषताएँ
जम्बूद्वीप में सब ज्योतिषी देवों के समूह, मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं तथा धातकीखण्ड और पुष्करार्धद्वीप में आधे ज्योतिषी मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं (आधे नहीं करते)।६११। लवण समुद्र आदि चार में जो सूर्य व चन्द्र हैं उनकी किरणें अपने अपने क्षेत्रों में ही जाती हैं अन्य क्षेत्र में कदापि नहीं जातीं।२८९।
(उपरोक्त कुल कथन त्रि.सा./३७४-३७६ में भी दिया है)।
नोट―निम्न सारणी में ब्रैकेट में रहे अंक ति.प./७ की गाथाओं को सूचित करते हैं। प्रत्येक विकल्प का प्रमाण उसके नीचे ब्रकैट में दिया गया है।
संकेत–उप=चन्द्र या सूर्य का अपना अपना उपरोक्त विकल्प।
द्वीप या सागर का नाम |
चन्द्र या सूर्य निर्देश |
प्रत्येक द्वीपादि में |
प्रत्येक चारक्षेत्र में |
प्रत्येक गली का विस्तार |
मेरु से या द्वीप या सागर की दोनों जगतियों से चारक्षेत्रों का अन्तराल |
अनन्तर चारक्षेत्रों की गलियों में परस्पर अन्तराल |
एक ही चारक्षेत्र की गलियों में परस्पर अन्तराल |
|||
कुल चंद्र व सूर्य |
कुल चार क्षेत्र |
चन्द्र व सूर्य |
विस्तार |
गलियाँ |
||||||
|
|
|
|
|
यो. |
|
यो. |
योजन |
योजन |
योजन |
जंबूद्वीप |
चन्द्र |
२ |
१ |
२ |
५१०<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0022.gif" alt="" width="12" height="30" /> |
१५ |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image010_0014.gif" alt="" width="12" height="30" />×<img src="JSKHtmlSample_clip_image012_0025.gif" alt="" width="12" height="30" /> |
४४८२० |
― |
३५<img src="JSKHtmlSample_clip_image008_0019.gif" alt="" width="18" height="30" /> |
|
|
(११६) |
११६) |
(११६) |
११७) |
(११९) |
(११९) |
(१२१) |
― |
(१२५) |
|
सूर्य |
२ |
१ |
२ |
उप |
१८४ |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0023.gif" alt="" width="12" height="30" />×<img src="JSKHtmlSample_clip_image014_0011.gif" alt="" width="12" height="30" /> |
उप |
― |
२ यो. |
|
|
(२१७) |
(२१७) |
(२१७) |
(२१७) |
(२१९) |
(२१९) |
(२२१) |
― |
(२२३) |
लवण सा. |
चन्द्र |
४ |
२ |
२ |
उप |
उप |
उप |
४९९९९<img src="JSKHtmlSample_clip_image016_0008.gif" alt="" width="12" height="30" /> |
९९९९९<img src="JSKHtmlSample_clip_image018_0007.gif" alt="" width="12" height="30" /> |
उप |
|
|
(५५०) |
(५५१) |
(५५२) |
(५५२) |
(५५३) |
(५५३) |
(५५४) |
(५६३) |
(५७०) |
|
सूर्य |
४ |
२ |
२ |
उप |
उप |
उप |
४९९९९<img src="JSKHtmlSample_clip_image020_0004.gif" alt="" width="12" height="30" /> |
९९९९९<img src="JSKHtmlSample_clip_image022_0001.gif" alt="" width="12" height="30" /> |
उप |
|
|
(५७१) |
|
(५७३) |
(५७३) |
(५७४) |
(५७४) |
(५७७) |
(५७७) |
(५९३) |
धातकी |
चन्द्र |
१२ |
६ |
२ |
उप |
उप |
उप |
३३३३२<img src="JSKHtmlSample_clip_image024_0001.gif" alt="" width="18" height="30" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image026_0000.gif" alt="" width="69" height="39" /> |
उप |
|
|
(५५०) |
(५६८) |
(५६८) |
(५७०) |
(५६८) |
(५५३) |
(५५७) |
(५६४) |
(५७०) |
|
सूर्य |
१२ |
६ |
२ |
उप |
उप |
उप |
३३३३२<img src="JSKHtmlSample_clip_image028_0001.gif" alt="" width="18" height="30" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image030_0001.gif" alt="" width="69" height="39" /> |
उप |
|
|
(५७१) |
(५७३) |
(५७३) |
(५७३) |
(५७४) |
(५७४) |
(५७९) |
(५७९) |
(५९३) |
कालोद |
चन्द्र |
४२ |
२१ |
२ |
उप |
उप |
उप |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image032_0000.gif" alt="" width="78" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image034_0000.gif" alt="" width="78" height="39" /> |
उप |
|
|
(५५०) |
(५६८) |
(५६८) |
(५७०) |
(५६८) |
(५५३) |
(५५८) |
(५६५) |
(५७०) |
|
सूर्य |
४२ |
२१ |
२ |
उप |
उप |
उप |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image036_0000.gif" alt="" width="78" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image038_0000.gif" alt="" width="78" height="39" /> |
उप |
|
|
(५७१) |
(५७३) |
(५७३) |
(५७३) |
(५७४) |
(५७४) |
(५८१) |
(५८१) |
(५९३) |
पुष्करार्ध |
चन्द्र |
७२ |
३६ |
२ |
उप |
उप |
उप |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image040_0000.gif" alt="" width="69" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image042_0000.gif" alt="" width="69" height="39" /> |
उप |
|
|
(५५०) |
(५६८) |
(५६८) |
(५७०) |
(५६८) |
(५५३) |
(५५९) |
(५६६) |
(५७०) |
|
सूर्य |
७२ |
३६ |
२ |
उप |
उप |
उप |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image044_0000.gif" alt="" width="69" height="39" /> |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image046_0000.gif" alt="" width="61" height="39" /> |
उप |
|
|
(५७१) |
(५७३) |
(५७३) |
(५७३) |
(५७४) |
(५७४) |
(५८३) |
(५८३) |
(५९३) |
- चर ज्योतिष विमानों की गति विधि
ति.प./७/गा.चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारा ये सब अपने अपने पथों की प्रणिधियों (परिधियों) में पंक्तिरूप से नभखण्डों में संचार करते हैं।६१०। चन्द्र व सूर्य बाहर निकलते हुए अर्थात् बाह्य मार्ग की ओर आते समय शीघ्र गतिवाले और अभ्यंतर मार्ग की ओर प्रवेश करते हुए मन्द गति से संयुक्त होते हैं। इसीलिए वे समान काल में असमान परिधियों का भ्रमण करते हैं।१७९। चन्द्र से सूर्य, सूर्य से ग्रह, ग्रहों से नक्षत्र और नक्षत्रों से भी तारा शीघ्र गमन करने वाले होते हैं।४९७। उन परिधियों में से प्रत्येक के १०९८०० योजन प्रमाण गगनखण्ड करने चाहिए।१८०,२६६। चन्द्र एक मुहूर्त में १७६८ गगनखण्डों का अतिक्रमण करते हैं, इसलिए ६२<img src="JSKHtmlSample_clip_image048_0000.gif" alt="" width="18" height="30" /> मुहूर्त में सम्पूर्ण गगनखण्डों का अतिक्रमण कर लेते हैं। अर्थात् दोनों चन्द्रमा अभ्यन्तर वीथी से बाह्य वीथी पर्यन्त इतने काल में भ्रमण करता है।१८१-१८३। इस प्रकार सूर्य एक मुहूर्त में १८३० गगनखण्डों का अतिक्रमण करता है। इसलिए दोनों सूर्य अभ्यन्तर वीथी से बाह्य वीथी पर्यंत ६० मुहूर्त में भ्रमण करते हैं।२६७-२६८। द्वितीयादि वीथियों में चन्द्र व सूर्य दोनों का गति वेग क्रम से बढ़ता चला जाता है, जिससे उन वीथियों की परिधि बढ़ जाने पर भी उनका अतिक्रमण काल वह का वह ही रहता है।१८५-१९९ तथा २७०-२७१।
ति.प./७/गा. सब नक्षत्रों के गगनखण्ड ५४९०० (चन्द्रमा से आधे) हैं। इससे दूने चन्द्रमा के गगनखण्ड हैं और वही नक्षत्रों की सीमा का विस्तार है।५०४-५०५। सूर्य की अपेक्षा नक्षत्र ३० मुहूर्त में <img src="JSKHtmlSample_clip_image018_0008.gif" alt="" width="12" height="30" /> मुहूर्त अधिक वेग वाला है।५१३। अभिजित नक्षत्र सूर्य के साथ ४ अहोरात्र व छ: मुहूर्त तथा चन्द्रमा के साथ ९<img src="JSKHtmlSample_clip_image050_0000.gif" alt="" width="12" height="30" /> मुहूर्त काल तक गमन करता है।५१६,५२१। शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा तथा ज्येष्ठा ये; नक्षत्र सूर्य के साथ ६ अहोरात्र २१ मुहूर्त तथा चन्द्रमा के साथ १५ मुहूर्त तक गमन करते हैं।५१७,५२२। तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा ये छ: नक्षत्र सूर्य के साथ २० अहोरात्र ३ मुहूर्त तथा चन्द्रमा के साथ ४५ मुहूर्त तक गमन करते हैं।५१८,५२४। शेष १५ नक्षत्र सूर्य के साथ १३ अहोरात्र १२ मुहूर्त और चन्द्र के साथ ३० मुहूर्त तक गमन करते हैं।५१९,५२३। (त्रि.सा./३९८-४०४)।
लवण समुद्र, धातकीखण्ड, कालोद समुद्र, और पुष्करार्द्ध द्वीप में स्थित चन्द्रों, सूर्यों व नक्षत्रों का सर्व वर्णन जम्बूद्वीप के समान समझना।५७०,५९३,५९८।
चार्ट - अमावस्या, ग्रहण, दिन-रात्रि आदि का उत्पत्ति क्रम
- अमावस्या, पूर्णिमा व चन्द्र ग्रहण―
ति.प./७/गा. चन्द्र के नगरतल से चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर राहु विमान के ध्वज दण्ड होते हैं।२०१। दिन और पर्व के भेद से राहुओं के पुरतलों के गमन दो प्रकार होते हैं। इनमें से दिन राहु की गति चन्द्र सदृश होती है।२०५। एक वीथी को लाँघकर दिन राहु और चन्द्रबिम्ब जम्बूद्वीप की आग्नेय और वायव्य दिशा से तदनन्तर वीथी में आते हैं।२०७। राहु प्रतिदिन एक-एक पथ में चन्द्रमण्डल के सोलह भागों में से एक-एक कला (भाग) को आच्छादित करता हुआ क्रम से पन्द्रह कला पर्यंत आच्छादित करता है।२०८,२११। इस प्रकार अन्त में जिस मार्ग में चन्द्र की केवल एक कला दिखाई देती है वह अमावस्या दिवस होता है।२१२। चान्द्र दिवस का प्रमाण ३१<img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0081.gif" alt="" width="18" height="30" /> मुहूर्त है।२१३। प्रतिपदा के दिन से वह राहु एक-एक वीथी में गमन विशेष से चन्द्रमा की एक-एक कला को छोड़ता है।२१४। यहाँ तक कि मनुष्यलोक में उनमें से जिस मार्ग में चन्द्रबिम्ब परिपूर्ण दिखता है वह पूर्णिमा नामक दिवस होता है।२०६। अथवा चन्द्रबिम्ब स्वभाव से ही १५ दिनों तक कृष्ण कान्ति स्वरूप और इतने ही दिनों तक शुक्ल कान्ति स्वरूप परिणमता है।२१५। पर्वराहु नियम से गतिविशेषों के कारण छह मासों में पूर्णिमा के अन्त में पृथक्-पृथक् चन्द्रबिम्बों को आच्छादित करते हैं। (इससे चन्द्र ग्रहण होता है)।२१६।
- दिन व रात
सूर्य के नगरतल से चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर अरिष्ट (केतु) विमानों के ध्वजदण्ड होते हैं।२७२। सूर्य के प्रथम पथ में स्थित रहने पर १८ मुहूर्त दिन और १२ मुहूर्त रात्रि होती है।२७७। तदन्तर द्वितीयादि पथों में रहते हुए बराबर दिन में २/६१ की हानि और रात्रि में इतनी ही वृद्धि होती जाती है।२८०। यहाँ तक कि बाह्य मार्ग में स्थित रहते समय सब परिधियों में १८ मुहूर्त की रात्रि और १२ मुहूर्त का दिन होता है।२७८। सूर्य के बाह्य पथ से आदि पथ की ओर आते समय पूर्वोक्त दिन व रात्रि क्रमश: (पूर्वोक्त वृद्धि से) अधिक व हीन होते जाते हैं (४५३); (त्रि.सा./३७९-३८१)।
- अयन व वर्ष
सूर्य, चन्द्र और जो अपने-अपने क्षेत्र में संचार करने वाले ग्रह हैं, उनके अयन होते हैं। नक्षत्र समूह व ताराओं का इस प्रकार अयनों का नियम नहीं है।४९८। सूर्य के प्रत्येक अयन में १८३ दिनरात्रियाँ और चन्द्र के अयन में १३<img src="JSKHtmlSample_clip_image004_0042.gif" alt="" width="12" height="30" /> दिन होते हैं।४४९। सब सूर्यों का दक्षिणायन आदि में और उत्तरायन अन्त में होता है। चन्द्रों के अयनों का क्रम इससे विपरीत है।५००। अभिजित् आदि दै करि पुष्य पर्यन्त जे जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट नक्षत्र तिनके १८३ दिन उत्तरायण के हो हैं। बहुरि इनतै अधिक ३ दिन एक अयन विषै गत दिवस हो है। (त्रि.सा./४०७)।
- तिथियों में हानि-वृद्धि व अधिक (लौंद) मास
त्रि.सा./गा. एक मास विषै एक दिन की वृद्धि होइ, एक वर्ष विषै बारह दिन की वृद्धि होइ, अढाई वर्ष विषै एक मास अधिक होइ। पंचवर्षीय युग विषै दो मास अधिक हो है।१४०। आषाढ मास विषै पूर्णिमा के दिन अपराह्ण समय उत्तरायण की समाप्ति पर युगपूर्ण होता है।४११।
- अमावस्या, पूर्णिमा व चन्द्र ग्रहण―
- ज्योतिषी देवों के निवासों व विमानों का स्वरूप व संख्या
ति.प./७/गा. चन्द्र विमानों (नगरों) में चार-चार गोपुर द्वार, कूट, वेदी व जिन भवन हैं।४१-४२। विमानों के कूटों पर चन्द्रों के प्रासाद होते हैं।५०। इन भवनों में उपपाद मन्दिर, अभिषेकपुर, भूषणगृह, मैथुनशाला, क्रीड़ाशाला, मन्त्रशाला और सभा भवन हैं।५२। प्रत्येक भवन में सात-आठ भूमियाँ (मंजिलें) होती हैं।५६। चन्द्र विमानों व प्रासादोंवत् सूर्य के विमान व प्रासाद हैं।७०-७४। इसी प्रकार ग्रहों के विमान व प्रासाद।८६-८७। नक्षत्रों के विमान व प्रासाद।१०६। तथा ताराओं के विमानों व प्रासादों का भी वर्णन जानना।११३। राहु व केतु के नगरों आदि का वर्णन भी उपरोक्त प्रकार ही जानना।२०४,२७५।
चन्द्रादिकों की निज-निज राशि का जो प्रमाण है, उतना ही अपने-अपने नगरों, कूटों और जिन भवनों का प्रमाण है।११४।
- ज्योतिषी देवों के विमानों का विस्तार व रंग आदि―
(ति.प./७/गा.); (त्रि.सा./३३७-३३९)।
संकेत–यो.=योजन, को.=कोश।
नाम |
प्रमाण ति.प./७/गा.; |
आकार |
व्यास |
गहराई |
रंग |
चन्द्र |
३७-३९ |
अर्धगोल |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image006_0024.gif" alt="" width="12" height="30" /> यो. |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image008_0020.gif" alt="" width="12" height="30" /> यो. |
मणिमय |
सूर्य |
६६-६८ |
अर्धगोल |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image010_0015.gif" alt="" width="12" height="30" /> यो. |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image012_0026.gif" alt="" width="12" height="30" /> यो. |
मणिमय |
बुध |
८४-८५ |
अर्धगोल |
१/२ को. |
१/४ को. |
स्वर्ण |
शुक्र |
९०-९१ |
अर्धगोल |
१ को. |
१/२ को. |
रजत |
बृहस्पति |
९४-९५ |
अर्धगोल |
कुछ कम १ को. |
१/२ को. |
स्फटिक |
मंगल |
९७-९८ |
अर्धगोल |
१/२ को. |
१/४ को. |
रक्त |
शनि |
९९-१०१ |
अर्धगोल |
१/२ को. |
१/४ को. |
स्वर्ण |
नक्षत्र |
१०६ |
अर्धगोल |
१ को. |
१/२ को. |
सूर्यवत् |
तारे उत्कृष्ट |
१०९-११० |
अर्धगोल |
१ को. |
१/२ को. |
सूर्यवत् |
तारे मध्यम |
१०९-१११ |
अर्धगोल |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image014_0012.gif" alt="" width="6" height="30" />, <img src="JSKHtmlSample_clip_image016_0009.gif" alt="" width="6" height="30" /> को. |
<img src="JSKHtmlSample_clip_image018_0009.gif" alt="" width="6" height="30" />, <img src="JSKHtmlSample_clip_image020_0005.gif" alt="" width="6" height="30" /> को. |
सूर्यवत् |
तारे जघन्य |
१०९-१११ |
अर्धगोल |
१/४ को. |
१/८ को. |
सूर्यवत् |
राहु |
२०२-२०३ |
अर्धगोल |
१ यो. |
२५० धनुष |
अंजन |
केतु |
२७३-२७४ |
अर्धगोल |
१ यो. |
२५० धनुष |
अंजन |
नोट–चन्द्र के आकार व विस्तार आदि का चित्र–देखें - पृ। / ०३४८