परिशिष्ट
From जैनकोष
शतक-इस नाम के दो ग्रन्थ प्राप्त हैं।
- 'कर्म प्रकृति' नामक श्वेताम्बर ग्रन्थ के बड़े भाई के रूप में प्रसिद्ध इस ग्रन्थ के रचयिता भी 'कर्म प्रकृति' के कर्ता आ.शिवशर्म सूरि (वि.५००) ही बताये जाते हैं। गाथा संख्या १०७ होने से इसका 'शतक' नाम सार्थक है, और कर्मों के बन्ध उदय आदि का प्ररूपक होने से 'बन्ध शतक' कहलाता है।३१३। दृष्टिवाद अंग के अष्टम पूर्व 'कर्म प्रवाद' की बन्ध विषयक गाथाओं का संग्रह होने से इसे 'बन्ध समास' भी कहा जा सकता है।३१४। गाथा संख्या १०५ में इसे 'कर्म प्रवाद' अंग का संक्षिप्त स्यन्द या सार कहा गया है।३१२। चूर्णिकार चन्द्रर्षि महत्तर ने इसकी उत्पत्ति दृष्टिवाद अंग के ‘अग्रणी’ नामक द्वि.पूर्व के अन्तर्गत ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ के 'बन्धन' नामक अष्टम अनुयोग द्वार से बताई है।३५८। इसके पूर्वार्ध भाग में जीव समास, गुणस्थान, मार्गणा स्थान आदि में समवेत जीवकाण्डका, और अपरार्ध भाग में कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व की व्युच्छित्ति विषयक कर्मकाण्ड का विवेचन निबद्ध है।३१२। रचयिता ने अपने ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रन्थ में सर्वत्र ‘शतक’ के स्थान पर ‘बन्ध शतक’ का नामोल्लेख किया है।३१३। समय-वि.५००। (जै./१/पृष्ठ)। इस पर अनेकों चूर्णियां लिखी जा चुकी हैं। (देखें - कोष ।। में परिशिष्ट / १/चूर्णि)।
- उपर्युक्त ग्रन्थ को ही कुछ अन्तर के साथ श्री देवेन्द्र सूरि ने भी लिखा है। जिस पर उन्हीं की एक स्वोपज्ञ टीका भी है। समय-वि.श.१३ का अन्त। (जै./१/४३५)।
शिवशर्म सूरि-एक प्राचीन श्वेताम्बराचार्य। नन्दीसूत्र आदि के पाठ का अवलोकन करने से अनुमान होता है कि आप सम्भवत: देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण से भी पूर्ववर्ती हैं और दशपूर्वधारी भी हैं।३०३। दृष्टिवाद अंग के अंशभूत ‘महाकर्म प्रकृति प्राभृत’ का ज्ञान इन्हें आचार्य परम्परा से प्राप्त था। उच्छिन्न हो जाने की आशंका से अपने उस ज्ञान को ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रन्थ में निबद्ध कर दिया था। (पीछे ‘बन्ध शतक’ के नाम से उसी का कुछ विस्तार किया)। श्वेताम्बराम्नाय में क्योंकि दृष्टिवाद अंग वी.नि.१००० तक जीवित रहा माना जाता है, इसलिये आपको वि.५०० के आसपास स्थापित किया जा सकता है।३०४। (जै./१/पृष्ठ)।
शुभनन्दि रविनन्दि-इन्द्रनन्दी कृत श्रुतावतार श्लोक १७१-१७३ के अनुसार आपको आचार्य परम्परा से षट्खण्डागम विषयक सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त था। इनके समीप में श्रवण करके ही आ.बप्पदेव ने षट्खण्डागम तथा कषायपाहुड़ पर व्याख्या लिखी थी। प्राचीन श्रुतधरों की श्रेणी में बैठाकर यद्यपि डा.नेमिचन्द ने इन्हें वी.नि.श.५-६ (ई.श.१) में स्थापित करने का प्रयत्न किया है, परन्तु उनकी यह कल्पना इसलिये कुछ संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि षट्खण्डागम के रचयिता आ.भूतबलि के काल की पूर्वाविधि वी.नि.५९३ से ऊपर किसी प्रकार भी ले जायी जानी सम्भव नहीं है। (देखें - कोष। /परिशिष्ट २)।
षट्खण्डागम-भगवान् महावीर से आचार्य परम्परा द्वारा आगत श्रुतज्ञान का अंश होने से कषायपाहुड़ के पश्चात् षट्खण्डागम ही दिगम्बर आम्नाय का द्वितीय महनीय ग्रन्थ है। अग्रायणी नामक द्वितीय पूर्व के ‘महाकर्म्मप्रकृति’ नामक चौथे प्राभृत का विवेचन इसमें निबद्ध है (जै./१/६१)। इसका असली नाम क्या था यह आज ज्ञात नहीं है। जीवस्थान आदि छ: खण्डों में विभक्त होने के कारण इसका ‘षट्खण्डागम’ नाम प्रसिद्ध हो गया है। (जै./१/५१)। इसके प्रत्येक खण्ड में अनेक-अनेक अधिकार हैं। जैसे कि जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड में सत्प्ररूपणा, द्रव्य प्रमाणानुगम आदि आठ अधिकार हैं। इसके रचयिता के विषय में धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने यह लिखा है कि "आ.पुष्पदन्त ने 'वीसदि' नामक सूत्रों की रचना की, और उन सूत्रों को देखकर आ.भूतबलि ने द्रव्य प्रमाणानुगम आदि विशिष्ट ग्रन्थ की रचना की" । (ध.१/पृष्ठ ७१)। इस 'अवशिष्ट' शब्द पर से यह अनुमान होता है कि आ.पुष्पदन्त (ई.६६-१०६) द्वारा रचित 'वीसदि' सूत्र ही जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड का सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अधिकार है जिसमें बीस प्ररूपणाओं का विवेचन निबद्ध है। इस खण्ड के शेष सात अधिकार तथा उनके आगे शेष पांच खण्ड आ.भूतबलि की रचना है। यदि इन दोनों ने आ.धरसेन (वी.नि.६३०) के पास इस सिद्धान्त का अध्ययन किया है तो इस ग्रन्थ के आद्य तीन खण्डों की रचना वी.नि.६५० (ई.१२३) के आसपास स्थापित की जा सकती है (जै./२/१२३) और ये तीन खण्ड टीका लिखने के लिये आ.कुन्दकुन्द (ई.१२७) को प्राप्त हो सकते हैं।
इन छ: खण्डों में से ‘महाबन्ध’ नामक अन्तिम खण्ड को छोड़कर शेष ५ खण्डों पर अनेकों टीकायें लिखी गयी हैं। यथा-
- आद्य तीनों खण्डों पर आ.कुन्दकुन्द (ई.१२७) कृत 'परिकर्म' टीका।
- आद्य ५ खण्डों पर आ.समन्तभद्र (ई.श.२) टीका। कुछ विद्वानों को यह बात स्वीकार नहीं है।
- आद्य पाँच खण्डों पर आ.शामकुण्ड (ई.श.३) कृत 'पद्धति' नामक टीका।
- तम्बूलाचार्य (ई.श.३-४) कृत 'चूड़ामणि' टीका।
- आ.बप्पदेव (ई.श.६-७) कृत 'व्याख्या प्रज्ञप्ति' टीका। (जै./१/२६३ पर उद्धृत इन्द्रनन्दि श्रुतावतार)।
सत्कर्म-इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार के अनुसार यह ग्रन्थ षट्खण्डागम के छ: खंडों के अतिरिक्त वह अधिक खंड है, जिसे कि आ.बप्पदेव (ई.श.६-७) कृत उपर्युक्त 'व्याख्या प्रज्ञप्ति' की टीका के रूप में आ.वीरसेन स्वामी (ई.७७०-८२७) ने रचा है। (देखें - व्याख्या प्रज्ञप्ति ) षट्खंडागम के 'वर्गणा' नामक पंचम खंड के अन्तिम सूत्र को देशामर्शक मानकर उन्होंने निबन्धनादि अठारह अधिकारों में विभक्त इसका धवला के परिशिष्ट रूपेण ग्रहण किया है। मुद्रित षट्खंडागम की १५वीं पुस्तक में प्रकाशित है। (ती./१/९६); (और भी देखें - आगे ‘सत्कर्म पञ्जिका’)।
सत्कर्म पञ्जिका-धवला के परिशिष्ट रूप से गृहीत ‘सत्कर्म’ प्ररूपणा के निबन्धन आदि अठारह योगद्वारों या अधिकारों में से प्रथम चार पर रचित यह एक ऐसी टीका है जिसे लेखक ने स्वयं, तथा आचार्यों ने भी 'सु-महार्थ' अथवा 'महार्थ' कहा है। उन-उन अधिकारों की पूरी टीका न होकर यह केवल उन विषयों का खुलासा करती है जो कि उन अधिकारों में अतिदूर अवगाहित प्रतीत होते हैं। षट्खण्डागम के 'महाबन्ध' नामक षष्टम खंड की ताड़पत्रीय प्रति के आद्य २७ पत्रों पर यह अंकित है। (जै./१/२८४-२८५)। इसके रचयिता के काल तथा नाम का स्पष्ट उल्लेख कहीं उपलब्ध नहीं है, परन्तु 'महाबन्ध' की ताड़पत्रीय प्रति पर लिखा होने से तथा इसके कतिपय उल्लेखों का अवलोकन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी रचना सम्भवत: धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी के सामने (ई.७७०-८२०) में अथवा उनके पश्चात् तत्काल ही हो गयी थी। इसलिये बहुत सम्भव है कि उनके शिष्य श्री जिनसेन स्वामी ने श्रीपाल, पद्मसेन तथा देवसेन नाम वाले जिन तीन विद्वानों का नामोल्लेख किया है और इस हेतु से जो उनके गुरु भाई प्रतीत होते हैं, उनमें से ही किसी ने इसकी रचना की हो। (जै./१/२९२)।
सप्ततिका-कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व विषयक चर्चा करने वाला, श्वेताम्बर आम्नाय का यह ग्रन्थ ७० गाथा युक्त होने के कारण प्राकृत भाषा में 'सत्तरि' नाम से प्रसिद्ध है। संस्कृत में इसे 'सप्ततिका' भी कहा जा सकता है।३१८। यद्यपि गाथा १ में इसके रचयिता ने इसे शिवशर्म सूरि कृत ‘शतक’ की भांति दृष्टिवाद अंग का संक्षिप्त स्यन्द या सार कहा है, तदपि यह उससे भिन्न है, क्योंकि शिवशर्म सूरि की ही दूसरी कृति 'कर्म प्रकृति' के साथ कई स्थलों पर मतभेद पाया जाता है।३२१। इस पर रचित एक चूर्णि (वि.१०८०-११३५) तथा आ.मलयगिरि (वि.श.१२) कृत टीकायें भी उपलब्ध हैं। आ.जिनभद्र गणी के विशेषावश्यक भाष्य (वि.६५०) में क्योंकि ‘कर्म प्रकृति’ तथा ‘शतक’ की भाँति इसकी गाथायें भी उद्धृत हुई मिलती हैं, इसलिये इसे हम वि.श.७ के पश्चात् का नहीं कह सकते। (जै./१/पृष्ठ)।
सिंहसूरि-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के वृत्तिकार सिद्धसेन गणी के दादा गुरु (देखें - आगे सिद्धसेन गणी)। ये श्वेताम्बराचार्य मल्लवादी कृत-‘नय चक्र’ के वृत्तिकार माने जाते हैं।३३०। इनकी इस वृत्ति में एक ओर तो विशेषावश्यक भाष्य (वि.६५०) के कुछ वाक्य उद्धृत पाये जाते हैं और दूसरी और बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति (वि.६२२-७०७) का यहां कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता, जबकि इनके प्रशिष्य सिद्धसेन गणी ने अपनी 'तत्त्वार्थभाष्य वृत्ति' में उनका पर्याप्त आश्रय लिया है। इसलिये इन्हें हम वि.श.७ के मध्य में स्थापित कर सकते हैं। (जै.१/३३०-३६५); (जै./२/३०१)।
सिद्धर्षि-'उपमिति भव प्रपञ्च कथा' के रचयिता एक श्वेताम्बराचार्य। उक्त ग्रन्थ के अनुसार सूर्याचार्य के शिष्य छेल महत्तर और उनके स्वामी दुर्गा स्वामी हुए। इन दुर्गा स्वामी ने ही इनको तथा इनके शिक्षा गुरु गर्ग स्वामी को दीक्षित किया था। समय-ग्रन्थ रचना काल वि.९६२ (ई.९०५)। (जै./१/३६१)।
सिद्धसेन दिवाकर-दिगम्बर आचार्य-आप दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों आम्नायों में प्रसिद्ध हैं। दिवाकर की उपाधि इन्हें श्वेताम्बराचार्य अभयदेव सूरि (वि.श.१२) ने सन्मति सूत्र की अपनी टीका में प्रदान की हैं जो दिगम्बर आम्नाय में प्राप्त नहीं है। दिगम्बर आम्नाय में इन्हें सन्मति सूत्र के साथ-साथ कल्याण मन्दिर स्तोत्र जैसे कुछ भक्तिपरक ग्रन्थों के भी रचयिता माना गया है, जबकि श्वेताम्बर आम्नाय में इन्हें न्यायावतार तथा द्वात्रिंशिकाओं आदि के कर्ता कहा जाता है।२१२। पं.जुगल किशोर जी मुख्तार के अनुसार ये दोनों व्यक्ति भिन्न हैं। द्वात्रिंशिकाओं आदि के कर्ता सिद्धसेन गणी हैं जो श्वेताम्बर थे। उनकी चर्चा आगे की जायेगी। सन्मति सूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर हैं। आ.जिनसेन ने आदिपुराण तथा हरिवंशपुराण में इनकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है।२०६। आ.समन्तभद्र की भांति इनके विषय में भी यह कथा प्रसिद्ध है कि कल्याण मन्दिर स्तोत्र के प्रभाव से इन्होंने रुद्र लिंग को फाड़कर राजा विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वि.) को सम्बोधित किया था।२०७-२०९।
गुरु-आप उज्जैनी में देवर्षि ब्राह्मण के पुत्र और वृद्धवादि के शिष्य थे।२०६। धर्माचार्य को भी इनका गुरु बताया जाता है।२०७। कृतियें-सन्मति सूत्र, कल्याण मंदिर स्तोत्र, तथा द्वात्रिंशिकाओं में से कुछ इनकी हैं।२१०। समय-इनके समय के विषय में भी मतभेद पाया जाता है। कट्टरपंथी श्वेताम्बर आचार्य इन्हें कुन्दकुन्द से भी पहले वि.श.१ में स्थापित करते हैं, परन्तु श्वेताम्बर के प्रसिद्ध विद्वान् पं.सुखलाल जी मालवणिया आ.पूज्यपाद (वि.श.६ पूर्वार्ध) कृत सर्वार्थ सिद्धि में तथा जैनेन्द्र व्याकरण में इनके कतिपय सूत्र तथा वाक्य उद्धृत देखकर इनका काल वि.श.५ का प्रथम पाद और वि.श.४ का अन्तिम पाद कल्पित करते हैं।२०९। दिगम्बर विद्वानों में मुख्तारसाहब इन्हें पूज्यपाद (वि.श.६) और अकलंक भट्ट (वि.श.७) के मध्य वि.६३५ के आसपास स्थापित करते हैं। इस विषय में इनका हेतु यह है कि एक ओर तो इनके द्वारा रचित सन्मति सूत्र के वाक्य विशेषावश्यक भाष्य (वि.६५०) में तथा धवला जय धवला (वि.७१३-७६३) में उद्धृत पाये जाते हैं और दूसरी ओर सन्मति सूत्र में कथित ज्ञान तथा दर्शन उपयोग के अभेदवाद की चर्चा जिस प्रकार अकलंक (वि.श.७) कृत राजवार्तिक में पाई जाती है उस प्रकार पूज्यपाद (वि.श.६) कृत सर्वार्थ सिद्धि में नहीं पायी जाती/२११। (ती./२/पृष्ठ)।
सिद्धसेन (गणी)-श्वेताम्बर आचार्य थे। मूल आगम ग्रन्थों को प्राकृत से संस्कृत में रूपान्तरित करने के विचार मात्र से इन्हें एक बार श्वेताम्बर संघ से १२ वर्ष के लिये निष्कासित कर दिया गया था। इस काल में ये दिगम्बर साधुओं के सम्पर्क में आये और इन्हीं दिनों उनसे प्रभावित होकर इन्होंने भक्तिपरक द्वात्रिंशिकाओं की रचना की। दिगम्बर संघ में इनका प्रभाव बढ़ता देख श्वेताम्बर संघ ने इनके प्रायश्चित्त की अवधि घटा दी और ये पुन: श्वेताम्बर संघ में आ गए। (ती./२/२१०)। आ.शीलांक (वि.श.९-१०) ने अपनी 'आचारांग सूत्रवृत्ति' में इनका 'गन्धहस्ती' के नाम से उल्लेख किया है (देखें - गन्धहस्ती )। यद्यपि श्वेताम्बर लोग इन्हें ही सन्मति सूत्र का कर्ता मानते हैं, परन्तु मुख्तार साहब की अपेक्षा ये उनसे भिन्न हैं (देखें - सिद्धसेन दिवाकर )।
गुरु-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य पर लिखित अपनी वृत्ति में आपने अपने को दिन्न गणी के शिष्य सिंह सूरि (वि.श.७ का अन्त) का प्रशिष्य और भास्वामी का शिष्य घोषित किया है (जै./२/३२९) कृतियें-तत्त्वार्थाधिगम भाष्य पर बृहद् वृत्ति, न्यायावतार तथा भक्तिपरक कुछ द्वात्रिंशिकायें। (ती./२/२९२) समय-एक ओर तो आपकी तत्त्वार्थाधिगम वृत्ति में बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति (वि.श.७ का अन्त) का और अकलंक भट्ट (वि.श.७) कृत 'सिद्धि विनिश्चय' का उल्लेख उपलब्ध होता है, और दूसरी ओर प्रभावक चारित्र (वि.श.८) में आपका नामोल्लेख पाया जाता है, इसलिये आपको वि.श.८ के पूर्वार्ध में स्थापित किया जा सकता है (जै./२/३३१)। आपके दादागुरु सिंहसूरि का काल क्योंकि वि.श.७ निर्धारित किया जा चुका है (देखें - इससे पहले सिंहसूरि ) इसलिये उनके साथ भी इसकी संगति बैठ जाती है। पं.सुखलाल जी मालवणिया ने इनके काल की अपरावधि वि.श.९ निर्धारित की है। (जै./१/३६५)।