अध:प्रवृत्त संक्रमण निर्देश
From जैनकोष
अध:प्रवृत्त संक्रमण निर्देश
१. अध:प्रवृत्त संक्रमण का लक्षण
नोट - [सत्ताभूत प्रकृतियों का अपने-अपने बंध के साथ संभवती यथायोग्य प्रकृतियों में उनके बंध होते समय ही प्रवेश पा जाना अध:प्रवृत्त है। इसका भागाहार पल्य/असंख्यात, जो स्पष्टत: ही विघ्यात से असंख्यातगुणा हीन है। अत: इसके द्वारा प्रतिक्षण ग्रहण किया गया द्रव्य विघ्यात की अपेक्षा बहुत अधिक है।
बंधकाल में या उस प्रकृति की बंध की योग्यता रखने पर उस ही गुणस्थान में होता है जिसमें कि वह प्रकृति बन्ध से व्युच्छिन्न नहीं हुई है, थोड़े द्रव्य का होता है सर्व द्रव्य का नहीं, क्योंकि इसके पीछे उद्वेलना या गुण संक्रमण या विघ्यात संक्रमण प्रारम्भ हो जाते हैं। क्रोध को प्रत्याख्यानादि स्व जाति भेदों में अथवा मान आदि विजाति भेदों में परिणमाता है। यह नियम से फालीरूप होता है। अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही होता है। काण्डकरूप संक्रमण और फालिरूप संक्रमण में इतना भेद है कि फालिरूप में तो अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त बराबर भागाहार हानि क्रम से उठा-उठाकर साथ-साथ संक्रमाता है और काण्डक रूप में वर्तमान समय से लेकर एक-एक अन्तर्मुहूर्त काल बीतने पर भागाहार क्रम से इकट्ठा द्रव्य उठाता है अर्थात् संक्रमण करने के लिए निश्चित करता है। एक अन्तर्मुहूर्त तक संक्रमाने के लिए जो द्रव्य निश्चित किया उसे काण्डक कहते हैं। उस द्रव्य को अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त विशेष चय हानि क्रम से खपाता है। उसके समाप्त हो जाने पर अगले अन्तर्मुहूर्त के लिए अगला काण्डक उठाता है।]
गो.क./जी.प्र./४१३/५७६/९ बन्धप्रकृतीनां स्वबन्धसंभवविषये य: प्रदेशसंक्रम: तदध:प्रवृत्तसंक्रमणं नाम। = बंध हुई प्रकृतियों का अपने बंध में संभवती प्रकृतियों में परमाणुओं का जो प्रदेश संक्रम होना वह अध:प्रवृत्त संक्रमण है।
२. यह नियम से फालीरूप होता है
गो.क./जी.प्र./४१२/५७५/७ तत्राध:प्रवृत्तसंक्रम: फालिरूपेण उद्वेलनसंक्रम: काण्डकरूपेण वर्तते। = (मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक् व मिश्र का अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उपान्त काण्डक पर्यन्त) अध:प्रवृत्तसंक्रमण फालिरूप प्रवर्तता है और उद्वेलना संक्रमण काण्डक रूप से प्रवर्तता है।
३. मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता
गो.क./जी.प्र./४१६/५७८/७ अध:प्रवृत्तसंक्रमण: स्यात् न मिथ्यात्वस्य, 'सम्मं मिच्छं मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदीति' निषेधात् (गो.क./४११) = (प्रकृतियों के बन्ध होने पर अपनी-अपनी व्युच्छित्ति पर्यन्त) अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है, परन्तु मिथ्यात्व प्रकृति का नहीं होता। क्योंकि 'सम्मं मिच्छं मिस्सं' इत्यादि गाथा के द्वारा इसका निषेध पहले बता चुके हैं ( देखें - संक्रमण / ३ / ४ )।
४. सम्यक् व मिश्र प्रकृति के अध:प्रवृत्त संक्रम योग्य काल
गो.क./जी.प्र./४१२/५७५ मिच्छे सम्मिस्साणं अध:पवत्तो मुहुत्तअंतोत्ति। = मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होने पर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय का अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तक अध:प्रवृत्त संक्रमण होता है।