पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश
From जैनकोष
पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश
१. नैष्ठिक श्रावक में सम्यक्त्व का स्थान
ध.१/१,१,१३/१७५/४ सम्यक्त्वमन्तरेणापि देशयतयो दृश्यन्त इति चेन्न, निर्गतमुक्तिकाङ्क्षस्यानिवृत्तविषयपिपासस्याप्रत्याख्यानानुपपत्ते:। =प्रश्न - सम्यग्दर्शन के बिना भी देशसंयमी देखने में आते हैं ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, जो जीव मोक्ष की आकांक्षा से रहित हैं और जिनको विषय पिपासा दूर नहीं हुई है, उनके अप्रत्याख्यान संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
वसु.श्रा./५ एयारस ठाणाइं सम्मत्त विवज्जिय जीवस्स। जम्हा ण संति तम्हा सम्मत्तं सुणह वोच्छामि।५। = (श्रावक के) ग्यारह स्थान चूँकि सम्यग्दर्शन से रहित जीवों के नहीं होते, अत: मैं सम्यक्त्व का वर्णन करता हूँ। हे भव्यो ! तुम सुनो।५।
द्र.सं./टी./४५/१९५/३ सम्यक्त्वपूर्वकेन...दार्शनिकश्रावको भवति। = सम्यक्त्वपूर्वक...दार्शनिक श्रावक होता है। (ला.सं./२/६)।
२. ग्यारह प्रतिमाओं में उत्तम मध्यमादि विभाग
चा.सा./४०/३ आद्यास्तु षट् जघन्या: स्युमध्यमास्तदनु त्रय:। शेषौ द्वावुत्तमावुक्तौ जैनेषु जिनशासने। = जिनागम में ग्यारह प्रतिमाओं में से पहले की छह प्रतिमा जघन्य मानी जाती है, इनके बाद की तीन अर्थात् सातवीं, आठवीं और नौवीं प्रतिमाएँ मध्यम मानी जाती हैं। और बाकी की दशवीं, ग्यारहवीं प्रतिमाएँ उत्तम मानी जाती हैं। (सा.ध./३/२-३); (द्र.सं./टी./४५/१/९५/११); (द.पा./टी./१८/१७)।
३. ग्यारह प्रतिमाओं में उत्तरोत्तर व्रतों की तरतमता
चा.सा./३/४ इत्येकादेशनिलया जिनोदिता: श्रावका: क्रमश: व्रतादयो गुणा दर्शनादिभि: पूर्वगुणै: सह क्रमप्रवृद्धा भवन्ति। =जिनेन्द्रदेव ने अनुक्रम से इन ग्यारह स्थानों में रहने वाले ग्यारह प्रकार के श्रावक बतलाये हैं। इन श्रावकों के व्रतादि गुण सम्यग्दर्शनादि अपने पहले के गुणों के साथ अनुक्रम से बढ़ते रहते हैं।
सा.ध./३/५ तद्वद्दर्शनिकादिश्च, स्थैर्यं स्वे स्वे व्रतेऽव्रजन् । लभते पूर्वमेवार्थाद्, व्यपदेशं न तूत्तरम् ।५। = नैष्ठिक श्रावक की तरह अपने-अपने व्रतों में स्थिरता को प्राप्त नहीं होने वाले दर्शनिक आदि श्रावक भी वास्तव में पूर्व-पूर्व की ही संज्ञा को पाता है, किन्तु आगे की संज्ञा को नहीं।५।
४. पाक्षिक श्रावक सर्वथा अव्रती नहीं
ला.सं./२/४७-४९ नेत्थं य: पाक्षिकं कश्चिद् व्रताभावादस्त्यव्रती। पक्षमात्रावलम्बी स्याद् व्रतमात्रं न चाचरेत् ।४७। यतोऽस्य पक्षग्राहित्वमसिद्धं बाधसंभवात् । लोपात्सर्वविदाज्ञाया: साध्या पाक्षिकता कुत:।४८। आज्ञा सर्वविद: सैव क्रियावान् श्रावको मत:। कश्चित्सर्वनिकृष्टोऽपि न त्यजेत्स कुलक्रिया:।४९। = प्रश्न - १. पाक्षिक श्रावक किसी व्रत को पालन नहीं करता, इसलिए वह अव्रती है। वह तो केवल व्रत धारण करने का पक्ष रखता है, अतएव रात्रिभोजन त्याग भी नहीं कर सकता ? उत्तर - ऐसी आशंका ठीक नहीं क्योंकि रात्रिभोजनत्याग न करने से उसका पाक्षिकपना सिद्ध नहीं होता। सर्वज्ञदेव द्वारा कही रात्रिभोजनत्याग रूप कुलक्रिया का त्याग न करने से उसके सर्वज्ञदेव की आज्ञा के लोप का प्रसंग आता है, और सर्वज्ञ की आज्ञा का लोप करने से उसका पाक्षिकपना भी किस प्रकार ठहरेगा?।४७-४८। २. सर्वज्ञ की आज्ञा है कि जो क्रियावान् कुलक्रिया का पालन करता है वह श्रावक माना गया है। अतएव जो सबसे कम दर्जे के अभ्यासमात्र मूलगुणों का पालन करता है उसे भी अपनी कुलक्रियाएँ नहीं छोड़नी चाहिए।४९।
ला.सं./३/१२९,१३१ एवमेव च सा चेत्स्यात्कुलाचारक्रमात्परम् । विना नियमादि तावत्प्रोच्यते सा कुलक्रिया।१२९। दर्शनप्रतिमा नास्य गुणस्थानं न पञ्चमम् । केवलं पाक्षिक: स: स्याद्गुणस्थानादसंयत:।१३१। = ३. यदि ये उपरोक्त (अष्टमूलगुण व सप्तव्यसनत्याग) क्रियाएँ बिना किसी नियम के हों तो उन्हें व्रत नहीं कहते बल्कि कुलक्रिया कहते हैं।१२९। ऐसे ही इन कुलक्रियाओं का पालन करने वाला न दर्शन प्रतिमाधारी है और न पंचम गुणवर्ती। वह केवल पाक्षिक है और उसका गुणस्थान असंयत है।१३१।
देखें - श्रावक / ४ / ३ [अष्ट मूलगुण तथा सप्त व्यसन त्याग के बिना नाममात्र को भी श्रावक नहीं।]
देखें - श्रावक / ४ / ४ [ये अष्ट मूलगुण व्रती व अव्रती दोनों को यथायोग्य रूप में होते हैं।]
देखें - श्रावक / १ / ३ / १ [अष्ट मूलगुण धारण और स्थूल अणुव्रतों का शक्त्यनुसार पालन पाक्षिक श्रावक का लक्षण है।]
५. पाक्षिक श्रावक की दिनचर्या
सा.ध./६/१-४४ ब्राह्ये मुहूर्त्त उत्थाय, वृत्तपञ्चनमस्कृति:। कोऽहं को मम धर्म: किं, व्रतं चेति परामृशेत् ।१। = ब्राह्य मुहूर्त में उठ करके पढ़ा है नमस्कार मन्त्र जिसने ऐसा श्रावक मैं कौन हूँ, मेरा धर्म कौन है, और मेरा व्रत कौन है, इस प्रकार चिन्तवन करे।१। श्रावक के अति दुर्लभ धर्म में उत्साह की भावना।२। स्नानादि के पश्चात् अष्ट प्रकार अर्हन्त भगवान् की पूजा तथा वन्दनादि कृतिकर्म (३-४) ईर्या समिति से (६) अत्यन्त उत्साह से (७) जिनालय में निस्सही शब्द के उच्चारण के साथ प्रवेश करे (८) जिनालय को समवशरण के रूप में ग्रहण करके (१०) देव शास्त्र गुरु की विधि अनुसार पूजा करे (११-१२) स्वाध्याय (१३) दान (१४) गृहस्थ संबन्धित कार्य (१५) मुनिव्रत की धारण की अभिलाषा पूर्वक भोजन (१७) मध्याह्न में अर्हन्त भगवान् की आराधना (२१) पूजादि (२३) तत्त्व चर्चा (२६) सन्ध्या में भाव पूजादि करके सोवे (२७) निद्रा उचटने पर वैराग्य भावना भावे (२८-३३)। स्त्री की अनिष्टता का विचार करे (३४-३६) समता व मुनिव्रत की भावना करे (३४-४३)। आदर्श श्रावकों की प्रशंसा तथा धन्य करे (४४)। (ला.सं./६/१६२-१८८)।
६. पाँचों व्रतों के एकदेश पालन करने से व्रती होता है
स.सि./७/१९/३५८/३ अत्राह किं हिंसादोनामन्यतमस्माद्य: प्रतिनिवृत्त: स खल्वागारी व्रती। नैवम् । किं तर्हि। पञ्चतय्या अपि विरतेर्वैकल्येन विवक्षित:। = प्रश्न - जो हिंसादिक में से किसी एक से निवृत्त है वह क्या अगारी व्रती है ? उत्तर - ऐसा नहीं है। प्रश्न - तो क्या है? उत्तर - जिसके एक देश से पाँचों की विरति है वह अगारी है। यह अर्थ यहाँ विवक्षित है। (रा.वा./७/१९/४/५४७/१)।
रा.वा./७/१९/३/५४६/३१ यथा गृहापवरकादिनगरदेशैर्निवासस्यापि नगरावास इति शब्द्यते, तथा असकलव्रतोऽपि नैगमसंग्रहव्यवहारनयविवक्षापेक्षया व्रतीति व्यपदिश्यते। = जैसे - घर के एक कोने या नगर के एकदेश में रहने वाला भी व्यक्ति नगरवासी कहा जाता है उसी तरह सकल व्रतों को धारण न कर एक देशव्रतों को धारण करने वाला भी नैगम संग्रह और व्यवहार नयों की अपेक्षा व्रती कहा जायेगा।
७. पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक में अन्तर
सा.ध./३/४ दुर्लेश्याभिभवाज्जातु, विषये क्वचिदुत्सुक:। स्खलन्नपि क्वापि गुणे, पाक्षिक: स्यान्न नैष्ठिक:।४। = कृष्ण, नील व कापोत इन लेश्याओं में से किसी एक के वेग से किसी समय इन्द्रिय के विषय में उत्कण्ठित तथा किसी मूलगुण के विषय में अतिचार लगाने वाला गृहस्थ पाक्षिक कहलाता है नैष्ठिक नहीं।