शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष
From जैनकोष
शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष
१. भेद व लक्षण
१. लोकोत्तर शब्द लिंगज के सामान्य भेद
त.सू./१/२० श्रुतं...द्वयनेकद्वादशभेदम् ।२०।
स.सि./१/२०/१२३/२ अङ्गबाह्यमङ्गप्रविष्टमिति। =१. श्रुतज्ञान के दो भेद अंग बाह्य व अंग प्रविष्ट ये दो भेद हैं। (रा.वा./१/२०/११/७२/२३); (क.पा.१/१-१/१७/२५/१); (ध.१/१,१,२/९६/६); (ध.१/१,१,११५/३५७/८); (ध.९/४,१,४५/१८७/१२)। २. अथवा अनेक भेद और बारह भेद हैं।
२. अंग सामान्य व विशेष के लक्षण
१. अंग सामान्य की व्युत्पत्ति
ध.९/४,१,४५/१९३/९ अंगसुदमिदि गुणणामं, अङ्गति गच्छति व्याप्नोति त्रिकालगोचराशेषद्रव्य-पर्यायमित्यङ्गशब्दनिष्पत्ते:। = अंगश्रुत यह गुणनाम है, क्योंकि, जो तीनों काल की समस्त द्रव्य वा पर्यायों को 'अङ्गति' अर्थात् प्राप्त होता है या व्याप्त करता है वह अंग है, इस प्रकार अंग शब्द सिद्ध हुआ है।
गो.जी./जी.प्र./३५०/७४७/१७ अङ्ग्यते मध्यमपदैर्लक्ष्यते इत्यङ्गं। अथवा आचारादिद्वादशशास्त्रसमूहरूपश्रुतस्कन्धस्य अङ्गं अवयव एकदेश आचाराद्येकैकशास्त्रमित्यर्थ:। ='अङ्ग्यते' अर्थात् मध्यम पदों के द्वारा जो लिखा जाता है वह अंग कहलाता है। अथवा समस्त श्रुत के एक एक आचारादि रूप अवयव को अंग कहते हैं। ऐसे अंग शब्द की निरुक्ति है।
२. अंग बाह्य व अंग प्रविष्ट
रा.वा./१/२०/१२-१३/पृ./पंक्ति आचारादि द्वादशविधमङ्गप्रविष्टमित्युच्यते (७२/२५) यद्गणधरशिष्यप्रशिष्यैरारातोयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वै: कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम् । (७२/३) = आचारांग आदि १२ प्रकार का ज्ञान अंगप्रविष्ट कहलाता है। (७२/२५) गणधर देव के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु-बुद्धि बलवाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रन्थ अंगबाह्य हैं।
देखें - श्रुतज्ञान / II / १ / ३ पूर्व ज्ञान का लक्षण।
देखें - अग्रायणी /अग्रायणी के लक्षण का भावार्थ।
३. अंग प्रविष्ट व अंग बाह्य के भेद
१. अंगप्रविष्ट के भेद
स.सि./१/२०/१२३/३ अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधम् । तद्यथा, आचार: सूत्रकृतं स्थानं समवाय: व्याख्याप्रज्ञप्ति: ज्ञातृधर्मकथा उपासकाध्ययनं, अन्तकृतदशं अनुत्तरोपपादिकदशं प्रश्नव्याकरणं विपाकसूत्रं दृष्टिप्रवाद इति। = अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्न व्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। (रा.वा./१/२०/१२/७२/२६); (ध.१/१,१,२/९९/१); (ध.४/१,४४/१२९); (ध.९/४,१,४५/१९७/१); (क.पा.१/१-२/१८/२६/२); (गो.जी./मू./३५६-३५७/७६०)।
२. दृष्टिवाद के पाँच भेद
स.सि./१/२०/१२३/५ दृष्टिवाद: पञ्चविध: परिकर्म सूत्रं प्रथमानुयोग: पूर्वगतं चूलिका चेति। =दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। (रा.वा./१/२०/१३/७४/१०); (ह.पु./१०/६१); (ध.१/१,१,२/१०९/४); (ध.९/४,१,४०/२०४/११); (क.पा.१/१-१/१९/२६/५); (गो.जी./मू./३६१-३६२/७७२)।
३. पूर्वगत के १४ भेद
स.सि./१/२०/१२३/६ तत्र पूर्वगतं चतुर्दशविधम् उत्पादपूर्वं, आग्रायणीयं, वीर्यानुप्रवादं अस्तिनास्तिप्रवादं ज्ञानप्रवादं सत्यप्रवादं आत्मप्रवादं कर्मप्रवादं प्रत्याख्याननामधेयं विद्यानुप्रवादं कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशालं लोकबिन्दुसारमिति। =पूर्वगत के चौदह भेद हैं उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल, और लोकबिन्दुसार। (रा.वा./१/२०/१२/७४/११); (ध.१/१,१,२/११४/९); (ध.९/४,१,४५/२१२/५); (क.पा.१/१-१/२०/२६/७); (गो.जी./मू./३४५-३४६/७४१)।
४. चूलिका के पाँच भेद
ह.पु./१०/१२३ जलस्थलगताकाशरूपमायागता पुन:। चूलिका पञ्चधान्वर्थसंज्ञा भेदवती स्थिता।१२३। =चूलिका पाँच भेदवाली है जलगता, स्थलगता, आकाशगता, रूपगता और मायागता। ये समस्त भेद सार्थक भेदवाले हैं।१२३। (ध.१/१,१,२/११३/१); (ध.९/४,१,४५/२०९/१०)।
५. अग्रायणी पूर्व के भेद
ध.१/१,१,२/१२३/२ तस्स अग्गेणियस्स पंचविहो उवक्कमो, आणुपुव्वी णामं पमाणं वत्तव्वदा अत्थाहिचारो चेदि।=अग्रायणीय पूर्व के पाँच उपक्रम हैं आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार। (ध.९/४,१,४५/२२६/९)।
६. अंग बाह्य के भेद
रा.वा./१/२०/१४/७८/६ तदङ्गबाह्यमनेकविधम् -कालिकमुत्कालिकमित्येवमादिविकल्पात् । स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम् । अनियतकालमुत्कालिकम् । तद्भेदा उत्तराध्ययनादयोऽनेकविधा:। = कालिक, उत्कालिक के भेद से अंग बाह्य अनेक प्रकार के हैं। स्वाध्याय काल में जिनके पठन-पाठन का नियम है उन्हें कालिक कहते हैं, तथा जिनके पठन पाठन का कोई नियत समय न हो वे उत्कालिक हैं। उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थ अंगबाह्य अनेक प्रकार हैं। (स.सि./१/२०/१२३/२)।
ध.१/१,१,१/९६/६ तत्थ अंगबाहिरस्स चोद्दस अत्थाहियारा। तं जहा सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणा पडिक्कमणं वेणइयं किदियम्मं दसवेयालियं उत्तररज्झयणं कप्पव्ववहारो कप्पाकप्पियं महाकप्पियं पुंडरीयं महापुंडरीयं णिसिहियं चेदि। =अंगबाह्य के चौदह अर्थाधिकार हैं। वे इस प्रकार हैं सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धका। (ध.९/४,१,४५/१८७/१२), (क.पा./१/१-१/१७/२५/१), (गो.जी./मू./३६७-३६८/७८९)।
४. अंग प्रविष्ट के भेदों के लक्षण
१. १२ अंगों के लक्षण
रा.वा./१/२०/१२/-७२/२८ से ७४/९ तक आचारे चर्याविधानं शुद्धयष्टकपञ्चसमितित्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते। सूत्रकृते ज्ञानविनयप्रज्ञापना कल्प्याकल्प्यच्छेदोपस्थापना व्यवहारधर्मक्रिया: प्ररूप्यन्ते। स्थाने अनेकाश्रयाणामर्थानां निर्णय: क्रियते। समवाये सर्वपदार्थानां समवायश्चिन्त्यते। स चतुर्विध: द्रव्यक्षेत्रकालभावविकल्पै:। तत्र धर्माधर्मास्तिकायलोकाकाशैकजीवानां तुल्यासंख्येयप्रदेशत्वात् एकेन प्रमाणेन द्रव्याणां समवायनाद् द्रव्यसमवाय:।...व्याख्याप्रज्ञप्तौ षष्टिव्याकरणसहस्राणि 'किमस्ति जीव:, नास्ति' इत्येवमादीनि निरूप्यन्ते। ज्ञातृधर्मकथायाम् आख्यानोपाख्यानानां बहुप्रकाराणां कथनम् । उपासकाध्ययने श्रावकधर्मलक्षणम् ।...ऋषभादीनां...तीर्थेषु...दश दशानागरा दशदश दारुणानुपसर्गान्निर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृत: दश अस्यां वर्ण्यन्ते इति अन्तकृद्दशा। ...एवमृषभादीनां.. तीर्थेषु...दश दश अनागारा दश दश दारुणानुपसर्गान्निर्जित्य विजयाद्यनुत्तरेषूत्पन्ना इत्येवमनुत्तरौपपादिका: दशास्यां वर्ण्यन्त इत्यनुत्तरौपपादिकदशा। ...प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्, तस्मिंल्लौकिकवैदिकानामर्थानां निर्णय: विपाकसूत्रे सुकृतदुष्कृतानां विपाकश्चिन्त्यते। द्वादशमङ्गं दृष्टिवाद इति। ...दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्टयुत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते। =आचारांग में चर्या का विधान आठ शुद्धि, पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि रूप से वर्णित है। सूत्रकृतांग में ज्ञान-विनय, क्या कल्प्य है क्या अकल्प्य है, छेदोपस्थापनादि, व्यवहारधर्म की क्रियाओं का निरूपण है। स्थानांग में एक-एक दो-दो आदि के रूप से अर्थों का वर्णन है। समवायांग में सब पदार्थों की समानता रूप से समवाय का विचार किया गया है। जैसे धर्म-अधर्म लोकाकाश और एक जीव के तुल्य असंख्यात प्रदेश होने से इनका द्रव्यरूप से समवाय कहा जाता है। (इसी प्रकार यथायोग्य क्षेत्र, काल, व भाव का समवाय जानना) व्याख्याप्रज्ञप्ति में 'जीव है कि नहीं' आदि साठ हज़ार प्रश्नों के उत्तर हैं। ज्ञातृधर्मकथा में अनेक आख्यान और उपाख्यानों का निरूपण है। उपासकाध्ययन में श्रावकधर्म का विशेष विवेचन किया गया है। अन्तकृद्दशांग में प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले उन दश-दश अन्तकृत केवलियों का वर्णन है जिनने भयंकर उपसर्गों को सहकर मुक्ति प्राप्त की।...अनुत्तरोपपादिकदशांग में प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले उन दश-दश मुनियों का वर्णन है जिनने दारुण उपसर्गों को सहकर ...पाँच अनुत्तर विमानों में जन्म लिया। प्रश्न व्याकरण में युक्ति और नयों के द्वारा अनेक आक्षेप और विक्षेप रूप प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। विपाक-सूत्र में पुण्य और पाप के विपाक का विचार है। बारहवाँ दृष्टि प्रवाद अंग है, इसमें ३६३ मतों के निरूपण पूर्वक खण्डन है (३६३ मतों के लिए देखें - एकान्त / ५ / २ )। (ह.पु./१०/२७-४६), (ध.१/१,१,२/९९-१०९), (ध.९/४,१,४५/१९७-२०३), (गो.जी./जी.प्र./३५६-३५७/७६०-७६६)।
२. दृष्टिवाद के प्रथम तीन भेदों के लक्षण
ध.१/१,१,२/१०९-१११/४ तस्स पंच अत्थाहियारा हवंति, परियम्मसुत्त-पढमाणियोग-पुव्वगय-चूलिका चेदि। जं तं परियम्मं पंचविहं। तं जहा, चंदपण्णत्ती सूरपण्णत्ती जंबूदीवपण्णत्ती दीवसायरपण्णत्ती वियाहपण्णत्ती चेदि। तत्थ चंदपण्णत्ती णाम...चंदायुपरिवारिद्धि गइ-बिंबुस्सेह-वण्णणं कुणइ। सूरपण्णत्ती...सूरस्सायु-भोगोवभोग-परिवारिद्धि-गइ-बिंबुस्सेह दिण-किरणुज्जोववण्णणं कुणइ। जंबूदीवपण्णत्ति...जंबूदीवे णाणाविह-मणुयाणं भोगकम्मभूमियाणं अण्णेसिं च पव्वद-दह-णइ...वण्णणं कुणइ। दीवसायरपण्णत्तीदीवसायरपमाणं अण्णंपि दीवसायरंतब्भूदत्थं बहुभेयं वण्णेदि। वियाहपण्णत्ती णाम...अजीवदव्वं भवसिद्धियअभवसिद्धिय-रासिं च वण्णेदि। सुत्तं...अबंधओ अवलेवओ अकत्ता अभोत्ता णिग्गुणो सव्वगओ...अप्पेति वण्णेदि। ...पढमाणियागो पंच-सहस्सपदेहि...पुराणं वण्णेदि।=दृष्टिवाद के पाँच अधिकार हैं, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। उनमें से चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति, इस तरह परिकर्म के पाँच भेद हैं। चन्द्रप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म चन्द्रमा की आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और बिम्ब की ऊँचाई आदि का वर्णन करता है। सूर्यप्रज्ञप्ति सूर्य की आयु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, बिम्ब की ऊँचाई आदि का वर्णन करता है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए नाना प्रकार के मनुष्य तथा दूसरे तिर्यंच आदि का पर्वत, द्रह, नदी आदि का वर्णन करता है। सागर प्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म द्वीप और समुद्रों के प्रमाण का तथा द्वीपसागर के अन्तर्भूत नानाप्रकार के दूसरे पदार्थों का वर्णन करता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीव, इन सबका वर्णन करता है। सूत्र नाम का अर्थाधिकार जीव अबन्धक ही है, अवलेपक ही है, अकर्ता ही है, अभोक्ता ही है, इत्यादि रूप से ३६३ मतों का पूर्वपक्ष रूप से वर्णन करता है। (३६३ मतों के लिए देखें - एकान्त / ५ / २ ) प्रथमानुयोग पुराणों का वर्णन करता है। (ह.पु./१०/६३-७१), (ध.९/४,१,४५/२०६-२०९), (गो.जी./जी.प्र./३६१-३६२/७७२)।
३. दृष्टिवाद के चौथे भेद पूर्वगति के १४ भेद व लक्षण
रा.वा./१/२०/१२/-७४/११ से ७८/२ तक तत्र पूर्वगतं चतुर्दशप्रकारम् ।...कालपुद्गलजीवादीनां यदा यत्र यथा च पर्यायेणोत्पादो वर्ण्यते तदुत्पादपूर्वं। क्रियावादादीनां प्रक्रिया अग्रायणीव अङ्गादीनां स्वसमयविषयश्च यत्र ख्यापितस्तदग्रायणम् । छद्मस्थकेवलिनां वीर्यंसुरेन्द्रदैत्याधिपानां ऋद्धयो नरेन्द्रचक्रधरबलदेवानां च वीर्यलाभो द्रव्याणां सम्यक्त्वलक्षणं च यत्राभिहितं तद्वीर्यप्रवादम् । पञ्चानामस्तिकायानामर्थो नयानां चानेकपर्यायै:...यत्रावभासितं तदस्तिनास्तिप्रवादम् ।...पञ्चानामपि ज्ञानानां...इन्द्रियाणां च प्राधान्येन यत्र विभागो विभावित: तज्ज्ञानप्रवादम् । वाग्गुप्तिसंस्कारकारणप्रयोगो द्वादशधा भाषावक्तारश्चानेकप्रकारमृषाभिधानं...यत्र प्ररूपित: तत् सत्यप्रवादम् ।...यत्रात्मनोऽस्तित्वनास्तित्व...धर्मा: षड्जीवनिकायभेदाश्च युक्तितो निर्दिष्टा: तदात्मप्रवादम् । बन्धोदयोपशमनिर्जरापर्याया...स्थितश्च...यत्र निर्दिश्यते तत्कर्मप्रवादम् । व्रत-नियम-प्रतिक्रमण...श्रामण्यकारणं च परिमितापरिमिताद्रव्यभावप्रत्याख्यानं च यत्राख्यातं तत्प्रत्याख्याननामधेयम् । ...अष्टौ महानिमित्तानि तद्विषयो रज्जुराशिविधि: क्षेत्रं श्रेणी लोकप्रतिष्ठा संस्थानं समुद्घातश्च यत्र कथ्यते तद्विद्यानुवादम् ।...रविशशिग्रहनक्षत्रताराणां चारोपपादगतिविपर्ययफलानि शकुनव्याहृतम् अर्हद्-बलदेव-वासुदेव-चक्रधरादीनां गर्भावतरणादिमहाकल्याणानि च यत्रोक्तानि तत् कल्याणनामधेयम् । कायचिकित्साद्यष्टाङ्गआयुर्वेद: भूमिकर्म-जाङ्गुलिकप्रक्रम: प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तारेण वर्णितस्तत् प्राणावायम् । लेखादिका: कलाद्वासप्तति:, गुणाश्चतु:षष्टिस्त्रैणा:, शिल्पानि काव्यगुणदोषक्रियाछन्दोविचितिक्रियाफलोपभोक्तारश्च यत्र व्याख्याता: तत्क्रियाविशालम् । यत्राष्टौ व्यवहाराश्चत्वारि बीजानि परिकर्मराशिक्रियाविभागश्च सर्वश्रुतसंपदुपदिष्टा तत्खलु लोकबिन्दुसारम् । =पूर्वगत के उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं उत्पादपूर्व में जीव पुद्गलादि का जहाँ जब जैसा उत्पाद होता है उस सबका वर्णन है। अग्रायणी पूर्व में क्रियावाद आदि की प्रक्रिया और स्वसमय का विषय विवेचित है। वीर्यप्रवाद में छद्मस्थ और केवली की शक्ति सुरेन्द्र असुरेन्द्र आदि की ऋद्धियाँ नरेन्द्र चक्रवर्ती बलदेव आदि की सामर्थ्य द्रव्यों के लक्षण आदि का निरूपण है। अस्तिनास्तिप्रवाद में पाँचों अस्तिकायों का और नयों का अस्ति-नास्ति आदि अनेक पर्यायों द्वारा विवेचन है। ज्ञानप्रवाद में पाँचों ज्ञानों और इन्द्रियों का विभाग आदि निरूपण है। ...सत्यप्रवाद पूर्व में वाग्गुप्ति, वचन संस्कार के कारण, वचन प्रयोग बारह प्रकार की भाषाएँ, दस प्रकार के सत्य, वक्ता के प्रकार आदि का विस्तार विवेचन है।...आत्म प्रवाद में आत्म द्रव्य का और छह जीव निकायों का अस्ति-नास्ति आदि विविध भंगों से निरूपण है। कर्मप्रवाद में कर्मों की बन्ध उदय उपशम आदि दशाओं का और स्थिति आदि का वर्णन है। प्रत्याख्यान प्रवाद में व्रत-नियम, प्रतिक्रमण, तप, आराधना आदि तथा मुनित्व में कारण द्रव्यों के त्याग आदि का विवेचन है। विद्यानुवाद पूर्व में समस्त विद्याएँ आठ महानिमित्त, रज्जुराशिविधि, क्षेत्र, श्रेणी, लोक प्रतिष्ठा, समुद्घात आदि का विवेचन है। कल्याणवाद पूर्व में सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारागणों के चार क्षेत्र, उपपादस्थान, गति, वक्रगति तथा उनके फलों का, पक्षी के शब्दों का और अरिहन्त अर्थात् तीर्थंकर, बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती आदि के गर्भावतार आदि महाकल्याणकों का वर्णन है। प्राणावाय पूर्व में शरीर चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म, जांगुलिकक्रम (विषविद्या) और प्राणायाम के भेद-प्रभेदों का विस्तार से वर्णन है। क्रिया विशाल पूर्व में लेखन कला आदि बहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बन्धी चौंसठ गुणों का, शिल्पकला का, काव्य सम्बन्धी गुण-दोष विधि का और छन्द निर्माण कला का विवेचन है। लोकबिन्दुसार में आठ व्यवहार, चार बीज, राशि परिकर्म आदि गणित तथा समस्त श्रुतसम्पत्ति का वर्णन है। (ह.पु./१०/७५-१२२); (ध.१/१,१,२/११४-१२२), (ध.९/४,१,४५/२१२-२२४/१२); (गो.जी./जी.प्र./६६५-६६६/७७८)।
४. दृष्टिवाद के ५वें भेद रूप ५ चूलिकाओं के लक्षण
ध.१/१,१,२/११३/२ जलगया...जलगमण-जलत्थंभण कारण-मंत-तंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि। थलगया णाम...भूमि-गमण-कारण-मंत-तंत-तवच्छरणाणि वत्थु-विज्जं भूमि-संबंधमण्णं पि सुहासुह-कारणं वण्णेदि। मायागया...इंदजालं वण्णेदि। रूवगया...सीह-हय-हरिणादि-रूवायारेण परिणमण-हेदु-मंत-तंत-तवच्छरणाणि चित्त-कट्ठ-लेप्प-लेण-कम्मादि-लक्खणं च वण्णेदि। आयासगया णाम...आगास-गमण णिमित्त-मंत-तंत तवच्छरणाणि वण्णेदि। = जलगता चूलिका जल में गमन, जलस्तम्भन के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चर्या रूप अतिशय आदि का वर्णन करती है। स्थलगता चूलिका पृथिवी के भीतर गमन करने के कारणभूत मन्त्र तन्त्र और तपश्चरणरूप आश्चर्य आदि का तथा वास्तु विद्या और भूमि सम्बन्धी दूसरे शुभ-अशुभ कारणों का वर्णन करती है। मायागता चूलिका इन्द्रजाल आदि के कारणभूत मन्त्र और तपश्चरण का वर्णन करती है। रूपगता चूलिका सिंह, घोड़ा और हरिण आदि के स्वरूप के आकार रूप से परिणमन करने के कारणभूत मन्त्र-तन्त्र और तपश्चरण तथा चित्र-काष्ठ- लेप्य-लेन कर्म आदि के लक्षण का वर्णन करती है। आकाशगता चूलिका आकाश में गमन करने के कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरण का वर्णन करती है। (ह.पु./१०/१२४); (ध.९/४,१,४५/२०९-२१०); (गो.जी./जी.प्र./३६१-३६२/७७३/५)।
५. अंग बाह्य के भेदों के लक्षण
ध.१/१,१,२/९६-९८/९ जं सामाइयं तं णाम ट्ठवणा-दव्वक्खेत्त-काल-भावेसु-समत्तविहाणं वण्णेदि। चउवीसत्थओ चउवीसण्हं तित्थयराणं वेदण-विहाण-तण्णाम संठाणुस्सेह-पंच-महाकल्लाण-चोत्तीसअइसयसरूवं तित्थयर-वंदणाए सहलत्त च वण्णेदि। वंदणा एगजिण-जिणालय-विसय-वंदणाए णिरवज्ज-भावं वण्णेइ। पडिक्कमणं कालं पुरिसं च अस्सिऊण सत्तविह-पडिक्कमणाणि वण्णेइ। वेणइयं णाण-दंसण-चरित्त-तवोवयारविणए वण्णेइ। किदियम्मं अरहंत-सिद्ध-आइरिय-बहुसुद-साहूणं पूजाविहाणं वण्णेइ। दसवेयालियं आयार-गोयर-विहिं वण्णेइ। उत्तरञ्झयणं उत्तर-पदाणि वण्णेइ। कप्पववहारो साहूणं लोग्गमाचरणं अकप्प-सेवणाए पायच्छित्तं च वण्णेदि। कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदि जं च ण कप्पदि तं सव्वं वण्णेदि। महाकप्पियं कालसंघडणाणि अस्सिऊण साहु-पाओग्ग-दव्व-खेत्तादीणं वण्णणं कुणइ। पुंडरीयं चउव्विह-देवेसुववादकारण-अणुट्ठाणाणि वण्णेइ। महापुंडरीयं सयलिंद-पडिइंदे उप्पत्तिकारणं वण्णेइ। णिसिहियं बहुविह-पायच्छित्त-विहाण-वण्णणं कुणइ।=सामायिक नाम का अंगबाह्य समता भाव के विधान का वर्णन करता है। चतुर्विंशति स्तव चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करने की विधि, उनके नाम, संस्थान, उत्सेध, पाँच महाकल्याणक, चौंतीस अतिशयों के स्वरूप और तीर्थंकरों की वन्दना की सफलता का वर्णन करता है। वन्दना एक जिनेन्द्र देव सम्बन्धी और उन एक जिनेन्द्र देव के अवलम्बन से जिनालय सम्बन्धी वन्दना का वर्णन करता है। सात प्रकार के प्रतिक्रमणों का प्रतिक्रमण वर्णन करता है। वैनयिक पाँच प्रकार की विनयों का वर्णन करता है। कृतिकर्म अरहन्त, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधु की पूजाविधि का वर्णन करता है। दश वैकालिकों का दशवैकालिक वर्णन करता है। तथा वह मुनियों की आचार विधि और गोचरविधि का भी वर्णन करता है। जिसमें अनेक प्रकार के उत्तर पढ़ने को मिलते हैं उसे उत्तराध्ययन कहते हैं। इसमें चार प्रकार के उपसर्ग कैसे सहन करने चाहिए ? बाईस प्रकार के परिषहों को सहन करने की विधि क्या है ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तरों का वर्णन किया गया है। कल्प्य व्यवहार साधुओं के योग्य आचरण का और अयोग्य आचरण के होने पर प्रायश्चित्त विधि का वर्णन करता है। कल्प्याकल्प्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा मुनियों के लिए यह योग्य है और यह अयोग्य है' इस तरह इन सबका वर्णन करता है। महाकल्पय काल और संहनन का आश्रय कर साधु के योग्य द्रव्य और क्षेत्रादि का वर्णन करता है। पुण्डरीक भवनवासी आदि चार प्रकार के देवों में उत्पत्ति के कारण रूप, दान, पूजा, तपश्चरण आदि अनुष्ठानों का वर्णन करता है। महापुण्डरीक समस्त इन्द्र और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति के कारणरूप तपों विशेष आदि आचरण का वर्णन करता है। निषिद्ध अर्थात् बहुत प्रकार के प्रायश्चित्त के प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को निषिद्धिका कहते हैं। (ह.पु./१०/१२९-१३८); (ध.९/४,१,४५/१८८-१९१); (गो.जी./जी.प्र./३६७-३६८/७८९)।
२. शब्द लिंगज निर्देश
१. बारह अंगों में पद संख्या निर्देश
(ह.पु./१०/२७-४५); (ध.१/१,१,२/९९-१०७) (ध.९/४,१,४५/१९७-२०३); (गो.जी./जी.प्र./३५६-३६०/७६०-७७०)।
क्र. | नाम | पद संख्या |
१ | आचारांग | १८००० |
२ | सूत्रकृतांग | ३६००० |
३ | स्थानांग | ४२००० |
४ | समवायांग | १६४००० |
५ | व्याख्या प्र.
(श्वे.भगवतीसूत्र) |
२२८०००
८४००० |
६ | ज्ञातृधर्मकथा | ५५६००० |
७ | उपासकाध्ययन | ११७०००० |
८ | अन्तकृद्दशांग | २३२८००० |
९ | अनुत्तरोपपादिकदशांग | ९२४४००० |
१० | प्रश्न व्याकरण | ९३१६००० |
११ | विपाक सूत्र | १८४००००० |
१२ | दृष्टिवाद | १०८६८५६०५ |
कुल पद | ११२८३५८०५ |
२. दृष्टिवाद अंग में पद संख्या निर्देश
(ह.पु./१०/६३-७१,१२४); (ध.१/१,१,२/१०९-११३) (ध.९/४,१,४५/२०६-२१०); (गो.जी./जी.प्र./३६३-३६४/७७५)।
क्र. | नाम | पद संख्या |
१ | परिकर्म | |
१. चन्द्र प्रज्ञप्ति | ३६०५००० | |
२. सूर्य प्रज्ञप्ति | ३०३००० | |
३. जम्बू प्रज्ञप्ति | ३२५००० | |
४. द्वीप समुद्र प्रज्ञप्ति | ५२३६००० | |
५. व्याख्या प्रज्ञप्ति | ८४३६००० | |
२ | सूत्र | ८८००००० |
३ | प्रथमानुयोग | ५००० |
४ | पूर्वगत | देखो अगला शीर्षक |
५ | चूलिका | |
१. जलगता | २०९७९२०५ | |
२. स्थलगता | २०९७९२०५ | |
३. आकाशगता | २०९७९२०५ | |
४. रूपगता | २०९७९२०५ | |
५. मायागता | २०९७९२०५ | |
कुल जोड़ | १०४८९६०२५ |
३. चौदह पूर्वों में पदादि संख्या निर्देश
(ह.पु./१०/७५-१२०); (ध.१/१,१,२/११४-१२२), (ध.९/४,१,४५/२१२-२२४,२२९); (क.पा.१/१-१/२०/२६/१०); (गो.जी./जी.प्र./३६५-३६६/७७)।
क्र. | नाम | वस्तुगत | प्राभृत | पद संख्या |
१ | उत्पाद पूर्व | १० | २०० | १००००००० |
२ | अग्रायणीयपूर्व | १४ | २८० | ९६००००० |
३ | वीर्यानुवाद पूर्व | ८ | १०८ | ७०००००० |
४ | अस्तिनास्ति प्रवाद | १८ | ३८० | ६०००००० |
५ | ज्ञान प्रवाद | १२ | २४० | ९९९९९९९ |
६ | सत्यप्रवाद | १२ | ४० | १००००००६ |
७ | आत्म प्रवाद | १६ | ३२० | २६००००००० |
८ | कर्म प्रवाद | २० | ४०० | १८०००००० |
९ | प्रत्याख्यानप्रवाद | ३० २० | ६०० | ८४००००० |
१० | विद्यानुवाद | १५ | ३०० | ११०००००० |
११ | कल्याण नामधेय | १० | २०० | २६००००००० |
१२ | प्राणावाय | १० | २०० | १३००००००० |
१३ | क्रिया विशाल | १० | २०० | ९००००००० |
१४ | लोक बिन्दुसार | १० २० | २०० | १२५०००००० |
५. यहाँ पर मध्यम पद से प्रयोजन है
ध.१३/५,५,४८/२६६/७ एदेसु केण पदेण पयदं। मज्झिमपदेण। वुत्तं च-तिविहं पदमुद्दिट्ठं पमाणपदमत्थमज्झिमपदं च। मज्झिमपदेण वुत्ता पुव्वंगाणं पदविभागो।१९। =प्रश्न इन पदों (अर्थ पद, प्रमाणपद, मध्यमपद) में से प्रकृत में किस पद से प्रयोजन है। उत्तर मध्यम पद से प्रयोजन है, कहा भी है पद तीन प्रकार का कहा गया है अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद। इनमें से मध्यम पद के द्वारा पूर्व और अंगों का पदविभाग कहा गया है।१९।
६. इन ज्ञानों का अनुयोग आदि ज्ञानों में अन्तर्भाव
ध.१३/५,५,४८/२७६/१ अंगबाहिरचोद्दसपइण्णयज्झाया आयारादिएक्कारसंगाइं परियम्म-सुत्तपढमाणियोगचूलियाओ च कत्थंतब्भावं गच्छंति। ण अणियोगद्दारे तस्स समासे वा, तस्स पाहुड-पाहुडपडि-बद्धत्तादो। ण पाहुडपाहुडे तस्समासे वा, तस्स पुव्वगयअवयवत्तादो। ण च परियम्मसुत्त-पढमाणियोग-चूलियाओ एक्कारस अंगाई वा पुव्वगयावयवा। तदो ण ते कत्थ वि लयं गच्छंति। ण एस दोसो, अणियोगद्दार-तस्समासाणं च अंतब्भावादो। ण च अणियोगद्दारतस्समासेहि पाहुडपाहुडावयवेहि चेव होदव्वमिदि एदेसिमंतब्भावो वत्तव्वो। पच्छाणुपुव्वीए पुण विवक्खियाए पुव्वसमासे अंतब्भावं गच्छंति तित वत्तव्वं। =प्रश्न अंगबाह्य, चौदह प्रकीर्णकाध्याय, आचार आदि ११ अंग, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग और चूलिका, इनका किस श्रुतज्ञान में अन्तर्भाव होता है। प्रथमानुयोग या अनुयोगद्वारसमास में तो इनका अन्तर्भाव हो नहीं सकता, क्योंकि ये दोनों प्राभृतप्राभृत श्रुतज्ञान से प्रतिबद्ध हैं। प्राभृतप्राभृत या प्राभृतप्राभृतसमास में भी इनका अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि ये पूर्वगत के अवयव हैं। परन्तु परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, चूलिका और ११ अंग ये पूर्वगत के अवयव नहीं हैं। इसलिए इनका किसी भी श्रुतज्ञान के भेद में अन्तर्भाव नहीं होता है। उत्तर यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमास में इनका अन्तर्भाव होता है। अनुयोगद्वार और अनुयोगद्वारसमास प्राभृतप्राभृत के अवयव होने चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि इसका कोई निषेध नहीं किया है। अथवा प्रतिपत्तिसमास श्रुतज्ञान में इनका अन्तर्भाव कहना चाहिए। परन्तु पश्चादानुपूर्वी की विवक्षा करने पर इनका पूर्वसमास श्रुतज्ञान में अन्तर्भाव होता है, यह कहना चाहिए।