संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
From जैनकोष
संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
१. केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ
पं.सं./प्रा./२/८ आहारय-वेउव्विय-णिर-णर-देवाण होंति जुगलाणि। सम्मत्तुच्चं मिस्सं एया उव्वेलणा-पयडी। = आहारक युगल (आहारक शरीर-आहारक अंगोपांग), वैक्रियक युगल (वैक्रियक शरीर, वैक्रियिक-अंगोपांग), नरक युगल (नरकगति-नरक गत्यानुपूर्वी), नरयुगल (मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी), देवयुगल (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी), सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्र प्रकृति और उच्चगोत्र ये तेरह उद्वेलन प्रकृतियाँ हैं। (गो.क./मू./४१५/५७७)।
२. केवल विघ्यात योग्य प्रकृतियाँ
गो.क./मू./४२६ सम्मत्तूणुव्वेलणथीणतितीसं च दुक्खवीसं च। वज्जोरालदुतित्थं मिच्छं विज्झादसत्तट्ठी।४२६। = सम्यक्त्व मोहनीय के बिना उद्वेलना प्रकृतियाँ १२ ( देखें - संक्रमण / २ / १ ), स्त्यानगृद्धि तीन आदिक ३० प्रकृतियाँ ( देखें - संक्रमण / २ / १ ), असाता वेदनीय आदिक २० प्रकृतियाँ ( देखें - संक्रमण / २ / ९ ), वज्रर्षभनाराचसंहनन, औदारिक युगल, तीर्थंकर प्रकृति और मिथ्यात्व प्रकृति ये (१२+३०+२०+५=)६७ प्रकृतियाँ विघ्यात संक्रमण वाली हैं।
३. केवल अध:प्रवृत्त योग्य प्रकृतियाँ
गो.क./मू.४१९-४२०/५८० सुहुमरस बंधघादी सादं संजलणलोहपंचिंदी। तेजदुसमवण्णचऊ अगुरुलहुपरघादउस्सासं।४१९। सत्थगदी तसदसयं णिमिणुगुदाले अधापवत्तो दु।...।४२०। =सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में बंधव्युच्छिन्न होने वाली घातिया कर्मों की १४ प्रकृतियाँ ( देखें - प्रकृतिबंध / ७ / २ ) साता वेदनीय, संज्वलन लोभ, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस, कार्मण, समचतुरस्र, वर्णादि ४, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस आदि १० ( देखें - उदय / ६ / १ ) और निर्माण इन ३९ प्रकृतियों में अध:प्रवृत्त संक्रमण है।
गो.क./मू./४२७/५८४ मिच्छूणिगिवीससयं अधापवत्तस्स होंति पयडीओ।...।४२७। = मिथ्यात्व प्रकृति के बिना १२१ प्रकृतियाँ अध:प्रवृत्त संक्रमण की होती हैं।
४. केवल गुण संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
गो.क./मू./४२७-४२८/५८४-५८५...सुहुमस्स बंधघादिप्पहुदी उगुदालुरालदुगतित्थं।४२७। वज्जं पंसंजलणति ऊणा गुणसंकमस्स पयडीओ। पणहत्तरिसंखाओ पयडीणियमं विजाणाहि।४२८। =सूक्ष्म साम्पराय में बँधने वाली घातिया कर्मों की १४ प्रकृतियों को आदि लेकर ( देखें - संक्रमण / २ / ३ में केवल अध:प्रवृत्त संक्रमण योग्य) ३९ प्रकृतियाँ, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तीर्थंकर, वज्रर्षभनाराच, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोधादि तीन, (३९+८) ४७ प्रकृतियों को कम करके (१२२ - ४७) शेष ७५ प्रकृतियाँ गुण संक्रमण की हैं।४२७-४२८।
५. केवल सर्वसंक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
गो.क./मू./४१७/५७९ तिरियेयारुव्वेल्लणपयडी संजलणलोहसम्ममिस्सूणा। मोहा थीणतिगं च य बावण्णे सव्वसंकमणं।४१७। तिर्यगेकादश ( देखें - उदय / ६ / १ ), उद्वेलन की १३ ( देखें - संक्रमण / २ / १ ), संज्वलन लोभ, सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र, इन तीन के बिना मोहनीय की २५ और स्त्यानगृद्धि आदिक ३ (स्त्यानगृद्धि, प्रचला-प्रचला, निद्रानिद्रा) प्रकृतियाँ, ये (११+१३+२५+३) ५२ प्रकृतियों में सर्वसंक्रमण होता है।४१७।
६. विघ्यात व अध:प्रवृत्त इन दो के योग्य
गो.क./मू./४२५/५८३ ओरालदुगे वज्जे तित्थे विज्झादधापवत्तो य।४२५। =औदारिक शरीर-अंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन तीर्थंकर प्रकृति-इन चारों में विघ्यातसंक्रमण और अध:प्रवृत्त ये दो संक्रमण हैं।
७. अध:प्रवृत्त व गुण इन दो के योग्य
गो.क./मू./४२१-४२२/५८१...णिद्दा पयला असुहं वण्णचउक्कं च उवघादे।४२१। सत्तण्हं गुणसंकममधापवत्तो य।...।४२२। =निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णादि चार, और उपघात, इन सात प्रकृतियों के गुणसंक्रमण और अध:प्रवृत्त संक्रमण पाये जाते हैं।
८. अध:प्रवृत्त और सर्व इन दो के योग्य
गो.क./मू./४२४/५८३ संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य।४२४। = संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा पुरुषवेद इन चारों में अध:प्रवृत्त और सर्व संक्रमण ये दो ही संक्रमण पाये जाते हैं।
९. विघ्यात अध:प्रवृत्त व गुण इन तीन के योग्य
गो.क./मू./४२२-४२३ ...दुक्खमसुहगदी। संहदि संठाणदसं णीचापुण्णथिरछक्कं च।४२२। वीसण्हं विज्झादं अधापवत्तो गुणो य।...।४२३। =असाता वेदनीय, अप्रशस्त विहायोगति, पहले के बिना पाँच संहनन व पाँच संस्थान ये १०, नीचगोत्र, अपर्याप्त और अस्थिरादि ६, इस प्रकार २० प्रकृतियों के विघ्यातसंक्रमण, अध:प्रवृत्त संक्रमण, सर्वसंक्रमण ये तीन हैं।
१०. अध:प्रवृत्त गुण व सर्व इन तीन के योग्य
गो.क./मू./४२५/५८३ हस्सरदि भयजुगुप्छे अधापवत्तो गुणो सव्वो।४२५। =हास्य, रति, भय और जुगुप्सा - इन चार प्रकृतियों में अध:प्रवृत्त, गुण और सर्वसंक्रमण ये तीन संक्रमण पाये जाते हैं।४२५।
११. विघ्यात गुण और सर्व इन तीन के योग्य
गो.क./मू./४२३/५८२ विज्झादगुणे सव्वं सम्मे...।४२३। =मिथ्यात्व प्रकृति में विघ्यात, गुण और सर्वसंक्रमण ये तीन हैं।४२३।
१२. उद्वेलना के बिना चार के योग्य
गो.क./मू./४२०-४२१/५८१ थीणतिबारकसाया संढित्थी अरइ सोगो य।४२०। तिरियेयारं तीसे उव्वेलणहीणचारि संकमणा।...।४२१। =स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, (संज्वलन के बिना) १२ कषाय, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, और तिर्यक् एकादशकी ११ ( देखें - उदय / ६ / १ ) इन तीस (३०) प्रकृतियों में उद्वेलन संक्रमण के बिना चार संक्रमण होते हैं।
१३. विघ्यात के बिना चार के योग्य
गो.क./मू./४२३/५८२ सम्मे विज्झादपरिहीणा।४२३। = सम्यक्त्व मोहनीय में विघ्यात के बिना सर्व संक्रमण पाये जाते हैं।
१४. पाँचों के योग्य
गो.क./मू./४२४/५८३ संजलणतिये पुरिसे अधापवत्तो य सव्वो य।४२४। =सम्यक्त्व मोहनीय के बिना १२ उद्वेलन प्रकृतियों में ( देखें - संक्रमण / २ / १ ) पाँचों ही संक्रमण होते हैं।