संस्कार
From जैनकोष
व्यक्ति के जीवन की सम्पूर्ण शुभ और अशुभ वृत्ति उसके संस्कारों के अधीन है, जिनमें से कुछ वह पूर्व भव से अपने साथ लाता है, और कुछ इसी भव में संगति व शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न करता है। इसीलिए गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्ध संस्कार उत्पन्न करने के लिए विधान बताया गया है। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त यथावसर जिनेन्द्र पूजन व मन्त्र विधान सहित ५३ क्रियाओं का विधान है, जिनसे बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए एक दिन वह निर्वाण का भाजन बन जाता है।
संस्कार सामान्य निर्देश
१. संस्कार सामान्य का लक्षण
सि.वि./वृ./१/६/३४/१४ वस्तुस्वभावोऽयं यत् संस्कार: स्मृतिबीजमादधीत। =वस्तु का स्वभाव ही संस्कार है। जिसको स्मृति का बीज माना गया है।
स.श./टी./३७/२३६/८ शरीरादौ स्थिरात्मीयादिज्ञानान्यविद्यास्तासामभ्य स: पुन: पुन: प्रवृत्तिस्तेन जनिता: संस्कारा वासनास्तै: कृत्वा। =शरीरादि को शुचि स्थिर और आत्मीय मानने रूप जो अविद्या अज्ञान है उसके पुन:-पुन: प्रवृत्ति रूप अभ्यास से उत्पन्न संस्कार अर्थात् वासना द्वारा करके...।
पं.का./ता.वृ./परि./२५३/१६ निजपरमात्मनि शुद्धसंस्कारं करोति स आत्मसंस्कार:। =निज परम आत्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह आत्मसंस्कार है।
२. पठित ज्ञान के संस्कार साथ जाते हैं
मू.आ./२८६ विणएण सुदमधीदं जदिवि पमादेण होदि विस्सरिदं। तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहादि। =विनय से पढ़ा हुआ शास्त्र किसी समय प्रमाद से विस्मृत हो जाये तो भी वह अन्य जन्म में स्मरण हो जाता है, संस्कार रहता है और क्रम से केवलज्ञान को प्राप्त कराता है। (ध.९/४,१,१८/गा.२२/८२)।
ध.९/४,१,१८/८२/१ तत्थ जम्मंतरे चउव्विहणिम्मलमदिबलेण विणएणावहारिददुबालसंगस्स देवेसुप्पज्जिय मणुस्सेसु अविणट्ठसंसकारेणुप्पण्णस्स एत्थ भवम्मि पढण-सुणण-पुच्छणवावारविरहियस्स अउप्पत्तिया णाम। =उनमें (चार प्रकार प्रज्ञाओं में) जन्मान्तर में चार प्रकार की निर्मल बुद्धि के बल से विनयपूर्वक बारह अंग का अवधारण करके देवों में उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट संस्कार के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होने पर इस भव में पढ़ने-सुनने व पूछने आदि के व्यापार से रहित जीव की प्रज्ञा औत्पत्तिकी कहलाती है।
ल.सा./जी.प्र./६/४५/४ नारकादिभवेषु पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात् सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति। =नरकादि भवों में जहाँ उपदेश का अभाव है, वहाँ पूर्व भव में धारण किये हुए तत्त्वार्थज्ञान के संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। (और भी देखें - सम्यग्दर्शन / III )।
मा.मा.प्र./७/२८३/१० इस भव में अभ्यास करि परलोक विषै तिर्यंचादि गतिविषैं भी जाय-तौ तहाँ संस्कार के बल से देव गुरु शास्त्र बिना भी सम्यक्त्व होय जाय। ...तारतम्यतैं पूर्व अभ्यास संस्कारतैं वर्तमान इनका निमित्त न होय (देव-शास्त्र आदि निमित्त न होय) तौ भी सम्यक्त्व होय सके।
३. संस्कार के उदाहरण
स.श./मू./३७ अविद्याभ्याससंस्कारैरवशं क्षिप्यते मन:। तदेव ज्ञानसंस्कारै: स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते।३७। =अविद्या के अभ्यास रूप संस्कारों के द्वारा मन स्वाधीन न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वही मन विज्ञान रूप संस्कारों के द्वारा स्वयं ही आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाता है।
ध.६/१,९-१,२३/४१/१० एदेहि जीवम्हि जणिदसंसकारस्स अणंतेसु भवेसु अवट्ठाणब्भुवगमादो। =इन (अनन्तानुबन्धी) कषायों के द्वारा जीव में उत्पन्न हुए संस्कार का अनन्त भवों में अवस्थान माना गया है।
ध.८/३,३६/७३/१ तित्थयराइरिय-बहुसुद-पवयण-विसयरागजणिद-संसकाराभावादो। =वहाँ (अपूर्वकरण के उपरिम सप्तम भाग में) तीर्थंकर, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन विषयक राग से उत्पन्न हुए संस्कारों का अभाव है।
ध.९/४,१,४५/१५४/३ आहितसंस्कारस्य कस्यचिच्छब्दग्रहणकाल एव तद्रसादिप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भाच्च। =शब्द ग्रहण के काल में ही संस्कार युक्त किसी पुरुष के उसके (शब्द के वाच्यभूत पदार्थ के) रसादि विषयक प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है।
४. पूर्व संस्कार का महत्त्व
स.श./मू./४५ जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि। पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्तिं भूयोऽपि गच्छति। =शुद्ध चैतन्य स्वरूप को जानता हुआ, और अन्य पदार्थों से भिन्न अनुभव करता हुआ भी पूर्व भ्रान्ति के संस्कारवश पुनरपि भ्रान्ति को प्राप्त होता है।
द्र.सं./टी./३५/१५९-१६०/९ सम्यग्दृष्टि...तत्र (शुद्धात्मतत्त्वे) असमर्थ: सन्...परमं भक्तिं करोति। तेन ...पञ्चविदेहेषु गत्वा पश्यति...समवशरणं ...पूर्वभवभाविताविशिष्टभेदज्ञानवासना (संस्कार) बलेन मोहं न करोति, ततो जिनदीक्षां गृहीत्वा...मोक्षं गच्छति। =सम्यग्दृष्टि शुद्धात्मभावना भाने में असमर्थ होता है, तब वह परम भक्ति करता है। ...पश्चात् पंच विदेहों में जाकर समवशरण को देखता है। पूर्व जन्म में भावित विशिष्ट भेदज्ञान की वासना (संस्कार) के बल से मोह नहीं करता अत: दीक्षा धारण करके मोक्ष पाता है।
* शरीर संस्कार का निषेध - देखें - साधु / २ / ७ ।
* धारणा ज्ञान सम्बन्धी संस्कार - देखें - धारणा।
* रजस्वला स्त्री व सूतक पातक आदि - देखें - सूतक।
संस्कार कर्म निर्देश
१. गर्भान्वयादि क्रियाओं का नाम निर्देश
म.पु./३८/५१-६८ गर्भान्वयक्रियाश्चैव तथा दीक्षान्वपक्रिया:। कर्त्रन्वयक्रियाश्चेति तास्त्रिधैवं बुधैर्मता:।५१। आधानाद्यास्त्रिपञ्चाशत् ज्ञेया गर्भान्वयक्रिया:। चत्वारिंशदथाष्टौ च स्मृता दीक्षान्वयक्रिया।५२। कर्त्रन्वयक्रियाश्चैव सप्त तज्ज्ञै: समुच्चिता:। तासां यथाक्रमं नामनिर्देशोऽयमनूद्यते।५३। अङ्गानां सप्तमादङ्गाद् दुस्तरादर्णवादपि। श्लोकैरष्टभिरुन्नेष्ये प्राप्तं ज्ञानलवं मया।५४। (नोट - आगे केवल भाषार्थ)। = गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कर्त्रन्वय क्रिया इस प्रकार विद्वान् लोगों ने तीन प्रकार की क्रियाएँ मानी हैं।५१। गर्भान्वय क्रिया आधानादि तिरपन (५३) जाननी चाहिए। और दीक्षान्वय क्रियाएँ अड़तालीस (४८) समझना चाहिए।५२। इसके अतिरिक्त इस विषय के जानकार लोगों ने कर्त्रन्वय क्रियाएँ सात (७) संग्रह की हैं। अब आगे यथाक्रम से उनका नाम निर्देश किया जाता है।५३। जो समुद्र से भी दुस्तर है, ऐसे १२ अंगों में सातवें अंग (उपासकाध्ययनांग) से जो कुछ मुझे ज्ञान का अंश प्राप्त हुआ है उसे मैं नीचे लिखे हुए श्लोकों से कहता हूँ।५५। केवल भाषार्थ - गर्भान्वय की ५३ क्रियाएँ - १. गर्भाधान, २. प्रीति, ३. सुप्रीति, ४. धृति, ५. मोद, ६. प्रियोद्भव, ७. नामकर्म, ८. बहिर्यान, ९. निषद्या, १०. प्राशन, ११. व्युष्टि, १२. केशवाप, १३. लिपि संख्यान संग्रह, १४. उपनीति, १५. व्रतचर्या, १६. व्रतावरण, १७. विवाह, १८. वर्णलाभ, १९. कुलचर्या, २०. गहीशिता, २१. प्रशान्ति, २२. गृहत्याग, २३. दीक्षाद्य, २४. जिन-रूपता, २५. मौनाध्ययन व्रतत्व, २६. तीर्थकृतभावना, २७. गुरुस्थानाभ्युपगमन, २८. गणोपग्रहण, २९. स्वगुरुस्थान संक्रान्ति, ३०. नि:संगत्वात्मभावना, ३१. योगनिर्वाण से प्राप्ति, ३२. योगनिर्वाणसाधन, ३३. इन्द्रोपपाद, ३४. अभिषेक, ३५. विधिदान, ३६. सुखोदय, ३७. इन्द्रत्याग, ३८. अवतार, ३९. हिरण्येत्कृष्टजन्मता, ४०. मन्दरेन्द्राभिषेक, ४१. गुरुपूजोपलम्भन, ४२. यौवराज्य, ४३. स्वराज, ४४. चक्रलाभ, ४५. दिग्विजय, ४६. चक्राभिषेक, ४७. साम्राज्य, ४८. निष्क्रान्ति, ४९.योगसन्मह, ५०. आर्हन्त्य, ५१. तद्विहार, ५२. योगत्याग, ५३. अग्रनिर्वृत्ति। परमागम में ये गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त ५३ क्रियाएँ मानी गयी हैं।५२-५३। २. दीक्षान्वय की ४८ क्रियाएँ - १.अवतार, २. वृत्तलाभ, ३. स्थानलाभ, ४. गणग्रह, ५. पूजाराध्य, ६. पुण्ययज्ञ, ७. दृढचर्या, ८. उपयोगिता। इन आठ क्रियाओं के साथ (गर्भान्वय क्रियाओं में से) उपनीति नाम की चौदहवीं क्रिया से अग्रनिवृत्ति नाम की तिरपनवी क्रिया तक की चालीस क्रियाएँ मिलाकर कुल अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ कहलाती हैं।६४-६५। ३. कर्त्रन्वय की ७ क्रियाएँ - कर्त्रन्वय क्रियाएँ वे हैं जो कि पुण्य करने वाले लोगों को प्राप्त हो सकती हैं, और जो समीचीन मार्ग की आराधना करने के फलस्वरूप प्रवृत्त होती हैं।६६। १. सज्जाति, २. सद्गृहित्व, ३. पारिव्रज्य, ४. सुरेन्द्रता, ५. साम्राज्य, ६. परमार्हन्त्य, ७. परमनिर्वाण। ये सात स्थान तीनों लोकों में उत्कृष्ट माने गये हैं और ये सातों ही अर्हन्त भगवान् के वचनरूपी अमृत के आस्वादन से जीवों को प्राप्त हो सकते हैं।६७-६८। महर्षियों ने इन क्रियाओं का समूह अनेक प्रकार माना है अर्थात् अनेक प्रकार से क्रियाओं का वर्णन किया है, परन्तु मैं यहाँ विस्तार छोड़कर संक्षेप से उनके लक्षण कहता हूँ।६९।
२. गर्भान्वय की ५३ क्रियाओं के लक्षण
म.पु./३८/७०-३१० आधानं नाम गर्भादौ संस्कारो मन्त्रपूर्वक:। पत्नीमृतुमतीं स्नातां पुरस्कृत्यार्हदिज्यया।७०। ...अत्रापि पूर्ववद्दानं जैनी पूजा च पूर्ववत् । इष्टबन्धसमाह्वानं समाशादिश्च लक्ष्यताम् ।९७। ...क्रियाग्रनिर्वृतिर्नाम परानिर्वाणमायुष:। स्वभावजनितामूर्ध्वव्रज्यामास्कनदतो मता।३०९।
इति निर्वाणपर्यन्ता: क्रिया गर्भादिका: सदा। भव्यात्मभिरनुष्ठेया: त्रिपञ्चाशत्समुच्चायात् ।३१०। १. गर्भाधान क्रिया - ऋतुमती स्त्री के चतुर्थ स्थान के पश्चात्, गर्भाधान के पहले, अर्हन्तदेव की पूजा के द्वारा मन्त्र पूर्वक जो संस्कार किया जाता है, उसे आधान क्रिया कहते हैं।७०। भगवान् के सामने तीन अग्नियों की अर्हन्तकुण्ड, गणधरकुण्ड, व केवली कुण्ड में स्थानपा करके भगवान् की पूजा करें। तत्पश्चात् आहुति दें। फिर केवल पुत्रोत्पत्ति की इच्छा से भोगाभिलाष निरपेक्ष स्त्रीसंसर्ग करें। इस प्रकार यह आधानक्रिया विधि है।७१-७६। २. प्रीतिक्रिया - गर्भाधान के पश्चात् तीसरे महीने, पूर्ववत् भगवान् की पूजा करनी चाहिए। उस दिन से लेकर प्रतिदिन बाजे, नगाड़े आदि बजवाने चाहिए।७३-७९। ३. सुप्रीति क्रिया - गर्भाधान के पाँचवें महीने पुन: पूर्वोक्त प्रकार भगवान् की पूजा करे।८०-८१। ४. धृति क्रिया - गर्भाधान के सातवें महीने में गर्भ की वृद्धि के लिए पुन: पूर्वोक्त विधान करना चाहिए।८२। ५. मोदक्रिया - गर्भाधान के नवमें महीने गर्भ की पुष्टि के लिए पुन: पूर्वोक्त विधान करके, स्त्री को गात्रिकाबन्ध, मन्त्रपूर्वक बीजाक्षर लेखन, व मंगलाभूषण पहनाना ये कार्य करने चाहिए।८३-८४। ६. प्रियोद्भव क्रिया - प्रसूति होने पर जात कर्मरूप, मन्त्र व पूजन आदि का बड़ा भारी पूजन विधान किया जाता है। जिसका स्वरूप उपासकाध्ययन से जानने योग्य है।८५-८६। ७. नामकर्म क्रिया - जन्म से १२वें दिन, पूजा व द्विज आदि के सत्कार पूर्वक, अपनी इच्छा से या भगवान् के १००८ नामों से घटपत्र विधि द्वारा (Ballat Paper System) बालक का कोई योग्य नाम छाँटकर रखना (८७-८९) ८. बहिर्यान क्रिया - जन्म से ३/४ महीने पश्चात् ही बालक को प्रसूतिगृह से बाहर जाना चाहिए। बालक को यथाशक्ति कुछ भेंट आदि दी जाती है।९०-९२। ९. निषद्या क्रिया - बहिर्यान के पश्चात् सिद्ध भगवान् की पूजा विधिपूर्वक बालक को किसी बिछाये हुए शुद्ध आसन पर बिठाना चाहिए।९३-९४। १०. अन्नप्राशन क्रिया - जन्म के ७/८ माह पश्चात् पूजन विधि पूर्वक बालक को अन्न खिलाये।९५। ११. व्युष्टि क्रिया - जन्म के एक वर्ष पश्चात् जिनेन्द्र पूजन विधि, दान व बन्धुवर्ग निमन्त्रणादि कार्य करना चाहिए। इसे वर्षवर्धन या वर्षगाँठ भी कहते हैं।९६-९७। १२. केशवाप क्रिया - तदनन्तर किसी शुभ दिन, पूजा विधिपूर्वक बालक के सिर पर उस्तरा फिरवाना अर्थात् मुण्डन करना, व उसे आशीर्वाद देना आदि कार्य किया जाता है। बालक द्वारा गुरु को नमस्कार कराया जाता है।९८-१०१। १३. लिपि संख्यात - पाँचवें वर्ष अध्ययन के लिए पूजा विधिपूर्वक किसी योग्य गृहस्थी गुरु के पास छोड़ना।१०२-१०३। १४. उपनीति क्रिया - आठवें वर्ष यज्ञोपवीत धारण कराते समय, केशों का मुण्डन तथा पूजा विधिपूर्वक योग्य व्रत ग्रहण कराके बालक की कमर में मूंज की रस्सी बाँधनी चाहिए। यज्ञोपवीत धारण करके, सफेद धोती पहनकर, सिर पर चोटी रखने वाला वह बालक माता आदि के द्वार पर जाकर भिक्षा माँगे। भिक्षा में आगम द्रव्य से पहले भगवान् की पूजा करे, फिर शेष बचे अन्न को स्वयं खाये। अब यह बालक ब्रह्मचारी कहलाने लगता है।१०४-१०८। १५. व्रतचर्या क्रिया - ब्रह्मचर्य आश्रम को धारण करने वाला वह ब्रह्मचारी बालक अत्यन्त पवित्र व स्वच्छ जीवन बिताता है। कमर में रत्नत्रय के चिह्न स्वरूप तीन लरकी मूंज की रस्सी, टाँगों में पवित्र अर्हन्त कुल की सूचक उज्ज्वल व सादी धोती, वक्षस्थल पर सात लर का यज्ञोपवीत, मन वचन व काय की शुद्धि का प्रतीक सिर का मुण्डन - इतने चिह्न धारण करके अहिंसाणुव्रत का पालन करता हुआ गुरु के पास विद्याध्ययन करता है। वह कभी हरी दाँतौन नहीं करता, पान खाना, अंजन लगाना, उबटन से स्नान करना व पलंग पर सोना आदि बातों का त्याग करता है। स्वच्छ जल से स्नान करता है तथा अकेला पृथिवी पर सोता है। अध्ययन क्रम में गुरु के मुख से पहले श्रावकाचार और फिर अध्यात्म शास्त्र का ज्ञान कर लेने के अनन्तर व्याकरण, न्याय, छन्द, अलंकार, गणित, ज्योतिष आदि विद्याओं को भी यथा शक्ति पढ़ता है।१०९-१२०। १६. व्रतावतरण क्रिया - विद्याध्ययन पूरा कर लेने पर बारहवें या सोलहवें वर्ष में गुरु साक्षी में, देवपूजादि विधिपूर्वक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश पाने के लिए उपरोक्त सर्व व्रतों को त्यागकर, श्रावक के योग्य आठ मूलगुणों (देखें - श्रावक ) को ग्रहण करता है। और कदाचित् क्षत्रिय धर्म के पालनार्थ अथवा शोभार्थ कोई शस्त्र धारण करता है।१२१-१२६। १७. विवाह क्रिया - विवाह की इच्छा होने पर गुरु साक्षी में सिद्ध भगवान् व पूर्वोक्त (प्रथम क्रियावत्) तीन अग्नियों की पूजा विधिपूर्वक, अग्नि की प्रदक्षिणा देते हुए, कुलीन कन्या का पाणि ग्रहण करे। सात दिन पर्यन्त दोनों ब्रह्मचर्य से रहें, फिर तीर्थयात्रादि करें। तदनन्तर केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए, स्त्री के ऋतुकाल में सेवन करें। शारीरिक शक्तिहीन हो तो पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहें।१२७-१३४। १८. वर्णलाभ क्रिया - यथोक्त पूजन विधिपूर्वक पिता उसको कुछ सम्पति व घर आदि देकर धर्म व न्यायपूर्वक जीवन बिताते हुए पृथक् रहने के लिए कहता है।१३५-१४१। १९. कुलचर्या क्रिया - अपनी कुल परम्परा के अनुसार देव पूजादि गृहस्थ के षट्कर्मों को यथाविधि नित्य पालता है यही कुलचर्या है।१४२-१४३। २०. गृहीशिता क्रिया - धार्मिक क्षेत्र में तथा ज्ञान के क्षेत्र में वृद्धि करता हुआ, अन्य गृहस्थों के द्वारा सत्कार किये जाने योग्य गृहीश या गृहस्थाचार्य होता है।१४४-१४६। २१. प्रशान्ति क्रिया - अपने पुत्र को गृहस्थ का भार सौंपकर विरक्त चित्त हो विशेष रूप से धर्म का पालन करते हुए शान्त वृत्ति से रहने लगता है।१४७-१४९। २२. गृह त्याग क्रिया - गृहस्थाश्रम में कृतार्थता को प्राप्त हो, योगिपूजा विधि पूर्वक अपने ज्येष्ठ पुत्र को घर की सम्पूर्ण सम्पत्ति व कुटुम्ब पोषण का कार्य भार सौंपकर, तथा धार्मिक जीवन बिताने का उपदेश करके स्वयं घर त्याग देता है।१५०-१५६। २३. दीक्षाद्य क्रिया - क्षुल्लक व्रत रूप उत्कृष्ट श्रावक की दीक्षा लेता हे।१५७-१५८। २४. जिनरूपता क्रिया - क्रम से यथा अवसर दिगम्बर रूप वाले मुनिव्रत की दीक्षा।१५९-१६०। २५. मौनाध्ययन वृत्ति क्रिया - गुरु के पास यथोक्त काल में मौनपूर्वक शास्त्राध्ययन करना।१६१-१६३। २६. तीर्थ कृद्भावना क्रिया - तीर्थंकर पद की कारणभूत सोलह भावनाओं को भाता है।१६४-१६५। २७. गुरुस्थानाभ्युपगमन क्रिया - प्रसन्नता पूर्वक उसे योग्य समझकर गुरु (आचार्य) अपने संघ के आधिपत्य का गुरुपद प्रदान करे तो उसे विनयपूर्वक स्वीकार करना।१६६-१६७। २८. गणोपग्रहण क्रिया - गुरुपदनिष्ठ होकर चतु:संघ की रक्षा व पालन करे तथा नवीन जिज्ञासुओं को उनकी शक्ति के अनुसार व्रत व दीक्षाएँ दे।१६८-१७१। २९. स्वगुरु स्थानावाप्ति क्रिया - गुरु की भाँति स्वयं भी अवस्था विशेष को प्राप्त हो जाने पर, संघ में से योग्य शिष्य को छाँटकर उसे गुरुपद का भार प्रदान करे।१७२-१७४। ३०. नि:संगत्वभावना क्रिया - एकल विहारी होकर अत्यन्त निर्ममता पूर्वक अधिकाधिक चारित्र में विशुद्धि करना।१७५-१७७। ३१. योगनिर्वाणसंप्राप्ति क्रिया - आयु का अन्तिम भाग प्राप्त हो जाने पर वैराग्य की उत्कर्षता पूर्वक एकत्व व अन्यत्व भावना को भाता हुआ सल्लेखना धारण करके शरीर त्याग करने के लिए साम्यभाव सहित इसे धीरे-धीरे कृश करने लगता है।१७८-१८५। ३२. योग निर्वाण साधन क्रिया - अन्तिम अवस्था प्राप्त हो जाने पर साक्षात् समाधि या सल्लेखना को धारणकर तिष्ठे।१८६-१८९। ३३. इन्द्रोपपाद क्रिया - उपरोक्त तप के प्रभाव से वैमानिक देवों के इन्द्र रूप से उत्पाद होना।१९०-१९४। ३४. इन्द्राभिषेक क्रिया - इन्द्रपद पर आरूढ करने के लिए देव लोग उसका इन्द्राभिषेक करते हैं।१९५-१९८। ३५. विधिदान क्रिया - देवों को उन-उनके पदों पर नियुक्त करना।१९९। ३६. सुखोदय क्रिया - इन्द्र के योग्य सुख भोगते हुए देवलोक में चिरकाल तक रहना।२००-२०१। ३७. इन्द्र त्याग क्रिया - आयु के अन्त में शान्ति पूर्वक समस्त वैभव का त्याग कर तथा देवों को उपदेश देकर देवलोक से च्युत होना।२०२-२१३। ३८. इन्द्रावतार क्रिया - सिद्ध भगवान् को नमस्कार करके, १६ स्वप्नों द्वारा माता को अपने अवतार की सूचना देना।२१४-२१६। ३९. हिरण्योत्कृष्ट जन्मता - छह महीने पूर्व से ही कुबेर द्वारा हिरण्य, सुवर्ण व रत्नों की वर्षा हो रही है जहाँ, तथा श्री ह्री आदि देवियाँ कर रही हैं सेवा जिसकी, ऐसा तथा शुद्ध गर्भ वाली माता के गर्भ में तीन ज्ञानों को लेकर अवतार धारण करना।२१७-२२४। ४०. मन्दराभिषेक क्रिया - जन्म धारण करते ही नवजात इस बालक का इन्द्र द्वारा सुमेरु पर्वत पर अभिषेक किया जाना।२२५-२२८। ४१. गुरु पूजन क्रिया - बिना शिक्षा ग्रहण किये तीनों जगत् के गुरु स्वीकारे जाना।२२९-२३०। ४२. यौवराज्य क्रिया - पूजन अभिषेक पूर्वक युवराज पटका बाँधा जाना।२३१। ४३. स्वराज्य क्रिया - राज्याधिपति के स्थान पर निष्ठ होना।२३२। ४४. चक्रलाभ क्रिया - पुण्य के प्रताप से नवनिधि व चक्ररत्न की प्राप्ति।२३३। ४५. दिशांजय क्रिया - षट्खण्ड सहित समुद्रान्त पृथिवी को जीतकर वहाँ अपनी सत्ता स्थापित करना।२३४। ४६. चक्राभिषेक क्रिया - दिग्विजय पूर्णकर नगर में प्रवेश करते समय चक्र का अभिषेक करना। नगर के लोग चक्रवर्ती पद पर आसीन उनके चरणों का अभिषेक कर चरणोदक को मस्तक पर चढ़ाते हैं।२३५-२५२। ४७. साम्राज्य क्रिया - शिष्टों का पालन व दुष्टों का निग्रह करने का तथा प्रेम व न्यायपूर्वक राज्य करने का उपदेश अपने आधीन राजाओं को देकर सुखपूर्वक राज्य करना।२५३-२६५। ४८. निष्क्रान्ति क्रिया - वैराग्यपूर्वक राज्य को त्यागना, लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधन को प्राप्त होना। क्रम से मनुष्यों, विद्याधरों व देवों द्वारा उठायी हुई शिविका पर आरूढ होकर वन में जाना। वस्त्रालंकार को त्यागकर सिद्धों की साक्षी में दिगम्बर व्रत को धारणकर पंचमुष्टि केशलौंच करना आदि क्रियाएँ।२६६-२९४। ४९. योग सम्मह क्रिया - ज्ञानाध्ययन के योग से उत्कृष्ट तेज स्वरूप केवलज्ञान की प्राप्ति।२९५-३००। ५०. आर्हन्त्य क्रिया - समवशरण की दिव्य रचना की प्राप्ति।३०१-३०३। ५१. विहारक्रिया - धर्मचक्र को आगे करके भव्य जीवों के पुण्य से प्रेरित, उनको उपदेश देने के अर्थ उन अर्हन्त भगवान् का विहार होना।३०४। ५२. योग त्याग क्रिया - केवलिसमुद्घात करके मन, वचन, काय रूप योगों को अत्यन्त निरोध कर, अत्यन्त निश्चल दशा को प्राप्त होना।३०५-३०७। ५३. अग्रनिर्वृत्ति क्रिया - समस्त अघातिया कर्मों का भी नाशकर, विनश्वर शरीर से सदा के लिए नाता तुड़ाकर उत्कृष्ट व अविनश्वर सिद्ध पद को प्राप्त हो, लोक शिखर पर अष्टम भूमि में जा निवास करना।३०८-३०९।
३. दीक्षान्वय की ४८ क्रियाओं का लक्षण
म.पु./३९/१-८० अथाब्रवीद् द्विजन्मभ्यो मनुदीक्षान्वयक्रिया:।१। ...तदुन्मुखस्य या वृत्ति: पुंसो दीक्षेत्यसौ मता। तामन्विता क्रिया या तु सा स्याद् दीक्षान्वया क्रिया।५। ...यस्त्वेतास्तत्त्वतो ज्ञात्वा भव्य: समनुतिष्ठति। सोऽधिगच्छति निर्वाणम् अचिरात्सुखसाद्भवन् ।८०। इति दीक्षान्वय क्रिया। = दीक्षान्वय सामान्य - व्रत को धारण करने के सन्मुख व्यक्ति विशेष की प्रवृत्ति से सम्बन्ध रखने वाली क्रियाओं को दीक्षान्वय क्रियाएँ कहते हैं।१-५। १. अवतार क्रिया - मिथ्यात्व से दूषित कोई भव्य समीचीन मार्ग को ग्रहण करने के सम्मुख हो किन्हीं मुनिराज अथवा गृहस्थाचार्य के पास जाकर, यथार्थ देव शास्त्र गुरु व धर्म के सम्बन्ध में योग्य उपदेश प्राप्त करके, मिथ्या मार्ग से प्रेम हटाता है और समीचीन मार्ग में बुद्धि लगाता है। गुरु ही उस समय पिता है, और तत्त्वज्ञान रूप संस्कार ही गर्भ है। यहाँ यह भव्य प्राणी अवतार धारण करता है।६-३५। २. वृत्तिलाभ क्रिया - गुरु के द्वारा प्रदत्त व्रतों को धारण करना।३६। ३. स्थानलाभ क्रिया - गृहस्थाचार्य उसके हाथ से मन्दिर जी में जिनेन्द्र भगवान् के समवशरण की पूजा करावे। तदनन्तर उसका मस्तक स्पर्श करके उस श्रावक की दीक्षा दे। पंच मुष्टि लौंच के प्रतीक स्वरूप उसके मस्तक का स्पर्श करें। तत्पश्चात् विधि पूर्वक उसे पंच नमस्कार मन्त्र प्रदान करे।३७-४४। ४. गण ग्रहणक्रिया - मिथ्या देवताओं को शान्तिपूर्वक विसर्जन करता हुआ अपने घर से हटाकर किसी अन्य योग्य स्थान में पहुँचाना।४५-४८। ५. पूजाराध्य क्रिया - जिनेन्द्र देव की पूजा करते हुए द्वादशांग का अर्थ ज्ञानी जनों के मुख से सुनना।४९। ६. पुण्य यज्ञक्रिया - साधर्मी पुरुषों के साथ पुण्य वृद्धि के कारणभूत चौदह पूर्व विद्याओं का सुनना।५०। ७. दृढचर्या क्रिया - शास्त्र के अर्थ का अवधारण करके स्वमत में दृढता धारना।५१। ८. उपयोगिता क्रिया - पर्व के दिन उपवास में अर्थात् रात्रि के समय प्रतिमा योग धारण करके ध्यान करना।५२। ९. उपनीति क्रिया - ब्रह्मचारी का स्वच्छवेश व यज्ञोपवीत आदि धारण करके शास्त्रानुसार नाम परिवर्तन पूर्वक जिनमत में श्रावक की दीक्षा लेना।५३-५६। १०. व्रतचर्या क्रिया - तदनन्तर उपासकाध्ययन करके योग्य व्रतादि धारण करना।५७। ११. व्रतावरण क्रिया - विद्याध्ययन समाप्त हो जाने पर गुरु की साक्षी में पुन: आभूषण आदि का ग्रहण करके गृहस्थ में प्रवेश करना।५८। १२. विवाह क्रिया - स्व स्त्री को भी अपने मत में दीक्षित करके पुन: उसके साथ पूर्वरूपेण सर्व विवाह संस्कार करे।५९-६०। १३. वर्णलाभक्रिया - समाज के चार प्रतिष्ठित व्यक्तियों से अपने को समाज में सम्मिलित होने की प्रार्थना करे और वे विधिपूर्वक इसे अपने वर्ण में मिला लें।६१-७१। १४. कुलचर्या क्रिया - जैनकुल की परम्परानुसार देव पूजादि षट्आवश्यक क्रियाओं में नियम से प्रवृत्ति करना।७२। १५. गृहीशिता क्रिया - शास्त्र में पूर्ण अभ्यस्त हो जाने पर तथा प्रायश्चित्तादि विधि का ज्ञान हो जाने पर गृहस्थाचार्य के पद को प्राप्त होना।७३-७४। १६. प्रशान्तता क्रिया - नाना प्रकार के उपवासादि की भावनाओं को प्राप्त होना।७५। १७. गृहत्याग क्रिया - योग्य पुत्र को नीति सहित धर्माचार की शिक्षा देकर, विरक्त बुद्धि वह द्विजोत्तम गृह त्याग कर देता है।७६। १८. दीक्षाद्य क्रिया - एक वस्त्र को धारण करके वन में जा क्षुल्लक की दीक्षा लेना।७७। १९. जिनरूपता क्रिया - गुरु के समीप दिगम्बरी दीक्षा धारण करना।७८। २०-४८. मौनाध्ययन वृत्ति - से लेकर अग्रनिवृत्ति क्रिया तक ये आगे की सब क्रियाएँ गर्भान्वय क्रियाओं में नं.२५ से नं.५३ तक की क्रियाओं वत् जानना।७९-८०।
४. कर्त्रन्वयादि ७ क्रियाओं के लक्षण
म.पु./३८/६६ तास्तु कर्त्रन्वया ज्ञेया या: प्राप्या: पुण्यकर्तृभि:। फलरूपतया वृत्ता: सन्मार्गाराधनस्य वै।६६। = कर्त्तन्वय क्रियाएँ वे हैं जो कि पुण्य करने वाले लोगों को प्राप्त हो सकती हैं; और जो समीचीन मार्ग की आराधना करने के फलस्वरूप प्रवृत्त होती हैं।६६।
म.पु./३९/८०-२०७ अथात: संप्रवक्ष्यामि द्विजा: कर्त्रन्वयक्रिया:।८१। तत्र सज्जातिरित्याद्या क्रिया श्रेयोऽनुबन्धिनी। या सा वासन्नभव्यस्य नृजन्मोपगमे भवेत् ।८२।...कृत्स्नकर्ममलापायात् संशुद्धिर्याऽन्तरात्मन:। सिद्धि: स्वात्मोपलब्धि: सा नाभावो न गुणोच्छिदा।२०६। इत्यागमानुसारेण प्रोक्ता: कर्त्रन्वयक्रिया:। सप्तैता: परमस्थानसंगतिर्यत्र योगिनाम् ।२०७। = १. सज्जाति क्रिया - रत्नत्रय की सहज प्राप्ति का कारणभूत मनुष्य जन्म, उसमें भी पिता का उत्तम कुल और माता की उत्तम जाति में उत्पन्न हुआ कोई भव्य, जिस समय यज्ञोपवीत आदि संस्कारों को पाकर परब्रह्म को प्राप्त होता है, तब अयोनिज दिव्य ज्ञानरूपी गर्भ से उत्पन्न हुआ होने के कारण सज्जाति को धारण करने वाला समझा जाता है।८१-९८। २. सद्गृहित्व क्रिया - गृहस्थ योग्य असि मसि आदि षट्कर्मों का पालन करता हुआ, पृथिवी तल पर ब्रह्मतेज के वेद या शास्त्रज्ञान को स्वयं पढ़ता हुआ और दूसरों को पढ़ाता हुआ वह प्रशंसनीय देव-ब्राह्मणपने को प्राप्त होता है। अर्हन्त उसके पिता हैं, रत्नत्रय रूप संस्कार उनकी उत्पत्ति की अगर्भज योनि है। जिनेन्द्र देवरूप ब्रह्मा की सन्तान है, इसलिए वह देव ब्राह्मण है। उत्तम चारित्र को धारण करने के कारण वर्णोत्तम है। ऐसा सच्चा जैन श्रावक ही सच्चा द्विज व ब्राह्मणोत्तम है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य व माध्यस्थ्यादि पक्ष तथा चर्या व प्रायश्चित्तादि साधन के कारण उनसे उद्योग सम्बन्धी हिंसा का भी स्पर्श नहीं होता। इस प्रकार गुणों के द्वारा अपने आत्मा की वृद्धि करना सद्गृहित्व क्रिया है।९९-१५४। ३. पारिव्राज्य क्रिया - गृहस्थ धर्म का पालन कर घर के निवास से विरक्त होते हुए पुरुष का जो दीक्षा ग्रहण करना है उसे परिव्रज्या कहते हैं। ममत्व भाव को छोड़कर दिगम्बररूप धारण करना यह परिव्राज्य क्रिया है।१५५-२००। ४. सुरेन्द्रता क्रिया - परिव्रज्या के फलस्वरूप सुरेन्द्र पद की प्राप्ति।२०१। ५. साम्राज्य क्रिया - चक्रवर्ती का वैभव व राज्य प्राप्ति।२०२। ६. आर्हन्त्य क्रिया - अर्हन्त परमेष्ठी को जो पंचकल्याणक रूप सम्पदाओं की प्राप्ति होती है, उसे आर्हन्त्य क्रिया जानना चाहिए।२०३-२०४। ७. परिनिर्वृत्ति क्रिया - अन्त में सर्वकर्म विमुक्त सिद्ध पद की प्राप्ति।२०५-०६।
* इन सब क्रियाओं के लिए मन्त्र विधान - देखें - मंत्र / १ / ७ ।
५. गृहस्थ को ये क्रियाएँ अवश्य करनी चाहिए
म.पु./३८/४९-५० तदेषां जातिसंस्कारं द्रढयन्निति सोऽधिराट् । स प्रोवाच द्विजन्मेभ्य: क्रियाभेदानशेषत:।४९। ताश्च क्रियास्त्रिधाम्नाता: श्रावकाध्यायसंग्रहे। सद्दृष्टिभिरनुष्ठेया महोदका: शुभावहा:।५०। = इसके लिए इन द्विजों (उत्तम कुलीनों) की जाति के संस्कार को दृढ करते हुए सम्राट भरतेश्वर ने द्विजों के लिए नीचे लिखे अनुसार क्रियाओं के समस्त भेद कहे।४९। उन्होंने कहा कि श्रावकाध्ययन संग्रह में क्रियाएँ तीन प्रकार की कही हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुषों को उन क्रियाओं का पालन अवश्य करना चाहिए। क्योंकि वे सभी उत्तम फल देने वाली और शुभ करने वाली हैं।५०।
* यज्ञोपवीत संस्कार विशेष - देखें - यज्ञोपवीत।
* संस्कार द्वारा अजैन को जैन बनाया जा सकता है - देखें - यज्ञोपवीत / २ ।