संस्तर
From जैनकोष
भ.आ./मू./६४०-६४५/८४०-८४५ पुढविसिलामओ वा फलमओ तणमओ य संथारो। होदि समाधिणिमित्तं उत्तरसिर अहव पुव्वसिरो।६४०। अघसे समे असुसिरे अहिसुयअविले य अप्पपाणे य। असिणिद्धे घणगुत्ते उज्जोवे भूमिसंथारो।६४१। विद्धत्थो य अफुडिदो णिक्कंपो सव्वदो असंसत्तो। समपट्ठो उज्जोवे सिलामओ होदि संथारो।६४२। भूमि समरुंदलओ अकुडिल एगंगि अप्पमाणो य। अच्छिदो य अफुडिदो तण्हो वि य फलय संथारो।६४३। णिस्संधी य अपोल्लो णिरुवहदो समधि वास्सणिज्जंतु। सुहपडिलेहो मउओतणसंथारो हवे चरिमो।६४४। जुत्तो पमाणरइयो उभयकालपडिलेहणासुद्धो। विधिविहिदो संथारो आरोहव्वो तिगुत्तेण।६४५। = पृथिवी, शिलामय, फलकमय, और तृणमय ऐसे चार प्रकार के संस्तर हैं। समाधि के निमित्त इनकी आवश्कता पड़ती है। इन संस्तरों के मस्तक का भाग पूर्व व उत्तर दिशा की तरफ होना चाहिए।६४०। भूमिसंस्तर - जो जमीन मृदु नहीं है, जो छिद्र रहित, सम, सूखी, प्राणिरहित, प्रकाशयुक्त, क्षपक के देहप्रमाण के अनुसार और गुप्त, और सुरक्षित है ऐसी जमीन संस्तररूप होगी अन्यथा नहीं।६४१। शिलामय संस्तर - शिलामय संस्तर अग्निज्वाल से दग्ध, टाँकी के द्वारा उकेरा गया, वा घिसा हुआ, होना चाहिए। यह संस्तर टूटा-फूटा न हो निश्चल हो, सर्वत: जीवों से रहित हो, खटमल आदि दोषों से रहित, समतल और प्रकाशयुक्त होना चाहिए।६४२। फलकमय संस्तर - चारों तरफ से जो भूमि से संलग्न है, रुन्द और हलका, उठाने रखने में अनायास कारक, सरल, अखण्ड, स्निग्ध, मृदु, अफूट ऐसा फलक संस्तर के लिए योग्य है।६४३। तृणसंस्तर - तृणसंस्तर गाँठ रहित तृण से बना हुआ, छिद्र रहित, न टूटे हुए तृण से बना हुआ, जिस पर सोने व बैठने से खुजली न होगी ऐसे तृण से बना हुआ, मृदुस्पर्श वाला, जन्तु रहित, जो सुख से सोधा जाता है, ऐसा होना चाहिए।६४४। संस्तर के सामान्य लक्षण - चारों प्रकार के संस्तरों में ये गुण होने चाहिए। योग्य, प्रमाणयुक्त हो। तथा सूर्योदय व सूर्यास्तकाल में शोधन करने से शुद्ध होता है। शास्त्रोक्त विधि से जिसकी रचना हुई है, ऐसे संस्तर पर मन वचन काय को शुद्धकर आरोहण करना चाहिए।६४५।