सत्य
From जैनकोष
कारण असत्य वचन से निवृत्त है, इसलिए उसके दूसरा अणुव्रत है। (रा.वा./७/२०/२/५४७/८)।
वसु.श्रा./२१० अलियं ण जंपणीयं पाणिबहकरं तु सच्चवयणं पि। रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं।२१०। =राग से अथवा द्वेष से झूठ वचन नहीं बोलना चाहिए, और प्राणियों का घात करने वाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए, यह दूसरा स्थूल सत्यव्रत जानना चाहिए।
का.अ./३३३-३३४ हिंसा वयणं ण वयदि कक्कस-वयणं पि जो ण भासेदि। णिट्ठुरं वयणं पि तहा ण भासदे गुज्झ-वयणं पि।३३३। हिद-मिद वयणं भासदि संतोस-करं तु सव्व-जीवाणं। धम्म-पयासण-वयणं अणुव्वदी होदि सो विदियो।३३४। =जो हिंसा का वचन नहीं कहता, कठोर वचन नहीं कहता, निष्ठुर वचन नहीं कहता, और न दूसरों की गुप्त बात को प्रकट करता है। तथा हित-मित वचन बोलता है, सब जीवों को सन्तोषकारक वचन बोलता है, और धर्म का प्रकाशन करने वाला वचन बोलता है वह दूसरे सत्याणुव्रत का धारी है।३३३-३३४।
४. सत्य के भेद
भ.आ./मू./११९३/११८९ जणवदसंमदिठवणा णामे रूवे पडुच्चववहारे। संभावणववहारे भावेणोपम्मसच्चेण।११९३। जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीति, सम्भावना, व्यवहार, भाव और उपमासत्य ऐसे सत्य के १० भेद हैं। (मू.आ./३०८); (गो.जी./मू./२२२)।
रा.वा./१/२०/१२/७५/२० दशविध: सत्यसद्भाव: नामरूपस्थापनाप्रतीत्य-संवृति-संयोजना-जनपद-देशभाव-समयसत्यभेदेन। =सत्य के दश भेद हैं - नाम, रूप, स्थापना, प्रतीति, संवृति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समयसत्य। (ध.१/१,१,२/११७/६); (ध.९/४,१,४५/२१८/१)।
५. जघन्योत्कृष्ट सत्य निर्देश
सा.ध./४/४१-४३ यद्वस्तु यद्देशकालप्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिंस्तथैव संवादि, सत्यासत्यं वचो वेदत् ।४१। असत्यं वय वासोऽन्धो, रन्धयेत्यादि-सत्यगम् । वाच्यं कालातिक्रमेण, दानात्सत्यमसत्यगम् ।४२। यत्स्वस्य नास्ति तत्कल्ये दास्यामीत्यादिसंविदा। व्यवहारं विरुन्धानं, नासत्यासत्यमालपेत् ।४३। =जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकारवाली प्रसिद्ध है, उस वस्तु के विषय में उसी देश, काल, प्रमाण और आकार रूप कथन करने वाले सत्यासत्य वचन को बोलना चाहिए।४१। सत्याणुव्रत के पालक श्रावक के द्वारा वस्त्र को बुनो और भात को पकाओ इत्यादि सत्यसूचक असत्यवचन तथा काल की मर्यादा का उल्लंघन करके देने से असत्य सूचक वचन बोलने योग्य हैं। ऐसे वचन सत्यासत्य कहलाते हैं।४२। सत्याणुव्रत को पालन करने वाला श्रावक जो वस्तु अपनी नहीं है वह वस्तु मैं तुम्हारे लिए प्रात:काल दूँगा इत्यादि रूप प्रतिज्ञा के द्वारा लोक व्यवहार को बाधा देने वाले असत्यासत्य वचन को नहीं बोले।४३।
६. जनपद आदि दश सत्यों के लक्षण
मू.आ./३०९-३१३ जणपदसच्चं जध ओदणादि रुचिदे य सव्वभासाए। बहुजणसंमदमवि होदि जं तु लोए तहा देवी।३०९। ठवणा ठविदं जह देबदाणि णामं च देवदत्तादि। उक्कडदरोत्ति वण्णे रूवे सेओ जध बलाया।३१०। अण्णं अपेच्छसिद्धं पडुच्चसत्यं जहा हवदि दिग्घं। ववहारेण य सच्चं रज्झदि कूरो जहा लोए।३११। संभावणा य सच्चं जदि णामेच्छेज्ज एव कुज्जंति। जदि सक्को इच्छेज्जो जंबूदीवं हि पल्लेत्थे।३१२। हिंसादिदोसविसुद्धं सच्चमकप्पियविभावदो भावं। ओवम्मेण दु सच्चं जाणसु पलिदोवमादीया।३१३। जो सब भाषाओं से भात के नाम पृथक्-पृथक् बोले जाते हैं जैसे चोरु, कूल, भक्त आदि ये देशसत्य हैं। और बहुत जनों के द्वारा माना गया जो नाम वह सम्मत्तसत्य है, जैसे-लोक में राजा की स्त्री को देवी कहना।३०९। जो अर्हन्त आदि की पाषाण आदि में स्थापना वह स्थापनासत्य है। जो गुण की अपेक्षा न रखकर व्यवहार के लिए देवदत्त आदि नाम रखना वह नामसत्य है। और जो रूप के बहुतपने से कहना कि बगुलों की पंक्ति सफेद होती है वह रूपसत्य है।३१०। अन्य की अपेक्षा से जो कहा जाय सो वह प्रतीत्यसत्य है जैसे ‘यह दीर्घ है’ यहाँ ह्रस्व की अपेक्षा से है। जो लोक में ‘भात पकता’ है ऐसा वचन कहा जाता है वह व्यवहारसत्य है।३११। जैसी इच्छा रखे वैसा कर सके वह सम्भावना सत्य है। जैसे इन्द्र इच्छा करे तो जम्बूद्वीप को उलट सकता है।३१२। जो हिंसादि दोष रहित अयोग्य वचन भी हो वह भावसत्य है जैसे किसी ने पूछा कि, ‘चोर देखा, उसने कहा कि, ‘नहीं देखा है’। जो उपमा सहित हो वह वचन उपमासत्य है जैसे पल्योपम, सागरोपम आदि कहना। (भ.आ.वि./११९३/११८९/११); (गो.जी./जी.प्र./२२३-२२४/४८१/२)
रा.वा./१/२०/१२/७५/२१ तत्र सचेतनेतरद्रव्यस्यासत्यप्यर्थे यद्वयवहारार्थं संज्ञाकरणं तन्नामसत्यम, इन्द्र इत्यादि। यदर्थासंनिधानेऽपि रूपमात्रेणोच्यते तद्रूपसत्यम्, यथा चित्रपुरुषादिषु असत्यमपि चैतन्योपयोगादावर्थे पुरुष इत्यादि। असत्यप्यर्थे यत्कार्यार्थं स्थापितं द्यूताक्षनिक्षेपादिषु तत् स्थापनासत्यम् । आदिमदनादिमदौपशमिकादीन् भावान् प्रतीत्य यद्वचन तत्प्रतीत्यसत्यम् । यल्लोके संवृत्यानीतं वचस्तत् संवृतिसत्यं यथा पृथिव्याद्यनेककारणत्वेऽपि सति ‘पङ्के जातं पङ्कजम्’ इत्यादि। धूपचूर्णवासानुलेपनप्रघर्षादिषु पद्म-मकर-हंस-सर्वतोभद्र-क्रौञ्च-व्यूहादिषु वा सचेतनेतरद्रव्याणां यथा भागविधिसंनिवेशाविर्भावकं यद्वचस्तत् संयोजनासत्यम् । द्वात्रिंशज्जनपदेष्वार्यानार्यभेदेषु धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रापकं यद्वच: तत् जनपदसत्यम् । ग्रामनगरराजगणपाखण्डजातिकुलादिधर्माणामुपदेष्ट्ट यद्वच: तद् देशसत्यम् । छद्मस्थज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य संयतासंयतस्य वा स्वगुणपरिपालनार्थं प्रासुकमिदमप्रासुकमित्यादि यद्वच: तत् भावसत्यम् । प्रतिनियतषट्तयद्रव्यपर्यायाणामगमगम्यानां याथात्म्याविष्करणं यद्वच: तत् समयसत्यम् । =पदार्थों के न होने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्य की संज्ञा करने को नामसत्य कहते हैं जैसे इन्द्र इत्यादि। पदार्थ का सन्निधान न होने पर भी रूपमात्र की अपेक्षा जो कहा जाता है वह रूपसत्य है जैसे चित्रपुरुषादि में चैतन्य उपयोगादि रूप पदार्थ के न होने पर भी ‘पुरुष’ इत्यादि कहना। पदार्थ के न होने पर भी कार्य के लिए जो जूऐं के पाँसे आदि निक्षेपों में स्थापना की जाती है वह स्थापना सत्य है। सादि व अनादि आदि भावों की अपेक्षा करके जो वचन कहा जाता है वह प्रतीत्यसत्य है। जो वचन लोक रूढ़ि में सुना जाता है वह संवृतिसत्य है, जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणों के होने पर भी पंक अर्थात् कीचड़ में उत्पन्न होने से ‘पंकज’ इत्यादि वचनप्रयोग। सुगन्धित धूपचूर्ण के लेपन और घिसने में अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंचरूप व्यूह (सैन्यरचना) आदि में भिन्न द्रव्यों की विभाग विधि के अनुसार की जाने वाली रचना को प्रगट करने वाला वचन वह संयोजना सत्य वचन कहलाता है। आर्य व अनार्य भेदयुक्त बत्तीस जनपदों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रापक जो वचन वह जनपदसत्य है। जो वचन, ग्राम, नगर राजा, गण, पाखण्ड, जाति एवं कुल आदि धर्मों का व्यपदेश करने वाला है वह देशसत्य है। छद्मस्थ ज्ञानी के द्रव्य के यथार्थ स्वरूप का दर्शन होने पर भी संयत अथवा संयतासंयत के अपने गुणों का पालन करने के लिए ‘यह प्रासुक है-यह अप्रासुक है’ इत्यादि जो वचन कहा जाता है वह भावसत्य है। जो वचन आगमगम्य प्रतिनियत छद द्रव्य व उनकी पर्यायों की यथार्थतो को प्रगट करने वाला है वह समयसत्य है। (ध.१/१,१,२/११७/८); (ध.९/४,१,४५/२१८/२); (चा.सा./६२/२); (अन.ध./४/४७)।
आमंत्रणी आदि भाषाओं में कथंचित् सत्यासत्यपना। - देखें - भाषा।
७. सत्य की भावनाएँ
१. सत्यधर्म की अपेक्षा
रा.वा./९/६/२७/५९९/१८ सत्यवाचि प्रतिष्ठिता: सर्वा गुणसंपद:। अनृतभाषिणं बन्धवोऽपि अवमन्यते(न्ते) मित्राणि च परित्यजन्ति, जिह्वाच्छेदनसर्वस्वहरणादिव्यसनभागपि भवति। =सभी गुण सम्पदाएँ सत्य वक्ता में प्रतिष्ठित होती हैं। झूठे का बन्धुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिह्वा छेदन, सर्व धन हरण आदि दण्ड उसे भुगतने पड़ते हैं। (चा.सा./६५/४)।
२. सत्यव्रत की अपेक्षा
मू.आ./३३८ कोहभयलोहहासपइण्णा अणुवीचिभासणं चेव। विदियस्स भावणावो वदस्स पंचेव ता होंति। =क्रोध, भय, लोभ, हास्य, इनका त्याग और सूत्रानुसार बोलना - ये पाँच सत्यव्रत की भावनाएँ हैं। (भा.पा./मू./३३)।
त.सू./७/५ क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचीभाषणं च पञ्च।५।
स.सि./७/९/३४७/६ अनृतवादीऽश्रद्धेयोभवति इहैव च जिह्वाच्छेदादीन् प्रतिलभते मिथ्याभ्याख्यानदु:खितेभ्यश्च बद्धवैरेभ्यो बहूनि व्यसनान्यवाप्नोति प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति अनृतवचनादुपरम: श्रेयान् ।...एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम् ।=१. क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण ये सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। २. असत्यवादी का कोई श्रद्धान नहीं करता। वह इस लोक में जिह्वाछेद आदि दु:खों को प्राप्त होता है तथा असत्य बोलने से दु:खी हुए अतएव जिन्होंने वैर बाँध लिया है, उनसे बहुत प्रकार की आपत्तियों को और परलोक में अशुभगति को प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए असत्य वचन का त्याग श्रेयस्कर है।...इस प्रकार हिंसा आदि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए।
८. सत्याणुव्रत के अतिचार
त.सू./७/२६ मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदा:।२६। =मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद ये सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।२६। [र.क.श्रा.में साकारमन्त्र के स्थान पर पैशुन्य है।] (र.क.श्रा./५६)।
सा.ध./४५ मिथ्यादेशं रहोभ्याख्यां कूटलेखक्रियां त्यजेत् । न्यस्तांश्शविस्मर्त्रनुज्ञां मन्त्रभेदं च तद्व्रत:।४५। =सत्याणुव्रत को पालने वाले श्रावकों को मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्या, कूटलेखक्रिया, न्यस्तांशविस्मर्त्रनुज्ञा और मन्त्रभेद इन पाँचों अतिचारों का त्याग कर देना चाहिए।४५।
* सत्यव्रत की भावनाओं व अतिचारों सम्बन्धी विशेष विचार - देखें - व्रत / २ ।
सत्यासत्य व हिताहित वचन विवेक
१. अहितकारी सत्य भी असत्य और हितकारी असत्य भी सत्य है
कुरल/३/२ संकटाकीर्णजीवानामुद्धारकरणेच्छया। कथिता साधुभिर्जातु मृषोक्तिरमृषैव सा।२।=उस झूठ में भी सत्यता की विशेषता है जिसके परिणाम में नियम से भलाई ही होती है।२।=(आराधनासार/३/८)।
चा.सा./टी./२ यद्विद्यमानार्थविषयं प्राणिपीड़ाकारणं तत्सत्यमप्यसत्यम् । =विद्यमान पदार्थों को विद्यमान कहने वाले वचन और प्राणियों को पीड़ा देने वाले हों तो वे सत्य होकर भी असत्य माने जाते हैं।
ज्ञा./९/३ असत्यमपि तत्सत्यं यत्सत्त्वाशंसकं वच:। सावद्यं यच्च पुष्णाति तत्सत्यमपि निन्दितम् ।३। =जो वचन जीवों का इष्ट हित करने वाला हो वह असत्य हो तो भी सत्य है और जो वचन पाप सहित हिंसारूप कार्य को पुष्ट करता हो वह सत्य भी हो तो असत्य और निन्दनीय है। (आचारसार/५/२२-२३)।
अन.ध./४/४२ सत्यं प्रियं हितं चाहु: सूनृतं सूनृतव्रता:। तत्सत्यमपि नो सत्यमप्रियं चाहितं च यत् ।४२। =जो वचन प्रशस्त, कल्याणकारक तथा सुनने वाले को आह्लाद उत्पन्न करने वाला, उपकारी हो, ऐसे वचन को सत्यव्रतियों ने सत्य कहा है। किन्तु उस सत्य को सत्य न समझना जो अप्रिय और अहितकर हो।
ला.सं./६/६,७ सत्यमपि असत्यतां याति क्वचिद्धिंसानुबन्धत:।६। असत्यं सत्यतां याति क्कचिज्जीवस्य रक्षणात् ।७। =जिन वचनों से जीवों की हिंसा सम्भव हो ऐसे सत्य वचन भी असत्य हैं।६। इसी प्रकार कहीं-कहीं जीवों की रक्षा होने से असत्य वचन भी सत्य कहलाते हैं।
मो.मा.प्र./८/४१३/१५ जो झूठ भी है अर साँचा प्रयोजन कौ पोषै तौ वाकौ झूठ न कहिये बहुरि साँच भी अर झूठा प्रयोजन कौं पोषै तौ वह झूठ ही है।
२. कटु भी हितोपदेश असत्य नहीं
भ.आ./मू./३५७/५६१ पत्थं हिदयाणिट्ठं पि भण्णमाणस्स सगणवासिस्स। कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स।३५७। =हे मुनिगण ! तुम अपने संघवासी मुनियों से हितकर वचन बोलो, यद्यपि वह हृदय को अप्रिय हो तो कोई हरकत नहीं है। जैसे-कटुक भी औषध परिणाम में मधुर और कल्याणकारक होता है वैसे तुम्हारा भाषण मुनि का कल्याण करेगा।
पु.सि.उ./१०० हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।१००।=समस्त ही अनृत वचनों का प्रमाद सहित योग निर्दिष्ट होने से हेयोपादेयादि अनुष्ठानों का कहना झूठ नहीं होता। [हेयोपादेय का उपदेश करने वाले मुनिराज के वचनों में नवरसपूर्ण विषयों का वर्णन होने पर भी तथा पाप की निन्दा करने से पापी जीवों को अप्रिय लगने पर भी तथा अपने बन्धुओं को हितोपदेश के कारण दुखी होते हुए भी उन्हें असत्य का दोष नहीं है, क्योंकि उन्हें प्रमादयोग नहीं है। (पं.टोडरमल)]।
* कठोर भी हितोपदेश की इष्टता - देखें - उपदेश / ३ ।
३. असत्य सम्भाषण का निषेध
भ.आ./मू./८४७,८५०/९७५,९७७ अलियं सकिं पि भणिदं घादं कुणदि बहुगाण सव्वाणं। अदिसंकिदो य सयमवि होदि अलियभासणो पुरिसो।८४७। परलोगम्मि वि दोस्सा ते चेव हवंति अलियवादिस्स। मोसादीए दोसे जत्तेण वि परिहरंतस्स।८५०। =एक बार बोला हुआ असत्य भाषण अनेक बार बोले सत्य भाषणों का संहार करता है। असत्यवादी स्वयं डरता है तथा शंकायुक्त है कि मेरा असत्य भाषण प्रकट होगा तो मेरा नाश होगा।८४७। असत्य भाषी के अविश्वास आदि दोष परलोक में भी प्राप्त होते हैं परजन्म में प्रयत्न से इनका त्याग करने पर भी इन दोषों का उसके ऊपर आरोप आता है।८५०।
कुरल/१२/६ नीतिं मन: परित्यज्य कुमार्गं यदि धावते। सर्वनाशं विजानीहि तदा निकटसंस्थितम् ।६। =जब तुम्हारा मन सत्य से विमुख होकर असत्य की ओर झुकने लगे तो समझ कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है।
४. कटु सम्भाषण का निषेध
कुरल./१३/८,९ एकमेव पदं वाण्यामस्ति चेन्मर्मघातकम् । विनष्टास्तर्हि विज्ञेया उपकारा: पुराकृता:।८। दग्धमङ्गं पुन: साधु जायते कालपाकत:। कालपाकत:। कालपाकमपि प्राप्य न प्ररोहति वावक्षतम् ।९।
कुरल./१४/९ विद्याविनयसंपन्न: शालीनो गुणवान् नर:। प्रमादादपि दुर्वाक्यं न ब्रूते हि कदाचन।९। =यदि तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को कष्ट पहुँचता है तो तुम अपनी सब भलाई नष्ट हुई समझो।८। आग का जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है, पर वचन का घाव सदा हरा बना रहता है।९। अवाच्य तथा अपशब्द, भूलकर भी संयमी पुरुष के मुख से नहीं निकलेंगे।
५. व्यर्थ सम्भाषण का निषेध
कुरल./२०/७,१० उचितं बुध चेद् भाति कुर्या: कर्कशभाषणम् । परं नैव वृथालापं यतोऽस्माद्वै तदुत्तमम् ।७। वाचस्ता एव वक्तव्या या: श्लोघ्या: सम्यमानवै:। वर्जनीयास्ततो भिन्ना अवाच्या या वृथोक्तय:।१०। =यदि समझदार को मालूम पड़े तो मुख से कठोर शब्द कह ले, क्योंकि यह निरर्थक भाषण से कहीं अच्छा है।७। मुख से बोलने योग्य वचनों का ही तू उच्चारण कर, परन्तु निरर्थक शब्द मुख से मत निकाल।१०।
६. सत्य की महत्ता
भ.आ./मू./८३५-८५२ ण डहदि अग्गी सच्चेण णरं जलं च तं ण बुड्डेइ। सच्चबलियं खु पुरिसं ण वहदि तिक्खा गिरिणदी वि।८३८। सच्चेण देवदावो णवंति पुरिसस्स ठंति व वसम्मि। सच्चेण य गहगहिदं मोएइ करेंति रक्खं च।८३९। =सत्यवादी को अग्नि जलाती नहीं, पानी उसको डुबोने में असमर्थ होता है। सत्य भाषण ही जिसका सामर्थ्य है ऐसे मनुष्य को बड़े वेग से पर्वत से कूदने वाली नदी नहीं बहा सकती।८३८। सत्य के प्रभाव से देवता उनका वन्दन करते हैं, उसके वश होते हैं, सत्य के प्रभाव से पिशाच भाग जाता है तथा देवता उनके रक्षण करते हैं।८३९। (ज्ञा./९/२८)।
कुरल./१०/३,५ स्नेहपूर्णा, दयादृष्टिर्हार्दिकी या च वाक्सुधा। एतयोरेव मध्ये तु धर्मो वसति सर्वदा।३। भूषणे द्वे मनुष्यस्य नम्रताप्रियभाषणे। अन्यद्धि भूषणं शिष्टैर्नादृतं सभ्यसंसदि।५।
कुरल./३०/७ न वक्तव्यं न वक्तव्यं मृषावाक्यं कदाचन। सत्यमेव परो धर्म: किं परैर्धंर्मसाधनै:।७। =हृदय से निकली हुई मधुर वाणी और ममतामयी स्निग्ध दृष्टि में ही धर्म का निवासस्थान है।३। नम्रता और प्रिय-सम्भाषण, बस ये ही मनुष्य के आभूषण हैं अन्य नहीं।५। असत्य भाषण मत करो यदि मनुष्य इस आदेश का पालन कर सके तो उसे दूसरे धर्म को पालन करने की आवश्यकता नहीं है।७।
ज्ञा./९/२७,२९ व्रतश्रुतयमस्थानं विद्याविनयभूषणम् । चरणज्ञानयोर्बीजं सत्यसंज्ञं व्रतं मतम् ।२७। चन्द्रमूर्तिरिवानन्दं वर्द्धयन्ती जगत्त्रये। स्वर्गिभिर्ध्रियते मूर्ध्नां कीर्ति: सत्योत्थिता नृणाम् ।२९। =सत्यव्रत श्रुत और यमों का स्थान है, विद्या और विनय का भूषण है, और सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र उत्पन्न करने का कारण सत्य वचन ही है।२७। तीन लोकों में चन्द्रमा के समान आनन्द को बढ़ाने वाली सत्यवचन से उत्पन्न हुई मनुष्यों की कीर्ति को देवता भी मस्तक पर धारण करते हैं।२९। (पं.वि./१/९२-९३)।
७. धर्मापत्ति के समय सत्य का त्याग भी न्याय है
सा.ध./४/३९ कन्यागोक्ष्मालीक-कूटसाक्ष्यन्यासापलापवत् । स्यात्सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् ।३९। =व्रती श्रावक कन्या अलीक, गोअलीक, पृथ्वी अलीक, कूटस्थ अलीक और न्यासालाप की तरह अपने तथा पर की विपत्ति के हेतु सत्य को भी छोड़ता हुआ सत्याणुव्रतधारी कहलाता है।३९।
अमि.श्रा./६/४७ सत्यमपि विमोक्तव्यं परपीडारम्भतापभयजनकम् । पापं विमोक्तुकामै: सुजनैरिव पापिनां वृत्तम् ।=पापारम्भ को छोड़ने की वाँछा वाला पुरुष पर जीवों को पीड़ाकारक आरम्भ, भय व सन्ताप जनक ऐसे सत्य वचन को भी छोड़े।४७।
* धर्म हानि के समय बिना बुलाये भी बोले - देखें - वाद।
८. सत्यधर्म व भाषा समिति में अन्तर
स.सि./९/६/४१२/७ ननु चैतद् भाषासमितावन्तर्भवति। नैष दोष:; समितौ प्रवर्तमानो मुनि: साधुष्यसाधुषु च भाषाव्यवहारं कुर्वन् हितं मितं च ब्रूयात् अन्यथा रागादनर्थदण्डदोष: स्यादिति वाक्समितिरित्यर्थ:। इह पुन: सन्त: प्रब्रजितास्तद्भवता वा तेषु साधु सत्यं ज्ञानचारित्रशिक्षणादिषु बह्वपि कर्तव्यमित्यनुज्ञायते धर्मोपबृंहणार्थम् ।=प्रश्न - इसका (सत्य का) भाषा समिति में अन्तर्भाव नहीं होता है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि समिति के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकार के मनुष्यों में भाषा व्यवहार करता हुआ हितकारी परिमित वचन बोले, अन्यथा राग होने से अनर्थदण्ड दोष लगता है यह वचन समिति का अभिप्राय है। किन्तु सत्य धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि सज्जन पुरुष, दीक्षित या उनके भक्तों में साधु सत्य वचन बोलता हुआ भी ज्ञान चारित्र के शिक्षण के निमित्त बहुविध कर्तव्यों की सूचना देता है और यह सब धर्म की अभिवृद्धि के अभिप्राय से करता है। इसलिए सत्य धर्म का भाषा समिति में अन्तर्भाव नहीं होता। (रा.वा./९/६/१०/५९६/९)।
सत्य का अहिंसा में अन्तर्भाव - देखें - अहिंसा / ३ ।