सन्निपातिक भाव
From जैनकोष
१. सन्निपातिक भाव सामान्य का लक्षण
रा.वा./२/७/२२/११४/१० सान्निपातिक एको भावो नास्तीति...संयोगभङ्गापेक्षया अस्ति। ...(यथा) औदयिकौपशमिकसान्निपातिकजीवाभावो नाम। =सान्निपातिक नाम का एक स्वतन्त्र भाव नहीं है। संयोग भंग की अपेक्षा उसका ग्रहण किया।...जैसे औदयिक-औपशमिक-मनुष्य और उपशान्त क्रोध। (ज्ञा./६/४२) जीव भाव सान्निपातिक है।
ध.५/१,७,१/१९३/१ एक्कम्हि गुणट्ठाणे जीवसमासे वा बहवो भावा जम्हि सण्णिवदंति तेसिं भावाणं सण्णिवादिएत्ति सण्णा। =एक ही गुणस्थान या जीवसमास में जो बहुत से भाव आकर एकत्रित होते हैं, उन भावों की सान्निपातिक ऐसी संज्ञा है।
२. सान्निपातिक भावों के भेद
रा.वा./२/७/२२/११४/१५ पर उद्धृत-दुग तिग चदु पंचेव य संयोगा होंति सन्निवादेसु। दस दस पंच य एक्क य भावा छव्वीस पिंडेण।=सान्निपातिक भाव दो संयोगी, तीन, चार तथा पाँच संयोगी क्रम से १०,१०,५ तथा १ इस प्रकार छब्बीस बताये हैं (ध.५/१,७,१/१९३/३)।
रा.वा./२/७/२२/११४/१३ सान्निपातिकभाव:...षड्विंशतिविध: षड्त्रिंशद्विध एकचत्वारिंशद्विध: इत्येवमादिरागमे उक्त:। =सान्निपातिक भाव २६, ३६ और ४१ आदि प्रकार के आगम में बताये गये हैं [४१ भंगों में २६ व ३६ आदि सर्व भंग गर्भित हैं इसलिए नीचे ४१ भंगों का निर्देश किया जाता है]।
संकेत - औद.=औदयिक; औप.=औपशमिक; क्षा.=क्षायिक; क्षयो.=क्षायोपशमिक; पा.=पारिणामिक।
१. द्विसंयोगी -
क्र. | भंग निर्देश | विवरण |
१ | औद.+औद. | मनुष्य और क्रोधी |
२ | औद.+औप. | मनुष्य और उपशान्त क्रोध |
३ | औद.+क्षा. | मनुष्य और क्षीणकषाय |
४ | औद.+क्षयो. | क्रोधी और मतिज्ञानी |
५ | औद.+पारि. | मनुष्य और भव्य |
६ | औप.+औप. | उपशम सम्यग्दृष्टि और उपशान्त कषाय |
७ | औप.+औद. | उपशान्त कषाय और मनुष्य |
८ | औप.+क्षा. | उपशान्त क्रोध और क्षायिक सम्यग्दृष्टि |
९ | औप.+क्षयो. | उपशान्त कषाय और अवधिज्ञानी |
१० | औप.+पारि. | उपशम सम्यग्दृष्टि और जीव |
११ | क्षा.+क्षा. | क्षायिक सम्यग्दृष्टि और क्षीणकषाय |
१२ | क्षा.+औद. | क्षीणकषाय और मनुष्य |
१३ | क्षा.+औप. | क्षायिक सम्यग्दृष्टि और उपशान्त वेद |
१४ | क्षा.+क्षयो. | क्षीणकषायी और मतिज्ञानी |
१५ | क्षा.+पारि. | क्षीण मोह और भव्य |
१६ | क्षयो.+क्षयो. | संयत और अवधिज्ञानी |
१७ | क्षयो.+औद. | संयत और मनुष्य |
१८ | क्षयो.+औप. | संयत और उपशान्त कषाय |
१९ | क्षयो.+क्षा. | संयतासंयत और क्षायिक सम्यग्दृष्टि |
२० | क्षयो.+पारि. | अप्रमत्त संयत और जीव |
२१ | पारि.+पारि. | जीव और भव्य |
२२ | पारि.+औद. | जीव और क्रोधी |
२३ | पारि.+औप. | भव्य और उपशान्त कषाय |
२४ | पारि.+क्षा. | भव्य और क्षीण कषाय |
२५ | पारि.+क्षयो. | संयत और भव्य |
२. त्रिसंयोगी
क्र. | भंग निर्देश | विवरण |
१ | औद.+औप.+क्षा. | उपशान्त मोह और क्षायिक सम्यग्दृष्टि |
२ | औद.+औप.+क्षयो. | मनुष्य उपशान्त क्रोध और वाग्योगी |
३ | औद.+औप.+पा. | मनुष्य उपशान्तमोह और जीव |
४ | औद.+क्षा.+क्षयो. | मनुष्य क्षीणकषाय और श्रुतज्ञानी |
५ | औद.+क्षा.+पारि. | मनुष्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि और जीव |
६ | औद.+क्षयो.+पारि. | मनुष्य मनोयोगी और जीव |
७ | औप.+क्षा.+पारि. | उपशान्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि और काययोगी |
८ | औप.+क्षा.+पारि. | उपशान्त वेद क्षायिकसम्यग्दृष्टि और भव्य |
९ | औप.+क्षयो.+पारि. | उपशान्तमान मतिज्ञानी और जीव |
१० | क्षा.+क्षयो.+पारि. | क्षीणमोह पंचेन्द्रिय और भव्य |
३. चतु: संयोगी
क्र. | भंग निर्देश | विवरण |
१ | औप.+क्षा.+क्षयो.+पारि. | उपशान्त लोभ क्षायिक सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय और जीव |
२ | औद.+क्षा.+क्षयो.+पारि. | मनुष्य क्षीणकषाय मतिज्ञानी और भव्य |
३ | औद.+औप.+क्षयो.+पारि. | मनुष्य उपशान्त वेद श्रुतज्ञानी और जीव |
४ | औद.+औप.+क्षा.+पारि. | मनुष्य उपशान्तराग क्षायिक सम्यग्दृष्टि और जीव |
५ | औद.+औप.+क्षा.+क्षयो. | मनुष्य उपशान्त मोह क्षायिक सम्यग्दृष्टि और अवधिज्ञानी |
४. पंच भाव संयोगी
औद.+औप.+क्षा.+क्षयो.+पारि.‒मनुष्य उपशान्तमोह क्षायिक सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय जीव।