सुभग
From जैनकोष
१. सुभग व दुर्भग नामकर्म के लक्षण
स.सि./८/११/३९१/११ यदुदयादन्यप्रीतिप्रभवस्तत्सुभगनाम। यदुदयाद्रूपादिगुणोपेतोऽप्यप्रीतिकरस्तद्दुर्भगनाम। = जिसके उदय से अन्य जन प्रीतिकर अवस्था होती है वह सुभग नामकर्म है। जिसके उदय से रूपादि गुणों से युक्त होकर भी अप्रीतिकर अवस्था होती है वह दुर्भग नामकर्म है। (रा.वा./८/११/२३-२४/५७८/३१)। (गो.क./जी.प्र./३३/३०/९/१५)।
ध.६/१,९-१,२८/६५/१ त्थी-पुरिसाणं सोहग्गणिव्वत्तयं सुभगं णाम। तेसिं चेव दूहवभावणिव्वत्तयं दूहवं णाम। = स्त्री और पुरुषों के सौभाग्य को उत्पन्न करने वाला सुभग नामकर्म है। उन स्त्री पुरुषों के ही दुर्भग भाव अर्थात् दौर्भाग्य को उत्पन्न करने वाला दुर्भग नामकर्म है। (ध.१३/५,५,१०१/३६५/१४)।
२. एकेन्द्रियों में दुर्भग भाव कैसे जाना जाये
ध.६/१,९-१,२८/६५/२ एइंदियादिसु अव्वत्तचेट्ठेसु कथं सुहव-दुहव-भावा णज्जंते। ण, तत्थ तंसिमव्वत्ताणमागमेण अत्थित्तसिद्धीदो। =प्रश्न-अव्यक्त चेष्टा वाले एकेन्द्रियादि जीवों में सुभग और दुर्भग भाव कैसे जाने जाते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि एकेन्द्रिय आदि में अव्यक्त रूप से विद्यमान उन भावों का अस्तित्व आगम से सिद्ध है।