स्थिर
From जैनकोष
कुण्डल पर्वतस्थ अंक कूट का स्वामी देव- देखें - लोक / ५ / १२ ।
१. स्थिर व अस्थिर नामकर्म का लक्षण
स.सि./८/११/३९२/५ स्थिरभावस्य निर्वर्तकं स्थिरनाम। तद्विपरीतमस्थिरनाम। = स्थिर भाव का निर्वर्तक कर्म स्थिर नामकर्म है, इससे विपरीत अस्थिर नामकर्म है।
रा.वा./८/११/३४-३५/५७९/२२ यदुदयात् दुष्करोपवासादितपस्करणेऽपि अङ्गोपाङ्गानां स्थिरत्वं जायते तत् स्थिरनाम।३४। यदुदयादीषदुपवासादिकरणात् स्वल्पशीतोष्णादिसंबन्धाच्च अङ्गोपाङ्गानि कृशीभवन्ति तदस्थिरनाम। = जिसके उदय से दुष्कर उपवास आदि तप करने पर अंग-उपांग आदि स्थिर बने रहते हैं, कृश नहीं होते वह स्थिर नामकर्म है। तथा जिससे एक उपवास से या साधारण शीत उष्ण आदि से ही शरीर में अस्थिरता आ जाय, कृश हो जाय वह अस्थिर नामकर्म है।
ध.१३/५,५,१०१/३६५/१० जस्स कम्मस्सुदएण रसादीणं सगसरूवेण केत्तियं पि कालमवट्ठाणं होदि तं थिरणामं। जस्स कम्मस्सुदएण रसादीणमुवरिमधादुसरूवेण परिणामो होदि तमथिरणामं। = जिस कर्म के उदय से रसादिक धातुओं का अपने रूप से कितने ही काल तक अवस्थान होता है वह स्थिर नामकर्म है। जिस कर्म के उदय से रसादिकों का आगे की धातुओं स्वरूप से परिणमन होता है वह अस्थिर नामकर्म है। (ध.६/१,९-१,२८/६३/३); (गो.जी./जी.प्र./३३/३०/३)।
२. सप्त धातु रहित विग्रह गति में स्थिर नामकर्म का क्या कार्य है
ध.६/१,९-१,२८/६४/६ सत्तधाउविरहिदविग्गहगदीए वि थिराथिराणमुदयदंसणादो णेदासिं तत्थ वावारो त्ति णासंकणिज्जं, सजोगिकेवलिपरघादस्सेव तत्थ अव्वत्तोदएण अवट्ठाणादो। = प्रश्न-सप्त धातुओं से रहित विग्रहगति में भी स्थिर और अस्थिर प्रकृतियों का उदय देखा जाता है, इसलिए इनका वहाँ पर व्यापार नहीं मानना चाहिए ? उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सयोगकेवली भगवान् में परघात प्रकृति के समान विग्रहगति में उन प्रकृतियों का अव्यक्त उदयरूप से अवस्थान रहता है।
* स्थिर नामकर्म की बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्सम्बन्धी शंका समाधान-दे.वह वह नाम।