पाठ:चौबीस तीर्थंकर स्तवन—पण्डित अभयकुमार
From जैनकोष
जो अनादि से व्यक्त नहीं था त्रैकालिक ध्रुव ज्ञायक भाव;
वह युगादि में किया प्रकाशित वन्दन ऋषभ जिनेश्वर राव ॥1॥
जिसने जीत लिया त्रिभुवन को मोह शत्रुवह प्रबल महान;
उसे जीतकर शिवपद पाया वन्दन अजितनाथ भगवान ॥2॥
काललब्धि बिन सदा असम्भव निज सन्मुखता का पुरुषार्थ;
निर्मल परिणति के स्वकाल में सम्भव जिनने पाया अर्थ ॥3॥
त्रिभुवन जिनके चरणों का अभिनन्दन करता तीनों काल;
वे स्वभाव का अभिनन्दन कर पहुँचे शिवपुर में तत्काल ॥4॥
निज आश्रय से ही सुख होता यही सुमति जिन बतलाते;
सुमतिनाथ प्रभु की पूजन कर भव्यजीव शिवसुख पाते ॥5॥
पद्मप्रभु के पद पंकज की सौरभ से सुरभित त्रिभुवन;
गुण अनन्त के सुमनों से शोभित श्री जिनवर का उपवन ॥6॥
श्री सुपार्श्व के शुभ-सु-पार्श्व में जिसकी परिणति करे विराम;
वे पाते हैं गुण अनन्त से भूषित सिद्ध सदन अभिराम ॥7॥
चारु चन्द्रसम सदा सुशीतल चेतन-चन्द्रप्रभ जिनराज;
गुण अनन्त की कला विभूषित प्रभु ने पाया निजपद राज ॥8॥
पुष्पदन्त सम गुण आवलि से सदा सुशोभित हैं भगवान;
मोक्षमार्गकी सुविधि बताकर भाविजन का करते कल्याण ॥9॥
चन्द्र किरण समशीतल वचनों से हरते जग का आताप;
स्याद्वादमय दिव्यध्वनि से मोक्षमार्ग बतलाते आप ॥10॥
त्रिभुवन के श्रेयस्कर हैं श्रेयांसनाथ जिनवर गुणखान;
निज स्वभाव से ही परम श्रेय का केन्द्रबिन्दु कहते भगवान ॥11॥
शत इन्द्रों से पूजित जग में वासुपूज्य जिनराज महान;
स्वाश्रित परिणति द्वारा पूजित पञ्चमभाव गुणों की खान ॥12॥
निर्मल भावों से भूषित हैं जिनवर विमलानाथ भगवान;
राग-द्वेषमल का क्षय करके पाया सौख्य अनन्त महान ॥13॥
गुण अनन्तपति की महिमा से मोहित है यह त्रिभुवन आज;
जिन अनन्त को वन्दन करके पाऊँ शिवपुर का साम्राज्य ॥14॥
वस्तुस्वभाव धर्मधारक हैं धर्म धुरन्धर नाथ महान;
ध्रुव की धूनिमय धर्म प्रगट कर वंदित धर्मनाथ भगवान ॥15॥
रागरूप अङ्गारों द्वारा दहक रहा जग का परिणाम;
किन्तु शान्तिमय निज परिणति से शोभित शान्तिनाथ भगवान ॥16॥
कुन्थु आदि जीवों की भी रक्षा का देते जो उपदेश;
स्व-चतुष्टय से सदा सुरक्षित कुन्थुनाथ जिनवर परमेश ॥17॥
पञ्चेन्द्रिय विषयों से सुख की अभिलाषा है जिनकी अस्त;
धन्य-धन्य अरनाथ जिनेश्वर राग-द्वेष अरि किये परास्त ॥18॥
मोह-मल्ल पर विजय प्राप्त कर जो हैं त्रिभुवन में विख्यात;
मल्लिनाथ जिन समवसरण में सदा सुशोभित हैं दिन-रात ॥19॥
तीन कषाय चौकड़ी जयकर मुनि-सु-व्रत के धारी हैं,
वन्दन जिनवर मुनिसुव्रत जो भविजन को हितकारी हैं ॥20॥
नमि जिनेश्वर ने निज में नमकर पाया केवलज्ञान महान;
मन-वच-तन से करूं नमन सर्वज्ञ जिनेश्वर हैं गुणखान ॥21॥
धर्मधुरा के धारक जिनवर धर्मतीर्थ का रथ संचालक;
नेमिनाथ जिनराज वचन नित भव्यजनों के हैं पालक ॥22॥
जो शरणागत भव्यजनों को कर लेते हैं आप समान;
ऐसे अनुपम अद्वितीय पारस हैं पार्श्वनाथ भगवान ॥23॥
महावीर सन्मति के धारक वीर और अतिवीर महान;
चरण-कमल का अभिनन्दन है वन्दन वर्धमान भगवान ॥24॥