विनय
From जैनकोष
मोक्षमार्ग में विनय का प्रधान स्थान है। वह दो प्रकार का है–निश्चय व व्यवहार। अपने रत्नत्रयरूप गुण की विनय निश्चय है और रत्नत्रयधारी साधुओं आदि की विनय व्यवहार या उपचार विनय है। यह दोनों ही अत्यन्त प्रयोजनीय है। ज्ञान प्राप्ति में गुरु विनय अत्यन्त प्रधान है। साधु आर्य का आदि चतुर्विध संघ में परस्पर में विनय करने सम्बन्धी जो नियम है उन्हें पालन करना एक तप है। मिथ्यादृष्टियों व कुलिंगियों की विनय योग्य नहीं।
- भेद व लक्षण
- विनय सम्पन्नता का लक्षण।– देखें - विनय / १ / १ ।
- सामान्य विनय निर्देश
- आचार व विनय में अन्तर।
- ज्ञान के आठ अंगों को ज्ञान विनय कहने का कारण।
- एक विनयसम्पन्नता में शेष १५ भावनाओं का समावेश।
- विनय तप का माहात्म्य ।
- देव-शास्त्र गुरु की विनय निर्जरा का कारण है।– देखें - पूजा / २ ।
- आचार व विनय में अन्तर।
- उपचार विनय विधि
- साधु व आर्यिका की संगति व वचनालाप सम्बन्धी कुछ नियम।–देखें - संगति।
- साधु व आर्यिका की संगति व वचनालाप सम्बन्धी कुछ नियम।–देखें - संगति।
- उपचार विनय के योग्यायोग्य पात्र
- सत् साधु प्रतिमावत् पूज्य हैं।– देखें - पूजा / ३ ।
- जो इन्हें वन्दना नहीं करता सो मिथ्यादृष्टि है।
- चारित्रवृद्ध से भी ज्ञानवृद्ध अधिक पूज्य है।
- मिथ्यादृष्टि जन व पार्श्वस्थादि साधु बन्द्य नहीं है।
- मिथ्यादृष्टि साधु श्रावक तुल्य भी नहीं है।– देखें - साधु / ४ ।
- अधिक गुणी द्वारा हीन गुणी वन्द्य नहीं है।
- कुगुरु कुदेवादिकी वन्दना आदि का कड़ा निषेध व उसका कारण।
- द्रव्यलिंगी भी कथंचित् वन्द्य है।
- साधु को नमस्कार क्यों?
- असंयत सम्यग्दृष्टि वन्द्य क्यों नहीं?
- सिद्ध से पहले अर्हन्त को नमस्कार क्यों?–देखें - मन्त्र।
- १४ पूर्वी से पहले १० पूर्वी को नमस्कार क्यों?– देखें - श्रुतकेवली / १ ।
- सत् साधु प्रतिमावत् पूज्य हैं।– देखें - पूजा / ३ ।
- साधु परीक्षा का विधि निषेध
- सहवास से व्यक्ति के गुप्त परिणाम भी जाने जा सकते हैं।– देखें - प्रायश्चित्त / ३ / १ ।
- साधु की परीक्षा करने का निषेध।
- साधु परीक्षा सम्बन्धी शंका-समाधान
- शील संयमादि तो पालते ही हैं?
- पञ्चम काल में ऐसे ही साधु सम्भव है?
- जैसे श्रावक वैसे साधु?
- इनमें ही सच्चे साधु की स्थापना कर लें।
- सत् साधु ही प्रतिमावत् पूज्य हैं।– देखें - पूजा / ३ ।
- शील संयमादि तो पालते ही हैं?
- सहवास से व्यक्ति के गुप्त परिणाम भी जाने जा सकते हैं।– देखें - प्रायश्चित्त / ३ / १ ।