वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 11
From जैनकोष
रागद्वेषद्वयीदीर्घनेत्राकर्षणकर्मणा।
अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ।।११।।
रागद्वेषवश मन्थन—यह जीव रागद्वेषरूपी दोनों लम्बी नेतनियों के आकर्षण के द्वारा संसार समुद्र में अज्ञान से घूम रहा है। दही मथने वाली जो मथानी होती है उसमें जो डोरी लिपटी रहती है तो उस डोरी को नेतनी कहते हें। उस नेतनी के आकर्षण की क्रिया से, जैसे मथानी मटकी में बहुत घूमती रहती है इसी प्रकार रागद्वेष ये दो तो डोरिया लगी हुई है, इन दो डोरियों के बीच में जीव पड़ा है। यह जीव मथानी की तरह इस संसार सागर में भ्रमण कर रहा है। देहादिक परपदार्थों में अज्ञान के कारण इस जीव को राग और द्वेष होता है, इष्ट पदार्थों में तो प्रेम और अनिष्ट पदार्थों में द्वेष, सो इन रागद्वेषो के कारण चिरकाल तक संसार में घूमता है। जिस राग से दुःख है उस ही राग से यह जीव लिपटा चला जा रहा है।
रागद्वेष का क्लेश—भैया! परवस्तु के राग से ही क्लेश है। आखिर ये समस्त परवस्तु यहाँ के यहाँ ही रह जाते हैं। परका कोई भी अंश इस जीव के साथ नही लगेगा, लेकिन जिस राग से जीवन भर दुःखी हो रहा है और परभव में भी दुःखी होगा उसी राग को यह जीव अपनाए चला जा रहा है, उसका आकर्षण बना है, कैसा मेरा सुन्दर परिवार, कैसी भली स्त्री, कैसे भले पुत्र, कैसे भले मित्र सबकी और आकर्षण अज्ञान में हुआ करता है। मिलता कुछ नही वहाँ, बल्कि श्रद्धा, चरित्र, शक्ति, ज्ञान सभी की बरबादी है, लेकिन राग बिना इस जीव को चैन ही नही पड़ती है। ऐसी ही द्वेष की बात है। जगतके सभी जीव एक समान है और सभी जीव केवल अपना ही अपना परिणमन कर पाते हैं तब फिर शत्रुता के लायक तो कोई जीव ही नही है। किससे दुश्मनी करनी है? सबका ही अपना जैसा स्वरूप है। कौन शत्रु, लेकिन अज्ञान में अपने कल्पित विषयों में बाधा जिनके निमित्त से हुई है उन्हें यह शत्रु मान लेता है। सो राग और द्वेष इन दोनों से यह जीव खिंचा चला जा रहा है।
रागद्वेष के चढ़ाव उतार—जैसे बहुत बड़ी झूलने की पलकियां होती है, मेले में उन पर बैठकर लोग झूलते हैं। बम्बई जैसे शहरों में बिजली से चलने वाली बहुत बड़ी पलकियाँ होती है। बालक लोग शौक से उस पर बैठते हैं। पर जैसे पलकियाँ चढ़ती है तो भय लगता है और जब ऊपर चढ़कर गिरती है तब और भी अधिक भय लगता है। भय भी सहते जाते हैं और उस पर शौक से बैठते भी जाते हैं। ऐसे ही ये राग और द्वेष के चढ़ाव उतार इस जीव के साथ लगे है जिसमें अनेकों संकट आते रहते हैं,उन्हें सहते जाते हैं,दुःखी होते जाते हैं,किन्तु उन्हें त्याग नही सकते हैं। भरत और बाहुबलि जैसी बात तो एक विचित्र ही घटना है, न यहाँ भरत रहे और न बाहुबलि रहे परन्तु जिस जमाने में उनका युद्ध चला उस जमाने में तो वे भी संकट काटते रहे होगे। कौरव और पाण्डव का महाभारत देखो। महाभारत का युद्ध हुआ था उस समय तो दुनिया में मानो प्रलय सा छा गया होगा, ऐसा संकट था। न कौरव रहे न पांडव। पुराण पुरुषों ने भी बड़े-बड़े वैभव भोगे, युद्ध किया, अंत में कोई विरक्त होकर अलग हुए, कोई संक्लेश में मरकर अलग हुए। जिनका संयोग हुआ है उनका वियोग अवश्य होता है, परन्तु ये मोही जीव अज्ञान में इन बाह्य वस्तुओं को अपना सर्वस्व मानते हैं,जीव राग और द्वेष में व्यग्र रहते हैं वे अनन्तकाल तक जन्म मरण के कष्ट उठाते रहते हैं।
राग और द्वेष का परस्पर सहयोग—राग और द्वेष ये दोनों परस्पर सहयोगी है। जैसे मंथानी में जो डोर लगी रहती है उनके दोनों छोर परस्पर सहयोगी है, एक छोर अपना काम न करे तो दूसरा छोर अपना काम नही कर सकता है। एक और खिंचता है तब एक दूसरा छोर मंथानी की और खिंच जाता है। जैसे मंथानी की रस्सी में दोनों छोरों का परस्पर सहयोग है ऐसे ही राग और द्वेष का मानो परस्पर सहयोग है। किसी वस्तु का राग है तो उस वस्तु के बाधक के प्रति द्वेष है। किसी बाधक के प्रति द्वेष है तो उसके बाधक के प्रति राग है । ये राग और द्वेष भी परस्पर में एक दूसरे के किसी भी प्रकार का सहयोग दे रहे हैं। द्वेष के बिना राग नही रहता है और राग के बिना द्वेष भी नही रहता है। किसी वस्तु में राग होगा तभी अन्य किसी से द्वेष होगा। और अध्यात्म में यही देख लो जिसका ज्ञान और वैराग्य से द्वेष है। उसको विषय कषायों से राग है, जिसका ज्ञान वैराग्य से प्रेम है उसे विषय कषायों से द्वेष है।यों यह तो अध्यात्म की बात है। इस प्रकरण में तो लौकिक चर्चा है।
सर्व दोषों का मूल—यह जीव राग द्वेष के वश होकर इस संसार समुद्र में गोते खा रहा है। जहाँ राग हो वहाँ द्वेष नियम से होता है। जिसे धन वैभव में राग है उसमें कोई दूसरा बाधक हो गया तो उसको द्वेषी मान लिया। जिसका जो लक्ष्य है उस लक्ष्य में जा बाधक पड़े वही उसका द्वेषी बन जाता है। साधुसंत कही बिहार करते जा रहे हो तो शिकारी उन साधुवों को देखकर साधुवों पर द्वेष करता है, आज तो बड़ा असगुन हुआ, शिकार नही मिलने का है। तो जिसका जो लक्ष्य है उस लक्ष्य में बाधक पड़े उसी से लोग द्वेष करने लगते हैं। जहां ये राग और द्वेष दोनों होते हैं वहां यह मन अत्यन्त बेकार हो जाता है। जो मनुष्य यह दावा करता है कि हमारा तो सबसे प्रेम है, किसी से द्वेष नही है, यह उनकी भ्रम भरी कल्पना है। प्रेम और द्वेष ये दोनों साथ-साथ चलते हैं। किसी में राग नही रहा तो द्वेष हो गया। यह मेरा है और यह दूसरे का है ऐसा जहाँ रागद्वेष दोनों रहते हैं वहाँ अन्य दोष तो अनायास आ ही जाते हैं क्योंकि सारे ऐबों का कारण राग और द्वेष है।
भ्रमण चक्र—यह रागद्वेष की परम्परा इस जीव को संसार मे भ्रमण करा रही है। जो जीव संसार में घूमता रहता है उसके रागद्वेष की उन्नति होती रहती है और उसके द्वारा शुभ अशुभ कर्मो का आस्रव होता रहता है। अशुभ कर्म जो करेगा उसे दुर्गति मिलेगी, जो शुभ कर्म करेगा उसे सुगति मिलेगी। देखते जाइए चक्कर। रागद्वेष परिणामो से कर्म बँधे, कर्मों से गति अथवा सुगति मिली, और कोई भी गति मिलेगी उसमें देह मिला, देह से इन्द्रियाँ हुई, और इन्द्रियाँ से विषयों का ग्रहण किया और विषयों के ग्रहण से राग और द्वेष हुआ। उसी जगह आ जाइये। अब रागद्वेष से कर्म बँधा, कर्म से गति सुगति हुई, वहाँ देह मिला, देह से इन्द्रियाँ हुई, इन्द्रियाँ से विषय किया, विषयों से रागद्वेष हुआ यो यह चक्र इस जीव के चलता ही रहता है। जैसे अपने ही जीवन में देख लो—जो कल किया सो आज किया, आज किया सो कल करेंगे, इससे विलक्षण अपूर्व काम कुछ नही कर पाता यह जीव।
अपूर्व कार्य—भैया! इन चिरपरिचित विषयो से विलक्षण आत्मकार्य कर ले कोई तो वह धन्य है। अपनी २४ घंटे की चर्चा देख लो। पंचेन्द्रिय के विषयो का सेवन किया और मन के यश अपयश, इज्जत प्रतिष्ठा सम्बंधी कल्पनाएँ बनायी, जो काम कल किया सो आज किया, रात भर सोये, सुबह उठे, दिन चढ़ गया, भोजन किया, कुछ इतर फुलेल लगाया, दूकान गए, काम किया, भोजन किया, फिर वही का वही काम। जो चक्र इन्द्रिय और मन सम्बंधी लगा आया है वही लगता जा रहा है, कोई नया काम नही किया। यह जीव रागवश इन्हीं में अपना काम समझता है, पर नया कुछ नही किया। नया तो एक आत्म-कल्याण का काम है, अन्य काम तो और भवो में भी किया। मनुष्य भव में विषय सेवन से अतिरिक्त कौन सा नया काम किया? वही विषयो का सेवन, वही विषयों की बात। यो खावों, यो रहो ऐसा भोगों, ऐसा धन कमावो, सारी वही बातें है कुछ भी तो नया काम नही हुआ। और सम्भव है कि पहिले आकुलता कम थी अब ज्यादा वैभव हो गया तो ज्यादा आकुलता हो गयी। जब कम वैभव होता तो बड़ा समय मिलता है, सत्संग में भी, पाठ पूजन भक्ति ध्यान भी करने में मन लगता है। और जब वैभव बढ़ता है तो सत्संग भी प्रायः गायब हो जाता है, पूजा भक्ति में भी कम समय लगता है और रातदिन परेशानी रहती है।
दुर्लभ नरजन्म में विवेक—अहो, यह जीव मथानी की तरह मथा जा रहा है। कषाय किसे कहते हैं जो आत्मा को कसे। दुःखों में यह जीव मथ जाता है। नाम तो सरल है इसे बड़ा क्लेश है पर जिसे क्लेश है वही जानता है। अपनी दृष्टि शुद्ध कर लो तो क्लेश कुछ भी नही है। क्या क्लेश है? सड़कों पर देखते हैं भैंसों के कंधे सूजे है, उन पर बहुत बड़ा बोझ लदा है फिर भी दमादम चाबुक चलते जा रहे हैं। बेचारे कितना कष्ट करके जुत रहे हैं और जब जुतने लायक न रहा तो कसाई के हाथ बेच दिया। कसाई ने छुरे से काटकर मांस बेच लिया और खाल बेच लिया। क्या ऐसे पशुओं से भी ज्यादा कष्ट है हम आपको? संसार में दुःखी जीवो की और दृष्टि पसार कर देखो तो जरा। अनेक जीवों की अपेक्षा हम और आप सब मनुष्यों का सुखी जीवन है, पर तृष्णा लगी है तो वर्तमान सुख भी नही भोगा जा सकता। उस तृष्णा में बहे जा रहे हैं सो वर्तमान सुख भी छूटा जा रहा है। ऐसी विशुद्ध स्थिति पाने से लाभ क्या लिया? यदि विषय कषायों में धन के संचय में परिग्रह की बुद्धि में इनमें ही समय गुजरा तो मनुष्य जन्म पाने का कुछ लाभ न पाया।
ऐहिक कल्पित पोजीशन से आत्मकार्य का अभाव—यहाँ के कुछ लोगों ने बढ़ावा कह दिया तो न ये बढ़ावा कहने वाले लोग ही रहेंगे और न यह बढ़ावा कहलाने वाला पुरुष ही रहेगा। ये तो सब मायारूप है, परमार्थ तत्त्व नही है। किसलिए अपने बढ़ावा में बहकर अपनी बरबादी करना। जगत में अन्य मूढ़ों की परिस्थितियों को निहार कर अपना निर्णय नही करना है। यहाँ की वोटों से काम नही चलने का है, जगत के सभी जीव किस और बहे जा रहे हैं कुछ दृष्टि तो दो। अपना काम तो अपने आत्मा का कल्याण करना है। यह दुनिया मोहियों से भरी हुई है। इन मोहियों की सलाह से चलने से काम न बनेगा।
यथार्थ निर्णय के प्रयोग की आवश्यकता—भैया ! किसके लिए ये रागद्वेष किए जा रहे हैं कुछ यथार्थ निर्णय तो करिये। किसी एक को मान लिया कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरा अमुक है, यह सुखी रहे, ठीक है। प्रथम तो यह बात है कि किसी को सुखी करना यह किसी के हाथ की बात नही है। उसका उदय होगा तो वह सुखी हो सकेगा, उदय भला नही है तो सुखी नही हो सकता है। प्रथम तो यह बात है फिर भी दूसरी बात यह है कि संसार के सभी जीव मुझसे अत्यन्त भिन्न है। हमारे आत्मा में हमारे घर का भी पुत्र क्या परिवर्तन कर देगा? किसके लिए कल्पना में डूब रहे है? यह बहुत समृद्धिशाली हो जाय और उस एक को छोड़कर बाकी जो अनन्त जीव है वे तुम्हारी निगाह में कुछ है क्या? वही एक तुम्हारा प्रभु बन गया जिसको रात दिन कल्पना में बैठाये लिए जा रहे हो। कौन पुरुष अथवा कौन जीव ऐसा है जिससे राग अथवा द्वेष करना चाहिए? अरे शुद्ध तत्त्व के ज्ञाता बनो और जिस पदवी में है उस पदवी में जो करना पड़ रहा है करें किन्तु यथार्थ ज्ञान तो अन्तर में रहना ही चाहिए।
कल्याण साधिका दृष्टि—मैं सर्व परपदार्थ से जुदा हूँ, अपने आप में अपने स्वरूप मात्र हूँ। मेरा सब कुछ मेरे करने से ही होगा, मैं किसी भी प्रकार की हो भावना ही बनाता हूं, भावना से ही संसार है और भावना से ही मुक्ति है, भावना के सिवाय मैं अन्य कुछ करने में समर्थ नही हूँ ऐसी अपनी भावात्मक दृष्टि हो, रागद्वेष का परित्याग हो, आत्मकल्याण की धुन हो तो इस वृत्ति से अपने आपको मार्ग मिलेगा। विषयकषायों मे बहे जाएँ, अपने जीवन को यों ही गवां दे, यह तो कोई कल्याण की बात नही है। ऐसे जीवन में और पशु जीवन में अन्तर कुछ नही है। वे भी सभी विषयों की साधना करते हैं और यहाँ भी विषयों की साधना की तो कौन सा लाभ लूट लिया? ये तो सभी मिट जायेंगे, और संस्कार खोटा बनाया तो इसके फल मे आगे भी दुःख होगा। इससे मोह मेटें, रागद्वेष में न बहें, अपने आत्मा की कुछ दृष्टि बनाएँ, निष्कपट प्रभुभक्ति करें और सभी जीवों में एक समान दृष्टि का उद्देश्य करे तो यह उन्नति का साधन है।