वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 2
From जैनकोष
योग्योपादानयोगेन दृषदः स्वर्णता मता ।
द्रव्यादिस्वादिसम्पत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता।।२।।
स्वभावावाप्तिका विधिरूप अन्तरंङ्ग कारण—पहिले श्लोक में आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति का उपाय निषेध रूप कारण से बताया गया था अर्थात् समस्त कर्मों का अभाव होने पर स्वभाव की स्वयं प्राप्ति हो जाती है, इस तरह निषेध रूप कारण बताकर अभेद स्वभाव की प्राप्ति कही गयी थी, अब इस श्लोक में विधिरूप कारण बताते हैं। जैसे योग्य उपादान के योग से एक पाषाण में जो कि स्वर्ण के योग्य है जिसे स्वर्णपाषाण कहते हे। उसमें स्वर्णपना माना गया है अर्थात् प्रकट होता है, इस ही प्रकार जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के योग्य सामग्री विद्यमान हो जाती है तो इस आत्मा में निर्मल चैतन्यस्वरूप आत्मा की उपलब्धि होती है।
स्वभावावाप्ति के अन्तरंग कारण का दृष्टान्तपूर्वक समर्थन—दृष्टान्त में यह कहा गया है कि जैसे खान से निकलने वाले स्वर्णपाषाण में स्वर्णरूप परिणमन का कारण भूत जब वह सुयोग्य होता है तो बाह्य में कारीगरों द्वारा ताड़ना, तापना, पिटना, आदि प्रयोगो से वह स्वर्णपाषाण से अलग होकर केवल स्वर्ण कहलाने लगता है। अब उस स्वर्ण में स्वर्णपाषाण का व्यवहार नही रहता। वह तो सोना हो गया है, इस ही प्रकार अनादिकाल से कर्ममल से मलिन हुआ संसारी आत्मा के जब योग्य द्रव्य, योग्य क्षेत्र, योग्य काल और योग्य भावरूप साधनों की उपलब्धि होती है तो बाहरी तपस्या, धर्म पालन आदि जो बाह्य विशुद्धि के साधन कहे गए है, उन साधनों के अनुष्ठान से, आत्मध्यान के प्रयोग से कर्म ईधन भस्म हो जाते हैं और स्वात्मा की उपलब्धि हो जाती है। अपने आत्मा के लिए अपना आत्मा योग्य द्रव्य कैसा होता है जिसमें शुद्ध परिणमने के योग्य परिणमन शक्ति आने लगती है।
उपादानभूत द्रव्य की योग्यता—इसे सुनिये द्रव्य में २ प्रकार की शक्ति है—एक ध्रुव शक्ति और एक अध्रुव शक्ति। द्रव्य में शाश्वत सामान्य परिणमनरूप शक्ति तो ध्रुव शक्ति है और वह द्रव्य कब किस प्रकार परिणमने की योग्यता रखता है ऐसी शक्ति को पर्यायशक्ति कहते हैं। जैसे जीव में ज्ञान दर्शन आदि सामान्य शक्ति ध्रुव शक्ति है और मनुष्य के योग्य काम कर सके ऐसा बोले चाले खाये पिये व्यवहार करे, इस तरह के रागादिक भाव हो इस पद्धति की जैसी मनुष्यों के शक्ति होती है यह सब पर्यायशक्ति है। यह अध्रुव है, इस तरह की योग्यता मनुष्य के रहना ठीक ही है, मनुष्य मिट गया फिर यह प्रकृति नही रहती। तो जब कल्याणरूप परिणमन की योग्यता आती है तो वह है योग्य पर्यायशक्ति वाला द्रव्य। यह तो आंतरिक बात है। बाह्य में योग्य गुरूजन, योग्य उपदेशक इत्यादि पदार्थों का समागम मिलता है और उस वातावरण मे, उस समागम में जो विशुद्धि हो सकती है उस विशुद्धि के लिए वे योग्य द्रव्य कारण पड़ते हैं। बाह्य में भी योग्य द्रव्य मिल जायें और अंतरंग योग्य होने की पर्यायशक्ति प्रकट हो जाय ऐसे योग्य द्रव्य का उपादान होने पर अपने आप में स्वभाव की प्राप्ति स्वयं हो जाती है।
कल्याण योग्य क्षेत्र काल भाव की प्राप्ति—योग्य क्षेत्र अपने आप में उस प्रकार की विशुद्धि के योग्य यह आत्म पदार्थ हुआ, तो इस ही को एक आधार की प्रमुखता से निरखा जाय तो उसे योग्य क्षेत्र कहते हैं और बाहर में योग्यस्थान—जैसे समवशरण का स्थान या अन्य कोई धर्म प्रभावक स्थान है। ऐसा योग्य क्षेत्र मिलने पर इसकी दृष्टि इस स्वभाव के निरखने की हो जाती है और वहां स्वभाव की प्राप्ति मानी गयी है। योग्य काल क्या है? अपने आपके शुद्ध परिणमन होने के लिए जो प्रथम पर्याय है, परिणमन है वह निजका योग्य काल है, और बाहर में धर्म समागम वाले काल, चतुर्थकाल तीर्थंकरों के वर्तने का काल, ये सब योग्य काल कहलाते हैं,योग्य काल की प्राप्ति होने पर इस आत्मा के स्वभाव की उपलब्धि होती है। इस ही प्रकार योग्यभाव अंतरंग में जो स्वभाव भाव है वह तो शाश्वत योग्यभाव है, उस स्वभाव भाव के विकास होने रूप जो कुछ पर्याय योग्यता है, भव्यत्व भाव है, भव्यत्वभाव के विपाक होने के काल में जो योग्य विशुद्ध परिणाम है वह शुद्धविशुद्ध परिणाम योग्य भाव कहलाता है।
शुद्ध दृष्टि में आत्मता की व्यक्ति—उक्त प्रकार से योग्य निज द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की प्राप्ति होने पर आत्मा में आत्मता प्राप्त होती है। जैसे लोग कहते हैं कि इन्सान वही है जिसमें इन्सानियत है। भला, इन्सानियत बिना भी कोई इन्सान होता है? नही होता है यहाँ इन्सानियत को केवल ईमान की चीज इतना ही अर्थ न किया जाय अर्थात् जिन परिणामों से इन्सान की शोभा है, इंसानियत की प्रगति है उन परिणामों का नाम इंसानियत कह लीजिए तो यह वाक्य प्रयोग में आने लगेगा कि जिसमें इंसानियत नही है, वह इन्सान ही नही है। इस इन्सान में इन्सानियत प्रकट हुई है तो क्या पहिले कभी इन्सानियत न थी? थी, किन्तु इन्सानियत का अर्थ भले प्रकार के आचार विचार वाले परिणाम है, वे अब प्रकट हुए है। ऐसे ही यहाँ यह कहा जा रहा है कि आत्मा से आत्मता प्रकट होती है। तो क्या यह आत्मता आत्मा से भिन्न थी? न थी, फिर भी आत्मा उसको माना गया है आदर दृष्टि में आ करके जो शुद्ध स्वभाव की दृष्टि करता है, मोक्षमार्ग में अपना कदम रखता है, ऐसे मोक्षमार्गी जीव को आत्मा शब्द से पुकारे और मोक्षमार्ग में चलने की जो पद्धति है उसको आत्मता माने तो यह आत्मता आत्मा से प्रकट होती है अर्थात् बहिरात्मत्व से निवृत्त होकर यह अन्तरात्मत्व प्रकट होता है। बहिरात्मत्व का परिहार होकर यह विवेक, उपयोग प्रकट होता है। अहिंसा आदि व्रतों का भली प्रकार पालन करने से स्वरूप की प्राप्ति होती है, यह सिद्धान्त सम्मत है।
एक जिज्ञासा—यदि उत्तम द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सामग्री मिलने से ही स्वरूप की उपलब्धि हो जाय तो अहिंसा आदि व्रतों का करना व्यर्थ हो जायगा। एक यहाँ जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है कि ऐसा सिद्धान्त बनाने में कि जब योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की, सामग्री मिलेगी तो स्वयं ही स्वरूप की प्राप्ति होगी, तब क्या तप करना, व्रत संयम करना, ये सब व्यर्थ की चीजें किसलिए की जाती है? समाधान में यह कह रहे हैं कि यहाँ यह नही समझना कि बाह्य व्रत तप संयम और अंतरंग व्रत, तप, संयम को निरर्थक कहा गया है। स्वरूप की प्राप्ति के उद्यम में व्रत आदि का पालना निरर्थक नही है। उनके यथायोग्य पालन करने से पापकर्मों का निरोध हो जाता है और पहिले बंधे हुए कर्म निर्जरा को प्राप्त होते हैं। उनके और शुभोपयोगरूप परिणमते हुए के पुण्यकर्म का संचय होता है। जिसके उदयकाल में इष्ट सुखों की प्राप्ति अनायास हो जाती है इसी तरह योग्य चतुष्टयरूप उपादान के रहते हुए भी व्रतों का पालना निरर्थक नही है, इस बात को और स्पष्ट रूप से कह रहे हैं।