वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 20
From जैनकोष
इतश्चिन्तामणिर्दिव्यः इतः पिण्याकखण्डकम्।
ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाद्रियन्तां विवेकिनः।।२०।।
आनन्दनिधि व संकट विधि का ध्यान से उपलम्भ—जैसे किसी पुरुष के सामने एक तरफ तो चिन्तामणि रत्न रखा हो और एक तरफ खल का टुकड़ा रखा हो और उससे कहा जाय कि भाई जो तू चाहता हो उसे मांग ले अथवा उठा ले। इतने पर भी वह पुरुष यदि खली का टुकड़ा ही उठाता है, माँगता है तो उसे आप पागल भी कह सकते हैं,मूर्ख भी कह सकते हैं। कुछ भी कह लो। इसी प्रकार हम आप सबके समक्ष एक और तो अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन का निधान यह आत्मनिधि पड़ी हुई है और एक और अर्थात् बाहर में यह धन वैभव पड़ा हुआ है, और बात यह है कि मनुष्य ध्यान के द्वारा जो चाहे सो पा सकता है। शुद्ध ज्ञान करे और अपने आपके ध्यान की और आए तो आत्मीय आनन्द पा सकता है, बाहर की और झुके तो उसे वहाँ विषय सम्बंधी सुख दुःख प्राप्त हो सकते हैं।दोनों ही यह ध्यान से पाता है। ध्यान से ही आत्मीय आनन्द पा लेगा और ध्यान से ही वैषयिक सुख और क्लेश पा लेगा।
सुगम लाभ के प्रति अविवेक की पराकाष्ठा—अब वह सत्य आनन्द न चाहे तो उसे क्या कहोगे? मन में कहलो, वस्तुतः न किसी बाह्य पदार्थ से क्लेश मिलता है और न सुख मिलता है। जैसी कल्पना बनायी उस कल्पना के अनुसार इसमें सुख अथवा दुःख रूप परिणमन होता है। सब ध्यान से ही मिल जाता है। तो एक ओर तो है आत्मीय अनन्त ज्ञान दर्शन की निधि जो आनन्द से भरपूर है और एक और विषयो के सुख ओर क्लेश। दोनों को ही यह जीव ध्यान से प्राप्त कर सकता है। किसी से कहा जाय कि भाई तुम कर लो ध्यान, ध्यान से ही तुम पा लोगे जिसकी अन्तर में रूचि करोगे। न इसमें कुछ रकम लगाना है, न वैभव जोड़ना है, न शरीर का श्रम करना है, न व्याख्यान सीखना है। केवल ध्यान से ही प्राप्त किया जा सकता है। चाहे आत्मीय आनन्द पा लो और चाहे सांसारिक सुख-दुःख विपदा पा लो। इतने पर भी यह जीव उन वैषयिक सुखों का ही ध्यान बनाये तो जितनी बातें लौकिक पागल को कह सकते हो उतनी ही बातें इसको भी कह सकते हो।
यह मोह में पागल हो गया है, अपना ध्यान को ऐसा बौराया है बाहर में कि इस अनन्त निधि का घात कर डाला है। विवेकी जन तो उस चिन्तामणि रत्न का आदर करेंगे, सम्यग्ज्ञानी पुरुष उस आत्मास्वरूप का आदर करेंगे। जैसे किसीबुद्धिमान से कहा जाय कि खल का टुकड़ा और यह चिन्तामणि अथवा अन्य जवाहरात रखे है, इनमें से तुम जो चाहे उठा लो तो वह रत्नों को उठायेगा। इसी प्रकार जो जीव धर्म ध्यान, शुक्लध्यान रूप उत्तम ध्यानों का आराधन करते हैं वे वास्तविक स्वरूप की, सत्य आनन्द की प्राप्ति कर लेते हैं।
अज्ञान का महासंकट—भैया ! इस पर सबसे बड़ा संकट अज्ञान का बसा हुआ है। अज्ञान अंधकार में पड़ा हुआ यह जीव कुछ समझ ही नही पा रहा है कि मेरा क्या कर्तव्य है, कहाँ आनन्द मिलेगा, कैसे सर्व चिन्ताएँ दूर होगी? इसका उसे कुछ भी भान नही है। यहाँ के मिले हुए समागम के थोड़े दिनों को इतरा लें, मौज मान ले, कुछ अज्ञानी मूढ़ों के सिरताज बन ले, इन सबसे कुछ बढ़िया पोजीशन वाले कहलाने लगे, तो भला बतलावो कि चंद दिनों की इस चांदनी से क्या पूरा पडे़गा? जो जीव आर्तध्यान, रौद्रध्यान इन अप्रशस्त ध्यानो का आस्रव करता है उसे खल के टुकड़े के समान इस लोक सम्बन्धी कुछ इन्द्रिय जन्म सुख प्राप्त हो जाता है, पर उन सुखों में दुःख ही भरा हुआ है। तेज लाल मिर्च खाने में बतावो कौनसा सुख हो जाता है, पर कल्पना में यह जीव कहता है कि इसमें बड़ा स्वाद आया, यह तो बड़ी चटपटी मंगौड़ी बनी है। कौन सा स्वाद आया सो बतावो, पर लाल मिर्च के खाने के खाने में कल्पना में स्वाद माना जा रहा है। आंसू गिरते जाते और सुख मानते जाते। जैसी यहाँ हालत है वैसी ही हालत इन इन्द्रियविषयों के भोगों में और धनसंचय से मन की मौज में भी यही हालत है। विपदा अनेक आती रहती है और मौज भी उसी में मान रहे हैं।
सद्गृहस्थ की चर्या—भैया ! सद्गृहस्थ वह है जो अपने रात दिन में कुछ समय तो निर्विकल्प बनने का प्रयत्न करे और आत्मा की सुध ले। यह बैठा हुआ, पड़ा हुआ कभी किसी दिन यों ही सीधे चला जायगा, इस शरीर को छोड़कर अवश्य ही जाना होगा। अभी कुछ अवसर है ज्ञानार्जन करने का। धर्म साधन करके पुण्य कमाये, मोक्षमार्ग बनाए, सच्ची श्रद्धा पैदा करे, संसार से छूटने को उपाय बना ले, जो करना चाहे कर सकते हैं और विवेकी पुरुष ऐसा करते ही है। अविवेकी पुरुष अवसर से लाभ नही उठाते और व्यर्थ के चक्कर में उपयोग रमाकर जीवन गंवा जाते हैं।
ज्ञानी विवेक पर एक दृष्टान्त—जैसे जिस राज्य में यह नियम हो कि यहाँ प्रतिवर्ष राजा का चुनाव होगा और उस राजा के वर्ष की समाप्ति होने पर उसे जंगल में छोड़ दिया जायगा। कौन पेन्शन दे, कौन उसकी सेवा करे? यह नियम हो तो बेवकूफ लोग तो राजा बनेंगे और जंगल में मरेंगे, किन्तु कोई बुद्धिमान तो यह ही करेगा कि हम एक वर्ष को तो है राजा, जिस वर्ष हम राजा है उस वर्ष तो हम जो चाहे सो कर सकते हैं। वह जंगल में ही अपनी कोठी बना दे, खेती बैल सब कुछ तैयार कर दे, नौकर भी भेज दे, एक पार्क बना ले, कर ले जो करना हो, फिर वह फेंक दिया जाय जंगल में तो वहाँ तो वह मौज से रहेगा।
ज्ञानी का विवेक—ऐसा ही इस बार संसार राज्य का ऐसा नियम है। इसे ५०, ६०, ७० वर्ष को मनुष्य बना दो, सब पशुओं का इसे राजा बना दो, सब जीवो में इसे सिरताज बना दो, फिर ६०-७० वर्ष के बाद इसे फैक देना निगोद में, स्थावर में, कीड़े मकोड़ों में, नरकों में ऐसा इस सामान्य का नियम है। तो यहां अविवेकी मूढ़ आत्मा तो इस मनुष्य के साम्राज्य में, विषयों में मग्न होकर चैन माना करते हैं,पर मरने पर दुर्गति पायेंगे, किन्तु कोई हो बुद्धिमान जीव तो वह तो यही समझेगा कि इस ६०-७० वर्ष मे जो कुछ करना चाहें कर तो सकते हैं ना, हमारा ज्ञान हमारे पास है, हमारा आत्मस्वरूप हममें ही है, हम जैसा बोध करना चाहे, ज्ञान करना चाहे, उपयोग लगाना चाहें लगा सकते हैं। यहाँ यदि संसार को छोड़ने का उपाय बना लें, सम्यग्दर्शन प्राप्त कर ले तो अब तो इसे सुगति ही मिलेगी और अति निकट काल में निर्वाण पद पायगा। बुद्धिमान तो यो करते हैं।
आत्मनिर्णय—भैया! अब हम अपनी-अपनी सोच लें। हम अपनी सूची मूढ़ों में लिखाये कि बुद्धिमान में? प्रोग्राम तो बनाते ही है बहुत से । कुछ इस प्रोग्राम का भी निर्णय कर ले, इन मूर्खों में अपना नाम लिखावें या विवेकियों में? इस अनित्य समागम का लोभ करने वाले तो मूढों में ही अपना नाम लिखाने वाले हैं और इन समस्त पौद्गलिक विभूतियाँ से पृथक् अपने आत्मकल्याण को ही प्रधान समझने वाले पुरुष विवेकियों में नाम लिखने वाले हैं। देखो इस आत्मक्षेत्र के निकट अर्थात् अन्तर की और यह चैतन्य चिन्तामणि रत्न पड़ा हुआ है। ओर बाहर मे ये वैषयिक सुखदु:ख निःसार असार खल के टुकड़े पड़े हुए है। अब देखो, ध्यान से ही आत्मीय आनन्द पाया जा सकता है और ध्यान से ही बाह्य सुख पाये जो सकते हैं। विवेक कर लीजिए कि हमें कैसा ध्यान बनाना चाहिए? कुछ मोही अज्ञानी जीवों से, मोहियों से, पर्याय बुद्धि वालो से प्रशंसा के शब्द सुन लिया तो क्या पाया? उन्होने भी प्रेम से नही बोला, किन्तु स्वयं अपनी कषाय की वंदना को शान्त करने के लिए बोला है। हम आत्मकल्याण की दृष्टि छोड़कर यदि इन खली के टुकड़ों में ही लग जाये तो यह कुछ भी विवेक नही है।
बुद्धिमान की खल मे अनास्था—जिस चीज में से सार निकल जाता है अथवा जिसमे सार नही रहता है, उसका नाम खल है। तिल में सरसों में जो सार है वह तेल है, वह जब नही रहता तो उसकी जो हालत बनती है, उसे लोग खल कहते हैं। खल नाम दुर्जन का भी है, दुष्ट का भी है अयोग्य का भी है। यह सारा समागम खल की तरह है, निःसार है और निमित्त दृष्टि से हमें बाधा पहुँचाने वाला है, यह जानकर विवेकी पुरुष उसमें आदर बुद्धि नही करते हैं।
आर्त और रौद्रध्यान का फंसाव—यह जगत आर्त और रौद्र ध्यान में फंसा है। दो ही तो बातें है इस जीव के परिचय की, एक तो मौज और दूसरी पीड़ा। कोई मौज में मस्त है कोई पीड़ा में दुःखी है। पीड़ा वाले ध्यान का नाम है आर्तध्यान और मौज वाले ध्यान का नाम रोद्रध्यान। पीड़ा में सम्भव है कि क्रूरता न रहे पर मौज में तो क्रूरता रहती है। पीड़ा के समय सम्भव है कि यह पवित्र रहे, पर विषयो के मौज के समय में यह जीव अपवित्र ही रहता है। बुद्धिमानों के लिए सम्पदा विषम और अपवित्र वस्तु है। सम्पदा अपवित्र नही है किन्तु सम्पदा के प्रति जो मोह परिणाम लगता है वह परिणाम अपवित्र है। जगत में न कोई जीव अपना मित्र है, न कोई जीव अपना शत्रु है। अपना राग जिस साधन से पुष्ट है उस साधन के जुटाने वाले को लोग मित्र मानने लगते हैं और उस राग में जिसमें निमित्त से बाधा हुई है उसको शत्रु मान लेते हैं। वास्तव में कोई बाह्य साधन मेरे शत्रु-मित्र नही है। अपनी ही कल्पना मित्र रूप में परिणत होती है, शत्रुरूप में परिणत होती है। वस्तुतः तो ये सभी कल्पनाएं अपनी शत्रु है।
रौद्रध्यान में क्रूरता का संक्लेश—रौद्रध्यान चार प्रकार के है—हिंसानन्द, मृषानन्द, चोर्यानन्द, परिग्रहानन्द। हिंसा करने कराने में मौज मानना, हिंसा करते हुए को देखकर खुश होना इस प्रकार की मौजों का नाम हिंसानन्द है। इन मौजों में क्रूरता भरी हुई है। मृषानन्द झूठ बोलने में झूठ कहलवाने में खुश होना सो मृषानन्द है। कोई किसी को झूठी बात लगाता है मजाक दिल्लगी करता है तो ऐसा करने वाले लोगो का आशय क्रूर है अथवा नही ? क्रूर है। किसी की चीज चुरा लेना अथवा किसी की चीज चुराने अथवा लूटने का उपाय बताना, राय देना और इस ही में मौज मानना ऐसा करने वाले का चित्त दुष्टता और क्रूरता से भरा हुआ है या नही? विषयों के साधन जुटाना, विषयों में ही मग्न रहना इसमें भी क्रूरता पड़ी हुई है । माना तो जा रहा है मौज, परन्तु अपने-अपने परमात्मप्रभु पर घोर अन्याय किया जा रहा है।
आर्तध्यान में क्लेश का संक्लेश—आर्तध्यान में भी मलिनता है। इष्ट का वियोग होने पर, इष्ट के संयोग की आशा बनाए रहना यह है इष्ट वियोगज आर्तध्यान। यहाँ भी ब्रह्मस्वरूप से विमुख होने का प्रसंग आता है। अनिष्ट वस्तु का संयोग होने पर उसके वियोग की भावनाएँ बनाना, यही हे अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान। यहाँ भी जीव, आत्मकल्याण से विमुख बन रहा है। बाह्यपदार्थों में आशा लगाए रहना यह वेदना प्रभव और निदान नामक आर्तध्यान है। यहाँ भी इस जीव ने केवल ध्यान ही किया और ध्यान से ही अपना मौज और विषाद बनाया। यही जीव इस प्रकार का ध्यान न बनाकर वस्तु के यथार्थ स्वतंत्र स्वरूप की और दृष्टि दे देकर यदि सम्यग्ज्ञान पुष्ट करे, सम्यक्त्व पोषण करे तो इसे कौन रोकता है, परन्तु यह मोही प्राणी शुद्ध प्रक्रियाओं को तो त्याग देता है, रागद्वेष मोह मे बसा रहता है।
चैतन्यचिन्तामणि की आस्था का अनुरोध—विवेकी जनो का कर्तव्य है कि आर्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करके आत्मीय आनन्दस्वरूप के लाभ के लिए धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान की उपासना करे। भगवान की आज्ञा प्रमाण अपने कर्तव्य में लगे। ये रागादिक विभाव कब दूर हो, कैसे दूर हो, इसका चिन्तन करे और यथाशक्ति उपाय बनावे। इस लोक की विशालता और इस काल के अनादिनिधनता का विचार करके और भूत काल मे किए गए विचार अन्य जनों पर भी क्या गुजरे, मुझ पर भी क्या गुजरे, इसका यथार्थ चिन्तन करे और कर्मो के फल का भी यथार्थ निर्णय रखे तो इस शुभ ध्यान के प्रताप से अपने को शुद्ध आनन्द की प्राप्ति हो सकती है। अब एक संकल्प बना ले। आत्मक्षेत्र के भीतरी और चैतन्य चिन्तामणि प्रकाशमान है और इस क्षेत्र में बाहर की और ये विषयकषायरूपी खल के टुकड़े पड़े है। अब किसका आदर करना चाहिए? चैतन्य चिन्तामणि का आदर करना चाहिए। अपने को शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप निरखें, इस ही से शुद्ध आनन्द प्राप्त होगा।