वर्णीजी-प्रवचन:इष्टोपदेश - श्लोक 24
From जैनकोष
परीषहाद्यविज्ञानानादास्रवस्य निरोधिनी।
जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा।।२४।।
अध्यात्मयोग में उपसर्गादिकका अवेदन—जब योगी पुरुष अध्यात्मयोगमें लीन हो जात है तो उस पर मनुष्य तिर्यञ्च आदिक किन्ही जीवों के द्वारा कोई उपसर्ग आये तो उस उपसर्ग का भी पता नहीं रहता है। अध्यात्मयोग में लीन होने पर ज्ञानियों को न तो कष्ट का पता रहता है, न व्याधियोंका, न किन्ही उपसर्गों का पता रहता है। वहाँ तो स्वरूप में निमग्न अध्यात्मयोगी के समस्त कर्मों का आस्रव निरोध करने वाली निर्जरा शीघ्र हो जाती है।
क्लेशानुभवका कारण—किसीको क्लेश तब तक अनुभव में आता है जब तक उसका चित्त क्लेशरहित निष्कषाय आत्मस्वरूपमें लीन नहीं होता है। जिसका चित्त बाह्य स्त्री पुरुषोंके व्यामोहमें है उसे अनेक कष्ट लगेंगे। यह मोही जीव जिनके कारण क्लेश भोगता जाता उनमें ही अपना मोह बनाये रहता है। जिसने आत्मा के स्वरूप से चिगकर बाह्यपदार्थों में अपने चित्त को फंसाया कि उसे अनेक कष्टों का अनुभव होगा ही।
धर्मसाधन का उद्यम—धर्म की यह साधना बहुत बड़ी साधना है। सामायिक करते समय या अन्य किसी समय अपने उपयोग को ऐसा शान्त विश्रांत बनाये कि तत्त्वज्ञानके बल से समस्त बाह्यपदार्थों को आत्मा से भिन्न जानकर और निज ज्ञानानन्दस्वरूप को निरखकर समस्त बाह्यपदार्थों को उपयोग में न आने दे ऐसी हिम्मत तो अवश्य बनायें कभी। अनेक काम रोज किए जा रहे हैं। यदि ५ मिनट को अपना चित्त अपनी अपूर्व दुनिया में ले जावें तो कौनसा घाटा पड़ता है? न आपका यह घर गिरा जाता है, न किसी का वियोग हुआ जाता है। सबका सब वहीं का वहीं पड़ा है। दो चार मिनट को यदि निर्मोहता का यत्न किया जाय तो कुछ हानि होती है क्या? किसी भी क्षण अपने आपमें बसे हुए परमात्मस्वरूपका अनुभव हो जाए और सत्य आनन्द प्राप्त हो जाय तो यह जीव अनन्तकाल तकके लिए संकटों से छुटकारा पाने का उपाय कर लेगा।
मोही की आसक्ति—भैया! कितने ही भवों में परिवार मिला, पर उस परिवार से कुछ पूरा पड़ा है क्या? कितने भव पाये जिनमें लखपति, करोडपति, राजा महाराजा नहीं हुए, पर उन वैभवों से भी कुछ पूरा पड़ा है क्या? किन्तु आसक्ति इतनी लगाए है कि जिससे इस दुर्लभ नरजीवनका भी कुछ सदुपयोग नहीं किया जा सकता। भूख प्यास की वेदना से अथवा किसी के द्वारा कभी उपसर्ग, परीषह, कष्ट आये तो उससे यह मोही प्राणी अधीर हो बैठता है। कभी-कभी तो उन वेदनाओं की स्मृति भी इसे बेचैन कर डालती है। ये सब संकट तब तक है जब तक अपने स्वरूप के भीतर बाहर में जो उपयोग लगाया है इस उपयोग को निराकुल निर्द्वन्दज्ञानानन्दस्वरूपमें न लग सके। अपने को अकेले असहाय स्वतंत्र मानकर शुद्ध परिणमन बनाओ तो सारे संकट समाप्त होते हैं।
ज्ञानविशुद्धि में संकटका अभाव—संकट है कहाँ? किस जगह लगा है संकट? किसी को मान लिया कि यह मेरा है और अन्य जीवों के प्रति यह बुद्धि करली है कि ये कोई मरे नहीं है बस इस कुबुद्धिवश उनकी परिणतियों को देखकर संकट मान लिया जाता है। कौन जीव हमारा है? हमारा तो हम तब जाने जब हमारे अपरिचित पुरुष भी देखकर बता दे कि हाँ यह इनका है। यह तो मोही लोगों की व्यवस्था है। किसका कौन है? अज्ञान से बढ़कर कोई विपदा नहीं है। चाहे करना कुछ पड़े किन्तु ज्ञान तो सही करना चाहिए। ज्ञान बिगड़ गया तो फिर कोई सहाय नहीं हो सकता।
उन्मत्तदशा—जो लोग पागल दिमाग के हो जाते हैं,सड़कों पर घूमते हे, बड़े घरके भी बेटे क्यों न हो, बड़े घनी के भी लड़के क्यों न हो, जब वे पागल हो जाते हैं,बेकाबू हो जाते हैं तो घरके लोग क्या उसे संभाल सकते हैं,फिर उनकी कौन परवाह करता है, उनको आराम देने की कोई फिर सोचता है क्या? वे तो आफत में दिखते हैं। कही बुद्धि खराब हो गयी, पागलपन आ गया है तो फिर कोई उसके संभालने वाला नहीं है। हम आप इन मोहियों का दिमाग क्या कुछ कम बिगड़ा हुआ है? क्या कुछ कम पागलपन छाया है? समस्त अनन्त जीवों में से छाँटकर किन्ही दो चार जीवों को जो आज कल्पित अपने घरमें है उन्हें मान लिया कि ये मेरे है और बाकी संसार के सभी जीवों को मान लिया कि ये गैर है क्या यह कम पागलपन है? ये सब अनाप-सनाप अट्ट-सट्ट बेकायदे के सम्बन्ध मान लिए जाते हैं। कोई जीव के नाते से कुछ कायदा भी इसमें किया जा रहा है क्या? अमुक का अमुक जीव कुछ लगता है ऐसी मान्यता से कुछ फायदा भी है क्या? कोई किसी से नाता नहीं, कोर्इ सम्बन्ध नहीं।
स्वार्थमय लोकसम्बन्ध—लौकिक दृष्टि से भी देखो तो कोई पुरुष बूढ़ा हो जाय किसी काम में नहीं आ सकता है, ऐसी स्थिति हो जाय तो उसकी कौन परवाह करता है? यदि उसके पास कुछ भी धन नहीं है तो कोई भी परवाह नहीं करता है और उसके नाम में या उसके पास कुछ धन है तो लोग मरने की माला फेरते हैं,जल्दी कब मरे। ये सब भीतरी बातें है। अनुभव से विचारो, कौन किसका सहारा है, जब तक कषायों से कषाय मिलीजुली हुई है और एक दूसरे के स्वार्थ में कुछ साधक रहता है, किसी के कुछ काम के लायक रहता है तब तक ही यह लौकिक सम्बन्ध रहता है अन्यथा नहीं।
कथंचित् उपादेय सम्बन्ध—भैया! यहाँ उपादेय सम्बंध माना जा सकता है तो गुरु और शिष्य का सम्बंध यह सम्बन्ध कुछ ढंग का भी है, विधिविधान का भी है। पर गुरू शिष्य के सम्बन्ध के अलावा अन्य जितने सम्बंध है वे सब नाजुक और छलपूर्ण सम्बंध है, चाहे साला बहनोई हो, चाहे मामा भांजा हो, चाहे पिता-पुत्र हो, चाहे भाई-भाई हो, कोई भी सम्बंध हो वे सब सम्बंध अशुद्ध और कलुषित भावना सहित मिलेंगे, केवल एक गुरू शिष्य का ही सम्बंध जगतके सम्बंधमें पवित्र सम्बंध हो सकता है। कोई पुरुष आजकल के मास्टर और स्टूडेन्टका परस्पर बर्ताव देखकर प्रश्न कर सकता है कि गुरू शिष्य का कहाँ रहा पवित्र सम्बंध? शिष्य यदि परीक्षा में नकल कर रहा है और मास्टर उसको टोंक दे या उसकी नकल में बाधा डाले तो स्कूल से बाहर निकलने के बाद फिर मास्टरकी ठुकाई पिटाई भली प्रकार कर दी जाती है। क्या पवित्र सम्बन्ध रहा? उसका समाधान यह है कि वहाँ न कोई गुरु है न कोई शिष्य है गुरु बन सकना और शिष्य बन सकना बहुत कठिन काम है। न हर एक कोई गुरु हो सकता है और न हर एक कोई शिष्य हो सकता है। गुरुशिष्य का इतना पवित्र सम्बन्ध है कि जिसके आधार से संसार के ये समस्त संकट सदा के लिए टल सकते हैं,सम्यक्त्व की भावना, सम्यक्त्व का प्रकाश उदित हो सकता है। बाकी और समस्त सम्बंध केवल स्वार्थ के भरे हुए सम्बन्ध है।
बहिर्मुखी दृष्टि में विपदा—इन बाह्यपदार्थों में, इन परिजन और मित्रजनों में जब चित्त रहता है तो यह जीव कष्ट का अनुभव करनेवाला बन जाता है। खूब बढ़िया भी खाने को मिले तो भी यह अनुभव में चलता हे कि अब फिर भूख लगी। लोलुप गृहस्थ जन तीन बार खाये फिर भी बार-बार क्षुधा की वेदना अनुभूत होती है। ऐसे ही चाहे सर्व प्रकार के समागम उचित रहे, पैसा भी खूब आ रहा है, इज्जत भी चल रही है तब भी कुछ न कुछ विकल्प बनाकर अपना कष्ट अपनी विपदा समझने लगते हैं,यह सब बहिर्मुखी दृष्टि होने के कारण विपदा आती है। एक चैतन्य चिन्तामणिको प्राप्त कर ले उपयोग द्वारा फिर कोई संकट नहीं रह सकता है।
अन्तर्मुखी दृष्टि करो विपदा टालो—देखो। गंगा यमुना नदियों में जलचर जीव अनेक होते ही है। कोई कछुवा पानी के ऊपर सिर उठाकर तैरता हुआ जाय तो उसकी चोंच को पकड़नेके लिए दसों पक्षी झपटते हैं,चारों और से परेशान करते हैं। जब तक वह कछुवा अपनी चोंच बाहर में निकाले हैं तब तक उसकी कुशल नहीं है। अनेक सताने वाले हैं और जब वह अपनी चोंच को पानी में डुबो लेता है, भीतर ही भीतर तैरता रहता है, मौज करता है उसे फिर कोई संकट नहीं रहता है। ऐसे ही यह आत्मस्वरूप अपना निज घर है। इससे बाहर अपना उपयोग निकला कि सर्व कल्पना जालों के संकट इस पर छा जाते हैं। उन समस्त संकटों के दूर करनेका उपाय मात्र इतना है कि अपने उपयोग को अपने आत्मस्वरूप में लगा ले।
आत्मरक्षा का विवेक—बाह्य परिस्थितियों में जिसका उपयोग लगा है वह हर स्थिति में कष्ट अनुभव किया करता है। किन्तु है वे सब स्थितियाँ कष्ट न अनुभव करने के योग्य। घर में कुटुम्ब ज्यादा बढ़ गया तो कष्ट अनुभव किया जाता है। अरे बढ़ गया है तो बढ़ जाने दो, सबके अपना-अपना भाग्य है, वे लड़ते हैं तो लड़ जाने दो, गिरते हैं तो गिर जाने दो, सीधे चलते हैं तो सीधे चलने दो, तुम योग्य शिक्षा दो तुम्हारी शिक्षा के अनुकूल वे चलते हैं तो उनका भला है, नहीं चलते हैं तो तुम ममता करके अपने जीवन का धार्मिक श्रृंगार क्यों खोते हो?
परिस्थितियों में हितविधिका अन्वेषण—भैया ! अन्तर में या बाहर में परमार्थतः इस जीवको कहाँ कष्ट है, परन्तु दृष्टि बाहर में फंसायी तो वहाँ कष्ट ही है। परिजन अधिक न हो, अकेले हो तो यह जीव अपनेमें कष्ट मानता है कि मैं अकेला हूं, दुनिया के लोग किस तरह रहते है? अरे अकेले रह गये तो यह बडे़ सौभाग्य की बात है, अकेले रह जाना हर एक को नसीब नहीं है यह संसार कीचड़ है। यह समागम एक बेढब वन है अपना यथार्थ अनुभूत हो जाए और स्वतः अकेलापन आ जाय तो यह बड़े अच्छे होनहार की बात है धर्मपालन होता है तो अकेले होता है, अनुभव होता है तो अकेले से होता है। मोक्षमार्ग मिले तो अकेले से होता है, मोक्ष प्राप्त होता है तो अकेले से होता है। कौनसी बुराई आयी अकेले रह जाने में? यह भी स्थिति अच्छे के लिए आती है, पर उसका सदुपयोग करे, लाभ उठाये तब ना। धन बहुत हो गया है तो बड़ी किल्लत हो गयी। इतनी हो गयी है कि सम्भाले भी नहीं सम्भलती है अनेक द्वारों से यह धन बरबाद होने लग रहा है, सम्भालते ही नहीं बनता है। बड़ा दुःखी होता है जब सुनते हे कि वहाँ इतने का टोटा हो गया, इतना खर्च हो गया तो बड़े चिन्तित होते हैं। अरे चिन्ता की क्या बात है? बिगड़ गया तो बिगड़ने दो, घट गया तो घटने दो। कहां घट गया? जो पदार्थ है वह तो नहीं गुम गया, मिट क्या गया? जहां होगा वही चैन से । तुम्हारा क्या बिगड़ गया? ममता छोड़ो, सारे संकट मिट गए।
ममताका अनौचित्य—भैया ! जितने भी संकट है वे सब ममता के कारण होते हैं।काहे के लिए ममता करते हो? अपने को लाभ तो कुछ है नहीं। अपने लाभ के संदर्भ में तो ममता की जरूरत ही नहीं है। जो लोग यहां के समागम में ममत्व रखते हैं वे इसलिए रखते हैं कि दुनिया के मनुष्य हमको कुछ अच्छा समझे, अच्छा कह दे। अच्छा तुम्हीं निर्णय दो कि ये सब दुनिया के लोग जिनमें तुम अच्छा कहलवाना चाहते हो ये सब ज्ञानी है या अज्ञानी? मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि? खुद कर्मों के चक्कर में फंसे हुए है या देवता है सो निर्णय कर लो। मूढ़ है, पर्यायबुद्धिलगी है, अज्ञानी है, पापकलंकसे भरे हुए है। अच्छा इन मूढ़ों ने यदि तुम्हें अच्छा कह दिया तो तुम क्या कहलावोगे? मूढ़ों के सिरताज। तो इसका अर्थ हुआ कि हम मूढ़ों के राजा है। जैसे कोई लोग कहने लगते हैं कि हम बदमाशोंके बादशाह है, तो इसका अर्थ क्या हुआ? सबसे ऊँचे दर्जे का बदमाश। इस तरह हम इस अज्ञानी जगत में कुछ अपने को अच्छा कहलवाना चाहते हैं और इन अज्ञानी लोगों ने कुछ अच्छा कह दिया और उसमें ही हम खुश हो गए तो अर्थ यह हुआ कि हम मूढों के सिरताज बनना चाहते हैं। सब अपने आपमें सोच लो। सभी तो मोही जगत है। इससे बुरा रंच भी न मानियेगा, क्योंकि यह सब तो विरक्त होने की भावना से कहा जा रहा है।
योगीका उन्नयन—क्षुधा, तृषा, रोग, वियोग आदिका कष्ट तब बहुत अधिक मालूम होने लगता है जब यह उपयोग आत्मस्वरूपसे चिगकर बाह्यपदार्थों में लग जाता है। जब यह जीव बाह्यपदार्थों की वासना तज देता है, बाह्यपदार्थों के राग से विरक्त हो जाता है तो भूख प्यास, परीषह रोग आदि वेदना का अनुभव नहीं होता। वह तो अब स्वरूप में मग्न है, आनन्द का अपूर्व मधुर रसपान कर रहा है, विकार भावो से अत्यन्त दूर रह रहा है। ऐसे आत्माके आचरण में रहनेवाले अध्यात्मयोग के अनन्तगुणी निर्जरा और कर्मों का क्षय चलता रहता है, क्योंकि उसकी चित्तवृत्ति का भली प्रकार निरोध हो गया है। अब यह अपने आत्मस्वरूपकी और झुका हुआ है। जिसको अपने अंतस्तत्वकी दृष्टि है उस योगी के पुण्य और पाप निष्फल होते हुए स्वयं गल जाते हैं। उस योगी का निर्वाण होता है फिर कभी भी ये कर्म पनप नहीं पाते हैं। जो योगी तद्भवमोक्षगामी नहीं है, जिसके संहनन उत्कृष्ट नहीं है, किन्तु ध्यान का अभ्यास बनाए है, आत्मतत्त्वके चिन्तनमें अपना उपयोग लगाये हैं उसके कर्मों का सम्वर और कर्मों की निर्जरा होती है।
ज्ञान प्रताप—आत्मा और अनात्माका जब भेदविज्ञान प्रकट होता है तो उस भेदविज्ञानमें जो अपूर्व आनन्द बरसता है उस आनन्द मग्न योगी पुरुष बड़े कठिन घोर तपश्चरणको भी करते हुए रंच भी खेद नहीं मानते हैं क्योंकि उनका उपयोग तो सहजानन्द स्वरूप अंतस्तत्वमें लगा हुआ है। वहाँ वह ध्यान ध्याता ध्येय तीनों एक रूप परिणत हो रहे हैं। वह आत्मस्थ है। उत्तम संहननका धारी हो तो ऐसे ही ध्यान के प्रताप से चार घातिया कर्मों को दूर कर सकलपरमात्मा हो जाता है। उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति प्रकट हो जाती है, फिर अंत में तपश्चरण करके सिद्ध प्रभु हो जाता है। यह सब एक ज्ञानका प्रताप है। जिन्हें समस्त संकट दूर करना है उनका कर्तव्य है कि वे तत्त्वज्ञानका अभ्यास बनाएँ।