वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 15
From जैनकोष
णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विहावमिदि भणिदा।
कम्मोपाधिविवज्जियपज्जायां ते सहावमिदि भणिदा।।15।।
व्यञ्जनपर्याय―जीवतत्त्व के परिज्ञान के सम्बन्ध में स्वभाव और गुण पर्यायों की मुख्यता से वर्णन किया है। अब द्रव्यपर्याय की दृष्टि से कुछ वर्णन किया जाता है। गुणों का वर्णन आंतरिक निरूपण है और द्रव्यपर्यायों का वर्णन बहिरङ्ग निरूपण है। पदार्थ का लक्षण स्वभाव से जाना जाता है और वह स्वभाव प्रदेशरूप होता है। उन समस्त गुणों का जो एक आधार में पिण्ड बना हुआ है वही तो प्रदेशात्मक चीज है और जब वस्तु प्रदेशात्मक होती है तो उसकी प्रदेशपर्याय भी होगी अथवा प्रदेशवत्त्वगुण के विकार का नाम व्यञ्जनपर्याय है अथवा द्रव्यपर्याय है।
स्वभावपर्याय और विभावपर्याय―जीव में द्रव्यपर्याय की मुख्यता से वर्णन किया जा रहा है यहाँ। द्रव्यपर्याय दो प्रकार के हैं–स्वभावद्रव्यपर्याय आर विभावद्रव्यपर्याय। नर, नारक, तिर्यञ्च, देव–ये पर्यायें विभावपर्याय हैं। ये द्रव्य के या प्रदेशत्वगुण के विभावरूप पर्यायें हैं और कर्मोपाधि से रहित पर्यायें स्वभावपर्याय कहलाती हैं। इन स्वभावपर्याय और विभावपर्यायों में स्वभावपर्याय दो प्रकार से देखना चाहिए, एक कारण शुद्धपर्याय दूसरा कार्य शुद्धपर्याय। परमपरिणामिक भाव तो कारण शुद्ध पर्याय है और सिद्ध भगवान् की अवस्था प्रभु की सिद्ध अवस्था में जो आकार होता है वह कार्यशुद्ध व्यञ्जन पर्याय है। पारिणामिक भाव भी एक भेदरूप है और द्रव्यपर्यायात्मकता से सम्बन्ध रखने वाला है, इसलिए उस पर्याय को लिए हुए है किन्तु वह कारणशुद्धपर्याय है अर्थात् उस पारिणामिक भाव का आधार करके सर्वपर्यायें प्रकट हुई है और है वह पारिणामिक भाव भेदरूप। इस कारण इसे कारणशुद्धपर्याय कहा है।
पारिणामिक शब्द का अर्थ―परिणम: प्रयोजनं यस्य स: पारिणामिक:। जिसका परिणमन प्रयोजन हो उसे पारिणामिक कहते हैं। पारिणामिक शब्द का सीधा अर्थ ध्रुवभाव स्थिर भाव नहीं है वह तो फलितार्थ है। पारिणामिक भाव का सीधा अर्थ है–जिसका परिणमन प्रयोजन हो उसे पारिणामिक कहते हैं। अर्थात् जिसका आधार करके प्रति समय निरन्तर परिणमन होता रहता है, परिणमन ही जिसका प्रयोजन है, पारिणामिक शब्द पर्याय को ओझल करके नहीं बना है, इसलिए पारिणामिकभाव पर्यायरूप भाव है किन्तु वह द्रव्य का मौलिक शुद्धभाव है। इस कारण उसे शुद्धपर्याय कहते हैं और वह समस्त पर्यायों का कारणभूत है। इस कारण उसे कारणशुद्ध पर्याय कहते हैं।
कारणशुद्ध पर्याय―सहज शुद्ध निश्चय के द्वारा अनादि अनन्त अमूर्तिक अतीन्द्रिय स्वभाव शुद्धसहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहज परमवीतराग आनन्द–इन चतुष्टयात्मक जो आत्मा का शुद्धअंतस्तत्त्व है, स्वरूप है वही हुआ स्वभाव अनन्तचतुष्टय। उस स्वभाव अनन्तचतुष्टय स्वरूप के साथ लगी हुई जो पारिणामिक भाव की परिणति है उसको कारण शुद्धपर्याय कहा है। यहाँ द्रव्यपर्याय के कथन में बड़ी सूक्ष्मदृष्टि से शुद्धपर्यायों का मंतव्य बनता है उसके स्वभाव को छुवे बिना वह नहीं बनता, इसी कारण शुद्धपर्याय के वर्णन में भले ही द्रव्यपर्याय की मुख्यता से बोला जाये, फिर भी स्वभाव को स्पर्श करके शुद्धपर्याय का अवगम होता है। जैसे पूछें कि सिद्ध भगवान् के व्यञ्जन पर्याय क्यों कहा है ? तो सिद्धभगवान् के जहाँ न शरीर है, न कर्म है, न अन्य कोई परभाव है, केवल एक आत्मा का ही आकार है, जानने तो चलेंगे आकार को, पर उसे जानते हुए स्वभाव और गुण के परिचय में ही जाना पड़ेगा। यह पारिणामिक भाव की परिणति है कारण शुद्धपर्याय।
कार्य शुद्धपर्याय―कार्य शुद्धपर्याय आदि सहित है, किन्तु अन्तरहित है। विभाव के बाद जो शुद्धपर्याय होती है, वह किसी समय से ही तो होती है, परन्तु जीव की पर्याय एक बार शुद्ध हो जाये तो अनन्तकाल तक फिर अशुद्ध न बनेगी। जो गत चतुर्थकाल में मुक्त हुए हैं, वे भी पूर्वकाल में संसारी थे। उन्होंने भ्रमण किया और उनके आदि में निगोद अवस्था थी और जो अभी से 10-20 कल्पकाल पहिले भी चौथे काल में मुक्त हुए, उनके भी पहिले संसारीपर्याय थी और पहिले निगोद अवस्था थी। जो बहुत ही पहिले जहाँ तक दृष्टि जाये, अनन्तकाल पहिले जो भी मुक्त हुए हैं, उनके भी संसारीपर्याय तो थी ही और उनके भी मूल में यह निगोद अवस्था थी।
मुक्ति की अनादिता―यह मुक्ति कबसे चली आ रही है ? अनादि काल से। इसका कहीं आदि है क्या कि कबसे जीव को मोक्ष होता चला आ रहा है ? यदि इसका आदि बन जाये कि इस समय से जीव को मुक्ति होना प्रारम्भ हुआ तो फिर संसार की भी आदि रखनी पड़ेगी कि लो इससे कुछ अधिक 8 वर्ष पहिले संसार बना था, क्योंकि मोक्ष का जो समय हुआ, उससे पहिले 8 वर्ष तो जीव संसार में ही रहा है तो मुक्ति की आदि मानने पर सत्पदार्थों में आदि माननी पड़ेगी। इसलिये मुक्ति अनादि से है और संसार भी अनादि से है, फिर भी मुक्ति से संसार 8 साल बड़ा है। इतने पर भी न मुक्ति की आदि है और न संसार की आदि है। कितना अद्भूत स्वरूप है।
कार्य शुद्धपर्याय की विशेषता―जो भी मुक्त हुआ है, वह पहिले अशुद्ध अवस्था में था, तत्पश्चात् शुद्धअवस्था में आया और उसका आदि हुआ, पर अन्त नहीं है। यह प्रसंग चल रहा है कार्य शुद्धपर्याय का। जो जीव सर्वप्रकार निर्दोष हो गये हैं, उच्च बन गए हैं, उनकी क्या विशेषता है, यह बतायी जा रही है। वह शुद्धपर्याय तो आदि सहित है व अन्तरहित है, अमूर्त है, अतीन्द्रियस्वभावी है, शुद्धसद्भूत व्यवहारनय का विषय है। शुद्ध है, सद्भूत है किन्तु पर्यायकथन है, उस शुद्ध सद्भूत व्यवहार से यह अनन्त चतुष्टयात्मक है। जहाँ केवलज्ञान केवलदर्शन अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति प्रकट हुई है ऐसी परमउत्कृष्ट क्षायकभाव की जो शुद्धपरिणति है उसे कहते हैं कार्यशुद्धपर्याय।
केवलज्ञान की क्षायिकता और प्रवर्तमानता―क्षायिकता क्षय के काल में होती है। प्रभु के जब केवलज्ञान हुआ था, वह प्रथम समय में केवलज्ञान कर्म के क्षय का निमित्त पाकर हुआ था। उसके बाद अब सदाकाल केवलज्ञान केवलज्ञान चल रहा है तो वह आत्मा के स्वभाव से हो रहा है या क्षय से हो रहा है ? आत्मा के स्वभाव से हो रहा है। जैसे धर्म अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य आदि शुद्ध द्रव्यों का परिणमन उनके स्वभाव से चल रहा है। इसी तरह परमात्मा का केवलज्ञानादिक परिणमन स्वभाव से चल रहा है। हाँ जो प्रारम्भ का समय था उस समय यह क्षायकभाव कहलाता था, सो अब तक भी उन केवलज्ञानादिक भावों को क्षायक कहना यह उपचार कथन है। क्योंकि प्रारम्भ समय में यह केवलज्ञानादिक कर्मों के क्षय का निमित्त पाकर हुआ था। इस कारण वह तब क्षायिक भाव कहलाया था और उनका स्मरण अब तक बना हुआ है कि आखिर होता तो कर्मों के क्षय के निमित्त से ही ना, इसलिए क्षायिकभाव का व्यपदेश हुआ करता है।
निमित्तक्षयकाल में क्षायिकता―वस्तुस्थिति ऐसी है कि कर्मों के क्षय का समय एक है, क्षय माने वियोग। वियोग कहते हैं अंतिम संयोग को। संयोग के व्यय के प्रथम समय का नाम वियोग है फिर तो रहितपना है। वियोग नहीं कहलाता। जैसे कोई आदमी आप को स्टेशन पहुँचाने गया और आप आगे चले गए तो आपसे पूछा जाय कि तुम्हारे मित्र का वियोग कहाँ हुआ था ? तो आप क्या उत्तर देंगे ? कहाँ हुआ था ? स्टेशन पर। अरे स्टेशन पर तो संयोग था। तो संयोग के अंतिमसमय को, संयोग के व्यय के काल को वियोग कहा करते हैं। ऐसी क्षायिकता कर्म के वियोग होने के समय में है, फिर बाद में तो मात्र परमपारिणामिक भाव है। उस शुद्ध परिणमन को चूँकि उत्पत्ति हुई थी उसकी क्षय का निमित्त पाकर इसलिए अब भी कहते जाते हैं क्षायिक। ऐसी जो शुद्धपरिणति है उस परिणति को कार्यशुद्धपर्याय कहते हैं।
सूक्ष्म अर्थपर्याय―द्रव्यदृष्टि से शुद्धपर्याय देखी जाय तो सूक्ष्म ऋजूसूत्रनय से जो तका गया है अगुरुलघुत्व गुण द्वारा सूक्ष्म परिणमन जो कि छहों द्रव्यों में एक समान पाया जाता है वह शुद्ध अर्थपर्याय कहलाता है। यह शुद्ध परिणमन जैसा जीव में है वैसा पुद्गल में है। छहों द्रव्यों में साधारणरूप से पाया जाता है। जैसे अस्तित्व गुण सब द्रव्यों में एक समान है या कुछ विलक्षणता को लिए हुए होता है ? एक समान है। विलक्षणता को लिए हुए तो असाधारण गुण है और असाधारण गुण का मन में आशय रखकर अस्तित्व का मंतव्य बनाएँ तो विलक्षण जंचता है, तब उसका नाम पड़ता है आवांतर सत्ता। अस्तित्व गुण का कार्य आवांतर सत्ता बनाना नहीं है। अस्तित्व गुण का कार्य तो सामान्य सत्रूप बनाना है, जो छहों द्रव्यों में सामान्यरूप से पाया जाता है। आवांतर सत्ता तो असाधारण गुण और अस्तित्व गुण दोनों के समवायात्मक दृष्टि का परिणाम है। तो जैसे अस्तित्व गुण छहों द्रव्यों में एक समान है। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, प्रमेयत्व छहों साधारणगुण छहों द्रव्यों में एक समान हैं। इस ही प्रकार द्रव्यत्वगुण अगुरुलघुत्व गुणादिक के कारण से परिणमनशीलता के कारण जो मूल में परिणमन चलता है वह परिणमन भी छहों द्रव्यों में एक समान है। केवल छहों द्रव्यों में साधारणरूप से पाया जाने वाला जो सूक्ष्म परिणमन है, जो अव्यक्त है वह है शुद्धपर्याय।
व्यञ्जन अर्थात् व्यक्त परिणमन―भैया ! जितने भी व्यक्त परिणमन है वे सब स्थूल परिणमन है। जैसे एक बहुत बड़ा चक्का घूमता है, तो चक्की आखिरी कोर घूमती हुई स्पष्ट नजर आती है और ज्यों-ज्यों उस छोर से अन्दर को देखते जायें त्यों-त्यों घुमाव कम नजर आता है और कील के ही पास जो अंश है उसका घुमाव विदित ही नहीं हो पाता। तो इस प्रकार पदार्थ की परिणमनशीलता के कारण मूल में जो परिणमन है वह सूक्ष्म है, सब द्रव्यों में एक समान है। अब असाधारण गुण को साथ रखकर जो परिणमन दीखेगा वह व्यक्त परिणमन है, स्थूल परिणमन है, उनमें शुद्ध और अशुद्ध का भेद होता है। पर परिणमनशीलता के कारण जो परिणमनमात्र है वह तो अपने एकत्व को लिये हुए है। उसमें शुद्ध और अशुद्ध का भेद नहीं है।
व्यञ्जनपर्यायों का व्यक्तरूप―पर्याय के विषय में ये सब भेद जान लेने चाहिये और उनकी जो व्यञ्जन पर्यायें है अर्थात् व्यक्त पर्यायें हैं जो इन्द्रिय तक से भी जान लिये जाये वे सब हैं नर, नारक, तिर्यंच, देवरूप। स्वर और व्यञ्जन होते हैं ना, तो स्वर तो उसे बोलते हैं जो अकेला बोला जा सके, जैसे अ आ इ ई आदि खूब अच्छी तरह बोल लो। पर व्यञ्जन को भी कोई स्वर का सहारा लिए बिना बोला जा सकता है क्या ? जैसे क बोलो, पर उसमें अ मत लगाना। क्या बोल सकते हो ? आप कहेंगे कि हम बोलते हैं आधा क् क्या ? इसमें बोला तो शुद्ध क् मगर उस शुद्ध क् को बोलने के लिए य उत्तरवर्ती आ का सहारा लिया गया। कहीं भी अ न लगा हो, स्वर न लगा हो तो आप व्यञ्जन बोल ही नहीं सकते। व्यञ्जन में स्वर होना ही चाहिए तब बोला जा सकता है और स्वर स्वयं आधाररूप हैं। उनके लिए और आधार न चाहिए।
स्वरपर्याय और व्यञ्जन पर्याय―इसी प्रकार नर नारकादिक व्यञ्जन पर्यायें हैं। इसके लिए कोई आधार चाहिए, वह आधार है कारण शुद्धपर्याय अथवा अर्थपर्याय। अगुरुलघुत्व गुण द्वार से होने वाले परिणमन को और आधार न चाहिए। इसलिए वह है स्वर पर्याय और नर नारकादिक हैं व्यञ्जन पर्याय, ये स्वर से विलक्षण हैं व्यञ्जन पर्याय आदि सहित हैं व अंत सहित हैं, विजातीय विभाव स्वभावरूप है। विजातीय अर्थात् मूर्तपदार्थ के सम्पर्क से हुए हैं, इनका विनाश देखा जाता है, ये नर नारकादिक पर्यायें विभाव व्यञ्जनपर्यायें कहलाती हैं। इस सम्बन्ध में फिर और वर्णन चलेगा।
व्यञ्जनपर्यायों की अज्ञानकारणकता―अब व्यञ्जन पर्याय का वर्णन करते हैं। पर्यायवान् पदार्थों के ज्ञान के बिना पर्याय के स्वभाव से शुभ अशुभ और मिश्र परिणामों के द्वारा यह आत्माव्यवहार से मनुष्य बनता है। उसकी जो मनुष्य के आकाररूप व्यञ्जन पर्याय है वह मनुष्यपर्याय नामक व्यञ्जन पर्याय है ये व्यञ्जन पर्यायों के प्रकार चारगतियों रूप हैं। इन पर्यायों की उत्पत्ति का मूल कारण क्या है ? तो पर्याय जिसमें प्रकट हुई है ऐसी पर्यायों का ज्ञान न होना, सो पर्यायों के पाते रहने का मूल कारण है। सम्यग्दर्शन होने के बाद भी जो कुछ पर्यायें और पानी पड़ती हैं, उनके भी मूल सम्यग्दर्शन से पहिले जो अज्ञान था वह कारण है। क्योंकि उसी अज्ञान से जो सिलसिला बना था उस सिलसिले के अन्दर ही शेषपर्यायें उसे मिलती हैं।
मनुष्यपर्याय की उत्पत्ति का कारण―मनुष्य बनना न केवल पाप-परिणाम से होता है और न केवल पुण्य-परिणाम से होता है, किन्तु पाप और पुण्य दोनों के मिश्र परिणाम से होता है। यह मनुष्यपर्याय वस्तुगत दृष्टि से देखा जाय तो न केवल जीव के है, न केवल कर्म के है, न केवल उनकी वर्गणाओं के है, और ऐसा भी नहीं है कि सूक्ष्म अंशरूप पर्याय इन तीनों की मिलकर बनी हो अर्थात् तीनों को मिलकर भी कोई एक परिणमन नहीं है। फिर भी स्थूलरूप से ज्ञान में आने वाली यह मनुष्यपर्याय जीव, कर्म व आशरीरवर्गणा इन तीनों का पिण्डरूप है।
नारकत्व का साधन व गति के अनुकूल भाव―नरपर्याय भी व्यञ्जन पर्याय है। केवल अशुभ कर्मों के द्वारा यह आत्मा नारकी बनती है, यह नारक पर्याय व्यवहारनय से ज्ञात होती है। जो नरक के आकार पर्याय हुई उसे नरक पर्याय कहते हैं। जिस पर्याय में जीव पहुँचता है उस जीव की परिणति पर्याय के अनुकूल बनती है। आज कोई मनुष्य है तो मनुष्य के अनुकूल उसके भाव चलेंगे। जैसे मनुष्य खाते हैं, जैसे मनुष्य रहते हैं उस तरह की वृत्ति होती है। वही जीव मनुष्य पर्याय छोड़कर यदि बैल, घोड़ा आदि तिर्यंच बन गया तो उसकी वहाँ के अनुकूल परिणति चलेगी। वहाँ घास खाने को, उस तरह बैठने को, अपनी ही बिरादरी सुहाने के सब परिणमन हो जाते हैं। ये अनन्त चतुष्टय की योग्यता रखने वाले जीव एक अज्ञान के फेर में आकर कैसी-कैसी दशाओं को भोगते हैं ? ये सब बातें इन व्यञ्जनपर्यायों से ज्ञात होती हैं।
मनुष्यों के प्रकार―मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? संक्षेप में मनुष्य तीन प्रकार के हैं–लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, कर्मभूमियां मनुष्य और भोग भूमिया मनुष्य। इन तीनों मनुष्यों की आदतें अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार होती हैं। कर्मभूमियां मनुष्यों में देखो कितने प्रकार के मनुष्य हैं ? हिन्दुस्तान में गुजरातियों का ढंग उन जैसा, महाराष्ट्रियों का ढंग उन जैसा, मध्यप्रदेश वालों का ढंग उन जैसा, काश्मीर वालों का ढंग उन जैसा–रहन-सहन, रूप-ढंग, बोलचाल कितनी भिन्नता हुई है ? तो यह तो मोटे रूप में दिखता है। वैसे तो एक मनुष्य से दूसरा मनुष्य नहीं मिलता है। आदत में, परिणाम में सब एक समान हों ऐसे कोई दो मनुष्य नहीं मिलते हैं। तो कितनी विभिन्नताएँ हैं इन पर्यायों में ?
नारकी जीवों का संक्षिप्त विवरण―नारकी जीव नीचे 7 पृथ्वियों में रहते हैं। पहली पृथ्वी में नारकी जितनी अवगाहना के होते हैं उससे दूनी देह की अवगाहना वाले दूसरे नरक में हैं। तीसरी में उससे दूने शरीर वाले, चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें में क्रम से दूने-दूने शरीर वाले होते हैं। वे दूसरे को देखकर रोष ही रोष किया करते हैं। पूर्वभव में चाहे किसी का उपकार किया गया हो, आँख में अंजन लगाकर आँख का रोग ही मिटाकर, चाहे वह माँ ही क्यों न हो, उपकार किया गया हो, नरक में जब वे दोनों पैदा हो गए तो उन्हें उलटा सूझेगा। इसने तो मेरी आँख फोड़ने का ही प्रयत्न किया था और उलटा सोच-सोचकर लड़ते रहेंगे। प्रसिद्ध बात है यहाँ भी कोई मनुष्य आपस में यदि लड़ते हैं तो कहने लगते हैं कि नारकियों की तरह आपस में लड़ रहे हैं।
तिर्यक् पर्याय की उत्पत्ति का कारण व तिर्यंचों के प्रकार―तिर्यंच पर्याय भी व्यञ्जन पर्याय है। इसमें जब कुछ शुभ मिला हो और शुभ अशुभ मिश्र परिणाम होता हो लेकिन साथ में माया परिणमन हो तो मायाचार की अधिकता से तिर्यंच शरीर में जीव उत्पन्न होता है। उसका जो आकार है उसको तिर्यक्पर्याय कहते हैं। तिर्यंच तो बहुत प्रकार के हैं। प्रथम पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में देखो–पशुपक्षी सर्पादिक के ढंग के जमीन पर रेंगने वाले पंचेन्द्रिय जीव हैं। पशुओं में कितनी विभिन्नताएँ हैं ? बैल, घोड़ा, हाथी, हिरण, बारहसिंहा, खरगोश और और भी नाम लेते जाओ, कितने तरह के पशु हैं, कितने तरह के पक्षी हैं। कई तो दिखते भी नहीं है, कभी दिख जायें तो बड़ी विचित्र मालूम होती हैं। जलचर तिर्यंच देखो, पंचेन्द्रिय देखो, मछलियाँ, कच्छ, मगर कितना विस्तार है तिर्यंचों का ? चौइन्द्रिय कितनी तरह के हैं–चौइन्द्रिय में मच्छर, टिड्डी, पतिंगा, मक्खी, भंवरा, ततैया नाम लेते लेते पूरा नहीं पड़ सकता है। कहाँ तक नाम लोगे ? ये इतने हैं कि मालूम भी नहीं हैं। तीन इन्द्रिय कितने प्रकार के हैं, दो इन्द्रिय कितने प्रकार के हैं, एकेन्द्रिय की तो शुमार ही नहीं है। 10 लाख जाति की तो वनस्पति ही बतायी जाती है। लाखों जाति के तो वनस्पति ही बतायी जाती है। लाखों जाति के तो पड़ पाये जाते हैं। पृथ्वी के जीव, जल के जीव, आग के जीव, हवा के जीव, निगोदराशि कितनी तरह के तिर्यंच पर्यायें हैं, कोई नाम लेने से पूरा पड़ सकता है क्या ? ।
तिर्यंचों के प्रकारों की जातियाँ तक भी गिनाने की अशक्यता―एक बार रात्रि के समय राजा बोला कि मत्री ऐसा किस्सा तो सुनाओ कि जो रातभर में पूरा न हो सके। दस घंटे तक बराबर चलता रहे। क्या ऐसा किस्सा किसी को याद है ? सभी को ऐसे याद होंगे कि मिनटों में पूरे हो जाएं, एक घंटे में पूरे हो जायें, और 10 घंटे में भी पूरा न हो सके ऐसा किस्सा किसी को याद है क्या ? नहीं याद है। तो हम सुनायेंगे रातभर तो न बोलेंगे पर थोड़ा बताये देते हैं कि इस तरह का किस्सा है। मत्री बोला, कि महाराज एक बार हम एक बाग में गए तो उस बाग में कई हजार इमली के पेड़ थे, और एक-एक पेड़ में 1-10 बड़ी डालियाँ थी, एक-एक डाली में 20-20 छोटी डालें निकली थीं और एक-एक छोटी डाली में 50-50 जिसके आधार पर पत्ते रहते ऐसी सींकें थीं। और एक-एक सींक मं 100-100 पत्ते थे। एक भंवरा आया तो एक पत्ते पर बैठ गया। राजा पूछता कि अच्छा फिर क्या हुआ ? मत्री बोला, कि भंवरा फुर्र से उड़ा सो पास के दूसरे पत्ते पर बैठ गया। फिर क्या हुआ ? फिर तीसरे पत्ते में बैठ गया। फिर ? फिर और पत्ते पर बैठ गया। अब बताओ रातभर तो क्या ऐसा किस्सा तो 6 महीने में भी पूरा नहीं हो सकता है। अरे ! कितने पत्ते होंगे उन इमली के पेड़ों में ? सो चाहे कितना ही बोलते जाओ, महीनों में भी किस्सा पूरा नहीं हो सकता। ऐसे ही कितनी जाति के तिर्यंच हैं ? गिनते जाओ। कुछ गिनती है क्या ?
महामोहमदपान का फल―तिर्यंच पर्यायों में जन्म लेना अज्ञानभाव में होता है, मोह भाव से होता है, जो मोह इतना-इतना प्रिय लग रहा है कि कल्पित अपने ही अपने को सुहायें, दूसरे को गैर मानें, ये ही मेरे सब कुछ हैं। तन, मन, धन, वचन सब कुछ अपने लड़कों के लिए, त्री के लिए, परिजन के लिए हैं, औरों के लिए कुछ बात ही नहीं है–ऐसा प्रबल मोह होता है, इस मोह का फल है ऐसी-ऐसी तिर्यंच पर्यायों में रुलते रहना। किसके लिए यह बड़ी शान और पोजीशन बनायी जा रही है ? ये दिखने वाले सब कोई साथ न जायेंगे। इनमें कुछ सार की बात नहीं है। ये सब स्वप्न जैसे दृश्य हैं। कोई किसी का सहायक नहीं है। बस जो पाप भाव बनाते हैं उनका फल ही हाथ आयेगा और बाह्य समागम ये कुछ भी हाथ न रहेंगे। ये तिर्यंच पर्याय व्यंजनपर्यायें हैं।
देवपर्याय की उत्पत्ति का साधन―देवपर्याय भी व्यंजन पर्याय है। केवल शुभ कर्म के द्वारा यह आत्मा व्यवहारदेव बनता है। ये सब परिस्थितियाँ व्यवहार से हैं, निश्चय तो पदार्थ के स्वभाव को ग्रहण करता है। देव वन में जो आकार है वह देवपर्याय है। देवपर्याय भी बहुत प्रकार की हैं। कितने तरह के भवनवासी देव, व्यंतरदेव, ज्योतिषीदेव और वैमानिकदेव हैं। इनका बहुत बड़ा विस्तार आगमों में लिखा हुआ है, करणानुयोग के शात्रों में लिखा है। विशेष जानना हो तो वहाँ से जान सकते हैं। कितनी प्रकार का यह व्यंजनपर्याय का प्रपंच है। यह तो सब एक व्यवहार दृष्टि करके जीव की जो-जो परिस्थितियाँ बनती हैं उनका वर्णन किया है।
पर्यायविस्तार जानने से ग्राह्य शिक्षा―भैया ! यह सब जानकर अपने को शिक्षा क्या लेनी है ? जिस अन्तस्तत्त्व के ज्ञान बिना जीव ऐसी-ऐसी पर्यायों में भटकता है उन सब पर्यायों का मूल स्रोतरूप जो निज अन्तस्तत्त्व है, चैतन्यस्वभाव है उस चैतन्यस्वभाव की दृष्टि करनी चाहिए। भले ही ये परिस्थितियाँ नाना प्रकार की है फिर भी इन परिस्थितियों के होने पर भी जो पुरुष शुद्ध दृष्टि करता है, परमतत्त्व के अभ्यास में जिसकी बुद्धि निपुण हुई है वह यह देखता है कि समयसार के अतिरिक्त मेरा अन्य कुछ स्वरूप नहीं है। ऐसा जानकर जो अपनी दृष्टि बनाये रहते हैं वे मुक्ति के अधिकारी होते हैं। यहाँ व्यंजनपर्याय के सम्बन्ध में सामान्यरूप से वर्णन करके अब विशेष रूप से इसका निरूपण करते हैं।