वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 19
From जैनकोष
दव्वत्थिएण जीवो वदिरित्तो पुव्वभणिदपज्जाया।
पज्जयणयेण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं।।19।।
ज्ञान दर्शन की शाखाओं का विस्तार―द्रव्यार्थिकनय से जीव पूर्व में कही हुई पर्यायों से भिन्न है और पर्यायार्थिक नय से यह जीव दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित है। जो शुद्ध है वह शुद्ध पर्याय से सहित है और जो अशुद्ध है वह अशुद्ध पर्याय से सहित है। जीव के सम्बन्ध में बहुत वर्णन चला है। पहिले तो उपयोग स्वरूप का वर्णन था और उसके विस्तार में स्वभावज्ञान, विभावज्ञान, कारण स्वभावज्ञान, कार्य स्वभावज्ञान, सम्यक्विभावज्ञान, केवलविभावज्ञान और दर्शन के सम्बन्ध में स्वभावदर्शन, विभावदर्शन, कारण स्वभावदर्शन, कार्यस्वभावदर्शन–ऐसे विस्तारपूर्वक गुणों और गुणपर्यायों को बताया है। और गुणपर्याय तथा व्यंजनपर्याय इन सबका माध्यमभूत जो अर्थपरिणमन है उसका वर्णन किया और व्यंजनपर्यायों का वर्णनकिया।
ज्ञानदर्शन की विस्तार विवेचना में शिक्षा―इस सब वर्णन के बाद अब शिक्षारूप में क्या ग्रहण करना है ? इस बात को इस पद्धति में बतला रहे हैं कि द्रव्यार्थिकनय से जीव पूर्वोक्त सर्व पर्यायों से भिन्न है। देखो ना कोई वकील गलती से बेहोशी से नशे में अपने ही खिलाफ बात बोल जाय, दूसरे वादी के अनुकूल बात बोल जाय, उस बात को बोलकर फिर यह कह देवे कि इतने में फिर हमारी नींद खुल गयी। विरोध-विरोध में ही सब बोले जिससे अपना मुकदमा खराब हो जाय और बोलने के बाद फिर कहे कि ऐसा देखा–इतने में नींद खुल गयी। ऐसी ही बात यहाँ हो गयी कि पर्यायों का वर्णन किया, स्वभाव को छोड़कर पर्यायों को विस्तृत किया और करने के बाद अब कह रहे हैं द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से कि ये जीव इन सब पर्यायों से भिन्न हैं।
यहाँ दोनों नयों की सफलता बतलायी जा रही है। भगवान अरहंत परमेश्वर के द्वारा भणित ये दो नय हैं–द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय ये परमेश्वर से आए हुए हैं, जैसे कहते हैं ना कि परमेश्वर के भेजे गए ये संदेश हैं। परमेश्वर से आये हुए संदेश हैं अर्थात् उनके उपदेश की परम्परा से चला आया हुआ यह निर्णय है। द्रव्यार्थिकनय कहता है कि जिसका द्रव्य ही प्रयोजन हो, द्रव्य ही देखने का मतलब हो। मतलब तो छोटी चीज है। मत का लब-मायने माने गये की छोटी-सी बात लवलेश जो मानता है, उसकी मामूली, रंच सी बात उसका नाम है मतलब और मतबल जो अपना मन होता है उसमें बल है, पुष्टि है। तो जिसका लक्ष्य एक द्रव्य देखने का हो उसे कहते हैं द्रव्यार्थिकनय और पर्याय ही जिसका प्रयोजन हो उसे कहते हैं पर्यायार्थिकनय। भगवान् का उपदेश एक नय के आधीन नहीं है। एक नय के आधीन ही हुआ उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं है क्योंकि इन दोनों नयों के आधीन हुई बुद्धि ग्रहण कहने के योग्य है। निरपेक्ष नय का विषय निर्णय में ठीक नहीं हो सकता।
एक नय की अग्राह्यता―एक नय के ही रखने में भले ही एक गौण रखें, एक मुख्य रखें पर दूसरे को कतई न मानना इतना जो एक सिद्धान्त है कोई नय का वह उपदेश ग्राह्य नहीं है। इस ही का तो फल है कि कोई क्षणिकवाद निकल आया, कोई अपरिणामवाद निकल आया, किन्तु हित की दृष्टि से एक नय प्रधान बनेगा, दूसरा नय गौण रहेगा। यह ठीक है पर जानकारी सब नयों की नहीं होती तो केवल एक नय की जानकारी का उपदेश ग्राह्य नहीं है।
द्रव्यार्थिकनय से जीव का स्वरूप―यहाँ बतला रहे हैं कि द्रव्यार्थिक नय से सब जीव उन समस्त पर्यायों से भिन्न हैं। द्रव्यार्थिकनय का कैसा बल है कि वह सत्ता को ग्रहण करने वाला है। द्रव्यार्थिकनय केवल द्रव्य को देखता है उस दृष्टि में पूर्वोक्त व्यंजनपर्यायों से ये समस्त जीव जिसमें मुक्त और संसारी जीवों का भेद नहीं करना है, सबको लेना है,वे सब इस दृष्टि में सर्वथा भिन्न ही है। अपेक्षा लगाकर बलपूर्वक ही बोलना चाहिए।
स्याद्वाद का चिह्न अपेक्षा और ही―जैसे किसी बालक के प्रति पूछा जाय, उसका पिता भी पास बैठ जाए और उसी से पूछ दें कि यह कौन है ? वह बतायेगा कि यह मेरा लड़का है। उस समय ऐसा ज्ञान करना चाहिये कि इसका लड़का ही है और ऐसा बोध करें कि इसका लड़का भी है। तो क्या वह और कुछ भी है। अपेक्षा लगाकर भी बोलने में अनर्थ हो जाता है। स्याद्वाद का चिह्न भी नहीं है, स्याद्वाद का चिह्न अपेक्षा और ‘ही’ है। दोनों का एक साथ प्रयोग है।
द्रव्यार्थिकनय से जीव की शुद्धता―द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से समस्त जीव पर्यायों से सर्वथा भिन्न ही हैं। अपेक्षा लगाकर ही लगाने में संकोच नहीं होता है, क्योंकि शुद्धनय से समस्त जीव शुद्ध ही हैं। यहाँ शुद्ध से मतलब केवल ज्ञानादिक शुद्धपर्यायों से नहीं है, केवल ज्ञानादिक शुद्धपर्यायों का जानना अशुद्धनय से होता है और स्वभावपरिणमन हो या विभावपरिणमन हो, सबसे व्यतिरिक्त केवल द्रव्यस्वभाव को जानना ही शुद्धनय का विषय है। यहाँ शुद्ध और अशुद्ध का अर्थ तो केवल शुद्ध है और केवल को छोड़कर अन्य बातें देखना अशुद्ध है। आध्यात्मिक ग्रन्थों में शुद्ध शब्द की व्याख्या जब तक स्पष्ट न हो, तब तक स्वाध्याय करते जाइये, कुछ पकड़ में न आएगा। अब तो केवल यही जानना पड़ेगा कि सभी जीव द्रव्यार्थिकनय से शुद्ध हैं। अरे हाँ! शुद्ध हैं। ये संसारी भी शुद्ध हैं क्या ? अरे, संदेह भी करने लगा, परन्तु शुद्धनय का सबसे बड़ा प्रयोजन है खालिश एक ध्रुवस्वभाव को निरखना ही। उस निरखने में अन्य कुछ और बातें दृष्ट ही नहीं होती हैं।
द्रव्यार्थिकनय का विषय प्रियतम―भैया ! द्रव्यार्थिकनय से क्या निरखा जा रहा है ? परमशरण पारिणामिकभाव ध्रुवस्वभाव अति अभीष्टतम पीतम है, पीतम मायने प्रियतम, जो सबसे अधिक प्रिय हो। अब तो वास्तविक प्रियतम को लोग भूल गए और जिसे जो अधिक प्रिय है, उस को ही प्रियतम कहने लगे। चाहे वह लाठी ही बरसाता हो, मगर वह है हमारा प्रियतम। अरे ! तुम्हारा प्रियतम तो तुम्हारे आत्मा में बसा हुआ ध्रुवज्ञानस्वभाव है, वही प्रियतम है। जितने भी अच्छे शब्द है, उनका मर्म तो लोग भूल गए और उनका अर्थ कुछ का कुछ लगा बैठे। अब बोलते हैं साइयां। सइयां, साइयां–यह शब्द बिगड़ा है स्वामी शब्द से। अरे ! आपका स्वामी कौन है ? आपका स्वरूप स्वस्वामीसम्बन्ध भिन्न द्रव्य मैं नहीं है, आपके स्वामी आप हैं और एक शब्द बोला जाता हैं खसम। उस खसम का अर्थ है–ख मायने इन्द्रिय, सम मायने शांत हो जायें, अर्थात् जहाँ इन्द्रियाँ शांत हो जायें मायने इन्द्रियविजयी साधुजन, संतजन, ज्ञानी लोग जो हैं उनका नाम है खसम और उनको छोड़कर अपने मनमाने का नाम रखने लगे। वल्लभ, बालम, बल्लभ शब्द से बना, जो प्रिय हो। तो जितने भी प्यार के शब्द हैं वे सब आत्मस्वभाव के लिए घटित हैं पर वहाँ से दृष्टि उड़ गई तो जो कुछ समझ में आया उसी को ही ये शब्द बोले जाते हैं। सर्व जीव शुद्धनय से शुद्ध ही हैं। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय से जीव का वर्णन करके अब पर्यायार्थिक नय में यह जीव कैसा दृष्ट होता है इसका वर्णन चलेगा। यह गाथा इस अधिकार के उपसंहाररूप है। इसमें विभावपर्यायों का और स्वभावपर्यायों का कुछ आगे वर्णन होगा।
नयों की अपेक्षा से पर्यायों से आत्मा की संयुक्तता व विविक्तता―द्रव्यार्थिकनय से तो समस्त जीव शुद्ध हैं अर्थात् मात्रज्ञानस्वभावी है और पर्यायार्थिकनय से विभावव्यंजन पर्याय की अपेक्षा वे सब जीव संयुक्त हैं। इनमें सब जीवों में विभावव्यंजन पर्यायें अपर्यायें सिद्ध होती है, किन्तु ऐसा है नहीं। सिद्ध जीवों का तो अर्थपर्यायों के साथ परिणमन है, व्यंजन पर्यायों के साथ नहीं है। यहाँ व्यंजन पर्याय व्यक्त पर्याय को माना है। जिसमें अंजन लगे हुए की तरह पर का सम्बन्ध हो अथवा वि अंजन, विशेष अंजन हो, उसे व्यंजन कहते हैं, इस दृष्टि से नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव व्यंजनपर्याय कहलाते हैं।
सिद्धों के व्यञ्जन पर्याय मानने या न मानने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर―व्यञ्जन पर्यायों से सहित होना पर्यायार्थिक नय से है, ऐसा सिद्धान्त उपस्थित होने पर यह शंका होती है कि सब जीवों को दोनों पर्यायों से संयुक्त कैसे बताया गया है ? सिद्ध भगवान् तो सदा निरञ्जन हैं। न बाह्य अञ्जन है, न कर्म अञ्जन है, न विभाव अञ्जन है फिर यह बात कैसे घटित होती कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक–इन दोनों नयों में सब जीव सदा संयुक्त हैं। प्रत्येक जीव में द्रव्यार्थिकनय की भी बात है और पर्यायार्थिक नय से भी ऐसी बात है और पर्याय को माना है व्यञ्जन पर्याय। उसके उत्तर में ऐसा जानना कि प्रथम तो व्यञ्जनपर्याय सिद्ध भी कहा जा सकताहै, शुद्ध शुद्धव्यञ्जनपर्याय। शरीरादिक सम्बन्ध से रहित आत्मप्रदेश के विस्तारात्मक शुद्धव्यञ्जन पर्याय है इसलिए पर्यायार्थिकनय से भी वह संयुक्त है और यहाँ व्यञ्जनपर्याय से मतलब चतुर्गति में शरीरों में लिया जाय तो सिद्ध भगवान् के नैगमनय की दृष्टि से व्यञ्जनपर्याय कह सकते हैं। नैगमनय का अर्थ है निर्विकल्पग्राही नय में जो विकल्प हो, संकल्प हो, आशय हो उसमें होने वाला जो परिज्ञान है वह नैगमनय है।
सिद्धों में व्यञ्जनपर्याय को सिद्ध करने वाली अपेक्षा―नैगमनय तीन प्रकार का होता है–भूतनैगम, वर्तमाननैगम और भावीनैगम नय तो भूत नैगमनय की अपेक्षा भगवान् सिद्ध में भी व्यञ्जनपर्याय और अशुद्धपना सम्भव होता है। यह जीव तो वर्तमान में अशुद्ध वही है किन्तु जो पहिले अशुद्धपर्याय थी तो भूतपर्याय की अपेक्षा व्यञ्जन पर्याय की बात कही जा सकती है, क्योंकि वह भगवान् पूर्वकाल में व्यवहारनय से संसारी था, बहुत क्या कहे, दोनों नयों को सब जीवों में बताया है और दोनों नयों के बल से सभी जीव शुभ और अशुभ हैं, विवक्षाएँ यथासम्भव लगाना चाहिए। यहाँ यह बतलाया जा रहा है कि भगवंत सर्वज्ञदेवविषयक बोध दोनों नयों के आधीन है। एक नय की बात नहीं है। जो प्रतिपक्षी नय की बात भुलाकर केवल एक नय से ही माना है उसको परिज्ञान निर्दोष नहीं होता है।
नयद्वय का गुंथन―भैया ! दोनों नय ऐसे एक साथ गुथे हैं कि उनको मना ही नहीं किया जा सकता है। जैसे आपसे पूछें कि यह क्या है ? तो आप बोलेंग कि यह घड़ी है। यह घड़ी है, इसका ही अर्थ यह है कि यह घड़ी के अलावा और कुछ नहीं है। दोनों बातें एक साथ गुंथी हुई हैं कि नहीं ज्ञान से या केवल यह ही एक बात है कि घड़ी है ? और घड़ी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ? यह बात भी है कि नहीं है ? यदि यह बात नहीं है तो इसका अर्थ है कि और कुछ भी हो गया है, चौकी आदिक हो गया है। और जब और कुछ हो गया तो यह घड़ी है ऐसा जो पहिला पक्ष है वह भी खण्डित हो गया। कुछ भी बात बोले, उसमें दोनों नय तो एक साथ लगे ही है। कुछ भी तो बोला जायेगा ना जो कहा जायेगा वह तो है और उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है–ये दोनों बातें एक साथ उसमें आयी है या नहीं ? उसी में आयीं। तो यही तो दोनों नयों की व्याप्तता हुई।
किसी भी वस्तुधर्म की साधना में सप्त भंगों की अनिवार्यता―भैया ! और भी देखो–कुछ भी एक बात हो वहाँ 7 बातें एक ही बात में हो ही जाती हैं। जैसे कहे कि यह घड़ी है, तो इसमें दूसरी बात क्या सामने आयी कि यह अघड़ी नहीं है अर्थात् घड़ी के अलावा अन्य चीज नहीं है। फिर पूछा गया कि अच्छा तुम एक बात बताओ, हमें दो बातें न चाहियें। यह घड़ी है और अघड़ी नहीं है–इनमें तुम एक कोई बात यथार्थ बताओ। तो वह हो गया अवक्तव्य तो अब तीन बातें आ पड़ी कि नहीं। तुम एक प्रस्ताव रखो, कुछ भी अस्तित्व बताओ, जरा भी जीभ हिलाओ तो हिलाने के ही साथ तीन स्वतंत्र बातें आकर खड़ी हो ही जायेंगी। एक जो बात बतायी गयी उससे खिलाफ और एक जो बतायी गयी वह और एक अवक्तव्य। तब ये तीन भाग हो जाते हैं। तो जहाँ तीन स्वतंत्र बातें हैं उनके मिलान चार हुआ करते हैं। इसी तरह इन तीन धर्मों के मिलान भी चार हैं। यों तो तीन स्वरूप आर चार मूल हुए, ऐसे 7 धर्म हो जाते हैं।
सप्तभंग पर दृष्टान्त―तीन चीजें रख लो–आम, नमक, मेथी, इन तीनों चीजों को तुम अलग-अलग खा सकते हो, आम को केवल खाओ, नमक अलग खा लो, मेथी अलग खा लो। और दो-दो मिलाकर खाओ तो आम नमक खाओ, आममेथी खा लो और नमक मेथी खालो, तीनों बातों का मिलान करलो। तीनों का मिलान एक है तो इस तरह आप 7 स्वाद ले लेंगे। एक स्वतंत्र धर्म हो तो उसके धर्म 7 होते हैं और कदाचित् चार स्वतंत्र धर्म हों तो उसके स्वाद 15 हो गए।
भङ्ग निकालने की विधि―जितनी चीजें हों इतनी बात दो-दो रखो यदि तीन के भंग जानना है तो तीन जगह दो-दो रख दो और उनका आपस में गुणा करके एक घटा दो। दो-दूनी चार, चार दूनी आठ और एक कम कर दो तो रह गए 7। और 5 चीजें हों तो पाँच बार दो-दो रख दो–दो दूनी चार, चार दूनी 8, 8 दूनी 16 और 16 दूनी 32, ठीक है, 32 में 1 घटा दो, 31 का स्वाद आ जायेगा। तीन जब स्वतंत्र धर्म होने ही पड़ते हैं तो बात करने में जीभ हिलाने में कोई रोक नहीं सकता है तो उसके विस्तार में 7 भंग बन जाने अनिवार्य हैं। स्याद्वाद और सप्तभंगी अनिवार्य हैं, इन्हें कोई रोक नहीं सकता।
वचन में सप्रतिपक्षता का गठन―हम कौन है ? आदमी है। इसका अर्थ यही हुआ ना कि हम सिंह, हाथी, घोड़ा, बैल आदि कुछ नहीं है, सिर्फ आदमी है। दो बातें अपने आप आयीं कि नहीं आयी ? हम पुरुष है, इस का ही अर्थ हुआ कि पुरुष के अलावा पशु-पक्षी आदि कुछ नहीं है। इन दोनों को मानोगे या नहीं ? अच्छा, एक बात कुछ न मानकर बताओ। हम आदमी है, यह बात मानने लायक है कि नहीं है या झूठ कह रहे हैं ? मान लायक है और हम हाथी, शेर, घोड़ा, बैल कुछ नहीं है। यह मानने लायक बात है कि नहीं ? इन तीनों में से यदि एक कुछ नहीं माना गया, क्या नहीं माना गया ? यह आदमी है–ऐसा नहीं माना गया, तो आदमी ही नहीं रहा। आदमी के अलावा अन्य कुछ नहीं है–ऐसा नहीं माना गया। यदि यह सिंह, हाथी आदि बन जाएगा तो अभी यहीं आफत मच जाएगी। वचन में सप्रतिपक्षता की ऐसी गठित व्यवस्था है कि यदि उनमें स्याद्वाद का गठन नहीं है तो सब छितरा है, कुछ न रहेगा।
स्याद्वाद या निर्विकल्पता―भैया ! या तो अन्तर्बहि पूर्ण चुप बैठो और बोलो तो स्याद्वाद मानों या निर्विकल्प बन जाओ। कोई जरूरत नहीं है स्याद्वाद की पकड़ करने की। करो ज्ञानानुभव, पर दूसरों के लिए समझाने चले या अपने को भी समझाने चले व स्याद्वाद न माना तो काम न चलेगा। दोनों नयों का विरोध मिटा देने वाला यह स्याद्वादचिह्नित जिनेन्द्रवचन है। जीव नित्य है या अनित्य है ? सदा रहता है या क्षण-क्षण में मिटता जाता है ? द्रव्यार्थिक दृष्टि में सदा रहता है, यह विदित है और पर्यायार्थिक में क्षण-क्षण में होता है–ये दोनों बातें कितने विरोध की कही जा रही है, पर कोई विरोध नहीं है। नित्य की बात अनित्य की बात माने बिना नहीं बनती और अनित्य की बात नित्य की बात माने बिना नहीं बनती–ऐसा वस्तुस्वभाव है।
दृष्टान्तपूर्वक नयद्वय की अनिवार्य सहयोगिता―जैसे कोई पुरुष ऐसा ढूंढो कि जिसके पीठ हाथ हों, और पेट न हो। क्या है कोई ऐसा ? कोई मिले तो लाओ। कोई ऐसा नटखटी लड़का हो तो उसे पकड़कर लाओ। कोई न मिलेगा। अगर पेट नहीं है तो पीठ नहीं है और अगर पीठ नहीं है तो पेट नहीं है। तो जैसे पीठ और पेट दोनों का ऐसा अनिवार्य सम्बन्ध है कि हटाया नहीं जा सकता, इसी तरह पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक दोनों नयों का ऐसा अनिवार्य सम्बन्ध है कि वस्तु में दोनों ही बातें गुण्ठित हैं। दोनों नयों की बातें पायी जाती है। दोनों नयों का विरोध मिटा देने वाला स्याद्वादचिह्नित जिनवचनों में जो पुरुष निर्मोह होकर रमण करता है, वह शीघ्र इस समयसार को प्राप्त करता है। कोई नई बात नहीं है, जिसे प्राप्त की जा रही हो, किन्तु वही पुरानी बात है, जो अनादि से है। उसकी प्राप्ति की बात कहते हैं, जो कुनयपक्ष से अखण्डित है अथवा नयपक्ष से भी अखण्डित है–ऐसे कारणसमयसार को वह पुरुष देख ही लेता है।
दिये के तले व ऊपर भी अन्धेरा―भैया ! जगत् में अन्य समस्त वैभवों का मिलना सुगम है, किन्तु एक निज का यथार्थ परिज्ञान होना बहुत दुर्लभ बात है। खुद ज्ञानमय हैं और खुद को अपनी ज्ञानमयता का पता न पड़े, यह कितने अन्धेर की बात है ? इसे कहो दिया तले अन्धेरा। आजकल तो दिया के ऊपर अन्धेरा रहता है। यह जो बल्ब जल रहा है, यह तो वही दिया है, जिसके ऊपर अन्धेरा रहता है। आजकल के दिये उल्टे हो गए, अब उनके ऊपर अन्धेरा है और जो पहिले दिये जलते थे, उनके नीचेअन्धेरा था। अब ऐसा जमाना मिश्रण का हो गया कि ऊपर भी अन्धेरा और नीचे भी अन्धेरा। तो यों समझ लो कि ज्ञान के मार्ग में मोही जीवों के लिए ऊपर भी अन्धेरा व नीचे भी अन्धेरा है। सो ऐसा मोह हो रहा है कि यह स्वयं तो ज्ञानज्योतिर्मय है और स्वयं को ही यह जान नहीं पाता है।
आत्महित के प्रयोजन की धुनि―ज्ञान के मार्ग में दोनों नयों के आधीन उपदेश को ग्रहण करना चाहिए। अपने प्रयोजन की धुन रखो और सब नयों की बातों में हाँ कहो। जब आप अपने जीवन में धुनि तो अपनी ही रखते हो, मगर सुन सबकी लेते हो–हलो ! हलो ! ठीक है, यह भी ठीक है और धुनि अपनी रखते हो तो यहाँ भी अपनी धुनि रखो स्वभावदृष्टि की। जो कोई हित के लिए उपदेश करता हो, हाँ बिल्कुल ठीक है। वह भी स्वरूप है, हाँ यह भी स्वरूप है, पर धुनि रखो कारणसमयसार के आलम्बन की। जैसे बहुत गप्पों में लगकर भी अपने प्रयोजन की बात आप नहीं भूला करते हैं, इसी तरह सर्वप्रकार के कांडों में लगकर भी ज्ञानी प्रयोजन की बात नहीं भूलते हैं ज्ञान में। जो दो नयों के सम्बन्ध में नीति का उल्लंघन नहीं करता और इस प्रकार की परिणति से परमतत्त्व का परिज्ञान करके फिर नयपक्ष से अतीत होकर परमभाव में मग्न होता है–ऐसा ही सत्पुरुष उस समयसार को शीघ्र प्राप्त कर लेता है।
जैनसिद्धान्त में समग्रवस्तुदर्शन―जितने भी जो कुछ दर्शन हैं, वे सब जैन आगम में लिखित हैं। बौद्ध वेदांती, नैयायिक, मीमांसक सबका दर्शन जैन आगम में अन्तर्निहित है, परखने वाला चाहिए। जहाँ स्याद्वाद की विवक्षा छोड़ दी गई है, वहाँ यह एकांतरूप से प्रकट होकर दुनिया में निराला प्रसिद्ध हो गया है, किन्तु कोई दर्शन निराला अलग नहीं है, सब वस्तुस्वरूप से सम्बन्ध रखता है। एक हिंसाकांडों की बात छोड़कर अर्थात् जो वस्तु की ही बात है, वे सब बातें जैनआगम में पायी जाती है। द्रव्यार्थिकनय ही तो वेदांत सांख्य आदि सिद्धान्तों को बताता है और पर्यायार्थिकनय ही तो बौद्ध व अन्य क्षणिकवाद सिद्धान्त को बताता है। निराली चीज हैं कहाँ अलग ? पर दोनों नयों के आधीन उपदेश को ग्रहण करें तो उन सबको निचोड़ पा सकते हैं और फिर सबको छोड़कर निर्विकल्प समाधि जग सकती है।
स्याद्वाद बिना व्यवहार की असंभवता―स्याद्वाद के बिना तो व्यवहार में, घर गृहस्थ में भी काम नहीं चलता है। नातेदारी, रिश्तेदारी–ये सब स्याद्वाद के ही तो आधीन है। नातेदारी तो आधीन नहीं है, पर रिश्तेदारी आधीन है। रिश्तेदारी और नातेदारी में अन्तर है। रिश्तेदारी तो वह कहलाती है कि यह मेरा कुछ है और नातेदारी का अर्थ है–न मायने नहीं, ते मायने तुम्हारा, तुम्हारा नहीं है–ऐसी बात को नातेदारी कहते हैं। अब जगत् की रीति तो देखो–मुख से तो कहते जाते हैं कि ये मेरे नातेदार हैं अर्थात् ये हमारे कुछ नहीं है और उन्हें ही अपना मानते जाते हैं। यह पिता है, पुत्र है, भतीजा है, एक ही पुरुष सब कुछ बन जाता है तो अपेक्षा ही तो जुदा-जुदा है।
स्याद्वाद का एक दृष्टान्त―चार अंधे बोले कि चलो हाथी की खोज करें कि कैसा होता है ? टटोलते-टटोलते एक हाथी मिला तथा एक के हाथ में सूंड पड़ गयी तो वह कहता है कि हाथी तो मूसल जैसा होता है। एक के हाथ में पेट लग गया तो वह कहता है कि हाथी तो ढोल जैसा होता है। एक के हाथ में कान पड़ गया तो वह कहता है कि हाथी तो सूप जैसा होता हैं। एक के हाथ में पैर आ गए तो कहता है कि हाथी तो खम्भा जैसा होता है। यह चार अन्धों की बात कह रहे हैं। अब वे चारों आपस में लड़ने लगे। एक कहता है कि हाथी सूप जैसा होता है, दूसरा कहता है कि तू झूठ बोलता है, वह तो ढोल जैसा होता है। इस तरह से चारों परस्पर में झगड़ने लगे। कुछ समय बाद एक घुड़सवार निकला। पूछा कि क्या मामला है। चारों ने अपनी-अपनी बात रखी। सभी कहें कि अजी ! ये तीनों झूठ बोलते हैं, हाथी तो ऐसा होता है। उसने समझाया कि भाई ! लड़ो नहीं। इसने कान पकड़ा तो सूप जैसा लगा, इसने पेट पकड़ा तो ढोल जैसा लगा, इसने पैर पकड़ा तो खम्भा जैसा लगा और इसने सूंड पकड़ी तो मूसल जैसी लगी। मूसल जानते हो किसे कहते हैं ? मूसल में कोई भी कला नहीं है, उठे और गिरे, इतना ही करना जानता है। अब उसने चारों अन्धों को ढंग से समझाया। तो उन चारों का यह झगड़ा स्याद्वाद ने मिटा दिया।
भैया ! लोग एक दूसरे के आशय का तो आदर नहीं करते, उनकी दृष्टि नहीं परखते और मन के मुताबिक अर्थ लगाते हैं तो इसी से व्यक्तियों में परस्पर में झगड़ा होने लगता है। अन्य जगह, अन्य दर्शन, अन्य खोजों से क्या करना है ? एक स्याद्वादचिह्नित जैन आगम में वस्तुस्वरूप के सम्बन्ध में सभी दर्शन है, सो वस्तुस्वरूप के परिज्ञान का अभ्यास करो। उन दोनों नयों की विवक्षा अनुसार प्रयोग करो और वस्तुस्वरूप को सही पहिचानो। अच्छा, यह तो पहिले बताओ कि सिद्धभगवान् मुक्त हैं या नहीं। सिद्धभगवान् मुक्त होंगे ना। ये मुक्त हैं भी और नहीं भी। अरे ! मुक्त कर्मों से ही तो हैं कि ज्ञान से भी मुक्त हो गए क्या ? ज्ञान से मुक्त नहीं है। जब हम मुक्त जैसी बात को भी स्याद्वाद से सप्रतिपक्ष जान लेते हैं तो फिर अन्य बातों का विवाद क्या है ? सब जाना जा सकता है और कोई स्वयं बाह्य बातें बोले तो यों जान लो कि आशय से तो ऐसा ही है। इसलिए वस्तुस्वरूप को दोनों नयों से भी परखिये और परखकर फिर जो एक वस्तुगत शाश्वत सहजस्वरूप दीखा, उसमें रत हो जाइये, यही उपदेश की सार ग्रहण करने की पद्धति है।
नियमसार प्रवचन प्रथम भाग समाप्त