वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 49
From जैनकोष
एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्व भणिदा हु।
सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा।।49।।
सम्यग्ज्ञान की नयद्वयायत्तता—जितने पहिले सारे भाव बताए गए हैं कि इस आत्मा में नहीं हैं, वे सब भाव व्यवहारनय का आश्रय करके देखे जायें तो सब हैं, पर शुद्धनय का आलम्बन करके निरखते हैं तो संसार अवस्था में भी ये जीव सब सिद्ध के स्वभाव वाले हैं। ज्ञान में शुद्धद्रव्य का भी बोध होना चाहिए और इस ही परिणतियों का भी यथार्थज्ञान होना चाहिए। केवल शुद्ध स्वभावमात्र आत्मब्रह्म को जाने और परिणतियों का निषेध करे तो उसका ज्ञान यथार्थज्ञान नहीं है और फिर एक झूठ बात आने पर उस झूठ के समर्थन के लिए दसों झूठ रचना करनी पड़ती है। एक अलग से कोई माया है, वह इस परमार्थ को ढके हुए है, यह सब तो एक माया का रूप चल रहा है। यह ब्रह्म तो सर्वथा शुद्ध ही है। अच्छा यह माया कौन है, कहां है, किस ढङ्ग की है? न भी समझ में आये तो भी मान्यता तो है, बनाया ही तो है सब कुछ। इस सम्बन्ध में तथ्य की बात क्या है? इस तथ्य की बात को सुनिये।
स्वभाव और वर्तना—यही आत्मद्रव्य अपने स्वरूप में शुद्ध ब्रह्मरूप है और यही आत्मद्रव्य उपाधि का सन्निधान पाकर रागादिकरूप, मायारूप परिणत हो रहा है। सर्वथा शुद्ध मान्यता में इस अशुद्ध माया का विवरण करने पर कुछ वर्णन भिन्नरूप किया जाता है तो फिर कभी यह भी कह दिया जाता है कि उपाधि का सन्निधान होने से इस आत्मा में ये रूप-रंग-तरंग रागद्वेष आ जाते हैं, कभी कहना पड़ता है कि झलक जाते हैं। निमित्तनैमित्तिक भावों में बात सब जगह एकसी बतायी है, पर कहीं नैमित्तिकता का परिणमन स्पष्ट समझ में आता है, कहीं नैमित्तिकता का परिणमन कुछ ऊपर लोटता सा ज्ञान होता है, कहीं आत्मा में यों भी नहीं नजर आता है, झलकता सा नजर आता है, किंतु जितने नैमित्तिक परिणमन हैं, वे सब उपादान के परिणमन हैं।
नैमित्तिकों के विशदपरिचय में तारतम्य पर दृष्टान्त—जैसे आग का सन्निधान पाकर पानी गरम हो गया तो बताओ पानी में गरमी भर गयी या नहीं? खूब समझ में आता है कि भर गयी गरमी। सारा पानी गरम हो गया। जब दर्पण को देखते हैं तो हमारा चेहरा उस दर्पण में प्रतिबिम्बित होता है तो पूछा गया कि बताओ इस आईने में तुम्हारा चेहरा रूप जो भी वहाँ परिणमन है छायारूप, प्रतिबिम्बरूप यह दर्पण में बन गया ना? तो जल की गरमी की अपेक्षा कुछ कम समझ में आता है और ऐसा लगता इस दर्पण में बिम्ब परिणमन क्या हुआ? यह तो दर्पण पर लोट रहा है। जल की गरमी की तरह दृढ़ता पूर्वक परिणमन की बात नहीं बतायी जा सकती है। हाथ को खूब हिलाकर फिर हटा लो, फिर सामने दर्पण को कर लो और उसही तरह वह छाया हो गयी, नहीं हो गयी—ऐसे नानारूप वहाँ हैं ना, इससे जरा कम समझ में आता है। जल में तो गरमी डटकर पड़ी है पर दर्पण में प्रतिबिम्ब कहां है, यह कुछ कम समझ में आता है। अब तीसरी बात देखिये, कोई मोटा कांच जिसके आगे पीछे कोई लेप न लगा हो ऐसे उस मोटे कांच के पीछे लगा दें अथवा स्फटिक पाषाण के एक ओर यदि लाल, पीला पाषाण लगा दें तो वह लाल, पीला नजर आता है वह कांच या स्फटिक उसका यह परिणमन दर्पण की अपेक्षा भी बहुत शिथिल समझ में आता है। देखो यह लाल, पीला कांच परिणम गया ना, तो दर्पण में भी यह रंगमय दिखता था, किन्तु यहाँ कहां परिणम गया? नजर आ गया। परिणमा तो है ही नहीं। दर्पण में तो कुछ परिणमा सा समझ में भी आता था, पर इस कांच में तो समझ में ही नहीं आ रहा है। लेकिन चाहे पानी की गरमी हो, चाहे दर्पण का प्रतिबिम्ब हो और चाहे स्फटिक में झलका हो, वह सब नैमित्तिक भाव है और अपनी उपाधि का सन्निधान पाकर हुए हैं। उपाधि के दूर होने पर दूर हो जाता है।
आत्मा में नैमित्तिकों के विशदबोध में तारतम्य—यों ही इस आत्मद्रव्य में कोई तो कहते हैं कि आत्मद्रव्य पूरा रागद्वेषमय हो गया—वहाँ शांति का, ज्ञान का, विवेक का रंग ढंग, नाम निशान नहीं पाया जाता है, ऐसा डटकर अज्ञानी बहिर्मुख हो गया है, अपने स्वरूप को ही खो बैठा। तो किन्हीं की दृष्टि में ऐसा नजर आता कि जब कोई निमित्त सामने होता है, आश्रय आता है तब यह विपरीत परिणम जाता है और निमित्त गया सो मिट गया, तो कोई यह कहते हैं कि यह परिणमा कुछ नहीं है, यह तो एक झलक सी मालूम हुई है रागद्वेष की। हुआ कुछ नहीं है। पर तीनों की बातें अपनी-अपनी दृष्टि में यथार्थ है। लेकिन परिणमन नहीं है और यह आत्मब्रह्म परिणमनशून्य है, यह बात प्रमाणभूत नहीं है। दृष्टिभेद से उसकी तीव्रता, शिथिलता व उनमें अभाव भी समझा जाना दोषकारक नहीं है, किन्तु किसी एक दृष्टि की ही बात को सर्वथा हठ करके मान लेना यह दोषकारक है।
शक्ति और व्यक्ति का सद्भाव—इस प्रकरण में अब तक जो दिखाया गया है कि इसमें भाव भी नहीं है, मार्गणा भी नहीं है, कर्म नहीं, नोकर्म नहीं, कुछ परतत्त्व नहीं। जिन सबका निषेध किया गया है वे सबके सब विभावपर्यायें व्यवहारनय की दृष्टि से अवश्य है। जो यह मानते हों कि मेरे में विभावपर्यायें विद्यमान नहीं हैं तो उसने अभी द्रव्य का स्वरूप नहीं जाना क्योंकि जो भी द्रव्य होता है वह किसी न किसी परिणति को लिए हुए होता है। मानो विभावपरिणति नहीं है। तो क्या सिद्धांत अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि रूप परिणमते हैं हम सब? कुछ तो परिणति मानो ! यदि यह कहा जाय कि हाँ मुझमें शुद्ध विकास अनन्त ज्ञानादिक परिणमते हैं तो यह तो प्रकट झूठ है। कहां है केवल ज्ञान परिणमना? अगत्या यह वर्तमान विभावपरिणमन आत्मद्रव्य में यहाँ मानना पड़ेगा।
विज्ञान में स्याद्वाद का उपकार—जैन सिद्धान्त का स्याद्वाद कितना अमोघ उपाय है वस्तु विज्ञान का कि जिसका आश्रय लिए बिना वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। जैनसिद्धान्त में यह सर्व वस्तु सिद्धान्तों का समन्वय है, यों कह लीजिए अथवा जैनसिद्धान्त में से एक-एक अंग को लेकर अन्य सर्वसिद्धान्त हुए हैं, यों कह लीजिए। प्रयोजन यह है कि वस्तु का स्वरूप स्याद्वाद का आश्रय लिए बिना जाना नहीं जा सकता। जो भी सत् होगा वह नियमत: गुणपर्यायात्मक होगा। केवल गुणस्वरूप ही सत् कोई नहीं है, केवल शक्तिरूप ही पदार्थ कोई नहीं है। उसकी कुछ न कुछ व्यक्ति, कुछ न कुछ दशा, कुछ न कुछ परिणमन अवश्य होगा। तो इस आत्मतत्त्व के बारे में परम शुद्ध निश्चय नय से सर्वभावों का निषेध किया गया है। वे सब भाव व्यवहारनय से प्रसिद्ध हैं।
यथा रोगउपचार—किसी गरमी के रोग वाले को शीतल दवाइयों का उपचार पहिले अधिक करना पड़ा, सो अब वह शीत रोग में आ गया। अब गर्म उपचार की जरूरत पड़ गई है। यों ही उस निश्चयनय के आदेश से जो कि हमारे लिए परमार्थत: उपादेय है उस शुद्धस्वरूप को सुनकर कहीं यह जिज्ञासु शिष्य सर्वथा एकांत न मान ले, वह एकदम विपरीत उत्पथ पर न पहुंच जाय, इस कारण इस गाथा में पहिली पंक्ति में व्यवहारनय की बात कहकर आचार्यदेव उसका परिज्ञान कराते हैं कि ये सब विभाव व्यवहारनय की अपेक्षा आत्मा के ही परिणमन हैं और इस ही गाथा में फिर दूसरी पंक्ति में शुद्धभावाधिकार में विस्तृतरूप से कही गई बात में वही बात कहते हैं कि संसार अवस्था में भी जीव शुद्धनय से सिद्ध सदृश शुद्धस्वभाव वाला है।
निश्चय परमौषधि की प्रमुखता—इस जीव ने अनादि काल से व्यवहार-व्यवहार को ही जकड़ा, निश्चय का तो कभी दर्शन ही नहीं किया और व्यवहार को ही सर्वस्व मानकर चला। ये इतना व्यवहार का पुराना रोगी है, जैसे पुराने तपेदिक का मिटाना बड़ा कठिन हो जाता है ऐसे ही अनादिकालीन पर्यायबुद्धि का यह रोगी है। इसका रोग मिटाने के लिए शुद्धनय की औषधि को अधिक कहना ही चाहिए, देना ही चाहिए और इसी शुद्ध नीति के अनुसार आचार्यदेव ने इस शुद्ध भावाधिकार में अब तक परमार्थदृष्टि से परमब्रह्म का वर्णन किया। अब इस प्रकरण के अंत में जबकि थोड़ा उपसंहारात्मक कहना ही शेष रह गया जो कि अब 5 गाथावों में और आगे चलेगा, उसमें अब व्यवहारिक भी कथन करके उसे निज के निकट करेंगे। पर जो वास्तविक बात है स्वभाव की बात है वह बात टाली नहीं जाती। व्यवहार का वर्णन करके भी फिर निश्चय की बात तुरन्त कहना ही पड़ता है। एक तो यह बात है कि आचार्यदेव उस शुद्ध आत्मस्वभाव के रुचिया थे, किन्तु अनादि व्यवहार विमूढ़ रोग के रोगी को संबोधन के प्रसंग में कभी व्यवहारकथन भी इन्हें करना पड़ता है।
अध्यात्मरंग की रुचि—एक रंगरेज था। वह आसमानी रंग की पगड़ी रँगना बढ़िया जानता था। उसके पास कुछ लोग आए, बोले बाबा हमारी पगड़ी रंग देना, अच्छी रंग देना। हमारी पगड़ी पीले रंग की रँगना। अच्छा हमारी पगड़ी हरे रंग में रँगना। अच्छा हमारी पगड़ी सुवापंखी रंग में रँगना। कहा बहुत ठीक सबकी पगड़ी रख लेने पर कहता है अब वह अंत में कि चाहे पीली रंगावो, चाहे सुवापंखी रंगावो, पर बढ़िया रंग रहेगा आसमानी। उसकी दृष्टि में दूसरा रंग ही न था। यों ही आत्मदर्शी ज्ञानीसंत पुरुष को दृष्टि में यह शुद्ध ज्ञायकस्वभाव रुच गया है सो किसी प्रकरणवश, किसी कारणवश दूसरों को समझाता है इस प्रयोजन से व्यवहारनय का रंग भी रंग दिया है। किंतु अंत में उनका वक्तव्य यही होता है कि रंग तो बढ़िया है यह शुद्ध अध्यात्म परिचय का।
अध्यात्मरुचि व व्यवहार का आलम्बन—अध्यात्म स्वभाव के अनुसार संसार अवस्था में भी ये जीव जो कि विभाव भावों से परिणमते हुए ठहरते हैं वे सब जीव भी सिद्ध के गुण के सदृश हैं शुद्धनय की विपक्षा से, फिर भी पहली पदवी में जब हम धर्म में प्रवेश करते हैं तो व्यवहारनय का आलम्बन करना इनके लिए हस्तावलम्बन की तरह है। जैसे कोई सीढ़ियों पर बहुत ऊपर चढ़ा हुआ हो और नीचे वालों से कहे कि अरे-अरे सीढ़ियों पर संभलकर पैर रखकर आना ऐसा उसे कहना पड़ता है। अध्यात्मयोग में वर्त रहे ज्ञानीसंत कुन्दकुन्दाचार्यदेव मानों संकेत में खेदपूर्वक कह रहे हों कि पहिली पदवी में तो व्यवहारनय का ही आश्रय करना, लेकिन फिर भी व्यवहारनय को ही सर्वस्व मानकर आश्रय करोगे तो जैसे नागनाथ और साँपनाथ दोनों बराबर है—नाम भेद है कि इसने धर्म कर लिया। जिसने नहीं धर्म किया वह और जो कल्पित धर्म कर रहा है उन दोनों का एक नाम है यदि व्यवहार को ही सर्वस्व मान लिया तो।
व्यवहाराश्रय में अध्यात्मदृष्टि की आवश्यकता—भैया ! व्यवहारनय का आश्रय रखिये, किन्तु वहाँ भी यह समझिए कि चैतन्य चमत्कारमात्र समस्त परभावों से विविक्त इस आत्मतत्त्व को जो नहीं देखते हैं, उनके लिए ये सब कुछ थोथी बातें हैं। धर्म के प्रयोग में शुद्ध ज्ञान की प्रगति का उपाय न कोई करे तथा और जितनी देव, शास्त्र, गुरु की पूजा रटी हुई है, जो 8 वर्ष की उम्र में सिखाई गयी थी और अब 80-81 की उमर हो जाने पर भी उतना का ही उतना सब कुछ है, इसके अतिरिक्त तत्त्व की बात, ज्ञान की बात अन्य कुछ नहीं आयी है, न अन्तर में उस स्वभाव के स्पर्श के यत्न की धुन बन पायी है और न कोई विज्ञान की प्रगति हुई है तो जो तब था अब भी वही है, कोई विशेषता नहीं बनी है—यह सब व्यवहारनय की बात है। उसका आलम्बन करना गृहस्थ को उचित है, ठीक है, किन्तु क्या इतना ही करना कृतकृत्यता में शामिल होगा। मोक्षमहल को निकट बना लेगा क्या? उत्तर दीजिए। आवश्यक है सबको कि बड़े ढङ्ग से बाह्यवस्तुवों में ममता को त्याग कर केवल आत्महित का नाता समझकर धर्मप्रगति के लिए शुद्ध ज्ञान में वृद्धि करने का यत्न करें।
शुद्ध तत्त्व की दृष्टि बिना निर्णय में विडम्बना—शुद्ध तत्त्व के रसिक लोग वे सर्वत्र चाहे संसारी जीव हों, चाहे मुक्त जीव हों, सब सबमें शुद्ध निश्चयनय से देखते हैं तो वहाँ कहीं विशेषता नजर नहीं आती। कहां दृष्टि को ले जाकर देखना है? यह बात जब तक ध्यान में न आए, तब तक कुछ तो ऐसा लगेगा कि यह भगवान का अपमान किया जा रहा है कि संसार अवस्था में भी यह जीव भगवान् की तरह कहा जा रहा है। कुछ ऐसा लगेगा कि इसे कुछ करना धरना रुचता नहीं है, सो गप्प मारकर ही अपना मन खुश रखना चाहता है। कुछ ऐसा लगेगा कि क्या पढ़ा लिखा है, क्या जाना है? यह तो ढङ्ग से बात ही नहीं की जा रही है। लो एक तराजू में एक समान पलड़े पर रख दिया संसार को और भगवान् को, किन्तु जिस अन्तर के स्वरूप की दृष्टि को रखकर यह वर्णन है, वह दृष्टि में न आए तो इसका मर्म समझा नहीं जा सकता है।
स्वभावदृष्टि की महिमा—आत्मा सत् है और अपने सत्त्व के कारण इसमें कुछ न कुछ स्वभाव है, वह स्वभाव निरपेक्ष है। आत्मा में चैतन्यस्वभाव किस पदार्थ की कृपा से आया? बतलाओ रागद्वेषादिक भावों को तो आप कह सकते हैं कि ये कर्मों के उदयवश आए और अच्छा आत्मा में जो चैतन्यस्वभाव है, वह किस दूसरे की कृपा से आया? बतलाओ। स्वयं ही यह आत्मा सत् है तो स्वयं ही यह आत्मा चैतन्यस्वभावमात्र है। जिस स्वभावमात्र यह आत्मस्वरूप है, उस स्वभाव में दृष्टि को ले जाकर फिर निरख डालिए सब जीवों को कि सब एकसमान हैं। जिस दृष्टि में सर्वजीवों का स्वभाव एकरूप नजर आता है, उस दृष्टि के बल से उस एकरूप स्वभाव का आलम्बन करके जो उस ही परिचय में स्थिर होते हैं, रमते हैं, वे ही पुरुष शिवपथिक हैं और इस कल्पित झूठी असार विपदा को ही सर्वसमागमों का मोह परित्याग करके सुखी हो जाते हैं। यह सब आनन्द शुद्ध तत्त्व के रसिक लोग पाया करते हैं, विषयों के व्यामोही तो इसकी सुगन्ध भी नहीं पा सकते।