चारित्रमोह
From जैनकोष
मोहनीय कर्म का एक भेद । जीव इसके उपशम, क्षय और क्षयोपशम से चारित्र प्राप्त करता है । जो चारित्र धारण नहीं कर पाते वे सम्यक के प्रभाव से देवायु का बन्ध करते हैं । जो जीव संयतासंयत अर्थात् देश चारित्र को धारण करते हैं वे सौधर्म से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के कल्पों में देव होते हैं । हरिवंशपुराण 3.145-148