दर्शनपाहुड गाथा 24
From जैनकोष
अब कहते हैं कि जो यथाजातरूप को देखकर मत्सरभाव से वन्दना नहीं करते हैं, वे मिथ्यादृष्टि ही हैं -
सहजुप्पण्णं रूवं दट्ठं जो मण्णए ण मच्छरिओ । सो संजमपडिवण्णो मिच्छाइट्ठी हवइ एसो ।।२४।।
सहजोत्पन्नं रूपं दृष्टवा य: मन्यते न मत्सरी । स: संयमप्रतिपन्न: मिथ्यादृष्टि: भवति एष: ।।२४।।
अर्थ - जो सहजोत्पन्न यथाजातरूप को देखकर नहीं मानते हैं, उसका विनय सत्कार प्रीति नहीं करते हैं और मत्सर भाव करते हैं, वे संयमप्रतिपन्न हैं, दीक्षा ग्रहण की है, फिर भी प्रत्यक्ष मिथ्यादृष्टि हैं ।।२४।।
भावार्थ - जो यथाजातरूप को देखकर मत्सरभाव से उसका विनय नहीं करते हैं तो ज्ञात होता है कि इनके इस रूप की श्रद्धा-रुचि नहीं है, ऐसी श्रद्धा-रुचि बिना तो मिथ्यादृष्टि ही होते हैं । यहाँ आशय ऐसा है कि जो श्वेताम्बरादिक हुए वे दिगम्बर रूप के प्रति मत्सरभाव रखते हैं और उसका विनय नहीं करते हैं, उनका निषेध है ।।२४।।
सहज जिनवर लिंग लख ना नमें मत्सर भाव से । बस प्रगट मिथ्यादृष्टि हैं संयम विरोधी जीव वे ।।२४।।