दर्शनपाहुड गाथा 28
From जैनकोष
अब कहते हैं कि जो तप आदि से संयुक्त हैं, उनको नमस्कार करता हूँ -
वंदमि २तवसावण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च । सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेण३ सुद्धभावेण ।।२८।।
१. `कं वन्देगुणहीनं' षट्पाहुड में पाठ है । २. `तव समण्णा' छाया - (तप: समापन्नात्) `तवसउण्णा' तवसमाणं' ये तीन पाठ मुद्रित षट्प्राभृत की पुस्तक तथा उसकी टिप्पणी में है । ३. `सम्मत्तेणेव' ऐसा पाठ होने से पाद भङ्ग नहीं होता । ना वंदना हो देह की कुल की नहीं ना जाति की । कोई करे क्यों वंदना गुणहीन श्रावक-साधु की ।।२७।।
गुण शील तप सम्यक्त्व मंडित ब्रह्मचारी श्रमण जो । शिवगमन तत्पर उन श्रमण को शुद्धमन से नमन हो ।।२८।।
वन्दे तप: श्रमणान् शीलं च गुणं च ब्रह्मचर्यं च । सिद्धिगमनं च तेषां सम्यक्त्वेन शुद्धभावेन ।।२८।।
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जो तप सहित श्रमणपना धारण करते हैं, उनको तथा उनके शील को, उनके गुण को व ब्रह्मचर्य को मैं सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से नमस्कार करता हूँ, क्योंकि उनके उन गुणों से-सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से सिद्धि अर्थात् मोक्ष के प्रति गमन होता है ।
भावार्थ - पहले कहा कि देहादिक वंदने योग्य नहीं हैं, गुण वंदने योग्य हैं । अब यहाँ गुण सहित की वंदना की है । वहाँ जो तप धारण करके गृहस्थपना छोड़कर मुनि हो गये हैं, उनको तथा उनके शीलगुणब्रह्मचर्य सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से संयुक्त हो उनकी वंदना की है । यहाँ शील शब्द से उत्तरगुण और गुण शब्द से मूलगुण तथा ब्रह्मचर्य शब्द से आत्मस्वरूप में मग्नता समझना चाहिए ।।२८।।