दर्शनपाहुड गाथा 32
From जैनकोष
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हैं -
णाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण । १चउण्हं पि समाजोगे सिद्धा जीवा ण सन्देहो ।।३२।।
ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन । चतुर्णापि समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देह: ।।३२।।
अर्थ - ज्ञान और दर्शन के होने पर सम्यक्त्व सहित तप करके चारित्रपूर्वक इन चारों का समायोग होने से जीव सिद्ध हुए हैं, इसमें सन्देह नहीं है ।
भावार्थ - पहिले जो सिद्ध हुए हैं, वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों के संयोग से ही हुए हैं, यह जिनवचन है, इसमें सन्देह नहीं है ।।३२।।