प्रव्रज्या
From जैनकोष
गृहस्थ का दीक्षा-ग्रहण । इसमें दीक्षार्थी निर्ममत्वभाव धारण करता है । विशुद्ध कुल, गोत्र, उत्तम चारित्र, सुन्दर सुखाकृति के लोग ही इसके योग्य होते हैं । इष्ट जनों की अनुज्ञापूर्वक ही सिद्धों को नमन करके इसे ग्रहण किया जाता है । इसके लिए तरुण अवस्था सर्वाधिक उचित होती है । महापुराण 38.151, 39.158-160, 41.75