मिथ्यादृष्टि
From जैनकोष
प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव । यह मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात प्रकृतियों के उदय से अतत्त्व में श्रद्धान करनेवाला होता है । इस गुणस्थान में जीवों को स्व-पर का भेदज्ञान नहीं होता । आप्त, आगम और निर्ग्रन्थ गुरु पर ये विश्वास नहीं करते । दर्शन मोहनीय कर्म के कारण प्राणी इस गुणस्थान में निरन्तर बद्ध रहते हैं । इसमें भव्यता और अभव्यता दोनों होती है । इस गुणस्थान वाले जीव दान आदि पुण्यकार्यों से स्वर्ग के सुख भी पा लेते हैं । स्वर्ग में शान्त परिणामों के प्रभाव से काल आदि लब्धियाँ पाकर ये स्वयमेव अथवा दूसरों के निमित्त से समीचीन सम्यग्दर्शन रूप धर्म की प्राप्त कर सकते हैं । यह बात निकटकाल में मोक्ष प्राप्त करने वाले भव्यमिथ्यादृष्टियों की अपेक्षा से कही है । परन्तु जो निरन्तर भोगों में आसक्त पर नारी रमण और आरम्भ परिग्रह के द्वारा पाप का संचय करते हैं वे संसार में भटकते हैं । महापुराण 2.24, 76. 223-226, पद्मपुराण 91.34, हरिवंशपुराण 3.80, 94, 99-100, 119-120