भावपाहुड गाथा 105
From जैनकोष
आगे क्षमा का उपदेश करते हैं -
दुज्जणवयणचडक्कं णिट्ठुरकडुयं सहंति सप्पुरिसा ।
कम्ममलणासणट्ठं भावेण य णिम्ममा सवणा ।।१०७।।
दुर्जनवचनचपेटां निष्ठुरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषा: ।
कर्मलनाशनार्थं भावेन च निर्मा: श्रमणा:।।१०७।।
निष्ठुर कटुक दुर्जन वचन सत्पुरुष सहें स्वभाव से ।
सब कर्मनाशन हेतु तु भी सहो निर्म भाव से ।।१०७।।
अर्थ - सत्पुरुष मुनि हैं, वे दुर्जन के वचनरूप चपेट जो निष्ठुर (कठोर) दया रहित और कटुक (सुनते ही कानों को कड़े शूल समान लगे) ऐसी चपेट है, उसको सहते हैं । वे किसलिए सहते हैं? कर्मो का नाश होने के लिए सहते हैं । पहिले अशुभ कर्म बांधे थे उसके निमित्त से दुर्जन ने कटुक वचन कहे, आपने सुने, उसको उपशम परिणाम से आप सहे तब अशुभकर्म उदय होय खिर गये । ऐसे कटुकवचन सहने से कर्म का नाश होता है । वे मुनि सत्पुरुष कैसे हैं ? अपने भाव से वचनादिक से निर्मत्व हैं, वचन से तथा मानकषाय से और देहादिक से ममत्व नहीं है । ममत्व हो तो दुर्वचन सहे न जावें, यह न जानें कि इसने मुझे दुर्वचन कहे, इसलिए ममत्व के अभाव से दुर्वचन सहते हैं । अत: मुनि होकर किसी पर क्रोध नहीं करना यह उपदेश है । लौकिक में भी जो बड़े पुरुष हैं, वे दुर्वचन सुनकर क्रोध नहीं करते हैं, तब मुनि को सहना उचित ही है । जो क्रोध करते हैं, वे कहने के तपस्वी हैं, सच्चे तपस्वी नहीं हैं ।।१०७।।