भावपाहुड गाथा 118
From जैनकोष
आगे इन कर्मो का नाश होने के लिए अनेक प्रकार का उपदेश है, उसको संक्षेप से कहते हैं -
सीलसहस्सट्ठारस चउरासीगुणगणाण लक्खाइं ।
भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किं बहुणा ।।१२०।।
शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि ।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं बहुना ।।१२०।।
शील अठदशसहस उत्तर गुण कहे चौरासी लख ।
भा भावना इन सभी की इससे अधिक क्या कहें हम ।।१२०।।
अर्थ - शील अठारह हजार भेदरूप है और उत्तरगुण चौरासी लाख हैं । आचार्य कहते हैं कि हे मुने ! बहुत झूठे प्रलापरूप निरर्थक वचनों से क्या ? इन शीलों को और उत्तरगुणों को सबको तू निरन्तर भा, इनकी भावना-चिन्तन-अभ्यास निरन्तर रख, जैसे इनकी प्राप्ति हो वैसे ही कर ।
भावार्थ - `आत्मा-जीव' नामक वस्तु अनन्तधर्मस्वरूप है । संक्षेप से इसकी दो परिणति है, एक स्वाभाविक और एक विभावरूप । इनमें स्वाभाविक तो शुद्धदर्शनज्ञानमयी चेतनापरिणाम है और विभावपरिणाम कर्म के निमित्त से है । ये प्रधानरूप से तो मोहकर्म के निमित्त से हुए हैं । संक्षेप से मिथ्यात्व रागद्वेष हैं, इनके विस्तार से अनेक भेद हैं । अन्य कर्मो के उदय से विभाव होते हैं, उनमें पौरुष प्रधान नहीं है, इसलिए उपदेश अपेक्षा वे गौण हैं, इसप्रकार ये शील और उत्तरगुण स्वभाव-विभाव परिणति के भेद से भेदरूप करके कहे हैं । शील की प्ररूपणा दो प्रकार की है - एक तो स्वद्रव्य-परद्रव्य के विभाग की अपेक्षा है और दूसरे स्त्री के संसर्ग की अपेक्षा है । परद्रव्य का संसर्ग, मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से न करना । इनको आपस में गुणा करने से नौ भेद होते हैं । आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञा हैं, इनसे परद्रव्य का संसर्ग होता है, उसका न होना, ऐसे नौ भेदों को चार संज्ञाओं से गुणा करने पर छत्तीस होते हैं । पाँच इन्द्रियों के निमित्त से विषयों का संसर्ग होता है, उनकी प्रवृत्ति के अभावरूप पाँच इन्द्रियों से छत्तीस को गुणा करने पर एक सौ अस्सी होते हैं । पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक, साधारण ये तो एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ऐसे दशभेदरूप जीवों का संसर्ग, इनकी हिंसारूप प्रवर्तने से परिणाम विभावरूप होते हैं । सो न करना, ऐसे एक सौ अस्सी भेदों को दस से गुणा करने पर अठारह सौ होते हैं । क्रोधादिक कषाय और असंयम परिणाम से परद्रव्यसंबंधी विभावपरिणाम होते हैं, उनके अभावरूप दसलक्षण धर्म है, उनसे गुणा करने से अठारह हजार होते हैं । ऐसे परद्रव्य के संसर्गरूप कुशील के अभावरूप शील के अठारह हजार भेद हैं । इनके पालने से परम ब्रह्मचर्य होता है, ब्रह्म (आत्मा) में प्रवर्तने और रमने को `ब्रह्मचर्य' कहते हैं । स्त्री के संसर्ग की अपेक्षा इसप्रकार है - स्त्री दो प्रकार की है, अचेतन स्त्री काष्ठ, पाषाण, लेप (चित्राम) ये तीन, इनका मन और काय दो से संसर्ग होता है, यहाँ वचन नहीं है, इसलिए दो से गुणा करने पर छह होते हैं । कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर अठारह होते हैं । पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर नब्बे होते हैं । द्रव्य-भावना से गुणा करने पर एक सौ अस्सी होते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ - इन चार कषायों से गुणा करने पर सात सौ बीस होते हैं । चेतन स्त्री देवी, मनुष्यिणी, तिर्यंचणी ऐसे तीन, इन तीनों को मन, वचन, काय से गुणा करने पर नौ होते हैं । इनको कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर सत्ताईस होते हैं । इनको पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर एक सौ पैंतीस होते हैं । इनको द्रव्य और भाव - इन दो से गुणा करने पर दो सौ सत्तर होते हैं । इनको चार संज्ञा से गुणा करने पर एक हजार अस्सी होते हैं । इनको अनन्तानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ इन सोलह कषायों से गुणा करने पर सत्रह हजार दो सौ अस्सी होते हैं । ऐसे अचेतन स्त्री के सात सौ बीस मिलाने पर *अठारह हजार होते हैं । ऐसे स्त्री के संसर्ग से विकार परिणाम होते हैं सो कुशील है, इनके अभावरूप परिणाम शील है इसकी `ब्रह्मचर्य' संज्ञा है । चौरासी लाख उत्तरगुण ऐसे हैं जो आत्मा के विभावपरिणामों के बाह्यकारणों की अपेक्षा भेद होते हैं । उनके अभावरूप ये गुणों के भेद हैं । उन विभावों के भेदों की गणना संक्षेप से ऐसे है - १. हिंसा, २. अनृत, ३. स्तेय, ४. मैथुन, ५. परिग्रह, ६. क्रोध, ७. मान, ८. माया, ९. लोभ, १०. भय, ११. जुगुप्सा, १२. अरति, १३. शोक, १४. मनोदृष्टत्व, १५. वचनदृष्टत्व, १६. कायदृष्टत्व, १७. मिथ्यात्व, १८. प्रमाद, १९. पैशून्य, २०. अज्ञान, २१. इन्द्रिय का अनुग्रह ऐसे इक्कीस दोष हैं । इनको अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार इन चारों से गुणा करने पर चौरासी होते हैं । पृथ्वी-अप-तेज-वायु-प्रत्येक-साधारण ये स्थावर एकेन्द्रिय जीव छह और विकल तीन, पंचेन्द्रिय एक - ऐसे जीवों के दस भेद, इनका परस्पर आरंभ से घात होता है इनको परस्पर गुणा करने पर सौ (१००) होते हैं । इनसे चौरासी को गुणा करने पर चौरासी सौ होते हैं, इनको दस `शील-विराधने' से गुणा करने पर चौरासी हजार होते हैं । इन दस के नाम ये हैं - १. स्त्री संसर्ग, २. पुष्टरसभोजन, ३. गंधमाल्य का ग्रहण, ४. सुन्दर शयनासन का ग्रहण, ५. भूषण का मंडन, ६. गीतवादित्र का प्रसंग, ७. धन का संप्रयोजन, ८. कुशील का संसर्ग, ९. राजसेवा, १०. रात्रिसंचरण ये दस `शील-विराधना' हैं । इनके आलोचना के दस दोष हैं, गुरुओं के पास लगे हुए दोषों की आलोचना करे सो सरल होकर न करे कुछ शल्य रखे, उसके दस भेद किये हैं, इनसे गुणा करने पर आठ लाख चालीस हजार होते हैं । आलोचना को आदि देकर प्रायश्चित्त के दस भेद हैं, इनसे गुणा करने पर चौरासी लाख होते हैं । सो सब दोषों के भेद हैं, इनके अभाव से गुण होते हैं । इनकी भावना रखे, चिन्तन और अभ्यास रखे, इनकी संपूर्ण प्राप्ति होने का उपाय रखे, इसप्रकार इनकी भावना का उपदेश है । आचार्य कहते हैं कि बारबार बहुत वचन के प्रलाप से तो कुछ साध्य नहीं है, जो कुछ आत्मा के भाव की प्रवृत्ति के व्यवहार के भेद हैं, उनकी `गुण' संज्ञा है, उनकी भावना रखना । यहाँ इतना और जानना कि गुणस्थान चौदह कहे हैं, उस परिपाटी से गुणदोषों का विचार है । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र - इन तीनों में तो विभावपरिणति ही है, इनमें तो गुण का विचार ही नहीं है । अविरत, देशविरत आदि में शीलगुण का एकदेश आता है । अविरत में मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी कषाय के अभावरूप गुण का एकदेश सम्यक्त्व और तीव्र रागद्वेष का अभावरूप गुण आता है और देशविरत में कुछ व्रत का एकदेश आता है । प्रमत्त में महाव्रतरूप सामायिक चारित्र का एकदेश आता है, क्योंकि पापसंबंधी रागद्वेष तो वहाँ नहीं है, परन्तु धर्मसंबंधी राग है और `सामायिक' रागद्वेष के अभाव का नाम है, इसीलिए सामायिक का एकदेश ही कहा है । यहाँ स्वरूप के सन्मुख होने में क्रियाकांड के संबंध से प्रमाद है, इसलिए `प्रमत्त' नाम दिया है । अप्रमत्त में स्वरूप साधने में तो प्रमाद नहीं है, परन्तु कुछ स्वरूप के साधने का राग व्यक्त है, इसलिए यहाँ भी सामायिक का एकदेश ही कहा है । अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण में राग व्यक्त नहीं है, अव्यक्तकषाय का सद्भाव है, इसलिए सामायिक चारित्र की पूर्णता कही । सूक्ष्मसांपराय में अव्यक्त कषाय भी सूक्ष्म रह गई, इसलिए इसका नाम `सूक्ष्मसाम्पराय' रखा । उपशान्तमोह क्षीणमोह में कषाय का अभाव ही है, इसलिए जैसा आत्मा का मोहविकाररहित शुद्ध स्वरूप था उसका अनुभव हुआ, इसलिए `यथाख्यात चारित्र' नाम रखा । ऐसे मोहकर्म के अभाव की अपेक्षा तो यहाँ उत्तरगुणों की पूर्णता कही जाती है, परन्तु आत्मा का स्वरूप अनन्तज्ञानादि स्वरूप है सो घाकिर्म के नाश होने पर अनन्तज्ञानादि प्रगट होते हैं, तब `सयोगकेवली' कहते हैं । इसमें भी कुछ योगों की प्रवृत्ति है, इसलिए `अयोगकेवली' चौदहवाँ गुणस्थान है । इसमें योगों की प्रवृत्ति मिट कर आत्मा अवस्थित हो जाती है, तब चौरासी लाख उत्तरगुणों की पूर्णता कही जाती है । ऐसे गुणस्थानों की अपेक्षा उत्तरगुणों की प्रवृत्ति विचारने योग्य है । ये बाह्य अपेक्षा भेद हैं, अंतरंग अपेक्षा विचार करें तो संख्यात, असंख्यात, अनन्त भेद होते हैं, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१२०।।