भावपाहुड गाथा 120
From जैनकोष
आगे कहते हैं कि यह ध्यान भावलिंगी मुनियों को मोक्ष करता है -
जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति ।
छिंदंति भावसवणा झाणकुढारेहिं भवरुक्खं ।।१२२।।
ये केsपि द्रव्यश्रमणा इन्द्रियसुखाकुला: न छिंदन्ति ।
छिन्दन्ति भावश्रमणा: ध्यानकुठारै: भववृक्षम् ।।१२२।।
इन्द्रिय-सुखाकुल द्रव्यलिंगी कर्मतरु नहिं काटते ।
पर भावलिंगी भवतरु को ध्यान करवत काटते ।।१२२।।
अर्थ - कई द्रव्यलिंगी श्रमण हैं, वे तो इन्द्रियसुख में व्याकुल हैं, उनके यह धर्म-शुक्लध्यान नहीं होता है । वे तो संसाररूपी वृक्ष को काटने में समर्थ नहीं हैं और जो भावलिंगी श्रमण हैं, वे ध्यानरूपी कुल्हाड़े से संसाररूपी वृक्ष को काटते हैं ।
भावार्थ - जो मुनि द्रव्यलिंग तो धारण करते हैं, परन्तु उनको परमार्थ सुख का अनुभव नहीं हुआ है, इसलिए इसलोक में व परलोक में इन्द्रियों के सुख ही को चाहते हैं, तपश्चरणादिक भी इसी अभिलाषा से करते हैं, उनके धर्म-शुक्ल ध्यान कैसे हो ? अर्थात् नहीं होता है । जिनने परमार्थ सुख का आस्वाद लिया, उनको इन्द्रिय सुख, दु:ख ही है ऐसा स्पष्ट भासित हुआ है, अत: परमार्थ सुख का उपाय धर्म-शुक्ल ध्यान है, उसको करके वे संसार का अभाव करते हैं, इसलिए भावलिंगी होकर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए ।।१२२।।