भावपाहुड गाथा 127
From जैनकोष
आगे आचार्य कहते हैं कि जो भावश्रमण हैं, उनको धन्य है, उनको हमारा नमस्कार हो -
ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं ।
भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पणट्ठायाणं ।।१२९।।
ते धन्या: तेभ्य: नम: दर्शनवरज्ञानचरणशुद्धेभ्य: ।
भावसहितेभ्य: नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टायेभ्य: ।।१२९।।
जो ज्ञान-दर्शन-चरण से हैं शुद्ध माया रहित हैं ।
रे धन्य हैं वे भावलिंगी संत उनको नमन है ।।१२९।।
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जो मुनि सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ (विशिष्ट) ज्ञान और निर्दोष चारित्र इनसे शुद्ध है इसीलिए भाव सहित हैं और प्रणष्ट हो गई है माया अर्थात् कपट परिणाम जिनके, ऐसे वे धन्य हैं । उनके लिए हमारा मन-वचन-काय से सदा नमस्कार हो ।
भावार्थ - भावलिंगियों में जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र से शुद्ध है, उनके प्रति आचार्य की भक्ति उत्पन्न हुई है इसलिए उनको धन्य कह कर नमस्कार किया है वह युक्त है, जिनके मोक्षमार्ग में अनुराग है, उनमें मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में प्रधानता दीखती है, उनको नमस्कार करें ही करें ।।१२९।।