भावपाहुड गाथा 130
From जैनकोष
आगे उपदेश करते हैं कि जबतक जरा आदिक न आवें तबतक अपना हित कर लो -
उत्थरह जा ण जरओ रोयण्णी जा ण डहइ देहउडिं ।
इन्दियबलं ण वियलइ ताव तुं कुणहि अप्पहिंय ।।१३२।।
आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहति देहकुटीम् ।
इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम् ।।१३२।।
करले भला तबतलक जबतक वृद्धपन आवे नहीं ।
अरे देह में न रोग हो बल इन्द्रियों का ना घटे ।।१३२।।
अर्थ - हे मुने ! जबतक तेरे जरा (बुढ़ापा) न आवे तथा जबतक रोगरूपी अग्नि तेरी देहरूपी कुटी को भस्म न करे और जबतक इन्द्रियों का बल न घटे तबतक अपना हित कर लो ।
भावार्थ - वृद्ध अवस्था में देह रोगों से जर्जरित हो जाता है, इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं तब असमर्थ होकर इस लोक के कार्य उठना-बैठना भी नहीं कर सकता है तब परलोकसंबंधी तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास और स्वरूप का अनुभवादि कार्य कैसे करे ? इसलिए यह उपदेश है कि जबतक सामर्थ्य है तबतक अपना हितरूप कार्य कर लो ।।१३२।।