भावपाहुड गाथा 137
From जैनकोष
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हैं -
मिच्छत्तछण्णदिट्ठी दुद्धीए दुम्मएहिं दोसेहिं ।
धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवो ण रोचेदि ।।१३९।।
मिथ्यात्वछन्नदृष्टि: दुर्धिया र्दुतै: दोषै: ।
धर्मं जिनप्रज्ञप्तं अभव्यजीव: न रोचयति ।।१३९।।
मिथ्यात्व से आछन्नबुद्धि अभव्य दु र्ति दोष से ।
जिनवरकथित जिनधर्म की श्रद्धा कभी करता नहीं।।१३९।।
अर्थ - र्दुत जो सर्वथा एकान्ती मत, उनसे प्ररूपित अन्यमत, वे ही हुए दोष, उनके द्वारा अपनी दुर्बुद्धि से (मिथ्यात्व से) आच्छादित है बुद्धि जिसकी, ऐसा अभव्यजीव है उसे जिनप्रणीत धर्म नहीं रुचता है, वह उसकी श्रद्धा नहीं करता है, उसमें रुचि नहीं करता है ।
भावार्थ - मिथ्यात्व के उपदेश से अपनी दुर्बुद्धि द्वारा जो मिथ्यादृष्टि है उसको जिनधर्म नहीं रुचता है, तब ज्ञात होता है कि ये अभव्यजीव के भाव हैं । यथार्थ अभव्यजीव को तो सर्वज्ञ जानते हैं, परन्तु ये अभव्यजीव के चिह्न हैं, इनसे परीक्षा द्वारा जाना जाता है ।।१३९।।