भावपाहुड गाथा 150
From जैनकोष
आगे आचार्य कहते हैं कि ऐसा देव मुझे उत्तम बोधि देवे -
इय घाइकम्ममुक्को अट्ठारहदोसवज्जिओ सयलो ।
तिहुवणभवणपदीवो देउ ममं उत्तमं बोहिं ।।१५२।।
इति घातिकर्मुक्त: अष्टादशदोषवर्जित: सकल: ।
त्रिभुवनभवनप्रदीप: ददातु मह्यं उत्तमां बोधिम् ।।१५२।।
घन-घाति कर्म विमुक्त अर त्रिभुवनसदन संदीप जो ।
अर दोष अष्टादश रहित वे देव उत्तम बोधि दें ।।१५२।।
अर्थ - इसप्रकार घातिया कर्मो से रहित, क्षुधा-तृषा आदि पूर्वोक्त अठारह दोषों से रहित, सकल (शरीर सहित) और तीन भुवनरूपी भवन को प्रकाशित करने के लिए प्रकृष्टदीपक तुल्य देव है, वह मुझे उत्तम बोधि (सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र) की प्राप्ति देवे, इसप्रकार आचार्य ने प्रार्थना की है ।
भावार्थ - यहाँ और तो पूर्वोक्त प्रकार जानना, परन्तु `सकल' विशेषण का यह आशय है कि मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति करने के जो उपदेश हैं, वह वचन के प्रवर्ते बिना नहीं होते हैं और वचन की प्रवृत्ति शरीर बिना नहीं होती है, इसलिए अरहंत का आयु कर्म के उदय से शरीर सहित अवस्थान रहता है और सुस्वर आदि नामकर्म के उदय से वचन की प्रवृत्ति होती है । इस तरह अनेक जीवों का कल्याण करनेवाला उपदेश होता रहता है । अन्यमतियों के ऐसा अवस्थान (ऐसी स्थिति) परमात्मा के संभव नहीं है, इसलिए उपदेश की प्रवृत्ति नहीं बनती है, तब मोक्षमार्ग का उपदेश भी नहीं बनता है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१५२।।