इतिहास
From जैनकोष
अनुक्रमणिका
इतिहास -
1. इतिहास निर्देश व लक्षण।
1.1 इतिहासका लक्षण।
1.2 ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव।
2. संवत्सर निर्देश।
2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद।
2.2 वीर निर्वाण संवत्।
2.3 विक्रम संवत्।
2.4 शक संवत्।
2.5 शालिवाहन संवत्।
2.6 ईसवी संवत्।
2.7 गुप्त संवत्।
2.8 हिजरी संवत्।
2.9 मघा संवत्।
2.10 सब संवतोंका परस्पर सम्बन्ध।
3. ऐतिहासिक राज्य वंश।
3.1 भोज वंश।
3.2 कुरु वंश।
3.3 मगध देशके राज्य वंश (१. सामान्य; २. कल्की; ३. हून; ४. काल निर्णय)
3.4 राष्ट्रकूट वंश।
4. दिगम्बर मूलसंघ।
4.1 मूल संघ।
4.2 मूल संघकी पट्टावली।
4.3 पट्टावलीका समन्वय।
4.4 मूलसंघ का विघटन।
4.5 श्रुत तीर्थकी उत्पत्ति।
4.6 श्रुतज्ञानका क्रमिक ह्रास।
5. दिगम्बर जैन संघ।
5.1 सामान्य परिचय।
5.2 नन्दिसंघ।
5.3 अन्य संघ।
6. दिगम्बर जैनाभासी संघ।
6.1 सामान्य परिचय।
6.2 यापनीय संघ।
6.3 द्राविड़ संघ।
6.4 काष्ठा संघ।
6.5 माथुर संघ।
6.6 भिल्लक संघ।
6.7 अन्य संघ तथा शाखायें।
7. पट्टावलियें तथा गुर्वावलियें।
7.1 मूल संघ विभाजन।
7.2 नन्दिसंघ बलात्कार गण।
7.3 नन्दिसंघ बलात्कार गणकी भट्टारक आम्नाय।
7.4 नन्दिसंघबलात्कार गणकी शुभचन्द्र आम्नाय।
7.5 नन्दिसंघ देशीयगण।
7.6 सेन या ऋषभ संघ।
7.7 पंचस्तूप संघ।
7.8 पुन्नाट संघ।
7.9 काष्ठा संघ।
7.10 लाड़ बागड़ गच्छ।
7.11 माथुर गच्छ।
8. आचार्य समयानुक्रमणिका।
9. पौराणिक राज्य वंश।
9.1 सामान्य वंश।
9.2 इक्ष्वाकु वंश।
9.3 उग्र वंश।
9.4 ऋषि वंश।
9.5 कुरुवंश।
9.6 चन्द्र वंश।
9.7 नाथ वंश।
9.8 भोज वंश।
9.9 मातङ्ग वंश।
9.10 यादव वंश।
9.11 रघुवंश।
9.12 राक्षस वंश।
9.13 वानर वंश।
9.14 विद्याधर वंश।
9.15 श्रीवंश।
9.16 सूर्य वंश।
9.17 सोम वंश।
9.18 हरिवंश।
10. आगम समयानुक्रमणिका।
इतिहास -
किसी भी जाति या संस्कृतिका विशेष परिचय पानेके लिए तत्सम्बन्धी साहित्य ही एक मात्र आधार है और उसकी प्रामाणिकता उसके रचयिता व प्राचीनतापर निर्भर है। अतः जैन संस्कृति का परिचय पानेके लिए हमें जैन साहित्य व उनके रचयिताओंके काल आदिका अनुशीलन करना चाहिए। परन्तु यह कार्य आसान नहीं है, क्योंकि ख्यातिलाभकी भावनाओंसे अतीत वीतरागीजन प्रायः अपने नाम, गाँव व कालका परिचय नहीं दिया करते। फिर भी उनकी कथन शैली पर से अथवा अन्यत्र पाये जानेवाले उन सम्बन्धी उल्लेखों परसे, अथवा उनकी रचनामें ग्रहण किये गये अन्य शास्त्रोंके उद्धरणों परसे, अथवा उनके द्वारा गुरुजनोंके स्मरण रूप अभिप्रायसे लिखी गयी प्रशस्तियों परसे, अथवा आगममें ही उपलब्ध दो-चार पट्टावलियों परसे, अथवा भूगर्भसे प्राप्त किन्हीं शिलालेखों या आयागपट्टोंमें उल्लखित उनके नामों परसे इस विषय सम्बन्धी कुछ अनुमान होता है। अनेकों विद्वानोंने इस दिशामें खोज की है, जो ग्रन्थोंमें दी गयी उनकी प्रस्तावनाओंसे विदित है। उन प्रस्तावनाओंमें से लेकर ही मैंने भी यहाँ कुछ विशेष-विशेष आचार्यों व तत्कालीन प्रसिद्ध राजाओं आदिका परिचय संकलित किया है। यह विषय बड़ा विस्तृत है। यदि इसकी गहराइयोंमें घुसकर देखा जाये तो एकके पश्चात् एक करके अनेकों शाखाएँ तथा प्रतिशाखाएँ मिलती रहनेके कारण इसका अन्त पाना कठिन प्रतीत होता है, अथवा इस विषय सम्बन्धी एक पृथक् ही कोष बनाया जा सकता है। परन्तु फिर भी कुछ प्रसिद्ध व नित्य परिचय में आनेवाले ग्रन्थों व आचार्योंका उल्लेख किया जाना आवश्यक समझकर यहाँ कुछ मात्रका संकलन किया है। विशेष जानकारीके लिए अन्य उपयोगी साहित्य देखनेकी आवश्यकता है।
1. इतिहास निर्देश व लक्षण
1.1 इतिहासका लक्षण
म.पु.१/२५ इतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुतेः। इति वृत्तमथै तिह्यमाम्नायं चामनस्ति तत् ।२५। = `इति इह आसीत्' (यहाँ ऐसा हुआ) ऐसी अनेक कथाओंका इसमें निरूपण होनेसे ऋषिगण इसे (महापुराणको) `इतिहास', `इतिवृत्त' `ऐतिह्य' भी कहते हैं ।२५।
1.2 ऐतिह्य प्रमाणका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव
रा.वा.१/२०/१५/७८/१९ ऐतिह्यस्य च `इत्याह स भगवान् ऋषभः' इति परंपरीणपुरुषागमाद् गृह्यते इति श्रुतेऽन्तर्भावः। = `भगवान् ऋषभने यह कहा' इत्यादि प्राचीन परम्परागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है। इसका श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है।
2. संवत्सर निर्देश
2.1 संवत्सर सामान्य व उसके भेद
इतिहास विषयक इस प्रकरणमें क्योंकि जैनागमके रचयिता आचार्योंका, साधुसंघकी परम्पराका, तात्कालिक राजाओंका, तथा शास्त्रोंका ठीक-ठीक कालनिर्णय करनेकी आवश्यकता पड़ेगी, अतः संवत्सरका परिचय सर्वप्रथम पाना आवश्यक है। जैनागममें मुख्यतः चार संवत्सरोंका प्रयोग पाया जाता है - १. वीर निर्वाणसंवत्; २. विक्रम संवत्; ३. ईसवी संवत्; ४. शक संवत्; परन्तु इनके अतिरिक्त भी कुछ अन्य संवतोंका व्यवहार होता है - जैसे १. गुप्त संवत् २. हिजरी संवत्; ३. मधा संवत्; आदि।
2.2 वीर निर्वाण संवत् निर्देश
क.पा.१/$५६/७५/२ एदाणि [पण्णरसदिवसेहि अट्ठमासेहि य अहिय-] पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्ढमाणजिणिदे णिव्वुदे संते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाणं होदि। = इद बहत्तर वर्ष प्रमाण कालको (महावीरका जन्मकाल-दे. महावीर) पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तरवर्षमेंसे घटा देनेपर, वर्द्धमान जिनेन्द्रके मोक्ष जानेपर जितना चतुर्थ कालका प्रमाण [या पंचम कालका प्रारम्भ] शेष रहता है, उसका प्रमाण होता है। अर्थात् ३ वर्ष ८ महीने और पन्द्रह दिन। (ति.प. ४/१४७४)।
ध.१ (प्र. ३२ H. L. Jain) साधारणतः वीर निर्वाण संवत् व विक्रम संवत्में ४७० वर्ष का अन्तर रहता है। परन्तु विक्रम संवत्के प्रारम्भके सम्बन्धमें प्राचीन कालसे बहुत मतभेद चला आ रहा है, जिसके कारण भगवान् महावीरके निर्वाण कालके सम्बन्धमें भी कुछ मतभेद उत्पन्न हो गया है। उदाहरणार्थ-नन्दि संघकी पट्टावलीमें आ. इन्द्रनन्दिने वीरके निर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म और ४८८ वर्ष पश्चात् उसका राज्याभिषेक बताया है। इसे प्रमाण मानकर बैरिस्टर श्री काशीलाल जायसवाल वीर निर्वाणके कालको १८ वर्ष ऊपर उठानेका सुझाव देते हैं, क्योंकि उनके अनुसार विक्रम संवत्का प्रारम्भ उसके राज्याभिषेकसे हुआ था। परन्तु दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है। इसका कारण यह है कि सभी प्राचीन शास्त्रोंमें शक संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष पश्चात् कहा गया है और उसमें तथा प्रचलित विक्रम संवत्में १३५ वर्षका अन्तर प्रसिद्ध है। (जै. पी. २८४) (विशेष दे. परिशिष्ट १)। दूसरी बात यह भी है कि ऐसा मानने पर भगवान् वीर को प्रतिस्पर्धी शास्ताके रूपमें महात्मा बुद्धके साथ १२-१३ वर्ष तक साथ-साथ रहनेका अवसर भी प्राप्त हो जाता है, क्योंकि बोधि लाभसे निर्वाण तक भगवान् वीरका काल उक्त मान्यताके अनुसार ई. पू. ५५७-५२७ आता है जबकि बुद्धका ई. पू. ५८८-५४४ माना गया है। जै.सा.इ.पी. ३०३)
2.3 विक्रम संवत् निर्देश
यद्यपि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों आम्नायोंमें विक्रम संवत्का प्रचार वीर निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात् माना गया है, तद्यपि यह संवत् विक्रमके जन्मसे प्रारम्भ होता है अथवा उनके राज्याभिषेकसे या मृत्युकालसे, इस विषयमें मतभेद है। दिगम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् ६० वर्ष तक पालकका राज्य रहा, तत्पश्चात् १५५ वर्ष तक नन्द वंशका और तत्पश्चात् २२५ वर्ष तक मौर्य वंशका। इस समयमें ही अर्थात् वी. नि. ४७० तक ही विक्रमका राज्य रहा परन्तु श्वेताम्बरके अनुसार वीर निर्वाणके पश्चात् १५५ वर्ष तक पालक तथा नन्दका, तत्पश्चात् २२५ वर्ष तक मौर्य वंशका और तत्पश्चात् ६० वर्ष तक विक्रमका राज्य रहा। यद्यपि दोनोंका जोड़ ४७० वर्ष आता है तदपि पहली मान्यतामें विक्रमका राज्य मौर्य कालके भीतर आ गया है और दूसरी मान्यतामें वह उससे बाहर रह गया है क्योंकि जन्मके १८ वर्ष पश्चात् विक्रमका राज्याभिषेक और ६० वर्ष तक उसका राज्य रहना लोक-प्रसिद्ध है, इसलिये उक्त दोनों ही मान्यताओं से उसका राज्याभिषेक वी. नि. ४१० में और जन्म ३९२ में प्राप्त होता है, परन्तु नन्दि संघकी पट्टावलीमें उसका जन्म वी. नि. ४७० में और राज्याभिषेक ४८८ में कहा गया है, इसलिये विद्वान् लोग उसे भ्रान्तिपूर्ण मानते हैं। (विशेष दे. परिशिष्ट १)
इसी प्रकार विक्रम संवत्को जो कहीं-कहीं शक संवत् अथवा शालिवाहन संवत् माननेकी प्रवृत्ति है वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि ये तीनों संवत् स्वतन्त्र हैं। विक्रम संवत्का प्रारम्भ वी. नि. ४७० में होता है, शक संवत्का वी.नि. ६०५ में और शालिवाहन संवत्का वी.नि. ७४१ में। (दे. अगले शीर्षक)
2.4 शक संवत् निर्देश
यद्यपि `शक' शब्दका प्रयोग संवत्-सामान्यके अर्थ में भी किया जाता है, जैसे वर्द्धमान शक, विक्रम शक, शालिवाहन शक इत्यादि, और कहीं-कहीं विक्रम संवत्को भी शक संवत् मान लिया जाता है, परन्तु जिस `शक' की चर्चा यहाँ करनी इष्ट है वह एक स्वतन्त्र संवत् है। यद्यपि आज इसका प्रयोग प्रायः लुप्त हो चुका है, तदपि किसी समय दक्षिण देशमें इस ही का प्रचार था, क्योंकि दक्षिण देशके आचार्यों द्वारा लिखित प्रायः सभी शास्त्रोंमें इसका प्रयोग देखा जाता है। इतिहासकारोंके अनुसार भृत्यवंशी गौतमी पुत्र राजा सातकर्णी शालिवाहनने ई. ७९ (वी.नि. ६०६) में शक वंशी राजा नरवाहनको परास्त कर देनेके उपलक्ष्यमें इस संवत्को प्रचलित किया था। जैन शास्त्रोंके अनुसार भी वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजाकी उत्पत्ति हुई थी। इससे प्रतीत होता है कि शकराजको जीत लेनेके कारण शालिवाहनका नाम ही शक पड़ गया था, इसलिए कहीं कहीं शालिवाहन संवत् को ही शक संवत् कहने की प्रवृत्ति चल गई, परन्तु वास्तवमें वह इससे पृथक् एक स्वतंत्र संवत् है जिसका उल्लेख नीचे किया गया है। प्रचलित शक संवत् वीर-निर्वाणके ६०५ वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्के १३५ वर्ष पश्चात् माना गया है। (विशेष दे. परिशिष्ट १)
2.5 शालिवाहन संवत्
शक संवत् इसका प्रचार आज प्रायः लुप्त हो चुका है तदपि जैसा कि कुछ शिलालेखोंसे विदित है किसी समय दक्षिण देशमें इसका प्रचार अवश्य रहा है। शकके नामसे प्रसिद्ध उपर्युक्त शालिवाहनसे यह पृथक् है क्योंकि इसकी गणना वीर निर्वाणके ७४१ वर्ष पश्चात् मानी गई है। (विशेष दे. परिशिष्ट १)
2.6 ईसवी संवत्
यह संवत् ईसा मसीहके स्वर्गवासके पश्चात् योरेपमें प्रचलित हुआ और अंग्रेजी साम्राज्यके साथ सारी दुनियामें फैल गया। यह आज विश्वका सर्वमान्य संवत् है। इसकी प्रवृत्ति वीर निर्वाणके ५२५ वर्ष पश्चात् और विक्रम संवत्से ५७ वर्ष पश्चात् होनी प्रसिद्ध है।
2.7 गुप्त संवत् निर्देश
इसकी स्थापना गुप्त साम्राज्यके प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्तने अपने राज्याभिषेकके समय ईसवी ३२० अर्थात् वी.नि. के ८४६ वर्ष पश्चात् की थी। इसका प्रचार गुप्त साम्राज्य पर्यन्त ही रहा।
2.8 हिजरी संवत् निर्देश
इस संवत्का प्रचार मुसलमानोंमें है क्योंकि यह उनके पैगम्बर मुहम्मद साहबके मक्का मदीना जानेके समयसे उनकी हिजरतमें विक्रम संवत् ६५० में अर्थात् वीर निर्वाणके ११२० वर्ष पश्चात् स्थापित हुआ था। इसीको मुहर्रम या शाबान सन् भी कहते हैं।
2.9 मघा संवत् निर्देश
म. पु. ७६/३९९ कल्की राजाकी उत्पत्ति बताते हुए कहा है कि दुषमा काल प्रारम्भ होने के १००० वर्ष बीतने पर मघा नामके संवत्में कल्की नामक राजा होगा। आगमके अनुसार दुषमा कालका प्रादुर्भाव वी. नि. के ३ वर्ष व ८ मास पश्चात् हुआ है। अतः मघा संवत्सर वीर निर्वाणके १००३ वर्ष पश्चात् प्राप्त होता है। इस संवत्सरका प्रयोग कहीं भी देखनेमें नहीं आता।
2.10 सर्व संवत्सरोंका परस्पर सम्बन्ध
निम्न सारणीकी सहायतासे कोई भी एक संवत् दूसरेमें परिवर्तित किया जा सकता है।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>क्रम | नाम | संकेत | १वी.नि. | २ विक्रम | ३ ईसवी | ४ शक | ५ गुप्त | ६ हिजरी |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|
१ | वीर | वी. | - | - | - | - | - | - |
- | निर्वाण | नि. | १ | पूर्व ४७० | पूर्व ५२७ | पूर्व ६०५ | पूर्व ८४६ | पूर्व ११२० |
२ | विक्रम | वि. | ४७० | १ | पूर्व ५७ | पूर्व १३५ | पूर्व ३७६ | पूर्व ६५० |
३ | ईसवी | ई. | ५२७ | ५७ | १ | पूर्व ७८ | पूर्व ३१९ | पूर्व ५९३ |
४ | शक | श. | ६०५ | १३५ | ७८ | १ | पूर्व २४१ | पूर्व ५१५ |
५ | गुप्त | गु. | ८४६ | ३७६ | ३१९ | २४१ | १ | पूर्व २७४ |
६ | हिजरी | हि. | ११२० | ६५० | ५९४ | ५३५ | २७४ | १ |
3. ऐतिहासिक राज्यवंश
3.1 भोज वंश
द.सा./प्र. ३६-३७ (बंगाल एशियेटिक सोसाइटी वाल्यूम ५/पृ. ३७८ पर छपा हुआ अर्जुनदेवका दानपत्र); (ज्ञा./प्र./पं. पन्नालाल) = यह वंश मालवा देशपर राज्य करता था। उज्जैनी इनकी राजधानी थी। अपने समयका बड़ा प्रसिद्ध व प्रतापी वंश रहा है। इस वंशमें धर्म व विद्याका बड़ा प्रचार था। बंगाल एशियेटिक सोसाइटी वाल्यूम ५/पृ. ३७८ पर छपे हुए अर्जुनदेवके अनुसार इसकी वंशावली निम्न प्रकार है।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>सं. | नाम | समय | विशेष | |
---|---|---|---|---|
- | - | वि.सं. | ईसवी सन् | |
१ | सिंहल | ९५७-९९७ | ९००-९४० | दानपत्रसे बाहर |
२ | हर्ष | ९९७-१०३१ | ९४०-९७४ | इतिहासके अनुसार |
३ | मुञ्ज | १०३१-१०६० | ९७४-१००३ | दानपत्र तथा इतिहास |
४ | सिन्धु राज | १०६०-१०६५ | १००३-१००८ | इतिहासके अनुसार |
५ | भोज | १०६५-१११२ | १००८-१०५५ | दानपत्र तथा इतिहास |
६ | जयसिंह राज | १११२-१११५ | १०५५-१०५८ | दानपत्र तथा इतिहास |
७ | उदयादित्य | १११५-११५० | १०५८-१०९३ | समय निश्चित है |
८ | नरधर्मा | ११५०-१२०० | १०९३-११४३ | - |
९ | यशोधर्मा | १२००-१२१० | ११४३-११५३ | दानपत्रसे बाहर |
१० | अजयवर्मा | १२१०-१२४९ | ११५३-११९२ | - |
११ | विन्ध्य वर्मा | १२४९-१२५७ | ११९२-१२०० | इसका समय निश्चित है |
- | विजय वर्मा | - | - | - |
१२ | सुभटवर्मा | १२५७-१२६४ | १२००-१२०७ | - |
१३ | अर्जुनवर्मा | १२६४-१२७५ | १२०७-१२१८ | - |
१४ | देवपाल | १२७५-१२८५ | १२१८-१२२८ | - |
१५ | जैतुगिदेव | १२८५-१२९६ | १२२८-१२३९ | - |
नोट - इस वंशावलीमें दर्शाये गये समय, उदयादित्य व विन्ध्यवर्माके समयके आधारपर अनुमानसे भरे गये हैं। क्योंकि उन दोनोंके समय निश्चित हैं, इसलिए यह समय भी ठीक समझना चाहिए।
3.2 कुरु वंश
इस वंशके राजा पाञ्चाल देशपर राज्य करते थे। कुरुदेश इनकी राजधानी थी। इस वंशमें कुल चार राजाओं का उल्लेख पाया जाता है - १. प्रवाहण जैबलि (ई. पू. १४००); २. शतानीक (ई. पू. १४००-१४२०); ३. जन्मेजय (ई. पू. १४२०-१४५०) ४. परीक्षित (ई. पू. १४५०-१४७०)।
3.3 मगध देशके राज्यवंश
3.3.1 सामान्य परिचय
जै. पी./पु. - जैन परम्परामें तथा भारतीय इतिहासमें किसी समय मगध देश बहुत प्रसिद्ध रहा है। यद्यपि यह देश बिहार प्रान्तके दक्षिण भागमें अवस्थित है, तथापि महावीर तथा बुद्धके कालमें पञ्जाब, सौराष्ट्र, बङ्गाल, बिहार तथा मालवा आदिके सभी राज्य इसमें सम्मिलित हो गये थे। उससे पहले जब ये सब राज्य स्वतन्त्र थे तब मालवा या अवन्ती राज्य और मगध राज्यमें परस्पर झड़पें चलती रहती थीं। मालवा या अवन्तीकी राजधानी उज्जयनी थी जिसपर `प्रद्योत' राज्य करता था और मगधकी राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) या राजगृही थी जिसपर श्रेणिक बिम्बसार राज्य करते थे।
प्रद्योत तथा श्रेणिक प्रायः समकालीन थे। प्रद्योतका पुत्र पालक था और श्रेणिकके दो पुत्र थे, अभय कुमार और अजातशत्रु कुणिक। अभयकुमार श्रेणिकका मन्त्री था जिसने प्रद्योतको बन्दी बनाकर उसके आधीनकर दिया था।३२०। वीर निर्वाणवाले दिन अवन्ती राज्यपर प्रद्योतका पुत्र पालक गद्दीपर बैठा। दूसरी ओर मगध राज्यमें वी. नि. से ९ वर्ष पूर्व श्रेणिकका पुत्र अजातशत्रु राज्यासीन हुआ ।३१६। पालकका राज्य ६० वर्ष तक रहा। इसके राज्यकालमें ही मगधकी गद्दीपर अजातशत्रु का पुत्र उदयी आसीन हो गया था। इससे अपनी शक्ति बढा ली थी जिसके द्वारा इसने पालकको परास्त करके अवन्तीपर अधिकारकर लिया परन्तु उसे अपने राज्यमें नहीं मिला सका। यह काम इसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्धनने किया। यहाँ आकर अवन्ती राज्यकी सत्ता समाप्त हो गई ।३२८, ३३१।
श्रेणिकके वंशमें पुत्र परम्परासे अनेकों राजा हुए। सब अपने-अपने पिताको मारकर राज्यपर अधिकार करते रहे, इसलिये यह सारा वंश पितृघाती कुलके रूपमें बदनाम हो गया। जनताने इसके अन्तिम राजा नागदासको गद्दीसे उतारकर उसके मन्त्री सुसुनागको राजा बना दिया। अवन्तीको अपने राज्यमें मिलाकर मगध देशकी वृद्धि करनेके कारण इसीका नाम नन्दिवर्धन पड़ गया ।३३१। यह नन्दवंशका प्रथम राजा हुआ। इस वंशने १५५ वर्ष राज्य किया। अन्तिम राजा धनानन्द था जो भोग विलासमें पड़ जानेके कारण जनताकी दृष्टिसे उतर गया। उसके मन्त्री शाकटालने कूटनीतिज्ञ चाणक्यकी सहायतासे इसके सारे कुलको नष्ट कर दिया और चन्द्रगुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।३६२।
चन्द्र गुप्तसे मौर्य या मरुड वंशकी स्थापना हुई, जिसका राज्यकाल २५५ वर्ष रहा कहा जाता है। परन्तु जैन इतिहासके अनुसार वह ११५ वर्ष और लोक इतिहासके अनुसार १३७ वर्ष प्राप्त होता है। इस वंशके प्रथम राजा चन्द्रगुप्त जैन थे, परन्तु उसके उत्तराधिकारी बिन्दुसार, अशोक, कुनाल और सम्प्रति ये चारों राजा बौद्ध हो गये थे। इसीलिये बौद्धाम्नायमें इन चारोंका उल्लेख पाया जाता है, जबकि जैनाम्नायमें केवल एक चन्द्रगुप्तका ही काल देकर समाप्तकर दिया गया है ।३१६।
इसके पश्चात् मगध देशपर शक वंशने राज्य किया जिसमें पुष्यमित्र आदि अनेकों राजा हुए जिनका शासन २३० वर्ष रहा। अन्तिम राजा नरवाहन हुआ। तदनन्तर यहाँ भृत्य अथवा कुशान वंशका राज्य आया जिसके राजा शालिवाहनने वी. नि. ६०५ (ई. ७९) में शक वंशी नरवाहनको परास्त करनेके उपलक्षमें शक संवत्की स्थापनाकी। (दे. इतिहास २/४)। इस वंशका शासन २४२ वर्ष तक रहा।
भृत्य वंशके पश्चात् इस देशमें गुप्तवंशका राज्य २३१ वर्ष पर्यन्त रहा, जिसमें चन्द्रगुप्त द्वि. तथा समुद्रगुप्त आदि ६ राजा हुए। परन्तु तृतीय राजा स्कन्दगुप्त तक ही इसकी स्थिति अच्छी रही, क्योंकि इसके कालमें हूनवंशी सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। यद्यपि स्कन्दगुप्तने इन्हें परास्तकर दिया था तदपि इसके उत्तराधिकारी कुमारगुप्तसे उन्होंने राज्यका बहुभाग छीन लिया। यहाँ तक कि ई. ५०० (वी. नि. १०२७) में इस वंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तको जोतकर हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब तथा मालवा (अवन्ती) पर अपना अधिकार जमा लिया, और इसके पुत्र मिहिरपालने इस वंश को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। (क. पा. १/प्र. ५४,६५/पं. महेन्द्र)। इसलिये शास्त्रकारोंने इस वंशकी स्थिति वी. नि. ९५८ (ई. ४३१) तक ही स्वीकार की। जैनआम्नायके अनुसार वी. नि. ९५८ (ई. ४३१)में इन्द्रसुत कल्कीका राज्य प्रारम्भ हुआ, जिसने प्रजापर बड़े अत्याचार किये, यहाँ तक कि साधुओंसे भी उनके आहारका प्रथम ग्रास शुक्लके रूपमें मांगना प्रारम्भकर दिया। इसका राज ४२ वर्ष अर्थात् वी. नि. १००० (ई. ४७३) तक रहा। इस कुलका विशेष परिचय आगे पृथक्से दिया गया है। (दे. अगला उपशीर्षक)।
3.3.2 कल्की वंश
ति. प. ४/१५०९-१५११ तत्तो कक्की जादी इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि वरिसा आऊ विगुणियइगिवीस रज्जंतो ।१५०९। आचारांगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसमवासेसुं। वोलीणेसं बद्धो पट्टो कक्किस्स णरवइणो ।।१५१०।। अहसाहियाण कक्की णियजोग्गे जणपदे पयत्तेणं। सुक्कं जाचदि लुद्धो पिंडग्गं जाव ताव समणाओ ।।१५११।। = गुप्त कालके पश्चात् अर्थात् वी. नि. ९५८ में `इन्द्र' का सुत कल्की अपर नाम चतुर्मुख राजा हुआ। इसकी आयु ७० वर्ष थी और ४२ वर्ष अर्थात् वी. नि. १००० तक उसने राज्य किया ।।१५०९।। आचारांगधरों (वी.नि. ६८३) के पश्चात् २७५ वर्ष व्यतीत होनेपर अर्थात् वी. नि. ९५८ में कल्की राजाको पट्ट बाँधा गया ।।१५१०।। तदनन्तर वह कल्की प्रयत्न पूर्वक अपने-अपने योग्य जनपदोंको सिद्ध करके लोभको प्राप्त होता हुआ मुनियोंके आहारमें-से भी अग्रपिण्डको शुल्कमें मांगने लगा ।।१५११।। (ह.पु. ६०/४९१-४९२)
त्रि.सा. ८५० पण्णछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदे। सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहिय सगमासं।। = वीर निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ मास पश्चात् शक राजा हुआ और उसके ३९४ वर्ष ७ मास पश्चात् अर्थात् वीर निर्वाणके १००० वर्ष पश्चात् कल्की राजा हुआ। उ. पु. ७६/३९७-४०० दुष्षमायां सहस्राब्दव्यतीतौ धर्महानितः ।३९७। पुरे पाटलिपुत्राख्ये शिशुपालमहीपतेः। पापी तनूजः पृथिवीसुन्दर्यां दुर्जनादिमः ।३९८। चतुर्मुखाह्वयः कल्किराजो वेजितभूतलः।....।३९९। समानां सप्तितस्य परमायुः प्रकीर्तितम्। चत्वारिंशत्समा राज्यस्थितिश्चाक्रमकारिणः ।।४०।। = जन्म दुःखम कालके १००० वर्ष पश्चात्। आयु ७० वर्ष। राज्यकाल ४० वर्ष। राजधानी पाटलीपुत्र। नाम चतुर्मुख। पिता शिशुपाल।
नोट - शास्त्रोल्लिखित उपर्युक्त तीन उद्धरणोंसे कल्कीराजके विषयमें तीन दृष्टियें प्राप्त होती हैं। तीनों ही के अनुसार उसका नाम चतुर्मुख था, आयु ७० वर्ष तथा राज्यकाल ४० अथवा ४२ वर्ष था। परन्तु ति. प. में उसे इन्द्र का पुत्र बताया गया है और उत्तर पुराणमें शिशुपालका। राज्यारोहण कालमें भी अन्तर है। ति. प. के अनुसार वह वी. नि. ९५८ में गद्दीपर बैठा, त्रि. सा. के अनुसार वी. नि. १००० में और उ. पु. के अनुसार दुःषम काल (वी. नि. ३) के १००० वर्ष पश्चात् अर्थात् १००३ में उसका जन्म हुआ और १०३३ से १०७३ तक उसने राज्य किया। यहाँ चतुर्मुखको शिशुपालका पुत्र भी कहा है। इसपरसे यह जाना जाता है कि यह कोई एक राजा नहीं था, सन्तान परम्परासे होनेवाले तीन राजा थे - इन्द्र, इसका पुत्र शिशुपाल और उसका पुत्र चतुर्मुख। उत्तरपुराणमें दिये गए निश्चित काल के आधारपर इन तीनोंका पृथक्-पृथक् काल भी निश्चित हो जाता है। इन्द्रका वी. नि. ९५८-१०००, शिशुपालका १०००-१०३३, और चतुर्मुखका १०३३-१०७३ । तीनों ही अत्यन्त अत्याचारी थे।
3.3.3 हून वंश
क. पा. १/प्र. ५४/६५ (पं. महेन्द्र कुमार) - लोक-इतिहासमें गुप्त वंशके पश्चात् कल्कीके स्थानपर हूनवंश प्राप्त होता है। इसके राजा भी अत्यन्त अत्याचारी बताये गये हैं और काल भी लगभग वही है, इसलिये कहा जा सकता है कि शास्त्रोक्त कल्की और इतिहासोक्त हून एक ही बात है। जैसा कि मगध राज्य वंशोंका सामान्य परिचय देते हुए बताया जा चुका है इस वंशके सरदार गुप्तकालमें बराबर जोर पकड़ते जा रहे थे और गुप्त राजाओंके साथ इनकी मुठभेड़ बराबर चलती रहती थी। यद्यपि स्कन्द गुप्त (ई. ४१३-४३५) ने अपने शासन कालमें इसे पनपने नहीं दिया, तदपि उसके पश्चात् इसके आक्रमण बढ़ते चले गए। यद्यपि कुमार गुप्त (ई. ४३५-४६०) को परास्त करनेमें यह सफल नहीं हो सका तदपि उसकी शक्तिको इसने क्षीण अवश्य कर दिया, यहाँ तक कि इसके द्वितीय सरदार तोरमाणने ई. ५०० में गुप्तवंशके अन्तिम राजा भानुगुप्तके राज्यको अस्त-व्यस्त करके सारे पंजाब तथा मालवापर अपना अधिकार जमा लिया। ई. ५०७ में इसके पुत्र मिहिरकुलने भानुगुप्तको परास्तकरके सारे मगधपर अपना एक छत्र राज्य स्थापित कर दिया।
परन्तु अत्याचारी प्रवृत्तिके कारण इसका राज्य अधिक काल टिक न सका। इसके अत्याचारोंसे तंग आकर विष्णु-यशोधर्म नामक एक हिन्दू सरदारने मगधकी बिखरी हुई शक्तिको संगठित किया और ई. ५२८ में मिहिरकुलको मार भगाया। उसने कशमीरमें शरण ली और ई. ५४० में वहाँ ही उसकी मृत्यु हो गई।
विष्णु-यशोधर्म कट्टर वैष्णव था, इसलिये उसने यद्यपि हिन्दू धर्मकी बहुत वृद्धिकी तदपि साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण जैन संस्कृतिपर तथा श्रमणोंपर बहुत अत्याचार किये, जिसके कारण जैनाम्नायमें यह कल्की नामसे प्रसिद्ध हो गया और हिन्दुओंने इसे अपना अन्तिम अवतार (कल्की अवतार) स्वीकार किया।
जैन मान्य कल्कि वंशकी हून वंशके साथ तुलना करनेपर हम कह सकते हैं वी. नि. ९५८-१००० (ई. ४३१-४७३) में होनेवाला राजा इन्द्र इस कुलका प्रथम सरदार था, वी. नि. १०००-१०३३ (ई. ४७३-५०६) का शिशुपाल यहाँ तोरमाण है, वी. नि. १०३३-१०७३ वाला चतुर्मुख यहाँ ई. ५०६-५४६ का मिहिरकुल है। विष्णु यशोधर्मके स्थानपर किसी अन्य नामका उल्लेख न करके उसके कालको भी यहाँ चतुर्मुखके कालमें सम्मिलित कर लिया गया है।
3.3.4 काल निर्णय
अगले पृष्ठकी सारणीमें मगधके राज्यवंशों तथा उनके राजाओंका शासन काल विषयक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
आधार-जैन शास्त्र = ति. प. ४/१५०५-१५०८; ह. पु. ६०/४८७-४९१।
सन्धान - ति. प. २/प्र. ७, १४। उपाध्ये तथा एच. ऐल. जैन; ध. १/प्र. ३३/एच. एल. जैन; क. पा. १/प्र. ५२-५४ (६४-६५)। पं. महेन्द्रकुमार; द. सा./प्र. २८/पं. नाथूराम प्रेमी; पं. कैलाश चन्दजी कृत जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका।
प्रमाण - जैन इतिहास = जैन साहित्य इतिहास पूर्व पीठिका/ पृष्ठ संख्या
संकेत - वी. नि. = वीर निर्वाण संवत्; ई. पू. = ईसवी पूर्व; ई. = ईसवी; पू. = पूर्व; सं. = संवत्; वर्ष= कुल शासन काल; लोक इतिहास = वर्तमान इतिहास।
नाम | जैन शास्त्र (ति. प. ४/१५०५) | मत्स्य पुराण | जैन इतिहास | विशेषताएँ | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | प्रमाण | वी.नि. | ई.पू. | प्रमाण | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | |
अवन्ती राज्य | |||||||||
१. प्रद्योत वंश | |||||||||
सामान्य | - | - | - | ३१७ | १२५ | - | - | - | |
प्रद्योत | - | - | - | ३१७ | २३ | ३२५ | ५६०-५२७ | ३३ | श्रेणिक तथा अजातशत्रुका समकालीन ।३२२। श्रेणिकके मन्त्री अभयकुमारने बन्दी बनाकर श्रेणिकके आधीन किया था ।३२०। |
पालक | ३२६ | Jan-१९६० | ५२७-४६७ | - | - | ३२५ | ५२७-४६७ | ६० | इसे गद्दीसे उतारकर जनताने मगध नरेश उदयी (अजक) को राजा स्वीकार कर लिया ।३३२। |
विशाखयूप | - | - | - | ३१७ | ५३ | - | - | - | |
आर्यक, सूर्यक | - | - | - | ३१८ | २१ | - | - | - | |
अजक (उदयी) | - | - | - | - | - | - | ४९९-४६७ | ३२ | मगध शासनके ५३ वर्षोंमें से अन्तिम ३२ वर्ष इसने अवन्ती पर शासन किया ।२८९। परन्तु दुष्टताके कारण किसी भ्रष्ट राजकुमारके हाथों धोखेसे निःसन्तान मारा गया ।२३२। |
नन्दि वर्द्धन | - | - | - | - | - | - | ४६७-४४९ | १८ | इसने मगधमें मिलाकर इस राज्यका अन्तकर दिया ।३२८। |
मगध राज्य | |||||||||
१. शिशुनाग वंश | |||||||||
सामान्य | - | - | - | - | १२६ | - | - | - | |
शिशुनाग | - | - | - | ३१८ | ४० | - | - | - | जायसवालजीके अनुसार श्रेणिक वंशीय दर्शकके अपर नाम हैं। शिशुनाग तथा काकवण उसके विशेषण हैं ।३२२। |
काकवर्ण | - | - | - | ३१८ | २६ | - | - | - | |
क्षेत्रधर्मा | - | - | - | ३१८ | ३६ | - | - | - | |
क्षतौजा | - | - | - | ३१८ | २४ | - | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
नाम | बौद्ध शास्त्र महावंश | मत्स्यपुराण | जैन इतिहास | विशेषताएँ | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | प्रमाण | बु.नि. | ई.पू. | वर्ष | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | |
२. श्रेणिक वंश | |||||||||
सामान्य | राज्यके लोभसे अपने अपने पिताकी हत्या करनेके कारण यह कुल पितृघाती नामसे प्रसिद्ध है ।३१४। | ||||||||
श्रेणिक (बिम्बसार) | - | - | - | - | २८ | ३०८ | ६०४-६५२ | ५२ | बुद्ध तथा महावीरके समकालीन ।३०४। इसके पुत्र अजातशत्रुका राज्याभिषेक ई. पू. ५५२ में निश्चित है। |
अजातशत्रु (कुणिक) | ३१६ | पू. ८-सं.२४ | ५५२-५२० | ३२ | २७ | ३०८ | ५५२-५२० | ३२ | |
भूमिमित्र | - | - | - | - | १४ | - | - | - | बौद्ध ग्रन्थोंमें इसका उल्लेख नहीं है ।३२२। |
दर्शक | - | - | - | - | २७ | - | - | - | इसकी बहन पद्मावतीका विवाह उदयीके साथ होना माना गया है ।३२३। |
- | - | - | - | - | २४ | - | - | - | |
वंशक | |||||||||
उदयी | ३१४ | २४-४० | ५२०-५०४ | १६ | ३३ | ३३३ | ५२०-४६७ | ५३ | अजातशत्रुका पुत्र ।३१४। अपरनाम अजक । ३२८। ई. पू. ४२९ में पालकको गद्दीसे हटाकर जनताने इसे अवन्तीका शासक बना दिया परन्तु यह उसे अपने देशमें नहीं मिला सका ।३२८। |
अनुरुद्ध | ३१४ | ४०-४४ | ५०४-५०० | ४ | - | ३३५ | ४६७-४५८ | ९ | |
मुण्ड | ३१४ | ४४-४८ | ५००-४९६ | ४ | - | ३३५ | ४५८-४४९ | ८ | |
नागदास | ३१४ | ४८-७२ | ४९६-४७२ | २४ | - | ३१४ | ४४९-४४९ | ० | पितृघाती कुलको समाप्त करनेके लिए जनताने उसके स्थानपर इसके मन्त्रीको राजा बना दिया ।३१४। |
सुसुनाग (नन्दिवर्धन) | ३१५ | ७२-९० | ४७२-४५४ | १८ | ४० | ३१४ | ४४९-४०९ | ४० | नागदासका मन्त्री जिसे जनताने राजा बनाया ।३१४। अवन्ती राज्यको मिलाकर अपने देशकी वृद्धि करनेके कारण नन्दिवर्द्धन नाम पड़ा ।३३१। |
कालासोक | ३१५ | ९०-११८ | ४५४-४२६ | २८ | - | - | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
नाम | जैन शास्त्र (ति. प. ४) १५०६ | मत्स्य पुराण | जैन इतिहास | विशेषताएँ | ||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | प्रमाण | वी.नी. | ई.पू. | वर्ष | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | ||
३. नन्द वंश | ||||||||||
सामान्य | ३२९ | ६०-२१५ | ४६७-३१२ | १५५* | १८३ | - | - | - | खारवेल शिलालेखके आधारपर क्योंकि नंदिवर्द्धनका राज्याभिषेक ई. पू. ४५८ में होना सिद्ध होता है इसलिए जायसवाल जीने राजाओंके उपर्युक्त क्रममें कुछ हेर-फेर करके संगति बैठानेका प्रयत्न किया है ।३३४। श्रेणिक वंशीय नामदासका मन्त्री ही नन्दिवर्द्धनसे प्रसिद्ध हो गया था। (दे. ऊपर)। वास्तवमें यह नन्द वंशके राजाओंमें सम्मिलित नहीं थे। इस वंशमें नव नन्द प्रसिद्ध हैं। जिनका उल्लेख आगे किया गया है ।३३१। | |
अनुरुद्ध | - | - | - | - | - | ३३४ | ४६७-४५८ | ९ | ||
नन्दिवर्द्धन (सुसुनाग) | - | - | - | - | ४० | ३३४ | ४५८-४१८ | ४० | ||
मुण्ड | - | - | - | - | - | ३३४ | ४१८-४१० | ८ | ||
लोक इतिहास | ||||||||||
नव नन्द :- | - | - | ५२६-३२२ | २०४ | - | - | ४१०-३२६ | ८४ | ||
महानन्द | - | - | - | - | ४३ | ३३४ | ४१०-३७४ | ३६ | नन्दिवर्द्धनका उत्तराधिकारी तथा नन्द वंशका प्रथम राजा ।३३१। | |
महानन्दके २ पुत्र | - | - | - | - | - | ३३४ | ३७४-३६६ | ८ | ||
महापद्मनन्द (तथा इनके ४ पुत्र) | - | - | - | - | ८८ | ३३४ | ३६६-३३८ | २८* | ८८ तथा २८ वर्ष की गणनामें ६० वर्षका अन्तर है। इसके समाधानके लिए देखो नीचे टिप्पणी। | |
धनानन्द | - | - | - | - | १२ | ३३४ | ३३८-३२६ | १२ | भोग विलासमें पड़ जानेके कारण इसके कुलको नष्ट कर के इसके मन्त्री शाकटालने चाणक्यकी सहायतासे चन्द्र गुप्त मौर्यको राजा बना दिया ।३६४। |
* जैन शास्त्रके अनुसार पालकका काल ६० वर्ष और नन्द वंशका १५५ वर्ष है। तदनन्तर अर्थात् वी. नि. २१५ में चन्द्रगुप्त मौर्यका राज्याभिषेक हुआ। श्रुतकेवली भद्रबाहु (वी. नि. १६२) के समकालीन बनानेके अर्थ श्वे. आचार्य श्री हेमचन्द्र सूरिने इसे वी. नि. १५५ में राज्यारूढ़ होनेकी कल्पना की। जिसके लिए उन्हें नन्द वंशके कालको १५५ से घटा कर ९५ वर्ष करना पड़ा। इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्यके कालको लेकर ६० वर्षका मतभेद पाया जाता है ।३१३। दूसरी ओर पुराणोंमें नन्द वंशीय महापद्मनन्दिके कालको लेकर ६० वर्षका मतभेद है। वायु पुराणमें उसका काल २८ वर्ष है और अन्य पुराणोंमें ८८ वर्ष। ८८ वर्ष मानने पर नन्द वंशका काल १८३ वर्ष आता है और २८ वर्ष मानने पर १२३ वर्ष। इस कालमें उदयी (अजक) के अवन्ती राज्यवाले ३२ वर्ष मिलानेपर पालकके पश्चात् नन्द वंशका काल १५५ वर्ष आ जाता है। इसलिए उदयी (अजक) तथा उसके उत्तराधिकारी नन्दिवर्द्धनकी गणना नन्द वंशमें करनेकी भ्रान्ति चल पड़ी है। वास्तवमें ये दोनों राजा श्रेणिक वंशमें हैं, नन्द वंशमें नहीं। नन्द वंशमें नव नन्द प्रसिद्ध हैं जिनका काल महापद्मनन्दसे प्रारम्भ होता है ।३३१।
<thead> </thead> <tbody> </tbody>नाम | जैन शास्त्र ति. प. ४/१५०६ | जैन इतिहास | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | वी.नि. | ई.पू. | वर्ष | प्रमाण | ई.पू. | वर्ष | ई.पू. | वर्ष | |
४. मौर्य या मुरुड़ वंश- | |||||||||
सामान्य | २१५-४७० | ३१२-५७ | २५५ | - | ३२६-२११ | ११५ | ३२२-१८५ | १३७ | |
चन्द्रगुप्त प्र. | २१५-२५५ | ३१२-२७२ | ४० | ३५८ | ३२६-३०२ | २४ | ३२२-२९८ | २४ | जिन दीक्षा धारण करने वाले ये अन्तिम राजा थे। |
- | - | - | - | ३३६ | - | - | - | - | ति. प. ४/१४८१। बुद्ध निर्वाण (ई. पू. ५४४) से २१८ वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठे ।२८७। श्रुतकेवली भद्र बाहु (वी. नि. १६२) के साथ दक्षिण गये। (दे. इतिहास ४)। |
बिन्दुसार | - | - | - | - | ३०२-२७७ | २५ | २९८-२७३ | २५ | चन्द्रगुप्तका पुत्र ।३५८। |
अशोक | - | - | - | - | २७७-२३६ | ४१ | २७३-२३२ | ४१ | |
कुनाल | - | - | - | ३५९ | २३६-२२८ | ८ | २३२-१८५ | ४७ | |
दशरथ | - | - | - | ३५९ | २२८-२२० | ८ | - | - | कुनालके ज्येष्ठ पुत्र अशोकका पोता ।३५१। |
सम्प्रति (चन्द्रगुप्त द्वि.) | - | - | - | ३५८ | २२०-२११ | ९ | - | - | कुनालका लघु पुत्र अशोकका पोता चन्द्रगुप्तके १०५ वर्ष पश्चात् और अशोकके १६ वर्ष पश्चात् गद्दी पर बैठा ।३५९। |
विक्रमादित्य* | ४१०-४७० | ११७-५७ | ६० | - | - | - | - | - | *यह नाम क्रमबाह्य है। |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
वंशका नाम सामान्य/विशेष | जैन शास्त्र ति. प. ४/१५०७ | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|
वी.नि. | ई.पू. | वर्ष | ई.पू. | वर्ष | ||||
५. शक वंश- | ||||||||
सामान्य | २५५-४८५ | २७२-४२ | २३० | १८५-१२० | ६५ | यह वास्तवमें कोई एक अखण्ड वंश न था, बल्कि छोटे-छोटे सरदार थे, जिनका राज्य मगध देशकी सीमाओंपर बिखरा हुआ था। यद्यपि विक्रम वंशका राज्य वी. नि. ४७० में समाप्त हुआ है, परन्तु क्योंकि चन्द्रगुप्तके कालमें ही इन्होंने छोटी-छोटी रियासतों पर अधिकार कर लिया था, इसलिए इनका काल वी. नि. २५५ से प्रारम्भ करने में कोई विरोध नहीं आता। | ||
प्रारम्भिक अवस्था में | २५५-३४५ | २७२-१८२ | ९० | - | - | |||
१. पुष्य मित्र | २५५-२८५ | २७२-२४२ | ३० | - | - | |||
२. चक्षु मित्र (वसुमित्र) | २८५-३४५ | २४२-१८२ | ६० | - | - | |||
अग्निमित्र (भानुमित्र) | २८५-३४५ | २४२-१८२ | ६० | - | - | वसुमित्र और अग्निमित्र समकालीन थे, तथा पृथक्-पृथक् प्रान्तों में राज्य करते थे | ||
प्रबल अवस्थामें | अनुमानतः | |||||||
गर्दभिल्ल (गन्धर्व) | ३४५-४४५ | १८२-८२ | १०० | १८१-१४१ | ४० | यद्यपि गर्दभिल्ल व नरवाहनका काल यहाँ ई. पू. १४२-८२ दिया है, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि आगे राजा शालिवाहन द्वारा वी. नि. ६०५ (ई. ७९) में नरवाहनका परास्त किया जाना सिद्ध है। अतः मानना होगा कि अवश्य ही इन दोनोंके बीच कोई अन्य सरदार रहे होंगे, जिनका उल्लेख नहीं किया गया है। यदि इनके मध्यमें ५ या ६ सरदार और भी मान लिए जायें तो नरवाहनकी अन्तिम अवधि ई. १२० को स्पर्श कर जायेगी। और इस प्रकार इतिहासकारोंके समयके साथ भी इसका मेल खा जायेगा और शालिवाहनके समयके साथ भी। | ||
अन्य सरदार | ४४५-५६६ | ई.पू. ८२-ई. ३९ | १२१ | १४१-ई. ८० | २२१ | |||
नरवाहन (नमःसेन) | ५६६-६०६ | ३९-७९ | ४० | ८०-१२० | ४० | |||
६. भृत्य वंश (कुशान वंश) - | - | - | - | - | - | इतिहासकारोंकी कुशान जाति ही आगमकारोंका भृत्य वंश है क्योंकि दोनोंका कथन लगभग मिलता है। दोनों ही शकों पर विजय पानेवाले थे। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनोंने समान समय में ही शकोंका नाश किया है। उधर शालिवाहन और इधर कनिष्क दोनों ही समान पराक्रमी शासक थे। दोनोंका ही साम्राज्य विस्तृत था। कुशान जाति एक बहिष्कृत चीनी जाति थी जिसे ई. पू. दूसरी शताब्दीमें देशसे निकाल दिया गया था। वहाँसे चलकर बखतियार व काबुलके मार्गसे ई. पू. ४१ के लगभग भारतमें प्रवेश कर गये। यद्यपि कुछ छोटे-मोटे प्रदेशों पर इन्होंने अधिकार कर लिया था परन्तु ई. ४० में उत्तरी पंजाब पर अधिकार कर लेनेके पश्चात् ही इनकी सत्ता प्रगट हुई। यही कारण है कि आगम व इतिहासको मान्यताओंमें इस वंशकी पूर्वावधिके सम्बन्धमें ८० वर्षका अन्तर है। | ||
सामान्य | ४८५-७२७ | पू. ४२-- ई. २०० | २४२ | ४०-३२० | २८० | |||
प्रारम्भिक-अवस्थामें | ४८५-५६६ | पू. ४२-ई. ३९ | ८१ | - | - |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
वंशका नाम सामान्य/विशेष | लोक इतिहास | विशेष घटनायें | |||
---|---|---|---|---|---|
ईसवी | वर्ष | ||||
प्रबल स्थितिमें | - | - | ई. ४० में ही इसकी स्थिति मजबूत हुई और यह जाति शकों के साथ टक्कर लेने लगी। इस वंशके दूसरे राजा गौतमी पुत्र सातकर्णी (शालिवाहन)ने शकोंके अन्तिम राजा नरवाहनको वी. नि. ६०६ (ई. ७९) में परास्त करके शक संवत्की स्थापना की। (क. पा. १/प्र./५३/६४/पं. महेन्द्र।) | ||
गौतम | ४०-७४ | ३४ | |||
शालिवाहन (सातकर्णि) | ७४-१२० वी.नि. ६०१-६४७ | ४६ | |||
कनिष्क | १२०-१६२ | ४२ | राजा कनिष्क इस वंशका तीसरा राजा था, जिसने शकोंका मूलच्छेद करके भारतमें एकछत्र विशाल राज्यकी स्थापना की। | ||
अन्य राजा | १६२-२०१ | ३९ | कनिष्कके पश्चात् भी इस जातिका एकछत्र शासन ई. २०१ तक चलता रहा इसी कारण आगमकारोंने यहाँ तक ही इसकी अवधि अन्तिम स्वीकार की है। परन्तु इसके पश्चात् भी इस वंशका मूलोच्छेद नहीं हुआ। गुप्त वंशके साथ टक्कर हो जानेके कारण इसकी शक्ति क्षीण होती चली गयी। इस स्थितिमें इसकी सत्ता ई. २०१-३२० तक बनी रही। यही कारण है कि इतिहासकार इसकी अन्तिम अवधि ई. २०१ की बजाये ३२० स्वीकार करते हैं। | ||
क्षीण अवस्थामें | २०१-३२० | ११९ | |||
७. गुप्त वंश- | आगमकारों व इतिहासकारोंकी अपेक्षा इस वंशकी पूर्वावधिके सम्बन्धमें समाधान ऊपर कर दिया गया है कि ई. २०१-३२० तक यह कुछ प्रारम्भिक रहा है। | ||||
सामान्य | जैन शास्त्र | २३१ | |||
प्रारम्भिक | इतिहास | ||||
अवस्थामें | ३२०-४६० | १४० | इसने एकछत्र गुप्त साम्राज्य की स्थापना करनेके उपलक्ष्यमें गुप्त सम्वत् चलाया। इसका विवाह लिच्छिव जातिकी एक कन्याके साथ हुआ था। यह विद्वानोंका बड़ा सत्कार करता था। प्रसिद्ध कवि कालिदास (शकुन्तला नाटककार) इसके दरबारका ही रत्न था। | ||
चन्द्रगुप्त | ३२०-३३० | १० | |||
समुद्रगुप्त | ३३०-३७५ | ४५ | |||
चन्द्रगुप्त - (विक्रमादित्य) | ३७५-४१३ | ३८ | |||
स्कन्द गुप्त | ४१३-४३५ वी. नि. | २२ | इसके समयमें हूनवंशी (कल्की) सरदार काफी जोर पकड़ चुके थे। उन्होंने आक्रमण भी किया परन्तु स्कन्द गुप्तके द्वारा परास्त कर दिये गये। ई. ४३७ में जबकि गुप्त संवत् ११७ था यही राजा राज्य करता था। (क. पा. १/प्र. /५४/६५/पं. महेन्द्र) | ||
- | ९४०-९६२ | - | इस वंशकी अखण्ड स्थिति वास्तवमें स्कन्दगुप्त तक ही रही। इसके पश्चात्, हूनोंके आक्रमणके द्वारा इसकी शक्ति जर्जरित हो गयी। यही कारण है कि आगमकारोंने इस वंशकी अन्तिम अवधि स्कन्दगुप्त (वी. नि. ९५८) तक ही स्वीकार की है। कुमारगुप्तके कालमें भी हूनों के अनेकों आक्रमण हुए जिसके कारण इस राज्यका बहुभाग उनके हाथमें चला गया और भानुगुप्तके समयमें तो यह वंश इतना कमजोर हो गया कि ई. ५०० में हूनराज तोरमाणने सारे पंजाब व मालवा पर अधिकार जमा लिया। तथा तोरमाणके पुत्र मिहरपालने उसे परास्त करके नष्ट ही कर दिया। | ||
कुमार गुप्त | ४३५-४६० | २५ | |||
भानु गुप्त | ४६०-५०७ | ४७ |
<thead> </thead> <tbody> </tbody>
जैन शास्त्रका कल्की वंश | इतिहासका हून वंश | ||||
---|---|---|---|---|---|
८. कल्की तथा हून वंश* | |||||
नाम | वी.नि. | वर्ष | नाम | ईस.वी. | वर्ष |
सामान्य | ९५८-१०७३ | ११५ | सामान्य | ४३१-५४६ | ११५ |
इन्द्र | ९५८-१००० | ४२ | - | ४३१-४७३ | ४२ |
शिशुपाल | १०००-१०३३ | ३३ | तोरमाण | ४७६-५०६ | ३३ |
चतुर्मुख | १०३३-१०५५ | ४० | मिहिरकुल | ५०६-५२८ | २ |
चतुर्मुख | १०५५-१०७३ | - | विष्णु यशोधर्म | ५२८-५४६ | १८ |
आगमकारोंका कल्की वंश ही इतिहासकारोंका हूणवंश है, क्योंकि यह एक बर्बर जंगली जाति थी, जिसके समस्त राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की कहलाते थे। आगम व इतिहास दोनोंकी अपेक्षा समय लगभग मिलता है। इस जातिने गुप्त राजाओंपर स्कन्द गुप्तके समयसे ई. ४३२ से ही आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे। (विशेष दे. शीर्षक २ व ३)
नोट-जैनागममें प्रायः सभी मूल शास्त्रोंमें इस राज्यवंशका उल्लेख किया गया है। इसके कारण भी दो हैं-एक तो राजा `कल्की' का परिचय देना और दूसरे वीरप्रभुके पश्चात् आचार्योंकी मूल परम्पराका ठीक प्रकारसे समय निर्णय करना। यद्यपि अन्य राज्य वंशोंका कोई उल्लेख आगममें नहीं है, परन्तु मूल परम्पराके पश्चात्के आचार्यों व शास्त्र-रचयिताओंका विशद परिचय पानेके लिए तात्कालिक राजाओंका परिचय भी होना आवश्यक है। इसलिये कुछ अन्य भी प्रसिद्ध राज्य वंशोंका, जिनका कि सम्बन्ध किन्हीं प्रसिद्ध आचार्यों के साथ रहा है, परिचय यहाँ दिया जाता है।
3.4 राष्ट्रकूट वंश (प्रमाणके लिए - दे. वह वह नाम)
सामान्य-जैनागमके रचयिता आचार्योंका सम्बन्ध उनमें-से सर्व प्रथम राष्ट्रकूट राज्य वंशके साथ है जो भारतके इतिहासमें अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस वंशमें चार ही राजाओंका नाम विशेष उल्लेखनीय है-जगतुङ्ग, अमोघवर्ष, अकालवर्ष और कृष्णतृतीय। उत्तर उत्तरवाला राजा अपनेसे पूर्व पूर्वका पुत्र था। इस वंशका राज्य मालवा प्रान्तमें था। इसकी राजधानी मान्यखेट थी। पीछेसे बढ़ाते-बढ़ाते इन्होंने लाट देश व अवन्ती देशको भी अपने राज्यमें मिला लिया था।
१. जगतुङ्ग-राष्ट्रकूट वंशके सर्वप्रथम राजा थे। अमोघवर्षके पिता और इन्द्रराजके बड़े भाई थे अतः राज्यके अधिकारी यही हुए। बड़े प्रतापी थे इनके समयसे पहले लाट देशमें `शत्रु-भयंकर कृष्णराज' प्रथम नामके अत्यन्त पराक्रमी और व प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे। इनके पुत्र श्री वल्लभ गोविन्द द्वितीय कहलाते थे। राजा जगतुङ्गने अपने छोटे भाई इन्द्रराजकी सहायतासे लाट नरेश `श्रीवल्लभ' को जीतकर उसके देशपर अपना अधिकारकर लिया था, और इसलिये वे गोविन्द तृतीयकी उपाधि को प्राप्त हो गये थे। इनका काल श. ७१६-७३५ (ई. ७९४-८१३) निश्चित किया गया है। २. अमोघवर्ष-इस वंशके द्वितीय प्रसिद्ध राजा अमोघवर्ष हुये। जगतुङ्ग अर्थात् गोविन्द तृतीय के पुत्र होने के कारण गोविन्द चतुर्थ की उपाधिको प्राप्त हुये। कृष्णराज प्रथम (देखो ऊपर) के छोटे पुत्र ध्रुव राज अमोघ वर्ष के समकालीन थे। ध्रुवराज ने अवन्ती नरेश वत्सराज को युद्ध में परास्त करके उसके देशपर अधिकार कर लिया था जिससे उसे अभिमान हो गया और अमोघवर्षपर भी चढ़ाईकर दी। अमोघवर्षने अपने चचेरे भाई कर्कराज (जगतुङ्गके छोटे भाई इन्द्रराजका पुत्र) की सहायतासे उसे जीत लिया। इनका काल वि. ८७१-९३५ (ई. ८१४-८७८) निश्चित है। ३. अकालवर्ष-वत्सराजसे अवन्ति देश जीतकर अमोघवर्षको दे दिया। कृष्णराज प्रथमके पुत्रके राज्य पर अधिकार करनेके कारण यह कृष्णराज द्वितीयकी उपाधिको प्राप्त हुये। अमोघवर्षके पुत्र होनेके कारण अमोघवर्ष द्वितीय भी कहलाने लगे। इनका समय ई. ८७८-९१२ निश्चित है। ४. कृष्णराज तृतीय-अकालवर्षके पुत्र और कृष्ण तृतीयकी उपाधिको प्राप्त थे।
4. दिगम्बर मूल संघ
4.1 मूलसंघ
भगवान् महावीरके निर्वाणके पश्चात् उनका यह मूल संघ १६२ वर्षके अन्तरालमें होने वाले गौतम गणधरसे लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी तक अविच्छिन्न रूपसे चलता रहा। इनके समयमें अवन्ती देशमें पड़नेवाले द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षके कारण इस संघके कुछ आचार्योंने शिथिलाचारको अपनाकर आ. स्थूलभद्रकी आमान्य में इससे विलग एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर संघकी स्थापना कर दी जिससे भगवानका एक अखण्ड दो शाखाओंमें विभाजित हो गया (विशेष दे. श्वेताम्बर)। आ. भद्रबाहु स्वामीकी परम्परामें दिगम्बर मूल संघ श्रुतज्ञानियोंके अस्तित्वकी अपेक्षा वी. नि. ६८३ तक बना रहा, परन्तु संघ व्यवस्थाकी अपेक्षासे इसकी सत्ता आ. अर्हद्बली (वी.नि. ५६५-५९३) के कालमें समाप्त हो गई।
ऐतिहासिक उल्लेखके अनुसार मलसंघका यह विघटन वी. नि. ५७५ में उस समय हुआ जबकि पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमणके अवसरपर आ. अर्हद्बलिने यत्र-तत्र बिखरे हुए आचार्यों तथा यतियोंको संगठित करनेके लिये दक्षिण देशस्थ महिमा नगर (जिला सतारा) में एक महान यति सम्मेलन आयोजित किया जिसमें १००-१०० योजनसे आकर यतिजन सम्मिलित हुए। उस अवसर पर यह एक अखण्ड संघ अनेक अवान्तर संघोंमें विभक्त होकर समाप्त हो गया (विशेष दे. परिशिष्ट २/२)
4.2 मूलसंघकी पट्टावली
वीर निर्वाणके पश्चात् भगवान्के मूलसंघकी आचार्य परम्परामें ज्ञानका क्रमिक ह्रास दर्शानेके लिए निम्न सारणीमें तीन दृष्टियोंका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। प्रथम दृष्टि तिल्लोय पण्णति आदि मूल शास्त्रोंकी है, जिसमें अंग अथवा पूर्वधारियोंका समुदित काल निर्दिष्ट किया गया है। द्वितीय दृष्टि इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार की है जिसमें समुदित कालके साथ-साथ आचार्योंका पृथक्-पृथक् काल भी बताया गया है। तृतीय दृष्टि पं. कैलाशचन्दजी की है जिसमें भद्रबाहु प्र. की चन्द्रगुप्त मौर्यके साथ समकालीनता घटित करनेके लिये उक्त कालमें कुछ हेरफेर करनेका सुझाव दिया गया है (विशेष दे. परिशिष्ट २)।
दृष्टि नं. १ = (ति. प. ४/१४७५-१४९६), (ह. पु. ६०/४७६-४८१); (ध. ९/४,१/४४/२३०); (क.पा. १/$६४/८४); (म.पु. २/१३४-१५०)
दृष्टि नं. २ = इन्द्रनन्दि कृत नन्दिसंघ बलात्कार गणकी पट्टावली/श्ल. १-१७); (ती. २/१६ पर तथा ४/३४७ पर उद्धृत)
दृष्टि नं. ३ = जै.पी. ३५४ (पं. कैलाश चन्द)।
क्रम | नाम | अपर नाम | दृष्टि नं. १ | दृष्टि नं. २ | दृष्टि नं. ३ | विशेष | |||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
- | - | - | ज्ञान | समुदित काल | ज्ञान | कुल वर्ष | वी.नि.सं. | समुदित काल | वी.नि.सं. | कुल वर्ष | |
वीर निर्वाण के पश्चात्- | वर्ष | ० | - | ० | |||||||
१ | गौतम | इन्द्रभूति गणधर | केवली | ६२ वर्ष | केवली | १२ | ०-१२ | ६२ वर्ष | ०-१२ | १२ | |
२ | सुधर्मा | लोहार्य | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | ६२ वर्ष | केवली | १२ | २४-Dec | ६२ वर्ष | २४-Dec | १२ | |
३ | जम्बू | - | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | ६२ वर्ष | केवली | ३८ | २४-६२ | ६२ वर्ष | २४-६२ | ३८ | |
४ | विष्णु | नन्दि | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | १४ | ६२-७६ | ६२ वर्ष | ६२-८८ | २६ | |
५ | नन्दि मित्र | नन्दि | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | १६ | ७६-९२ | ६२ वर्ष | ८८-११६ | २८ | |
६ | अपराजित | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | २२ | ९२-११४ | ६२ वर्ष | ११६-१५० | ३४ | ||
७ | गोवर्धन | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | १९ | ११४-१३३ | १०० वर्ष | १५०-१८० | ३० | ||
८ | भद्रबाहु प्र. | पूर्ण श्रुतकेवली ११ अंग १४ पूर्व | १०० वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | २९ | १३३-१६२ | १०० वर्ष | १८०-२२२ | ४१ | ||
९ | विशाखाचार्य | विशाखदत्त | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | श्रुतकेवली या ११ अंग १४ पूर्वधारी | १० | १६२-१७२ | १०० वर्ष | २२२-२३२ | १० | |
१० | प्रोष्ठिल | चन्द्रगुप्त मौर्य | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १९ | १७२-१९१ | १०० वर्ष | २३२-२५१ | १९ | |
११ | क्षत्रिय | कृति कार्य | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १७ | १९१-२०८ | १०० वर्ष | २५१-२६८ | १७ | |
१२ | जयसेन | जय | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | २१ | २०८-२२९ | १०० वर्ष | २६८-२८९ | २१ | |
१३ | नागसेन | नाग | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १८ | २२९-२४७ | १०० वर्ष | २८९-३०७ | १८ | |
१४ | सिद्धार्थ | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १७ | २४७-२६४ | १०० वर्ष | ३०७-३२४ | १७ | ||
१५ | धृतषेण | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १८ | २६४-२८२ | १८३ वर्ष | ३२४-३४२ | १८ | ||
१६ | विजय | विजयसेन | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १३ | २८२-२९५ | १८३ वर्ष | ३४२-३५५ | १३ | |
१७ | बुद्धिलिंग | बुद्धिल | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | २० | २९५-३१५ | १८३ वर्ष | ३५५-३७५ | २० | |
१८ | देव | गंगदेव, गंग | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १४ | ३१५-३२९ | १८३ वर्ष | ३७५-३८९ | १४ | |
१९ | धर्मसेन | धर्म, सुधर्म | ११ अंग व १० पूर्वधारी | १८३ वर्ष | ११ अंग १० पूर्वधारी | १४ (१६) | ३२९-३४५ | १८३ वर्ष | ३८९-४०५ | १६ | १४ की बजाय १६ वर्ष लेनेसे संगति बैठेगी |
२० | क्षत्र | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | १८ | ३४५-३६३ | १८३ वर्ष | ४०५-४१७ | १२ | ||
२१ | जयपाल | यशपाल | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | २० | ३६३-३८३ | १८३ वर्ष | ४१७-४३० | १३ | |
२२ | पाण्डु | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | ३९ | ३८३-४२२ | १८३ वर्ष | ४३०-४४२ | १२ | ||
२३ | ध्रुवसेन | द्रुमसेन | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | १४ | ४२२-४३६ | १८३ वर्ष | ४४२-४५४ | १२ | |
२४ | कंस | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | ३२ | ४३६-४६८ | २२० वर्ष | ४५४-४६८ | १४ | ||
२५ | सुभद्र | ११ अंग धारी | २२० वर्ष | ११ अंगधारी | ६ | ४६८-४७४ | २२० वर्ष | ४६८-४७४ | ६ | ||
२६ | यशोभद्र | अभय | आचारांग धारी | ११८ वर्ष | १० अंगधारी | १८ | ४७४-४९२ | २२० वर्ष | ४७४-४९२ | १८ | |
२७ | भद्रबाहु द्वि. | यशोबाहु जयबाहु | आचारांगधारी | ११८ वर्ष | ९ अंगधारी | २३ | ४९२-५१५ | २२० वर्ष | ४९२-५१५ | २३ | |
२८ | लोहाचार्य | लोहार्य | आचारांग धारी | ११८ वर्ष | ८ अंगधारी | ५२ (५०) | ५१५-५६५ | २२० वर्ष | ५१५-५६५ | ५० | ५२ की बजाय ५० वर्ष लेनेसे संगति बैठेगी |
- | ६८३ | ५६५ | - | ५६५ | |||||||
२८ | लोहाचार्य | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | ८ अंगधारी | ५२(५०) | ५१५-५६५ | ५६५ | ५१५-५६५ | ५० | श्रुतावतारकी मूल पट्टावलीमें इन चारोंका नाम नहीं है। (ध. १/प्र. २४/H. L. Jain)। एकसाथ उल्लेख होनेसे समकालीन हैं। इनका समुदित काल २० वर्ष माना जा सकता है (मुख्तार साहब) गुरु परम्परासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है (दे. परिशिष्ट २) | ||
२९ | विनयदत्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | १ अंगधारी | २० | ५६५-५८५ | २० वर्ष | - | - | |||
३० | श्रीदत्त नं. १ | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | १ अंगधारी | समकालीन है २० | ५६५-५८५ | २० वर्ष | - | - | |||
३१ | शिवदत्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | १ अंगधारी | समकालीन है २० | ५६५-५८५ | २० वर्ष | - | - | |||
३२ | अर्हदत्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | १ अंगधारी | - | - | २० वर्ष | - | - | |||
३३ | अर्हद्बलि (गुप्तिगुप्त) | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | २८ | ५६५-५९३ | ११८ वर्ष | ५६५-५७५ | १० | आचार्य काल। | ||
- | - | - | - | - | ५७५-५९३ | ११८ वर्ष | संघ विघटनके पश्चात्से समाधिसरण तक (विशेष दे. परिशिष्ट २) | ||||
३४ | माघनन्दि | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | २१ | ५९३-६१४ | ११८ वर्ष | ५७५-५७९ | ४ | नन्दि संघके पट्ट पर। | ||
- | - | - | - | - | - | ११८ वर्ष | ५७९-६१४ | ३५ | पट्ट भ्रष्ट हो जानेके पश्चात् समाधिमरण तक। (विशेष दे. परिशिष्ट २) | ||
३५ | धरसेन | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | १९ | ६१४-६३३ | ११८ वर्ष | ५६५-६३३ | ६८ | अर्हद्बलीके समकालीन थे। वी. नि. ६३३ में समाधि। (विशेष दे. परिशिष्ट २) | ||
३६ | पुष्पदन्त | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | ३० | ६३३-६६३ | ११८ वर्ष | ५९३-६३३ | ४० | धरसेनाचार्यके पादमूलमें ज्ञान प्राप्त करके इन दोनोंने षट् खण्डागमकी रचना की (विशेष दे. परिशिष्ट २) | ||
३७ | भूतबलि | इन नामोंका उल्लेख तिल्लोय पण्णति आदिमें नहीं है। लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष की गणना पूरी कर दी गई है। | अंगांशधर अथवा पूर्वविद | २० | ६६३-६८३ | ५९३-६८३ | ९० | ||||
- | ६८३ |
4.3 पट्टावली का समन्वय
ध. १/प्र./H. L. Jain/पृष्ठ संख्या-प्रत्येक