ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 9
From जैनकोष
तदनन्तर धर्म, अर्थ और काम इन तीन वर्गों के संसर्ग से मनोहर राज्य करने वाले महाराज वज्रजंघ का छहों ऋतुओं के सुन्दर भोग भोगते हुए बहुत-सा समय व्यतीत हो गया ॥१॥
अपनी प्रिया श्रीमती के साथ वह राजा शरद्ऋतु के प्रारम्भ काल में फूले हुए कमलों से सुशोभित तालाबों के जल में और सप्तपर्ण जाति के वृक्षों की सुगन्धि से मनोहर वनों में क्रीड़ा करता था ॥२॥
कभी वह श्रेष्ठ राजा, राजहंस पक्षी के समान अपनी सहचरी के पीछे-पीछे चलता हुआ प्रिया के नितम्ब के समान मनोहर नदियों के तट प्रदेशों पर सन्तुष्ट होता था ॥३॥
कभी श्रीमती के कानों में नीलकमल का आभूषण पहनाता था । उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो उस नीलकमल के आभूषणों के छल से उसके नेत्रों की शोभा ही बढ़ा रहा हो ॥४॥
श्रीमती का स्तन मण्डल तालाबों की पराग के समूह से पीला पड़ गया था इसलिए कामदेव के पिटारे के समान जान पड़ता था । राजा वज्रजंघ उस स्तन-मण्डल को देखता हुआ बहुत ही हर्षित होता था ॥५॥
हेमन्त ऋतु में वह वज्रजंघ धूप की फैलती हुई सुगन्धि से सुगन्धित शयनागार में श्रीमती के स्तनों की उष्णता से परम धैर्य को प्राप्त होता था ॥६॥
तथा शिशिर ऋतु का आगमन होने पर जिसका सम्पूर्ण शरीर केशर से लिप्त हो रहा है और जिसका मुख-कमल प्रसन्नता से खिल रहा है ऐसी प्रिया श्रीमती को गाड़ आलिंगन से प्रसन्न करता था ॥७॥
मधु के मद से उन्मत्त हुई स्त्रियों से हरे-भरे सुन्दर वसन्त में वज्रजंघ अपनी स्त्री के साथ-साथ आमों के वनों में क्रीड़ा करता था ॥८॥
कभी श्रीमती के कानों में अशोक वृक्ष की नयी कली पहनाता था । उस समय वह ऐसा सुशोभित होता था मानो मनुष्य के चित्त को भेदन करने वाले और खून से रंगे हुए अपने लाल-लाल बाण पहनाता हुआ कामदेव ही हो ॥९॥
ग्रीष्म ऋतु में पसीने को सुखाने वाली तालाबों के समीपवर्ती वायु से जिसकी सब थकावट दूर हो गयी है ऐसा वज्रजंघ जलक्रीड़ा कर श्रीमती को प्रसन्न करता हुआ विहार करता था ॥१०॥
चन्दन के द्रव से जिसका सारा शरीर लिप्त हो रहा है और जो कण्ठ में हार पहने हुई है ऐसी श्रीमती को गले में लगाता हुआ वज्रजंघ गरमी से पैदा होने वाले किसी भी परिश्रम को नहीं जानता था ॥११॥
वह कभी शिरीष के फूलों के आभरणों से श्रीमती को सजाता था और फिर उसे साक्षात् शरीर धारण करने वाली ग्रीष्मऋतु की शोभा समझता हुआ बहुत कुछ मानता था ॥१२॥
वर्षाऋतु में जब मेघों के किनारे पर बिजली चमकती थी उस समय वियोग के भय से अत्यन्त भयभीत हुई श्रीमती बिजली के डर से वज्रजंघ का स्वयं गाढ़ आलिंगन करने लगती थी ॥१३॥
उस समय वीरबहूटी नाम के लाल-लाल कीड़ों से व्याप्त पृथ्वी, गम्भीर गर्जना करते हुए मेघ और इन्द्रधनुष ये सब पथिकों के मन को बहुत ही उत्कण्ठित बना रहे थे ॥१४। उस समय गरजते हुए बादल मानो यह कहकर ही पथिकों को गमन करने से रोक रहे थे कि आकाश तो हम लोगों ने घेर लिया है और पृथ्वी वीरबहूटी कीड़ों से भरी हुई है अब तुम कहाँ जाओगे ? ॥१५॥
उस समय खिले हुए कुटज जाति के वृक्षों से व्याप्त पर्वत के समीप की भूमि उन्मत्त हुए मयूरों के शब्दों से राजा वज्रजंघ का मन उत्कण्ठित कर रही थी ॥१६॥
जिस समय मयूर नृत्य कर रहे थे ऐसे उस वर्षा के समय में कदम्ब पुष्पों की वायु के सम्पर्क से सुगन्धित शिखरों वाले पर्वत राजा वज्रजंघ का मन हरण कर रहे थे ॥१७॥
जिस समय चमकती हुई बिजली से आकाश प्रकाशमान रहता है ऐसे उस वर्षाकाल में राजा वज्रजंघ अपने सुन्दर महल के अग्रभाग में प्रिया श्रीमती के साथ शयन करता हुआ रमण करता था ॥१८॥
वर्षाऋतु आने पर स्त्रियों का मान दूर करने वाले और उछलते हुए जल से शोभायमान नदियों के पूर से उसे बहुत ही सन्तोष होता था ॥१९॥
इस प्रकार वह राजा वज्रजंघ अपनी प्रिया श्रीमती के साथ-साथ छहों ऋतुओं के भोगों का अनुभव करता हुआ मानो मूर्ख लोगों को पूर्वभव में किये हुए अपने तप का साक्षात् फल ही दिखला रहा था ॥२०॥
अथानन्तर एक दिन वह वज्रजंघ अपने शयनागार में कोमल, मनोहर और गंगा नदी के बालूदार तट के समान सुशोभित रेशमी चद्दर से उज्ज्वल शय्या पर शयन कर रहा था । जिस शयनागार में वह शयन करता था वह कृष्ण अगुरु की बनी हुई उत्कृष्ट धूप के धूम से अत्यन्त सुगन्धित हो रहा था, मणिमय दीपकों के प्रकाश से उसका समस्त अन्धकार नष्ट हो गया था । जिनके प्रत्येक पाये में रत्न जड़े हुए हैं ऐसे अनेक मंचों से वह शोभायमान था । उसमें जो चारों ओर मोतियों के गुच्छे लटक रहे थे उनसे वह ऐसा मालूम होता था मानो हस ही रहा हो । कुन्द, नीलकमल और मन्दार जाति के फूलों की तीव्र सुगन्धि के कारण उसमें बहुत से भ्रमर आकर इकट्ठे हुए थे । तथा दीवालों पर बने हुए तरह-तरह के चित्रों से वह अतिशय शोभायमान हो रहा था ॥२१-२४॥
श्रीमती के स्तन तट के स्पर्श से उत्पन्न हुए सुख से जिसके नेत्र निमीलित (बन्द) हो रहे हैं ऐसा वह वज्रजंघ मेरु पर्वत की कन्दरा का स्पर्श करते हुए बिजलीसहित बादल के समान शोभायमान हो रहा था ॥२५॥
शयनागार को सुगन्धित बनाने और केशों का संस्कार करने के लिए उस भवन में अनेक प्रकार का सुगन्धि धूप जल रहा था । भाग्यवश उस दिन, सेवक लोग झरोखे के द्वार खोलना भूल गये थे इसलिए वह धूम उसी शयनागार में रुकता रहा । निदान, केशों के संस्कार के लिए जो धूप जल रहा था उसके उठते हुए धूम से वे दोनों पति-पत्नी क्षण-भर में मूर्च्छित हो गये ॥२६॥
उस धूम से उन दोनों के श्वास रुक गये जिससे अन्तःकरण में उन दोनों को कुछ व्याकुलता हुई । अन्त में मध्य रात्रि के समय वे दोनों ही दम्पत्ति दीर्घनिद्रा को प्राप्त हो गये-सदा के लिए सो गये-मर गये ॥२७॥
जिस प्रकार दीपक बुझ जाने पर रुके हुए अन्धकार के समूह से मकान निष्प्रभ-मलीन-हो जाते हैं, उसी प्रकार जीव निकल जाने पर उन दोनों के शरीर क्षण-भर में निष्प्रभ-मलीन-हो गये ॥२८॥
जिस प्रकार समय पाकर उखड़ा हुआ कल्पवृक्ष लता से सहित होने पर भी शोभायमान नहीं होता उसी प्रकार प्राणरहित वज्रजंघ श्रीमती के साथ रहते हुए भी शोभायमान नहीं हो रहा था ॥२९॥
यद्यपि वह धूप उनके भोगोपभोग का साधन था तथापि उससे उनकी मृत्यु हो गयी इसलिए सर्प के फण के समान प्राणों का हरण करने वाले इन भोगों को धिक्कार हो ॥३०॥
जो श्रीमती और वज्रजंघ उत्तम-उत्तम भोगों का अनुभव करते हुए हमेशा सुखी रहते थे वे भी उस समय एक ही साथ शोचनीय अवस्था को प्राप्त हुए थे इसलिए संसार की ऐसी स्थिति को धिक्कार हो ॥३१॥
हे भव्यजन, जब कि भोगोपभोग के साधनों से ही जीवों की ऐसी अवस्था हो जाती है तब अन्त में दुःख देने वाले इन भोगों से क्या प्रयोजन है इन्हें छोड़कर जिनेन्द्रदेव के वीतराग मत में ही प्रीति करो ॥३२॥
उन दोनों ने पात्रदान से प्राप्त हुए पुण्य के कारण उत्तरकुरु भोगभूमि की आयु का बन्ध किया था इसलिए क्षण-भर में वहीं जाकर जन्म-धारण कर लिया ॥३३॥
जम्बूद्वीप सम्बन्धी मेरु पर्वत से उत्तर की ओर उत्तरकुरु नाम की भोगभूमि है जो कि अपनी शोभा से सदा स्वर्ग की शोभा को हँसती रहती है ॥३४॥
जहाँ मद्यांग, वादित्रांग, भूषणांग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरांग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग और वस्त्रांग ये सार्थक नाम को धारण करने वाले दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं । ये कल्पवृक्ष अनेक रत्नों के बने हुए हैं और अपनी विस्तृत प्रभा से दशों दिशाओं को प्रकाशित करते रहते हैं ॥३५-३६॥
इनमें मद्यांगजाति के वृक्ष फैलती हुई सुगन्धि से युक्त तथा अमृत के समान मीठे मधु-मैरेय, सीधु, अरिष्ट और आसव आदि अनेक प्रकार के रस देते हैं ॥३७॥
कामोद्दीपन की समानता होने से शीघ्र ही इन मधु आदि को उपचार से मय कहते हैं । वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होनेवाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं ॥३८॥
मद्यपायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं वह नशा करने वाला है और अन्तःकरण को मोहित करने वाला है इसलिए आर्यपुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है ॥३९॥
वादित्रांग जाति के वृक्ष में दुन्दुभि, मृदंग, झल्लरी, शंख, भेरी, चंगा आदि अनेक प्रकार के बाजे फलते हैं ॥४०॥
भूषणांग जाति के वृक्ष नूपुर, बाजूबन्द, रुचिक, अंगद (अनन्त), करधनी, हार और मुकुट आदि अनेक प्रकार के आभूषण उत्पन्न करते हैं ॥४१॥
मालांग जाति के वृक्ष सब ऋतुओं के फूलों से व्याप्त अनेक प्रकार की मालाएँ और कर्णफूल आदि अनेक प्रकार के कर्णाभरण अधिक रूप से धारण करते हैं ॥४२॥
दीपांग नाम के कल्पवृक्ष मणिमय दीपकों से शोभायमान रहते हैं और प्रकाशमान कान्ति के धारक ज्योतिरंग जाति के वृक्ष सदा प्रकाश फैलाते रहते हैं ॥४३॥
गृहांगजाति के कल्पवृक्ष, ऊँचे-ऊँचे राजभवन, मण्डप, सभागृह, चित्रशाला और नृत्यशाला आदि अनेक प्रकार के भवन तैयार करने के लिए समर्थ रहते हैं ॥४४॥
भोजनांग जाति के वृक्ष, अमृत के समान स्वाद देने वाले, शरीर को पुष्ट करने वाले और छहों रससहित अशन-पान आदि उत्तम-उत्तम आहार उत्पन्न करते हैं ॥४५॥
अशन (रोटी, दाल, भात आदि खाने के पदार्थ), पानक (दूध, पानी आदि पीने के पदार्थ) खाद्य (लड्डू आदि खाने योग्य पदार्थ) और स्वाद्य (पान, सुपारी, जावित्री आदि स्वाद लेने योग्य पदार्थ) ये चार प्रकार के आहार और कड़वा, खट्टा, चरपरा, मीठा, कसैला और खारा ये छह प्रकार के रस हैं ॥४६॥
भाजनांग जाति के वृक्ष थाली, कटोरा, सीप के आकार के बरतन, भृंगार और करक (करवा) आदि अनेक प्रकार के बरतन देते हैं । ये बरतन इन वृक्षों की शाखाओं में लटकते रहते हैं ॥४७॥
और वस्त्रांग जाति के वृक्ष रेशमी वस्त्र, दुपट्टे और धोती आदि अनेक प्रकार के कोमल, चिकने और महामूल्य वस्त्र धारण करते हैं ॥४८॥
ये कल्पवृक्ष न तो वनस्पतिकायिक हैं और न देवों के द्वारा अधिष्ठित ही हैं । केवल, वृक्ष के आकार परिणत हुआ पृथ्वी का सार ही हैं ॥४९॥
ये सभी वृक्ष अनादिनिधन हैं और स्वभाव से ही फल देने वाले हैं । इन वृक्षों का यह ऐसा स्वभाव ही है इसलिए ये वृक्ष वस्त्र तथा बरतन आदि कैसे देते होंगे, इस प्रकार कुतर्क कर इनके स्वभाव में दूषण लगाना उचित नहीं है । भावार्थ-पदार्थों के स्वभाव अनेक प्रकार के होते हैं इसलिए उनमें तर्क करने की आवश्यकता नहीं है जैसा कि कहा भी है, 'स्वभावोऽतर्कगोचर:' अर्थात् स्वभाव तर्क का विषय नहीं है ॥५०॥
जिस प्रकार आजकल के अन्य वृक्ष अपने-अपने फलने का समय आने पर अनेक प्रकार के फल देकर प्राणियों का उपकार करते हैं उसी प्रकार उपर्युक्त कल्पवृक्ष भी मनुष्यों के दान के फल से अनेक प्रकार के फल फलते हुए वहाँ के प्राणियों का उपकार करते हैं ॥५१॥
जहाँ की पृथ्वी सब-प्रकार के रत्नों से बनी हुई है और उस पर उज्जवल फूलों का उपहार पड़ा रहता है इसलिए उसे शोभा कभी छोड़ती ही नहीं है ॥५२॥
जहाँ की भूमि पर हमेशा चार अंगुल प्रमाण मनोहर घास लहलहाती रहती है जिससे ऐसा मालूम होता है कि मानो हरे रंग के वस्त्र से भूपृष्ठ को ढक रही हो अर्थात् जमीन पर हरे रंग का कपड़ा बिछा हो ॥५३॥
जहाँ के पशु स्वादिष्ट, कोमल और मनोहर तृणरूपी सम्पत्ति को रसायन समझकर बडे हर्ष से चरा करते हैं ॥५४॥
जहाँ अनेक वापिकाएँ हैं जो कमलों से सहित हैं, उनमें सुवर्ण के समान पीले कमल फूल रहे हैं और जो हंसों के मधुर तथा गम्भीर शब्दों से अतिशय मनोहर जान पड़ती हैं ॥५५॥
जहाँ जगह-जगह पर फूले हुए कमलों से सुशोभित तालाब, उन्मत्त कोकिलाओं से भरे हुए वन और सुन्दर क्रीड़ापर्वत हैं ॥५६॥
जहाँ कोमल वायु वृक्षों को हिलाता हुआ धीरे-धीरे बहता रहता है । वह वायु बहते समय सब ओर कमलों की पराग को उड़ाता रहता है जिससे ऐसा मालूम होता है मानो सब ओर सुगन्धित चूर्ण ही फैला रहा हो ॥५७॥
जहाँ वायु के द्वारा उड़कर आये हुए पुष्पपराग से ढकी हुई पृथ्वी ऐसी शोभायमान हो रही है मानो पीले रंग के रेशमी वस्तु से ढकी हो ॥५८॥
जहाँ दशों दिशाओं में वायु के द्वारा उड़-उड़कर आकाश में इकट्ठा हुआ पुष्पपराग सब ओर से तने हुए चंदोवा की शोभा धारण करता है ॥५९॥
जहाँ न गरमी का क्लेश होता है, न पानी बरसता है, न तुषार आदि पड़ता है, न अतिवृष्टि आदि ईतियाँ हैं और न प्राणियों को भय उत्पन्न करने वाले साँप, बिच्छू, खटमल आदि दुष्ट जन्तु ही हुआ करते हैं ॥६०॥
जहाँ न चाँदनी है, न रात-दिन का विभाग और न ऋतुओं का परिवर्तन ही है, जहाँ सुख देने वाले सब पदार्थ सदा एक से रहते हैं ॥६१॥
जहां के वन सदा फूलों से युक्त रहते हैं, कमलिनियों में सदा कमल लगे रहते हैं, और रत्न की धूलि से व्याप्त हुए देश सदा सुख से रहते हैं ॥६२॥
जहाँ उत्पन्न हुए आर्य लोग प्रथम सात दिन तक अपनी शय्या पर चित्त पड़े रहते हैं । उस समय आचार्यों ने हाथ का रसीला अंगूठा चूसना ही उनका दिव्य आहार बतलाया है ॥६३॥
तत्पश्चात् विद्वानों का मत है कि वे दोनों दम्पत्ति द्वितीय सप्ताह में पृथ्वीरूपी रंगभूमि में घुटनों के बल चलते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने लगते हैं ॥६४॥
तदनन्तर तीसरे सप्ताह में वे खड़े होकर अस्पष्ट किन्तु मीठी-मीठी बातें कहने लगते हैं और गिरते-पड़ते खेलते हुए जमीन पर चलने लगते हैं ॥६५॥
फिर चौथे सप्ताह में अपने पैर स्थिरता से रखते हुए चलने लगते हैं तथा पाँचवें सप्ताह में अनेक कलाओं और गुणों से सहित हो जाते हैं ॥६६॥
छठे सप्ताह में पूर्ण जवान हो जाते हैं और सातवें सप्ताह में अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण धारण कर भोग भोगने वाले हो जाते हैं ॥६७॥
पूर्वभव में दान देने वाले मनुष्य ही वहाँ उत्पन्न होते हैं । वे उत्पन्न होने के पहले नौ माह तक गर्भ में इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार कि कोई रत्नों के महल में रहता है । उन्हें गर्भ में कुछ भी दुःख नहीं होता । और स्त्री-पुरुष साथ-साथ ही पैदा होते हैं । वे दोनों स्त्री-पुरुष दम्पतिपने को प्राप्त होकर ही रहते हैं ॥६८॥
चूँकि वहाँ जिस समय दम्पति का जन्म होता है उसी समय उनके, माता-पिता का देहान्त हो जाता है इसलिए वहाँ के जीवों में पुत्र आदि का संकल्प नहीं होता ॥६९॥
जहाँ केवल छींक और जँभाई लेने मात्र से ही प्राणियों की मृत्यु हो जाती है अर्थात् अन्त समय में माता को छींक और पुरुष को जँभाई आती है । जहाँ उत्पन्न होने वाले जीव स्वभाव से कोमल परिणामी होने के कारण स्वर्ग को ही जाते हैं ॥७०॥
जहाँ उत्पन्न होने वाले लोगों का शरीर अनेक लक्षणों से सुशोभित तथा छह हजार धनुष ऊँचा होता है ऐसा आप्तप्रणित आगम स्पष्ट वर्णन करते हैं ॥७१॥
जहाँ जीवों की आयु तीन पल्य प्रमाण होती है और आहार तीन दिन के बाद होता है, वह भी बदरीफल (छोटे बेर के) बराबर ॥७२॥
जहां उत्पन्न हुए जीवों के न बुढ़ापा आता है, न रोग होता है, न विरह होता है, न शोक होता है, न अनिष्ट का संयोग होता है, न चिन्ता होती है, न दीनता होती है, न नींद आती है, न आलस्य आता है, न नेत्रों के पलक झपकते हैं, न शरीर में मल होता है, न लार बहती है और न पसीना ही आता है ॥७३-७४॥
जहाँ न विरह का उन्माद है, न कामज्वर है, न भोगों का विच्छेद है किन्तु निरन्तर सुख-ही-सुख रहता है ॥७५॥
जहाँ न विषाद है, न भय है, न ग्लानि है, न अरुचि है, न क्रोध है, न कृपणता है, न अनाचार है, न कोई बलवान् है और न कोई निर्बल है ॥७६॥
जहाँ के मनुष्य बालसूर्य के समान देदीप्यमान, पसीनारहित और स्वच्छ वस्त्रों के धारक होते हैं तथा पुण्य के उदय से सदा सुखपूर्वक क्रीड़ा करते रहते हैं ॥७७॥
जहाँ दश प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए भोगों के अनुभव करने से उत्पन्न हुआ सुख चक्रवर्ती की भोग सम्पदाओं का भी उल्लंघन करता है अर्थात् वहाँ के जीव चक्रवर्ती की अपेक्षा अधिक सुखी रहते हैं ॥७८॥
जहाँ मनुष्य बड़ी लम्बी आयु के धारक होते हैं उनकी असमय में मृत्यु नहीं होती । वे अपनी तीन पल्य प्रमाण आयु तक निर्विघ्न रूप से जीवित रहते हे ॥७९॥
जहाँ सब जीव समान रूप से भोग का अनुभव करते हैं, सबके एक समान सुख का उदय होता है, सभी नीरोग रहकर छहों ऋतुओं के भोगोपभोग प्राप्त करते हैं ॥८०॥
जहाँ उत्पन्न हुए सभी जीव एक सुन्दर आकार के धारक हैं, सभी वज्रवृषभनाराचसंहनन से सहित हैं, सभी दीर्घ आयु के धारक है और सभी कान्ति से देवों के समान हैं ॥८१॥
जहाँ स्त्री-पुरुष कल्पवृक्ष की छाया में जाकर लीलापूर्वक मन्द-मन्द हंसते हुए, गाना-बजाना आदि उत्सवों से सदा क्रीड़ा करते रहते हैं ॥८२॥
जहाँ कलाओं में कुशल होना, स्वर्ग के समान सुन्दर शरीर प्राप्त होना, मधुर कंठ होना और मात्सर्य, ईर्ष्या आदि दोषों का अभाव होना आदि बातें स्वभाव से ही होती हैं ॥८३॥
जहाँ के जीव स्वभाव से ही सुन्दर आकार वाले, स्वभाव से ही मनोहर चेष्टाओं वाले और स्वभाव से ही मधुर वचन बोलने वाले होते हैं । इस प्रकार वे सदा प्रसन्न रहते हैं ॥८४॥
उत्तम पात्र के लिए दान देने अथवा उनके लिए दिये हुए दान की अनुमोदना करने से जीव जिस भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं और जीवनपर्यंत नीरोग रहकर सुख से बढ़ते रहते हैं ॥८५॥
जो जीव मिथ्यादृष्टि हैं, व्रतों से हीन हैं और केवल भोगों के अभिलाषी हैं वे अपात्रों में दान देकर वहाँ तिर्यञ्च पर्याय को प्राप्त होते हैं ॥८६॥
जो जीव कुशील हैं-खोटे स्वभाव के धारक हैं, मिथ्या आचार के पालक हैं, कुवेषी हैं, मिथ्या उपवास करने वाले हैं, मायाचारी हैं और व्रत भ्रष्ट हैं वे उस भोगभूमि में हरिण आदि पशु होते हैं ॥८७॥
और जहाँ पशुओं के युगल भी आनन्द से क्रीड़ा करते हे । उनके परस्पर में न विरोध होता है न वैर होता है और न उनका जीवन ही नीरस होता है ॥८८॥
इस प्रकार अत्यन्त सुखों से भरे हुए उस उत्तरकुरुक्षेत्र में पात्रदान के प्रभाव से वे दोनों श्रीमती और वज्रजंघ दम्पती अवस्था को प्राप्त हुए-स्त्री और पुरुषरूप से उत्पन्न हुए ॥८९॥
जिनका वर्णन पहले किया जा चुका है ऐसे नकुल, सिंह, वानर और शूकर भी पात्रदान की अनुमोदना के प्रभाव से वहीं पर दिव्य मनुष्य शरीर को पाकर भद्रपरिणामी आर्य हुए ॥९०॥
इधर मतिवर, आनन्द, धनमित्र और अकम्पन ये चारों ही जीव श्रीमती और वज्रजंघ के विरह से भारी शोक को प्राप्त हुए और अन्त में चारों ने ही श्री दृढ़धर्म नाम के आचार्य के समीप उत्कृष्ट जिनदीक्षा धारण कर ली ॥९१॥
और चारों ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्ररूपी सम्पदा की आराधना कर अपनी-अपनी आयु के अनुसार स्वर्गलोक गये ॥९२॥
वहाँ तप के प्रभाव से अधोग्रैवेयक के सबसे नीचे के विमान में (पहले ग्रैवेयक में) अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुए । सो ठीक ही है । तप सबके अभीष्ट फलों को फलता है ॥९३॥
अनन्तर एक समय वज्रजंघ आर्य अपनी स्त्री के साथ कल्पवृक्ष की शोभा निहारता हुआ क्षण-भर बैठा ही था ॥९४॥
कि इतने में आकाश में जाते हुए सूर्यप्रभ देव के विमान को देखकर उसे अपनी स्त्री के साथ-साथ ही जातिस्मरण हो गया और उसी क्षण दोनों को संसार के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो गया ॥९५॥
उसी समय वज्रजंघ के जीव ने दूर से आते हुए दो चारण मुनि देखे । वे मुनि भी उस पर अनुग्रह करते हुए आकाशमार्ग से उतर पड़े ॥९६॥
वज्रजंघ का जीव उन्हें आता हुआ देखकर शीघ्र ही खड़ा हो गया । सच है, पूर्व जन्म के संस्कार ही जीवों को हित-कार्य में प्रेरित करते रहते हैं ॥९७॥
दोनों मुनियों के समक्ष अपनी स्त्री के साथ खड़ा होता हुआ वज्रजंघ का जीव ऐसा शोभायमान हो रहा था जैसे उदित होते हुए सूर्य और प्रतिसूर्य के समक्ष कमलिनी के साथ दिन शोभायमान होता है ॥९८॥
वज्रजंघ के जीव ने दोनों मुनियों के चरणयुगल में अर्घ चढ़ाया और नमस्कार किया । उस समय उसके नेत्रों से हर्ष के आँसू निकल-निकल कर मुनिराज के चरणों पर पड़ रहे थे जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो अश्रुजल से उनके चरणों का प्रक्षालन ही कर रहा हो ॥९९॥
वे दोनों मुनि स्त्री के साथ प्रणाम करते हुए आर्य वज्रजंघ को आशीर्वाद द्वारा आश्वासन देकर मुनियों के योग्य स्थान पर यथाक्रम बैठ गये ॥१००॥
तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए दोनों चारण मुनियों से वज्रजंघ नीचे लिखे अनुसार पूछने लगा । पूछते समय उसके मुख से दाँतों की किरणों का समूह निकल रहा था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वह पुष्पाञ्जलि ही बिखेर रहा हो ॥१०१॥
वह बोला-हे भगवत् आप कहाँ के रहने वाले हैं ? आप कहां से आये हैं और आपके आने का क्या कारण है यह सब आज मुझसे कहिए ॥१०२॥
हे प्रभो, आपके दर्शन से मेरे हृदय में मित्रता का भाव उमड़ रहा है, चित्त बहुत ही प्रसन्न हो रहा है और मुझे ऐसा मालूम होता है कि मानो आप मेरे परिचित बन्धु हैं ॥१०३॥
इस प्रकार वज्रजंघ का प्रश्न समाप्त होते ही ज्येष्ठ मुनि अपने दांतों की किरणोंरूपी जल के समूह से उसके शरीर का प्रक्षालन करते हुए नीचे लिखे अनुसार उत्तर देने लगे ॥१०४॥
हे आर्य, तू मुझे स्वयम्बुद्ध मन्त्री का जीव जान, जिससे कि तूने महाबल के भव में सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर कर्मों का क्षय करनेवाले जैनधर्म का ज्ञान प्राप्त किया था ॥१०५॥
उस भव में तेरे वियोग से सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर मैंने दीक्षा धारण की थी और आयु के अन्त में संन्यासपूर्वक शरीर छोड़ सौधर्म स्वर्ग के स्वयम्प्रभ विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ था । वहाँ मेरी आयु एक सागर से कुछ अधिक थी । तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर भूलोक में उत्पन्न हुआ हूँ ॥१०६-१०७॥
जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में स्थित पुष्कलावती देशसम्बन्धी पुण्डरीकिणी नगरी में प्रियसेन राजा और उनकी महाराज्ञी सुन्दरी देवी के प्रीतिंकर नाम का बड़ा पुत्र हुआ हूँ और यह महातपस्वी प्रीतिदेव मेरा छोटा भाई है ॥१०८-१०५॥
हम दोनों भाइयों ने भी स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर तपोबल से अवधिज्ञान तथा आकाशगामिनी चारण ऋद्धि प्राप्त की है ॥११०॥
हे आर्य, हम दोनों ने अपने अवधिज्ञानरूपी नेत्र से जाना है कि आप यहाँ उत्पन्न हुए हैं । चूँकि आप हमारे परम मित्र थे इसलिए आपको समझाने के लिए हम लोग यहाँ आये हैं ॥१११॥
हे आर्य, तू निर्मल सम्यग्दर्शन के बिना केवल पात्रदान की विशेषता से ही यहाँ उत्पन्न हुआ है यह निश्चय समझ ॥११२॥
महाबल के भव में तूने हमसे ही तत्त्वज्ञान प्राप्त कर शरीर छोड़ा था परन्तु उस समय भोगों की आकांक्षा के वश से तू सम्यग्दर्शन की विशुद्धता को प्राप्त नहीं कर सका था ॥११३॥
अब हम दोनों, सर्वश्रेष्ठ तथा स्वर्ग और मोक्ष सम्बन्धी सुख के प्रधान कारणरूप सम्यग्दर्शन को देने की इच्छा से यहाँ आये हैं ॥११४॥
इसलिए हे आर्य, आज सम्यग्दर्शन ग्रहण कर । उसके ग्रहण करने का यह समय है क्योंकि काललब्धि के बिना इस संसार में जीवों को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति नहीं होती है ॥११५॥
जब देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरङ्ग कारण तथा करणलब्धिरूप अन्तरङ्ग कारण सामग्री की प्राप्ति होती है तभी यह भव्य प्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक हो सकता है ॥११६॥
जिस जीव का आत्मा अनादिकाल से लगे हुए मिथ्यात्वरूपी कलंक से दूषित हो रहा है, उस जीव को सबसे पहले दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम होने से औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है ॥११७॥
जिस प्रकार पित्त के उदय से उद्भ्रान्त हुई चित्तवृत्ति का अभाव होनेपर क्षीर आदि पदार्थों के यथार्थस्वरूप का परिज्ञान होने लगता है उसी प्रकार अन्तरङ्ग कारणरूप मोहनीय कर्म का उपशम होने पर जीव आदि पदार्थों के यथार्थस्वरूप का परिज्ञान होने लगता है ॥११८॥
जिस प्रकार सूर्य रात्रि सम्बन्धी अन्धकार को दूर किये बिना उदित नहीं होता उसी प्रकार सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वरूपी अन्धकार को दूर किये बिना उदित नहीं होता-प्राप्त नहीं होता ॥११९॥
यह भव्य जीव, अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों द्वारा मिथ्यात्वप्रकृति के मिथ्यात्व, सम्यङ्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिरूप तीन खण्ड कर के कर्मों की स्थिति कम करता हुआ सम्यग्दृष्टि होता है ॥१२०॥
वीतराग सर्वज्ञ देव, आप्तोपज्ञ आगम और जीवादि पदार्थों का बड़ी निष्ठा से श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है । यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल कारण है । इसके बिना वे दोनों नहीं हो सकते ॥१२१॥
जीवादि सात तत्त्वों का तीन मूढ़तारहित और आठ अंगसहित यथार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ॥१२२॥
प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा ये चार सम्यग्दर्शन के गुण हैं और श्रद्धा, रुचि, स्पर्श तथा प्रत्यय ये उसके पर्याय हैं ॥१२३॥
निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं । इन आठ अंगरूपी किरणों से सम्यग्दर्शनरूपी रत्न बहुत ही शोभायमान होता है ॥१२४॥
हे आर्य, तू इस श्रेष्ठ जैनमार्ग में शंका को छोड़, किसी प्रकार का सन्देह मत कर, भोगों की इच्छा दूर कर, ग्लानि को छोड़कर अमूढ़दृष्टि (विवेकपूर्ण दृष्टि) को प्राप्त कर दोष के स्थानों को छिपाकर समीचीन धर्म की वृद्धि कर, मार्ग से विचलित होते हुए धर्मात्मा का स्थितिकरण कर, रत्नत्रय के धारक आर्य पुरुषों के संघ में प्रेमभाव का विस्तार कर और जैन-शासन की शक्ति के अनुसार प्रभावना कर ॥१२५-१२७॥
देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और पाषण्ड मूढ़ता इन तीन मूढ़ताओं को छोड़ क्योंकि मूढ़ताओं से अन्धा हुआ प्राणी तत्त्वों को देखता हुआ भी नहीं देखता ॥१२८॥
हे आर्य, पदार्थ के ठीक-ठीक स्वरूप का दर्शन करने वाले सम्यग्दर्शन को ही तू धर्म का सर्वस्व समझ, उस सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो चुकने पर संसार में ऐसा कोई सुख नहीं रहता जो जीवों को प्राप्त नहीं होता हो ।१२९॥
इस संसार में उसी पुरुष ने श्रेष्ठ जन्म पाया है, वही कृतार्थ है और वही पण्डित है जिसके हृदय में छलरहित-वास्तविक सम्यग्दर्शन प्रकाशमान रहता है ॥१३०॥
हे आर्य, तू यह निश्चित जान कि यह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की पहली सीढ़ी है । नरकादि दुर्गतियों के द्वार को रोकने वाले मजबूत किवाड़ हैं, धर्मरूपीवृक्ष की स्थिर जड़ है, स्वर्ग और मोक्षरूपी घर का द्वार है और शीलरूपी रत्नहार के मध्य में लगा हुआ श्रेष्ठ रत्न है ॥१३१-१३२॥
यह सम्यग्दर्शन जीवों को अलंकृत करने वाला है, स्वयं देदीप्यमान है, रत्नों में श्रेष्ठ है, सबसे उत्कृष्ट है और मुक्तिरूपी लक्ष्मी के हार के समान है । ऐसे इस सम्यग्दर्शनरूपी रत्नहार को हे भव्य, तू अपने हृदय में धारण कर ॥१३३॥
जिस पुरुष ने अत्यन्त दुर्लभ इस सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्न को पा लिया है वह शीघ्र ही मोक्ष तक के सुख को पा लेता है ॥१३४॥
देखो, जो पुरुष एक मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है वह इस संसाररूपी बेल को काटकर बहुत ही छोटी कर देता है अर्थात् वह अर्द्ध पुद्गल परावर्तन से अधिक समय तक संसार में नहीं रहता ॥१३५॥
जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन विद्यमान है वह उत्तम देव और उत्तम मनुष्य पर्याय में ही उत्पन्न होता है । उसके नारकी और तिर्यञ्चों के खोटे जन्म कभी भी नहीं होते ॥१३६॥
इस सम्यग्दर्शन के विषय में अधिक कहने से क्या लाभ इसकी तो यही प्रशंसा पर्याप्त है कि सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने पर अनन्त संसार भी सान्त (अन्तसहित) हो जाता है ॥१३७॥
हे आर्य, तू मेरे कहने से अर्हन्त देव की आज्ञा को प्रमाण मानता हुआ अनन्यशरण होकर अन्य रागी द्वेषी देवताओं की शरण में न जाकर सम्यग्दर्शन स्वीकार कर ॥१३८॥
जिस प्रकार शरीर के हस्त, पाद आदि अंगों में मस्तक प्रधान है और मुख में नेत्र प्रधान है उसी प्रकार मोक्ष के समस्त अंगों में गणधरादि देव सम्यग्दर्शन को ही प्रधान अंग मानते हैं ॥१३९॥
हे आर्य, तू लोकमूढ़ता, पाषण्डिमूढ़ता और देवमूढ़ता का परित्याग कर, जिसे मिथ्यादृष्टि प्राप्त नहीं कर सकते ऐसे सम्यग्दर्शन को उज्ज्वल कर-विशुद्ध सम्यग्दर्शन धारण कर ॥१४०॥
त् सम्यग्दर्शनरूपी तलवार के द्वारा संसाररूपी लता की दीर्घता को काट । तू अवश्य ही निकट भव्य है और भविष्यत्काल में तीर्थंकर होने वाला है ॥१४१॥
हे आर्य, इस प्रकार मैंने अरहन्त देव के कहे अनुसार, सम्यग्दर्शन विषय को लेकर, यह उपदेश किया है सो मोहरूपी कल्याण की प्राप्ति के लिए तुझे यह अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए ॥१४२॥
। इस प्रकार वे मुनिराज आर्य वज्रजंघ को समझाकर आर्या श्रीमती से कहने लगे कि माता, तू भी बहुत शीघ्र ही संसाररूपी समुद्र से पार करने के लिए नौका के समान इस सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर । वृथा ही स्त्रीपर्याय में क्यों खेद-खिन्न हो रही है ॥१४३॥
हे माता, सब स्त्रियों में, रत्नप्रभा को छोड़कर नीचे की छह पृथ्वीयों में, भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में तथा अन्य नीच पर्यायों में सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति नहीं होती ॥१४४॥
इस निन्द्य स्त्रीपर्याय को धिक्कार है जो कि निर्ग्रन्थ-दिगम्बर मुनिधर्म पालन करने के लिए बाधक है और जिसमें विद्वानों ने करीष (कण्डा की आग) की अग्नि के समान काम का सन्ताप कहा है ॥१४५॥
हे माता, अब तू निर्दोष सम्यग्दर्शन की आराधना कर और इस स्त्रीपर्याय को छोड़कर क्रम से सप्त परम स्थानों को प्राप्त कर । भावार्थ-१ 'सज्जाति', २ 'सद᳭गृहस्थता' (श्रावक के व्रत), ३ 'पारिव्रज्य' (मुनियों के व्रत), ४ 'सुरेन्द्र पद', ५ 'राज्यपद' ६ 'अरहन्तपद', ७ 'सिद्धपद' ये सात परम स्थान (उत्कृष्ट पद) कहलाते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव क्रम-क्रम से इन परम स्थानों को प्राप्त होता है ॥१४६॥
आप लोग कुछ पुण्य भवों को धारण कर ध्यानरूपी अग्नि से समस्त कर्मों को भस्म कर परम पद को प्राप्त करोगे ॥१४७॥
इस प्रकार प्रीतिंकर आचार्य के वचनों को प्रमाण मानते हुए आर्य वज्रजंघ ने अपनी स्त्री के साथ-साथ प्रसन्नचित्त होकर सम्यग्दर्शन धारण किया ॥१४८ ॥ वह वज्रजंघ का जीव अपनी प्रिया के साथ-साथ सम्यग्दर्शन पाकर बहुत ही सन्तुष्ट हुआ । सो ठीक ही है, अपूर्व वस्तु का लाभ प्राणियों के महान् सन्तोष को पुष्ट करता ही है ॥१४९॥
जिस प्रकार कोई राजकुमार सूत्र तन्तु में पिरोयी हुई मनोहर माला को प्राप्त कर अपनी राज्यलक्ष्मी के युवराज पद पर स्थित होता है उसी प्रकार वह वज्रजंघ का जीव भी सूत्र (जैन सिद्धान्त) में पिरोयी हुई मनोहर सम्यग्दर्शनरूपी कण्ठमाला को प्राप्त कर मुक्तिरूपी राज्यसम्पदा के युवराज-पद पर स्थित हुआ था ॥१५०॥
विशुद्ध पुरुष पर्याय के संयोग से निर्वाण प्राप्त करने की इच्छा करती हुई वह सती आर्या भी सम्यक्त्व की प्राप्ति से अत्यन्त सन्तुष्ट हुई थी ॥१५१॥
जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ है ऐसे सम्यग्दर्शनरूपी रसायन का आस्वाद कर वे दोनों ही दम्पती कर्म नष्ट करनेवाले जैन धर्म में बड़ी दृढ़ता को प्राप्त हुए ॥१५२॥
पहले कहे हुए सिंह, वानर, नकुल और सूकर के जीव भी गुरुदेव-प्रीतिंकर मुनि के चरण-मूल का आश्रय लेकर आर्य वज्रजंघ और आर्या श्रीमती के साथ-साथ ही सम्यग्दर्शनरूपी अमृत को प्राप्त हुए थे ॥१५३॥
जिन्होंने हर्षसूचक चिह्नों से अपने मनोरथ की सिद्धि को प्रकट किया है ऐसे दोनों दम्पतियों को दोनों ही मुनिराज धर्मप्रेम से बार-बार स्पर्श कर रहे थे ॥१५४॥
वह वज्रजंघ का जीव जन्मान्तर सम्बन्धी प्रेम से आँखें फाड़-फाड़कर श्री प्रीतिंकर मुनि के चरण-कमलों की ओर देख रहा था और उनके क्षण-भर के स्पर्श से बहुत ही सन्तुष्ट हो रहा था ॥१५५॥
तत्पश्चात् वे दोनों चारण मुनि अपने योग्य देश में जाने के लिए तैयार हुए । उस समय वज्रजंघ के जीव ने उन्हें प्रणाम किया और कुछ दूर तक भेजने के लिए वह उनके पीछे खड़ा हो गया । चलते समय दोनों मुनियों ने, उसे आशीर्वाद देकर हित का उपदेश दिया और कहा कि हे आर्य, फिर भी तेरा दर्शन हो, तू इस सम्यग्दर्शनरूपी समीचीन धर्म को नहीं भूलना । यह कहकर वे दोनों गगनगामी मुनि शीघ्र ही अन्तर्हित हो गये ॥१५६-१५७॥
अनन्तर जब दोनों चारण मुनिराज चले गये तब वह वज्रजंघ का जीव एक क्षण तक बहुत ही उत्कण्ठित होता रहा । सो ठीक ही है, प्रिय मनुष्यों का विरह मन के सन्ताप के लिए ही होता है ॥१५८॥
वह बार-बार मुनियों के गुणों का चिन्तवन कर अपने मन को आर्द्र करता हुआ चिर काल तक धर्म बढ़ाने वाले नीचे लिखे हुए विचार करने लगा ॥१५९॥
अहा कैसा आश्चर्य है कि साधु पुरुषों का समागम हृदय से सन्ताप को दूर करता है, परम आनन्द को बढ़ाता है और मन की वृत्ति को सन्तुष्ट कर देता है ॥१६०॥
प्राय: साधु पुरुषों का समागम दूर से ही पाप को नष्ट कर देता है, उत्कृष्ट योग्यता को पुष्ट करता है, और अत्यधिक कल्याण को बढ़ाता है ॥१६१॥
ये साधु पुरुष मोक्षमार्ग को सिद्ध करने में सदा दत्तचित्त रहते हैं । इन्हें सांसारिक लोगों को प्रसन्न करने का कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता ॥१६२॥
ये मुनिजन केवल परोपकार करने की बुद्धि से ही उनके पास जा-जाकर मोक्षमार्ग का उपदेश दिया करते हैं । वास्तव में यह महापुरुषों का स्वभाव ही है ॥१६३॥
मोक्ष की इच्छा करने वाले ये साधुजन अपने दुःख दूर करने के लिए सदा निर्दय रहते हैं अर्थात् अपने दुःख दूर करने के लिए किसी प्रकार का कोई आरम्भ नहीं करते । पर के दुःखों में सदा दुःखी रहते हैं अर्थात् उनके दुःख दूर करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं । और दूसरों के कार्य सिद्ध करने के लिए निःस्वार्थ भाव से सदा तैयार रहते हैं ॥१६४॥
कहाँ हम और कहाँ ये अत्यन्त निःस्पृह साधु ? और कहाँ यह मात्र सुखों का स्थान भोगभूमि अर्थात् निःस्पृह मुनियों का भोगभूमि में जाकर वहाँ के मनुष्यों को उपदेश देना सहज कार्य नहीं है तथापि ये तपस्वी हम लोगों के उपकार में कैसे सावधान हैं ? ॥१६५॥
ये साधुजन सदा यही प्रयत्न किया करते हैं कि संसार के समस्त जीव सदा सुखी रहें और इसीलिए वे यति (यतते इति यति) कहलाते हैं ॥१६६॥
जिस प्रकार इन चारण ऋद्धिधारी पुरुषों ने दूर से आकर हम लोगों का उपकार किया उसी प्रकार महापुरुष दूसरों का उपकार करने में सदा प्रीति रखते हैं ॥१६७॥
तपरूपी अग्नि के सन्ताप से जिनका शरीर अत्यन्त कृश हो गया है ऐसे उन चारण मुनियों को मैं अब भी साक्षात् देख रहा हूँ, मानो वे अब भी मेरे सामने ही खड़े हैं ॥१६८॥
मैं उनके चरण-कमलों में प्रणाम कर रहा हूँ और वे दोनों चारणमुनि कोमल हाथ से मस्तक पर स्पर्श करते हुए मुझे स्नेह के वशीभूत कर रहे हैं ॥१६९॥
मुझ, धर्म के प्यासे मानव को उन्होंने सम्यग्दर्शनरूपी अमृत पिलाया है, इसीलिए मेरा मन भोगजन्य सन्ताप को छोड़कर अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है ॥१७०॥
वे प्रीतिंकर नाम के ज्येष्ठ मुनि सचमुच में प्रीतिंकर हैं क्योंकि उनकी प्रीति सर्वत्र गामी है और मार्ग का उपदेश देकर उन्होंने हम लोगों पर अपार प्रेम दर्शाया है । भावार्थ-जो, मनुष्य सब जगह जाने की सामर्थ्य होने पर भी किसी खास जगह किसी खास व्यक्ति के पास जाकर उसे उपदेश आदि देवे तो उससे उसकी अपार प्रीति का पता चलता है । यहाँ पर भी उन मुनियों में चारण ऋद्धि होने से सब जगह जाने की सामर्थ्य थी परन्तु उस समय अन्य जगह न जाकर वे वज्रजंघ के जीव के पास पहुँचे इससे उसके विषय में उनकी अपार प्रीति का पता चलता है ॥१७१॥
महाबल के भव में भी वे मेरे स्वयम्बुद्ध नामक गुरु हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर विशेष गुरु हुए हैं ॥१७२॥
यदि संसार में गुरुओं की संगति न हो तो गुणों की प्राप्ति नहीं हो सकती और गुणों की प्राप्ति के बिना इस जीव के जन्म की सफलता कहाँ हो सकती है ? ॥१७३॥
जिस प्रकार सिद्ध रस के संयोग से तांबा आदि धातुएँ सुवर्णपने को प्राप्त हो जाती हैं उसी प्रकार गुरुदेव के उपदेश से प्रकट हुए गुणों के संयोग से भव्य जीव भी शुद्धि को प्राप्त हो जाते हैं ॥१७४॥
जिस प्रकार जहाज के बिना समुद्र नहीं तिरा जा सकता है उसी प्रकार गुरु के उपदेश के बिना यह संसाररूपी समुद्र नहीं तिरा जा सकता ॥१७५॥
जिस प्रकार कोई पुरुष दीपक के बिना गाढ़ अन्धकार में छिपे हुए घट, पट आदि पदार्थों को नहीं देख सकता उसी प्रकार यह जीव भी उपदेश देने वाले गुरु के बिना जीव, अजीव आदि पदार्थों को नहीं जान सकता ॥१७६॥
इस संसार में भाई और गुरु ये दोनों ही पदार्थ मनुष्यों की प्रीति के लिए हैं । पर भाई तो इस लोक में ही प्रीति उत्पन्न करते हैं और गुरु इस लोक तथा परलोक, दोनों ही लोकों में विशेष रूप से प्रीति उत्पन्न करते हैं ॥१७७॥
जब कि गुरु के उपदेश से ही हम लोगों को इस प्रकार की विशुद्धि प्राप्त हुई है तब हम चाहते हैं कि जन्मान्तर में भी मेरी भक्ति गुरुदेव के चरण-कमलों में बनी रहे ॥१७८॥
इस प्रकार चिन्तवन करते हुए वज्रजंघ की सम्यक्त्व भावना अत्यन्त दृढ़ हो गयी । यही भावना आगे चलकर इस वज्रजंघ के लिए कल्पलता के समान समस्त इष्ट फल देने वाली होगी ॥१७९॥
श्रीमती के जीव ने भी वज्रजंघ के जीव के समान ऊपर लिखे अनुसार चिन्तन किया था इसलिए इसकी सम्यक्त्व भावना भी सुदृढ़ हो गयी थी । इन दोनों पति-पत्नियों का स्वभाव एक-सा था इसलिए दोनों में एक-सी अखण्ड प्रीति रहती थी ॥१८०॥
इस प्रकार प्रीतिपूर्वक भोग भोगते हुए उन दोनों दम्पतियों का तीन पल्य प्रमाण भारी काल व्यतीत हो गया ॥१८१॥
और दोनों जीवन के अन्त में सुखपूर्वक प्राण छोड़कर बाकी बचे हुए पुण्य से एक घर से दूसरे घर के समान ऐशान स्वर्ग में जा पहुँचे ॥१८२॥
जिस प्रकार वर्षाकाल में मेघ अपने आप ही उत्पन्न हो जाते हैं और समय पाकर आप ही विलीन हो जाते हैं उसी प्रकार भोगभूमिज जीवों के शरीर अपने आप ही उत्पन्न होते हैं और जीवन के अन्त में अपने आप ही विलीन हो जाते हैं ॥१८३॥
जिस प्रकार वैक्रियिक शरीर में दोष और मल नहीं होते उसी प्रकार भोगभूमिज जीवों के शरीर में भी दोष और मल नहीं होते । उनका शरीर भी देवों के शरीर के समान ही शुद्ध रहता है ॥१८४॥
वह वज्रजंघ आर्य ऐशान स्वर्ग से हमेशा प्रकाशमान रहने वाले श्रीप्रभ विमान में देदीप्यमान कान्ति का धारक श्रीधर नाम का ऋद्धिधारी देव हुआ ॥१८५॥
और आर्या श्रीमती भी सम्यग्दर्शन के प्रभाव से स्त्रीलिङ्ग से छुटकारा पाकर उसी ऐशान स्वर्ग के स्वयम्प्रभ विमान में स्वयम्प्रभ नाम का उत्तम देव हुई ॥१८६॥
सिंह, नकुल, वानर और शूकर के जीव भी अत्यन्त सुखमय इसी ऐशान स्वर्ग में बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक देव हुए । सो ठीक ही है पुण्य से क्या दुर्लभ है ? ॥१८७॥
इस संसार में धर्म के बिना स्वर्ग कहाँ और स्वर्ग के बिना सुख कहाँ इसलिए सुख चाहने वाले पुरुषों को चिरकाल तक धर्मरूपी कल्पवृक्ष की ही सेवा करनी चाहिए ॥१८८॥
जो जीव पहले सिंह था वह चित्रांगद नाम के मनोहर विमान में प्रकाशमान मुकुट का धारक चित्रांगद नाम का देव हुआ ॥१८९॥
शूकर का जीव नन्द नामक विमान में प्रकाशमान मुकुट, बाजूबन्द और मणिमय कुण्डलों से भूषित मणिकुण्डली नाम का देव हुआ ॥१९०॥
वानर का जीव नन्द्यावर्त नामक विमान में मनोहर नाम का देव हुआ जो कि देवांगनाओं के मन को हरण करने वाले सुन्दर आकार से शोभायमान था ॥१९१॥
और नकुल का जीव प्रभाकर विमान में मनोरथ नाम का देव हुआ जो कि सैकड़ों मनोरथों से प्राप्त हुए दिव्य भोगरूपी अमृत का सेवन करने वाला था ॥१९२॥
इस प्रकार पुण्य के उदय से स्वर्गलोक के सुख भोगने वाले उन छहों जीवों के रूप, सौन्दर्य, भोग आदि का वर्णन ललितांगदेव के समान जानना चाहिए ॥१९३॥
इस प्रकार पुण्य के उदय से स्वर्गलक्ष्मी के नेत्रों को उत्सव देने वाले, अत्यन्त पवित्र और चमकीले शरीर को धारण करने वाला वह ऋद्धिधारी श्रीधर देव मधुर वचन बोलने वाली देवाङ्गनाओं के साथ मनोहर भोग भोगता हुआ अपने ही विमान में अनेक उत्सवों द्वारा क्रीड़ा करता था ॥१९४॥
कभी देवाङ्गनाएँ अपने कोमल करपल्लवों से उसके चरण दबाती थीं, कभी अपने मुखरूपी चन्द्रमा से निकलती हुई मन्द मुसकान की किरणोंरूपी जल से बार-बार उसका अभिषेक करती थीं और कभी भौंहों के विलास से युक्त कटाक्षरूपी बाणों का उसे लक्ष्य बनाती थीं । इस प्रकार आगामी काल में तीर्थंकर होने वाला वह प्रसन्नचित्त श्रीधरदेव भोगोपभोग की सामग्री से प्रत्येक क्षण सन्तुष्ट रहता था ॥१९५॥
इस प्रकार आर्षनाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण श्रीमहापुराण संग्रह में श्रीमती और वज्रजंघ आर्य को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का वर्णन करने वाला नवां पर्व समाप्त हुआ ॥९॥