ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 11
From जैनकोष
स्तोत्रों द्वारा की हुई पूजा ही जिनकी प्राप्ति का उपाय है ऐसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि अनेक गुणरूपी जिसकी किरणें प्रकाशमान हो रही हैं और जो भव्य जीवरूपी कमलों के वन को विकसित करने वाला है ऐसा वह जिनेन्द्ररूपी सूर्य तुम सब श्रोताओं को पवित्र करे ॥१॥
अनन्तर जब वह अच्युतेन्द्र स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी पर आने के सम्मुख हुआ तब उसके शरीर पर पड़ी हुई कल्पवृक्ष के पुष्पों की माला अचानक मुरझा गयी । वह माला इससे पहले कभी नहीं मुरझायी थी ॥२॥
स्वर्ग से च्युत होने के चिह्न जैसे अन्य साधारण देवों के स्पष्ट प्रकट होते हैं वैसे इन्द्रों के नहीं होते किन्तु कुछ-कुछ ही प्रकट होते हैं ॥३॥
माला मुरझाने से यद्यपि इन्द्र को मालूम हो गया था कि अब मैं स्वर्ग से च्युत होने वाला हूँ तथापि वह कुछ भी दुःखी नहीं हुआ सो ठीक है । वास्तव में महापुरुषों का ऐसा ही धैर्य होता है ॥४॥
जब उसकी आयु मात्र छह माह की बाकी रह गयी तब उस पवित्र बुद्धि के धारक अच्युतेन्द्र ने अर्हन्तदेव की पूजा करना प्रारम्भ कर दिया सो ठीक ही है, प्राय: पण्डितजन आत्मकल्याण के अभिलाषी हुआ ही करते हैं ॥५॥
आयु के अन्त समय में उसने अपना चित्त पञ्चपरमेष्ठियों के चरणों में लगाया और उपभोग करने से बाकी बचे हुए पुण्यकर्म से अधिष्ठित होकर वहाँ की आयु समाप्त की ॥६॥
यद्यपि स्वर्गों के देव सदा सुख के अधीन रहते हैं, महाधैर्यवान् और बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक होते हैं तथापि वे स्वर्ग से च्युत हो जाते हैं इसलिए संसार की इस स्थिति को धिक्कार हो ॥७॥
तत्पश्चात् वह अच्युतेन्द्र स्वर्ग से च्युत होकर महाकान्तिमान् जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी में वज्रसेन राजा और श्रीकान्ता रानी के वज्रनाभि नाम का समर्थ पुत्र उत्पन्न हुआ ॥८-९॥
पहले कहे हुए व्याघ्र आदि के जीव वरदत्त आदि भी क्रम से उन्हीं राजा-रानी के विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के पुत्र हुए ॥१०॥
जिनका वर्णन पहले किया जा चुका है ऐसे मतिवर मन्त्री आदिक जीव जो अधोग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए थे वहाँ से च्युत होकर उन्हीं राजा रानी के सम्पत्तिशाली पुत्र हुए ॥११॥
जो पहले (वज्रजंघ के समय में) मतिवर नाम का बुद्धिमान् मन्त्री था वह अधोग्रैवेयक से च्युत होकर उनके सुबाहु नाम का पुत्र हुआ । आनन्द पुरोहित का जीव महाबाहु नाम का पुत्र हुआ । सेनापति अकम्पन का जीव पीठ नाम का पुत्र हुआ और धनमित्र सेठ का जीव महापीठ नाम का पुत्र हुआ । सो ठीक ही है, जीव पूर्वभव के संस्कारों से ही एक जगह इकट्ठे होते हैं ॥१२-१३॥
श्रीमती का जीव केशव, जो कि अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था वह भी वहाँ से च्युत होकर इसी नगरी में कुबेरदत्त वणिक् के उसकी स्त्री अनन्तमती से धनदेव नाम का पुत्र हुआ ॥१४॥
अथानन्तर जब वज्रनाभि पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ तब उसका शरीर तपाये हुए सुवर्ण के समान अतिशय देदीप्यमान हो उठा और इसीलिए वह प्रातःकाल के सूर्य के समान बड़ा ही सुशोभित होने लगा ॥१५॥
अत्यन्त काले और टेढ़े बालों से उसका शिर ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि वर्षा ऋतु के बादलों से ढका हुआ पर्वत का शिखर ॥१६॥
कुण्डलरूपी सूर्य की किरणों के स्पर्श से जिसके कपोलों का पर्यन्त भाग शोभायमान हो रहा है ऐसे मुखरूपी कमल से वह वज्रनाभि फूले हुए कमलों से सुशोभित किसी सरोवर के समान शोभायमान हो रहा था ॥१७॥
उसके ललाटरूपी पर्वत के तट पर दोनों भौंहरूपी लताएँ नेत्रों की किरणोंरूपी पुष्पमंजरियों और तारेरूप भ्रमरों से बहुत ही अधिक शोभायमान हो रही थीं ॥१८॥
उसका मुख श्वासोच्छ्वास की सुगन्धि से सहित था, मुसकानरूपी केशर से युक्त था और स्त्रियों के नेत्ररूपी भ्रमरों का आकर्षण करता था इसलिए ठीक कमल के समान जान पड़ता था ॥१९॥
सदा विकसित रहने वाले उसके मुख-कमल पर जनसमूह के नेत्ररूपी भ्रमरों की पंक्ति मानो कान्तिरूपी आसव को पीने के लिए ही सब ओर से आकर झपटती थी और उसका पान कर अत्यन्त तृप्त होती थी ॥२०॥
दोनों नेत्रों के मध्यभाग में रहने वाली उसकी नाक ऐसी मालूम होती थी मानो अपने-अपने क्षेत्र का उल्लंघन न करने के लिए ब्रह्मा ने उनके बीच में सीमा ही बना दी हो ॥२१॥
गले के समीप पड़े हुए हार से वह ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो वक्षःस्थलवासिनी लक्ष्मी का आलिंगन करने वाले मृणालवलय (गोल कमलनाल) से ही शोभायमान हो रहा हो ॥२२॥
पद्मरागमणियों की किरणों से व्याप्त हुआ उसका वक्षःस्थल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उदय होते हुए सूर्य की लाल-लाल सघन प्रभा से आच्छादित हुआ मेरु पर्वत का तट ही हो ॥२३॥
वक्षःस्थल के दोनों ओर उसके ऊँचे कन्धे ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मी की क्रीड़ा के लिए अतिशय ऊंचे दो क्रीड़ा-पर्वत ही बनाये गये हों ॥२४॥
हाररूपी तोरण को धारण करने वाली उसकी दोनों भुजाएं वक्ष:स्थलरूपी महल के दोनों ओर खड़े किये गये तोरण बाँधने के खम्भों का सन्देह पैदा कर रही थी ॥२५॥
जिसके शरीर का संगठन वज्र के समान मजबूत है ऐसे उस वज्रनाभि की नाभि के बीच में एक अत्यन्त स्पष्ट वज्र का चिह्न दिखाई देता था जो कि आगामी काल में होने वाले साम्राज्य (चक्रवर्तित्व) का मानो चिह्न ही था ॥२६॥
जो रेशमी वस्त्ररूपी तट से शोभायमान था और रतिरूपी हंसी से सेवित था ऐसा उसका कटिप्रदेश किसी सरोवर की शोभा धारण कर रहा था ॥२७॥
उसके अतिशय गोल और चिकने ऊरु, यहाँ-वहाँ फिरने वाले कामदेवरूपी हस्ती को रोकने के लिए बनाये गये अर्गलदण्डों के समान शोभा को प्राप्त हो रहे शे ॥२८॥
घुटनों और पैर के ऊपर की गाठों से मिली हुई उसकी दोनों जङ्घाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो लोगों को यह उपदेश देने के लिए ही उद्यत हुई हों कि हमारे समान तुम लोग भी सन्धि (मेल) धारण करो ॥२९॥
अँगुलीरूपी पत्तों से सहित और नखरूपी चन्द्रमा की कान्तिरूपी केशर से युक्त उसके दोनों चरण, कमल की शोभा धारण कर रहे थे और इसीलिए लक्ष्मी चिरकाल से उनकी सेवा करती थी ॥३०॥
इस प्रकार लक्ष्मी का आलिंगन करने से अतिशय सुन्दरता को प्राप्त हुआ उसका शरीर अपने में देवाङ्गनाओं की भी रुचि उत्पन्न करता था-देवाङ्गनाएँ भी उसे देखकर कामातुर हो जाती थी ॥३१॥
उसने शास्त्ररूपी सम्पत्ति का अच्छी तरह अभ्यास किया था इसलिए कामज्वर का प्रकोप बढ़ाने वाले यौवन के प्रारम्भ समय में भी उसे कोई मद उत्पन्न नहीं हुआ था ॥३२॥
जो धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली है, जो बड़े-बड़े फलों को देने वाली हैं और जो लक्ष्मी का आकर्षण करने में समर्थ हैं ऐसी मन्त्रसहित समस्त राजविद्या उसने पढ़ ली थीं ॥३३॥
उस पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही अतिशय प्रेम रखती थीं इसलिए चन्द्रमा के समान निर्मल कीर्ति मानो उन दोनो की ईर्ष्या से ही दशों दिशाओं के अन्त तक भाग गयी थीं ॥३४॥
मालूम होता है कि ब्रह्मा ने उसके गुणों की संख्या करने की इच्छा से ही आकाश में ताराओं के समूह के छल से अनेक रेखाएँ बनायी थीं ॥३५॥
उसका वह मनोहर रूप, वह विद्या और वह यौवन, सभी कुछ लोगों को वशीभूत कर लेते थे, सो ठीक ही है । गुणों से कौन वशीभूत नहीं होता ॥३६॥
यहाँ जो वज्रनाभि के गुणों का वर्णन किया है उसी से अन्य राजकुमारों का भी वर्णन समझ लेना चाहिए । क्योंकि जिस प्रकार तारागण कुछ अंशों में चन्द्रमा के गुणों को धारण करते हैं उसी प्रकार वे शेष राजकुमार भी कुछ अंशों में वज्रनाभि के गुण धारण करते थे ॥३७॥
तदनन्तर, इसकी योग्यता जानकर वज्रसेन महाराज ने अपनी सम्पूर्ण राज्यलक्ष्मी इसे ही सौंप दी ॥३८॥
राजा ने अपने ही सामने बड़े ठाटबाट से इसका राज्याभिषेक कराया तथा मन्त्री और मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा उसका पट्टबन्ध कराया ॥३९॥
पट्टबन्ध के समय वह राजसिंहासन पर बैठा हुआ था और अनेक सुन्दर स्त्रियां गंगा नदी के तरंगों के समान निर्मल चमर ढोर रही थी ॥४०॥
चमर ढोरती हुई उन स्त्रियों को देखकर मेरा मन यही उत्प्रेक्षा करता है कि वे मानो राज्यलक्ष्मी के संसर्ग से वज्रनाभि पर पड़ने वाली लोकापवादरूपी धूलि को ही दूर करने के लिए उद्यत हुई हों ॥४१॥
उस समय राज्यलक्ष्मी भी उसके वक्षःस्थल पर गाड़ प्रेम करती थी और ऐसी मालूम होती थी मानो पट्टबन्ध के छल से वह उस पर बाँध ही दी गयी हो ॥४२॥
राजाओं में श्रेष्ठ वज्रसेन महाराज ने अनेक राजाओं के साथ अपना मुकुट वज्रनाभि के मस्तक पर रखा था । उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे मानो सबकी साक्षीपूर्वक अपना भार ही उतारकर उसे समर्पण कर रहे हों ॥४३॥
उस समय उसका वक्षःस्थल हार से अलंकृत हो रहा था, भुजाएँ बाजूबन्द आदि आभूषणों से सुशोभित हो रही थीं और कमर करधनी तथा रेशमी वस्त्र की पट्टी से शोभायमान हो रही थी ॥४४॥
अत्यन्त कुशल वज्रसेन महाराज ने, जिसका राज्याभिषेक हो चुका है ऐसे वज्रनाभि के लिए तू बड़ा भारी चक्रवर्ती हो इस प्रकार अनेक राजाओं के साथ-साथ आशीर्वाद देकर अपना समस्त राज्यभार सौंप दिया ॥४५॥
तदनन्तर लौकान्तिक देवों ने आकर महाराज वज्रसेन को समझाया जिससे प्रबुद्ध होकर उन्होंने दीक्षा धारण करने में अपनी बुद्धि लगायी ॥४६॥
जिस समय इन्द्र आदि उत्तम-उत्तम देव भगवान् वज्रसेन की यथायोग्य पूजा कर रहे थे उसी समय उन्होंने दीक्षा लेकर मुक्तिरूपी लक्ष्मी को प्रसन्न किया था ॥४७॥
उस समय भगवान् वज्रसेन के साथ-साथ आसवन नाम के बड़े भारी उपवन में एक हजार अन्य राजाओं ने भी दीक्षा ली थी ॥४८॥
इधर राजा वज्रनाभि राज्य को निष्कण्टक कर उसका पालन करता था और उधर योगिराज भगवान् वज्रसेन भी निर्दोष तपस्या करते थे ॥४९॥
इधर वज्रनाभि राज्यलक्ष्मी के समागम से अतिशय सन्तुष्ट होता था और उधर उसके पिता भगवान् वज्रसेन भी तपोलक्ष्मी के समागम से अत्यन्त प्रसन्न होते थे ॥५०॥
इधर वज्रनाभि को अपने सम्मिलित भाइयों से बड़ा धैर्य (सन्तोष) प्राप्त होता था और उधर भगवान् वज्रसेन मुनि कल्याण करने वाले गुणों से धैर्य (सन्तोष) को विस्तृत करते थे ॥५१॥
इधर वज्रनाभि मंत्रियों के द्वारा राजाओं के समूह को अपने अनुकूल करता था और उधर मुनीन्द्र वज्रसेन भी तप और ध्यान के द्वारा गुणों के समूह का पालन करते थे । पर इधर पुत्र वज्रनाभि अपने राज्याश्रम में स्थित था और उधर पिता भगवान् वज्रसेन अन्तिम मुनि आश्रम में स्थित थे । इस प्रकार वे दोनों ही परोपकार के लिए कमर बांधे हुए थे और दोनों ही प्रजा की रक्षा करते थे । भावार्थ-वज्रनाभि दुष्ट पुरुषों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों का अनुग्रह कर प्रजा का पालन करता था और भगवान् वज्रसेन हित का उपदेश देकर प्रजा (जीवों) की रक्षा करते थे ॥५३॥
वज्रनाभि के आयुधगृह में देदीप्यमान चक्ररत्न प्रकट हुआ था और मुनिराज वज्रसेन के मनरूपी गृह में प्रकाशमान तेज का धारक ध्यानरूपी चक्र प्रकट हुआ था ॥५४॥
राजा वज्रनाभि ने उस चक्ररत्न से समस्त पृथ्वी को जीता था और मुनिराज वज्रसेन ने कर्मों की विजय से अनुपम प्रभाव प्राप्त कर तीनों लोकों को जीत लिया था ॥५५॥
इस प्रकार विजय प्राप्त करने से उत्कृष्ट (श्रेष्ठ) वे दोनों ही पिता-पुत्र परस्पर स्पर्धा करते हुए से जान पड़ते थे । किन्तु एक (वज्रनाभि) की विजय अत्यन्त अल्प थी-छह खण्ड तक सीमित थी और दूसरे (वज्रसेन) की विजय संसार-भर को अतिक्रान्त करने वाली थी-सबसे महान् थी ॥५६॥
धनदेव (श्रीमती और केशव का जीव) भी उस चक्रवर्ती की निधियों और रत्नों में शामिल होने वाला तथा राज्य का अङ्गभूत गृहपति नाम का तेजस्वी रत्न हुआ ॥५७॥
इस प्रकार उस बुद्धिमान् और विशाल अभ्युदय के धारक वज्रनाभि चक्रवर्ती ने चिरकाल तक पृथ्वी का उपभोग कर किसी दिन अपने पिता वज्रसेन तीर्थंकर से अत्यन्त दुर्लभ रत्नत्रय का स्वरूप जाना ॥५८॥
जो चतुर पुरुष रसायन के समान सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों का सेवन करता है वह अचिन्त्य और अविनाशी मोक्षरूपी पद को प्राप्त होता है ॥५९॥
हृदय से ऐसा विचार कर उस चक्रवर्ती ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य को जीर्ण तृण के समान माना और तप धारण करने में बुद्धि लगायी ॥६०॥
उसने वज्रदन्त नाम के अपने पुत्र के लिए राज्य समर्पण कर सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेव के साथ-साथ मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से पिता वज्रसेन तीर्थंकर के समीप भव्य जीवों के द्वारा आदर करने योग्य जिनदीक्षा धारण की ॥ ६१-६२ ॥ जन्म-मरण के दु:खों से दुःखी हुए अन्य अनेक राजा तप करने के लिए उसके साथ वन को गये थे सो ठीक ही है, शीत से पीड़ित हुआ कौन बुद्धिमान् धूप का सेवन नहीं करेगा ? ॥६३॥
महाराज वज्रनाभि ने दीक्षित होकर जीवन पर्यन्त के लिए मन, वचन, काय से हिंसा, झूठ, चोरी, स्त्री-सेवन और परिग्रह से विरति धारण की थी अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँचों महावत धारण किये थे ॥६४॥
व्रतों में स्थिर होकर उसने पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों को भी धारण किया था । ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापन ये पाँच समितियाँ तथा कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ये तीन गुप्तियाँ दोनों मिलाकर आठ प्रवचन मातृकाएँ कहलाती हैं । प्रत्येक मुनि को इनका पालन अवश्य ही करना चाहिए ऐसा इन्द्र सभा (समवसरण) की रक्षा करने वाले गणधरादि देवों ने कहा है ॥६४-६५॥
तदनन्तर उत्कृष्ट तपस्वी धीर, वीर तथा पापरहित मुनियों का चिन्तवन करने वाला और सम्यग्दर्शन से युक्त वह चक्रवर्ती एक चर्याव्रत को प्राप्त हुआ अर्थात् एकाकी विहार करने लगा ॥६६॥
इस प्रकार वह चक्रवर्ती एक चर्याव्रत प्राप्त कर किसी पहाड़ी हाथी के समान तालाब और वन की शोभा देखता हुआ चिरकाल तक मन्द गति से (ईर्यासमितिपूर्वक) पृथ्वी पर विहार करता रहा ॥६७॥
तदनन्तर आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करने वाले धीर-वीर वज्रनाभि मुनिराज ने अपने पिता वज्रसेन तीर्थंकर के निकट उन सोलह भावनाओं का चिन्तवन किया जो कि तीर्थंकर पद प्राप्त होने में कारण है ॥६८॥
उसने शंकादि दोषरहित शुद्ध सम्यग्दर्शन धारण किया, विनय धारण की, शील और व्रतों के अतिचार दूर किये, निरन्तर ज्ञानमय उपयोग किया, संसार से भय प्राप्त किया ॥६९॥
अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर सामर्थ्य के अनुसार तपश्चरण किया, ज्ञान और संयम के साधनभूत त्याग में चित्त लगाया ॥७०॥
साधुओं के व्रत, शील आदि में विघ्न आने पर उनके दूर करने में वह बार-बार सावधान रहता था क्योंकि हितैषी पुरुषों की सम्पूर्ण चेष्टाएं समाधि अर्थात् दूसरों के विघ्न दूर करने के लिए ही होती हैं ॥७१॥
किसी व्रती पुरुष के रोगादि होने पर वह उसे अपने से अभिन्न मानता हुआ उसका वैयावृत्य (सेवा) करता था क्योंकि वैयावृत्य ही तप का हृदय है-सारभूत तत्त्व है ॥७२॥
वह पूज्य अरहन्त भगवान् में अपनी निश्चल भक्ति को विस्तृत करता था, विनयी होकर आचार्यों की भक्ति करता था, तथा अधिक ज्ञानवान् मुनियों की भी सेवा करता था ॥७३॥
वह सच्चे देव के कहे हुए शास्त्रों में भी अपनी उत्कृष्ट भक्ति बढ़ाता रहता था, क्योंकि जो पुरुष प्रवचन भक्ति (शास्त्रभक्ति) से रहित होता है वह बढ़े हुए रागादि शत्रुओं को नहीं जीत सकता है ॥७४॥
वह अवश (अपराधीन) होकर भी वश-पराधीन (पक्ष में जितेन्द्रिय) था और द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा रखनेवाले समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यकों का पूर्ण रूप से पालन करता था ॥७५॥
तप, ज्ञान आदि किरणों को धारण करनेवाला और भव्य जीवरूपी कमलों को विकसित करनेवाला वह मुनिराजरूपी सूर्य सदा जैनमार्ग को प्रकाशित (प्रभावित) करता था ॥७६॥
जैनशास्त्रों के अनुसार चलने वाले शिष्यों को धर्म में स्थिर रखता हुआ और धर्म में प्रेम रखने वाला वह वज्रनाभि सभी धर्मात्मा जीवों पर अधिक प्रेम रखता था ॥७७॥
इस प्रकार महा धीर-वीर मुनिराज वज्रनाभि ने तीर्थंकरत्च की प्राप्ति के कारणभूत उक्त सोलह भावनाओं का चिरकाल तक चिन्तन किया था ॥७८॥
तदनन्तर इन भावनाओं का उत्तम रीति से चिन्तन करते हुए उन श्रेष्ठ मुनिराज ने तीन लोक में क्षोभ उत्पन्न करने वाली तीर्थंकर नामक महापुण्य प्रकृति का बन्ध किया ॥७९॥
वह निर्मल कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारिणी बुद्धि और संभिन्नश्रोतृबुद्धि इन चार ऋद्धियों को भी प्राप्त हुआ था ॥८०॥
जिस प्रकार कोई राजर्षि राजविद्याओं के द्वारा अपने शत्रुओं के समस्त गमनागमन को जान लेता है ठीक उसी प्रकार प्रकाशमान ऋद्धियों के धारक वज्रनाभि मुनिराज ने भी ऊपर कही हुई चार प्रकार की बुद्धि नामक ऋद्धियों के द्वारा अपने परभव-सम्बन्धी गमनागमन को जान लिया था ॥८१॥
वह दीप्त ऋद्धि के प्रभाव से उत्कृष्ट दीप्ति को प्राप्त हुआ था, तप्त ऋद्धि के प्रभाव से उत्कृष्ट तप तपता था, उग्र ऋद्धि के प्रभाव से उग्र तपश्चरण करता था और भयानक कर्मरूप शत्रुओं के मर्म को भेदन करता हुआ घोर ऋद्धि के प्रभाव से घोर तप तपता था ॥८२॥
मन्त्र (परामर्श)-को जानने वाला वह वज्रनाभि जिस प्रकार पहले राज्य-अवस्था में विजय का अभिलाषी होकर परलोक (शत्रुसमूह) जो जीतने के लिए तत्पर होता हुआ मन्त्रियों के साथ बैठकर द्वन्द्व (युद्ध) का विचार किया करता था, उसी प्रकार अब मुनि अवस्था में भी पच्चनमस्कारादि मन्त्रों का जानने वाला, वह वज्रनाभि कर्मरूप शत्रुओं को जीतने का अभिलाषी होकर परलोक नरकादि पर्यायों को, जीतने के लिए तत्पर होता हुआ तपरूपी मन्त्रियों (मन्त्रशास्त्र के जानकार योगियों) के साथ द्वन्द्व (आत्मा और कर्म अथवा राग और द्वेष आदि) का विचार किया करता था ॥८३॥
उदार आशय को धारण करनेवाला वज्रनाभि केवल गौरवशाली सिद्ध पद की ही इच्छा रखता था । उसे ऋद्धियों की बिलकुल ही इच्छा नहीं थी फिर भी अणिमा, महिमा आदि अनेक गुणोंसहित विक्रिया ऋद्धि उसे प्राप्त हुई थी ॥८४॥
जगत् का हित करने वाली जल्ल आदि औषधि ऋद्धियाँ भी उसे प्राप्त हुई थीं सो ठीक ही है । कल्पवृक्ष पर लगे हुए फल किसका उपकार नहीं करते ? ॥८५॥
यद्यपि उन मुनिराज के घी, दूध आदि रसों के त्याग करने की प्रतिज्ञा थी तथापि घी, दूध आदि को झराने वाली अनेक रस ऋद्धियाँ प्रकट हुई थीं । सो ठीक ही है, इष्ट पदार्थों के त्याग करने से उनसे भी अधिक महाफलों की प्राप्ति होती है ॥८६॥
बल ऋद्धि के प्रभाव से बल प्राप्त होने के कारण वह कठिन-कठिन परीषहों को भी सह लेता था सो ठीक ही है क्योंकि उसके बिना शीत, उष्ण आदि की व्यथा को कौन सह सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥८७॥
उसे अक्षीण ऋद्धि प्राप्त हुई थी इसीलिए वह जिस दिन जिस घर में भोजन ग्रहण करता था उस दिन उस घर में अन्न अक्षय हो जाता था-चक्रवर्ती के कटक को भोजन कराने पर भी वह भोजन क्षीण नहीं होता था । सो ठीक ही है, वास्तव में तपा हुआ महान् तप अविनाशी फल को फलता ही है ॥८८॥
विशुद्ध भावनाओं को धारण करने वाले वज्रनाभि मुनिराज जब अपने विशुद्ध परिणामों से उत्तरोत्तर विशुद्ध हो रहे थे तब वे उपशम श्रेणी पर आरूढ़ हुए ॥८९॥
वे अधःकरण के बाद आठवें अपूर्वकरण का आश्रय कर नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त हुए और उसके बाद जहाँ राग अत्यन्त सूक्ष्म रह जाता है ऐसे सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थान को प्राप्त कर उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त हुए । वहाँ उनका मोहनीय कर्म बिलकुल ही उपशान्त हो गया था ॥९०॥
सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने से वहाँ उन्हें अतिशय विशुद्ध औपशमिक चारित्र प्राप्त हुआ ॥९१॥
अन्तर्मुहूर्त के बाद वे मुनि फिर भी स्वस्थान अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान में स्थित हो गये अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त ठहरकर वहाँ से च्युत हो उसी गुणस्थान में आ पहुँचे जहाँ से कि आगे बढ़ना शुरू किया था । उसका खास कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान में आत्मा की स्वाभाविक स्थिति अन्तर्मुहूर्त से आगे है ही नहीं ॥९२॥
मुनिराज वज्रनाभि उत्कृष्ट मन्त्र को जानते थे, उत्कृष्ट तप को जानते थे, उत्कृष्ट पूजा को जानते थे और उत्कृष्ट पद (सिद्धपद) को जानते थे ॥९३॥
तत्पश्चात् आयु के अन्त समय में उस बुद्धिमान् वज्रनाभि ने श्रीप्रभनामक ऊँचे पर्वत पर प्रायोपवेशन (प्रायोपगमन नाम का संन्यास) धारण कर शरीर और आहार से ममत्व छोड़ दिया ॥९४॥
चूँकि इस संन्यास में तपस्वी साधु रत्नत्रयरूपी शय्या पर उपविष्ट होता है-बैठता है, इसलिए इसका प्रायोपवेशन नाम सार्थक है ॥९५॥
इस संन्यास में अधिकतर रत्नत्रय की प्राप्ति होती है इसलिए इसे प्रायेणोपगम भी कहते हैं । अथवा इस संन्यास के धारण करने पर अधिकतर कर्मरूपी शत्रुओं का अपगम-नाश-हो जाता है इसलिए इसे प्रायेणापगम भी कहते हैं ॥९६॥
उस विषय के जानकर उत्तम मुनियों ने इस संन्यास का एक नाम प्रायोपगमन भी बतलाया है और उसका अर्थ यह कहा है कि जिसमें प्राय: करके (अधिकतर) संसारी जीवों के रहने योग्य नगर, ग्राम आदि से हटकर किसी वन में जाना पड़े उसे प्रायोपगमन कहते हैं ॥९७॥
इस प्रकार प्रायोपगमन संन्यास धारण कर वज्रनाभि मुनिराज अपने शरीर का न तो स्वयं ही कुछ उपचार करते थे और न किसी दूसरे से ही उपचार कराने की चाह रखते थे । वे तो शरीर से ममत्व छोड़कर उस प्रकार निराकुल हो गये थे जिस प्रकार कि कोई शत्रु के मृतक शरीर को छोड़कर निराकुल हो जाता है ॥९८॥
यद्यपि उस समय उनके शरीर में चमड़ा और हड्डी ही शेष रह गयी थी एवं उनका उदर भी अत्यन्त कृश हो गया था तथापि वे अपने स्वाभाविक धैर्य का अवलम्बन कर बहुत दिन तक निश्चलचित्त होकर बैठे रहे ॥९९॥
मुनि मार्ग से च्युत न होने और कर्मों की विशाल निर्जरा होने की इच्छा करते हुए वज्रनाभि मुनिराज ने क्षुधा, तृष्णा, शीत-उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, शय्या, निषद्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, अदर्शन, रोग, तृणस्पर्श, प्रज्ञा, अज्ञान, मल और सत्कार, पुरस्कार ये बाईस परिषह सहन किये थे ॥१००-१०२॥
बुद्धिमान् मदरहित और विद्वानों में श्रेष्ठ वज्रनाभि मुनि ने उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म धारण किये थे । वास्तव में ये ऊपर कहे हुए दश धर्म गणधरों को अत्यन्त इष्ट हैं ॥१०३-१०४॥
इनके सिवाय वे प्रति समय बारह अनुप्रेक्षा का चिन्तवन करते रहते थे जैसे कि संसार के सुख, आयु, बल और सम्पदाएँ सभी अनित्य हैं । तथा मृत्यु, बुढ़ापा और जन्म का भय उपस्थित होने पर मनुष्यों को कुछ भी शरण नहीं है; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप विचित्र परिवर्तनों के कारण यह संसार अत्यन्त दुःखरूप हैं । ज्ञानदर्शन स्वरूप को प्राप्त होने वाला आत्मा सदा अकेला रहता है । शरीर, धन, भाई और स्त्री वगैरह से यह आत्मा सदा पृथक् रहता है । इस शरीर के नव द्वारों से सदा मल झरता रहता है इसलिए यह अपवित्र है । इस जीव के पुण्य पापरूप कर्मों का आस्रव होता रहता है । गुप्ति समिति आदि कारणों से उन कर्मों का संवर होता है । तप से निर्जरा होती है । यह लोक चौदह राजूप्रमाण ऊँचा है । संसाररूपी समुद्र में रत्नत्रय की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है और दयारूपी धर्म से ही जीवों का कल्याण हो सकता है । इस प्रकार तत्त्वों का चिन्तन करते हुए उन्होंने बारह भावनाओं को भाया । उस समय शुभभावों को धारण करने वाले वे मुनिराज लेश्याओं की अतिशय विशुद्धि को धारण कर रहे थे ॥१०५-१०९॥
वे द्वितीय बार उपशम श्रेणी पर आरूढ़ हुए और पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान को पूर्ण कर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुए ॥११०॥
अन्त में उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि पहुँचे और वहाँ अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुए ॥१११॥
यह सर्वार्थसिद्धि नाम का विमान लोक के अन्त भाग से बारह योजन नीचा है । सबसे अग्रभाग में स्थित और सबसे उत्कृष्ट है ॥११२॥
इसकी लम्बाई, चौड़ाई और गोलाई जम्बूद्वीप के बराबर है । यह स्वर्ग के तिरेसठ पटलों के अन्त में चूड़ामणि रत्न के समान स्थित है ॥११३॥
चूँकि उस विमान में उत्पन्न होने वाले जीवों के सब मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं इसलिए वह सर्वार्थसिद्धि इस सार्थक नाम को धारण करता है ॥११४॥
वह विमान बहुत ही ऊंचाई तथा फहराती हुई पताकाओं से शोभायमान है इसलिए ऐसा जान पड़ता है मानो सुख देने की इच्छा से मुनियों को बुला ही रहा हो ॥११५॥
जिस पर अनेक फूल बिखरे हुए हैं ऐसी वहाँ की नीलमणि की बनी हुई भूमि को देखकर देवता लोगों को ताराओं से व्याप्त आकाश का स्मरण हो आता है ॥११६॥
देवों के प्रतिबिम्ब को धारण करने वाली वहाँ की रत्नमयी दीवालें ऐसी जान पड़ती हैं मानो किसी नये स्वर्ग की सृष्टि ही करना चाहती हो ॥११७॥
वहाँ पर रत्नों की किरणों ने अन्धकार को दूर भगा दिया है । सो ठीक ही है, वास्तव में निर्मल पदार्थ मलिन पदार्थों के साथ संगति नहीं करते हैं ॥११८॥
उस विमान के चारों ओर रत्नों की किरणों से जो इन्द्रधनुष बन रहा है उससे ऐसा मालूम होता है मानो चारों ओर चमकीला कोट ही बनाया गया हो ॥११९॥
वहाँ पर लटकती हुई सुगन्धित और सुकोमल फूलों की मालाएँ ऐसी सुशोभित होती हैं मानो वहाँ के इन्द्रों के सौमनस्य (फूलों के बने हुए, उत्तम मन) को ही सूचित कर रही हों ॥१२०॥
उस विमान में निरन्तर रूप से लगी हुई मोतियों की मालाएँ ऐसी जान पड़ती हैं मानो दांतों की स्पष्ट किरणों से शोभायमान वहाँ की लक्ष्मी का हास्य ही हो ॥१२१॥
इस प्रकार अकृत्रिम और श्रेष्ठ रचना से शोभायमान रहने वाले उस विमान में उपपाद शय्या पर वह देव क्षण-भर में पूर्ण शरीर को प्राप्त हो गया ॥१२२॥
दोष, धातु और मल के स्पर्श से रहित, सुन्दर लक्षणों से युक्त तथा पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ उसका शरीर क्षण-भर में ही प्रकट हो गया था ॥१२३॥
जिसकी शोभा कभी म्लान नहीं होती, जो स्वभाव से ही सुन्दर है और जो नेत्रों को आनन्द देने वाला है ऐसा उसका शरीर ऐसा सुशोभित होता था मानो अमृत के द्वारा ही बनाया गया हो ॥१२४॥
इस संसार में जो शुभ सुगन्धित और चिकने परमाणु थे, पुण्योदय के कारण उन्हीं परमाणुओं से उसके शरीर की रचना हुई थी ॥१२५॥
पूर्ण होने के बाद उपपाद शय्या पर अपने ही शरीर की कान्तिरूपी चांदनी से घिरा हुआ वह अहमिन्द्र ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि आकाश में चाँदनी से घिरा हुआ पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होता है ॥१२६॥
उस उपपाद शय्या पर बैठा हुआ वह दिव्यहंस (अहमिन्द्र) क्षण-भर तक ऐसा शोभायमान होता रहा जैसा कि गंगा नदी के बालू के टीले पर अकेला बैठा हुआ तरुण हंस शोभायमान होता है ॥१२७॥
उत्पन्न होने के बाद वह अहमिन्द्र निकटवर्ती सिंहासन पर आरूढ़ हुआ था । उस समय वह ऐसा शोभायमान होता था जैसा कि अत्यन्त श्रेष्ठ निषध पर्वत के मध्य पर आश्रित हुआ सूर्य शोभायमान होता है ॥१२८॥
वह अहमिन्द्र अपने पुण्यरूपी जल के द्वारा केवल अभिषिक्त ही नहीं हुआ था किन्तु शारीरिक गुणों के समान अनेक अलंकारों के द्वारा अलंकृत भी हुआ था ॥१२९॥
उसने अपने वक्षःस्थल पर केवल फूलों की माला ही धारण नहीं की थी किन्तु जीवनपर्यन्त नष्ट नहीं होने वाली, साथ-साथ उत्पन्न हुई स्वर्ग की लक्ष्मी भी धारण की थी ॥१३०॥
स्नान और विलेपन के बिना ही जिसका शरीर सदा देदीप्यमान रहता है और जो स्वयं साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र तथा आभूषणों से शोभायमान है ऐसा वह अहमिन्द्र देवों के मस्तक पर (अग्रभाग में) ऐसा सुशोभित होता था मानो स्वर्गलोक का एक शिखामणि ही हो अथवा सूर्य ही हो क्योंकि शिखामणि अथवा सूर्य भी स्नान और विलेपन के बिना ही देदीप्यमान रहता है और स्वभाव से ही अपनी प्रभा-द्वारा आकाश को भूषित करता रहता है ॥१३१॥
जिसका निर्मल और उत्कृष्ट शरीर शुद्ध स्फटिक के समान अत्यन्त शोभायमान था तथा जिसके मस्तक पर देदीप्यमान मुकुट शोभायमान हो रहा था ऐसा वह अहमिन्द्र, जिसकी शिखा ऊँची उठी हुई है ऐसी पुण्य की राशि के समान सुशोभित होता था ॥१३२॥
वह अहमिन्द्र मुकुट, अनन्त, बाजूबन्द और कुण्डल आदि आभूषणों से सुशोभित था, सुन्दर मालाएं धारण कर रहा था, उत्तम-उत्तम वस्त्रों से युक्त था और स्वयं शोभा से सम्पन्न था इसलिए अनेक आभूषण माला और वस्त्र आदि को धारण करने वाले किसी कल्पवृक्ष के समान जान पड़ता था ॥१३३॥
अणिमा, महिमा आदि गुणों से प्रशंसनीय वैक्रियक शरीर को धारण करने वाला वह अहमिन्द्र जिनेन्द्रदेव की अकृत्रिम प्रतिमाओं की पूजा करता हुआ अपने ही क्षेत्र में विहार करता था ॥१३४॥
और इच्छामात्र से प्राप्त हुए मनोहर गन्ध, अक्षत आदि के द्वारा विधिपूर्वक पुण्य का बंध करने वाली श्री जिनदेव की पूजा करता था ॥१३५॥
वह अहमिन्द्र पुण्यात्मा जीवों में सबसे प्रधान था इसलिए उसी सर्वार्थसिद्धि विमान में स्थित रहकर ही समस्त लोक के मध्य में वर्तमान जिनप्रतिमाओं की पूजा करता था ॥१३६॥
उस पुण्यात्मा अहमिन्द्र ने अपने वचनों की प्रवृत्ति जिनप्रतिमाओं के स्तवन करने में लगायी थी, अपना मन उनके गुण-चिन्तवन करने में लगाया था और अपना शरीर उन्हें नमस्कार करने में लगाया था ॥१३७॥
धर्म गोष्ठियों में बिना बुलाये सम्मिलित होने वाले, अपने ही समान ऋद्धियों को धारण करने वाले और शुभ भावों से युक्त अन्य अहमिन्द्रों के साथ संभाषण करने में उसे बड़ा आदर होता था ॥१३८॥
अतिशय शोभा का धारक वह अहमिन्द्र कभी तो अपने मन्द हास्य के किरणरूपी जल के पूरों से दिशारूपी दीवालों का प्रक्षालन करता हुआ अहमिन्द्रों के साथ तत्त्वचर्चा करता था और कभी अपने निवासस्थान के समीपवर्ती उपवन के सरोवर के किनारे की भूमि में राजहंस पक्षी के समान-अपने इच्छानुसार विहार करता हुआ चिरकाल तक क्रीड़ा करता था ॥१३९-१४०॥
अहमिन्द्रों का परक्षेत्र में विहार नहीं होता क्योंकि शुक्ललेश्या के प्रभाव से अपने ही भोगों-द्वारा सन्तोष को प्राप्त होने वाले अहमिन्द्रों को अपने निरुपद्रव सुखमय स्थान में जो उत्तम प्रीति होती है वह उन्हें अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त होती । यही कारण है कि उनकी परक्षेत्र में क्रीड़ा करने की इच्छा नहीं होती है ॥१४१-१४२॥
'मैं ही इन्द्र हूँ, मेरे सिवाय अन्य कोई इन्द्र नहीं है' इस प्रकार वे अपनी निरन्तर प्रशंसा करते रहते हैं और इसलिए वे उत्तम देव अहमिन्द्र नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त होते हैं ॥१४३॥
उन अहमिन्द्र के न तो परस्पर में असूया है, न परनिन्दा है, न आत्मप्रशंसा है और न ईर्ष्या ही है । वे केवल सुखमय होकर हर्षयुक्त होते हुए निरन्तर क्रीड़ा करते रहते हैं ॥१४४॥
वह वज्रनाभि का जीव अहमिन्द्र अपने आत्मा के अधीन उत्पन्न हुए उत्कृष्ट सुख को धारण करता था, तैंतीस सागर प्रमाण उसकी आयु थी और स्वयं अतिशय देदीप्यमान था ॥१४५॥
वह समचतुरस्र संस्थान से अत्यन्त सुन्दर, एक हाथ ऊँचे और हंस के समान श्वेत शरीर को धारण करता था ॥१४६॥
वह साथ-साथ उत्पन्न हुए दिव्य वस्त्र, दिव्यमाला और दिव्य आभूषणों से विभूषित जिस मनोहर शरीर को धारण करता था वह ऐसा जान पड़ता था मानो सौन्दर्य का समूह ही हो ॥१४७॥
उस अहमिन्द्र की वेषभूषा तथा विलास-चेष्टाएँ अत्यन्त प्रशान्त थी, ललित (मनोहर) थी, उदात्त (उत्कृष्ट) थीं और धीर थीं । इसके सिवाय वह स्वयं अपने शरीर की फैलती हुई प्रभारूपी क्षीरसागर में सदा निमग्न रहता था ॥१४८॥
जिसने अपने चमकते हुए आभूषणों के प्रकाश से दशों दिशाओं को प्रकाशित कर दिया था ऐसा वह अहमिन्द्र ऐसा जान पड़ता था मानो एकरूपता को प्राप्त हुआ अतिशय प्रकाशमान तेज का समूह ही हो ॥१४९॥
वह विशुद्ध लेश्या का धारक था और अपने शरीर की शुद्ध तथा प्रकाशमान किरणों से दसों दिशाओं को लिप्त करता था, इसलिए सदा सुखी रहने वाला वह अहमिन्द्र ऐसा मालूम होता था मानो अमृतरस के द्वारा ही बनाया गया हो ॥१५०॥
इस प्रकार वह अहमिन्द्र ऐसे उत्कृष्ट पद को प्राप्त हुआ जो इन्द्रादि देवों के भी अगोचर है, परमानन्द देनेवाला है और सबसे श्रेष्ठ है ॥१५१॥
वह अहमिन्द्र तैंतीस हजार वर्ष व्यतीत होनेपर मानसिक दिव्य आहार ग्रहण करता हुआ धैर्य धारण करता था ॥१५२॥
और सोलह महीने पन्द्रह दिन व्यतीत होने पर श्वासोच्छ्वास ग्रहण करता था । इस प्रकार वह अहमिन्द्र वहाँ (सर्वार्थसिद्धि में) सुखपूर्वक निवास करता था ॥१५३॥
अपने अवधिज्ञानरूपी दीपक के द्वारा त्रसनाडी में रहनेवाले जानने योग्य मूर्तिक द्रव्यों को उनकी पर्यायोंसहित प्रकाशित करता हुआ वह अहमिन्द्र अतिशय शोभायमान होता था ॥१५४॥
उस अहमिन्द्र के अपने अवधिज्ञान के क्षेत्र बराबर विक्रिया करने की भी सामर्थ्य थी, परन्तु वह रागरहित होने के कारण बिना प्रयोजन कभी विक्रिया नहीं करता था ॥१५५॥
उसका मुख कमल के समान था, नेत्र नीलकमल के समान थे, गाल चन्द्रमा के तुल्य थे और अधर बिम्बफल की कान्ति को धारण करता था ॥१५६॥
अभी तक जितना वर्णन किया है उससे भी अधिक सुन्दर और अतिशय चमकीला उसका शरीर ऐसा शोभायमान होता था मानो एक जगह इकट्ठा किया गया सौन्दर्य का सर्वस्व (सार) ही हो ॥१५७॥
छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के आहारक ऋद्धि से उत्पन्न होने वाला और आभूषणों के बिना ही देदीप्यमान रहनेवाला जो आहारक शरीर होता है ठीक उसके समान ही उस अहमिन्द्र का शरीर देदीप्यमान हो रहा था [विशेषता इतनी ही थी कि वह आभूषणों से प्रकाशमान था] ॥१५८॥
जिनेन्द्रदेव ने जिस एकान्त और शान्तरूप सुख का निरूपण किया है मालूम पड़ता है वह सभी सुख उस अहमिन्द्र में जाकर इकट्ठा हुआ था ॥१५९॥
वज्रनाभि के वे विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नाम के आठों भाई तथा विशाल बुद्धि का धारक धनदेव ये नौ जीव भी अपने पुण्य के प्रभाव से उसी सर्वार्थसिद्धि में वज्रनाभि के समान ही अहमिन्द्र हुए ॥१६०॥
इस प्रकार उस सर्वार्थसिद्धि में वे अहमिन्द्र मोक्षतुल्य सुख का अनुभव करते हुए प्रवीचार (मैथुन) के बिना ही चिरकाल तक सुखी रहते थे ॥१६१॥
उन अहमिन्द्र के शुभ कर्म के उदय से जो निर्बाध सुख प्राप्त होता है वह पहले कहे हुए प्रवीचारसहित सुख से अनन्त गुना होता है ॥१६२॥
जब कि संसार में स्त्रीसमागम से ही जीवों को सुख की प्राप्ति होती है तब उन अहमिन्द्रों के स्त्री-समागम न होने पर सुख कैसे हो सकता है ? यदि इस प्रकार कोई प्रश्न करे तो उसके समाधान के लिए इस प्रकार विचार किया जाता है ॥१६३॥
चूँकि इस संसार में जिनेन्द्रदेव ने आकुलतारहित वृत्ति को ही सुख कहा है, इसलिए वह सुख उन सरागी जीवों के कैसे हो सकता है जिनके कि चित्त अनेक प्रकार की आकुलताओं से व्याकुल हो रहे हैं ॥१६४॥
जिस प्रकार चित्त में मोह उत्पन्न करने से, शरीर में शिथिलता लाने से, तृष्णा (प्यास) बढ़ाने से और सन्ताप रूप होने से ज्वर सुखरूप नहीं होता उसी प्रकार चित्त में मोह, शरीर में शिथिलता, लालसा और सन्ताप बढ़ाने का कारण होने से स्त्री-संभोग भी सुख रूप नहीं हो सकता ॥१६५॥
जिस प्रकार कोई रोगी पुरुष कड़वी औषधि का भी सेवन करता है उसी प्रकार कामज्वर से संतप्त हुआ यह प्राणी भी उसे दूर करने की इच्छा से स्त्रीरूप औषधि का सेवन करता है ॥१६६॥
जब कि मनोहर विषयों का सेवन केवल तृष्णा के लिए है न कि सन्तोष के लिए भी, तब तृष्णारूपी ज्वाला से संतप्त हुआ यह जीव सुखी कैसे हो सकता है ? ॥१६७॥
जिस प्रकार, जो औषधि रोग दूर नहीं कर सके वह औषधि नहीं है, जो जल प्यास दूर नहीं कर सके वह जल नहीं है और जो धन आपत्ति को नष्ट नहीं कर सके वह धन नहीं है । इसी प्रकार जो विषयज सुख तृष्णा नष्ट नहीं कर सके वह विषयज (विषयों से उत्पन्न हुआ) सुख नहीं है ॥१६८-१६९॥
स्त्रीसंभोग से उत्पन्न हुआ सुख केवल कामेच्छारूपी रोगों का प्रतिकार मात्र है-उन्हें दूर करने का साधन है । क्या ऐसा मनुष्य भी औषधि सेवन करता है जो रोगरहित है और स्वास्थ्य को प्राप्त है ? भावार्थ-जिस प्रकार रोगरहित स्वस्थ मनुष्य औषधि का सेवन नहीं करता हुआ भी सुखी रहता है उसी प्रकार कामेच्छारहित सन्तोषी अहमिन्द्र स्त्री-संभोग न करता हुआ भी सुखी रहता है ॥१७०॥
विषयों में अनुराग करने वाले जीवों को जो सुख प्राप्त होता है वह उनका स्वास्थ्य नहीं कहा जा सकता है-उसे उत्कृष्ट सुख नहीं कह सकते, क्योंकि वे विषय, सेवन करने से पहले, सेवन करते समय और अन्त में केवल सन्ताप ही देते हैं ॥१७१॥
विद्वान् पुरुष उसी सुख को चाहते हैं जिसमें कि विषयों से मन की निवृत्ति हो जाती है-चित्त सन्तुष्ट हो जाता है, परन्तु ऐसा सुख उन विषयान्ध पुरुषों को कैसे प्राप्त हो सकता है जिनका चित्त सदा विषय प्राप्त करने में ही खेद-खिन्न बना रहता है ॥१७२॥
विषयों का अनुभव करने पर प्राणियों को जो सुख होता है वह पराधीन है, बाधाओं से सहित है व्यवधानसहित है और कर्मबन्धन का कारण है, इसलिए वह सुख नहीं है किन्तु दुःख ही है ॥१७३॥
ये विषय विष के समान अत्यन्त भयंकर हैं जो कि सेवन करते समय ही अच्छे मालूम होते हैं । वास्तव में उन विषयों से उत्पन्न हुआ मनुष्यों का सुख खाज खुजलाने से उत्पन्न हुए सुख के समान है अर्थात् जिस प्रकार खाज खुजलाते समय तो सुख होता है परन्तु बाद में दाह पैदा होने से उलटा दुःख होने लगता है उसी प्रकार इन विषयों के सेवन करने से उस समय तो सुख होता है किन्तु बाद में तृष्णा की वृद्धि होने से दुःख होने लगता है ॥१७४॥
जिस प्रकार जले हुए घाव पर घीसे हुए गीले चन्दन का लेप कुछ थोड़ा-सा आराम उत्पन्न करता है उसी प्रकार विषय-सेवन करने से उत्पन्न हुआ सुख उस समय कुछ थोड़ा-सा सन्तोष उत्पन्न करता है । भावार्थ-जब तक फोड़े के भीतर विकार विद्यमान रहता है तब तक चन्दन आदि का लेप लगाने से स्थायी आराम नहीं हो सकता इसी प्रकार जब तक मन में विषयों की चाह विद्यमान रहती है तब तक विषय-सेवन करने से स्थायी सुख नहीं हो सकता । स्थायी आराम और सुख तो तब प्राप्त हो सकता है जब कि फोड़े के भीतर से विकार और मन के भीतर से विषयों की चाह निकाल दी जाये । अहमिन्द्रों के मन से विषयों की चाह निकल जाती है इसलिए वे सच्चे सुखी होते हैं ॥१७५॥
जिस प्रकार विकारयुक्त घाव होने पर उसे क्षारयुक्त शस्त्र से चीरने आदि का उपक्रम किया जाता है उसी प्रकार विषयों की चाहरूपी रोग उत्पन्न होने पर उसे दूर करने के लिए विषय-सेवन किया जाता है और इस तरह जीवों का यह विषय-सेवन केवल रोगों का प्रतिकार ही ठहरता है ॥१७६॥
यदि इस संसार में प्रिय स्त्रियों के स्तन, योनि आदि अंग के संसर्ग से ही जीवों को सुख होता हो तो वह सुख पक्षी, हरिण आदि तिर्यञ्चों को भी होना चाहिए ॥१७७॥
यदि स्त्रीसेवन करने वाले जीवों को सुख होता हो तो कार्तिक के महीने में जिसकी योनि अतिशय दुर्गन्धयुक्त फोड़ों के समान हो रही है ऐसी कुत्ती को स्वच्छन्दतापूर्वक सेवन करता हुआ कुत्ता भी सुखी होना चाहिए ॥१७८॥
जिस प्रकार नीम के वृक्ष में उत्पन्न हुआ कीड़ा उसके कड़वे रस को पीता हुआ उसे मीठा जानता है उसी प्रकार संसाररूपी विष्ठा में उत्पन्न हुए ये मनुष्यरूपी कीड़े, स्त्री-संभोग से उत्पन्न हुए खेद को ही सुख मानते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं और उसी में प्रीति को प्राप्त होते हैं । भावार्थ-जिस प्रकार नीम का कीड़ा नीम के कड़वे रस को आनन्ददायी मानकर उसी में तल्लीन रहता है अथवा जिस प्रकार विष्ठा का कीड़ा उसके दुर्गन्धयुक्त अपवित्र रस को उत्तम समझकर उसी में रहता हुआ आनन्द मानता है उसी प्रकार यह संसारी जीव संभोगजनित दुःख को सुख मानकर उसी में तल्लीन रहता है ॥१७९-१८०॥
विषयों का सेवन करने से प्राणियों को केवल प्रेम ही उत्पन्न होता है । यदि वह प्रेम ही सुख माना जाये तो विष्ठा आदि अपवित्र वस्तुओं के खाने में भी सुख मानना चाहिए क्योंकि विषयी मनुष्य जिस प्रकार प्रेम को पाकर अर्थात् प्रसन्नता से विषयों का उपभोग करते हैं उसी प्रकार कुत्ता और शूकरों का समूह भी तो प्रसन्नता के साथ विष्ठा आदि अपवित्र वस्तुएं खाता है ॥१८१-१८२॥
अथवा जिस प्रकार विष्ठा के कीड़े को विष्ठा के रस का पान करना ही उत्कृष्ट सुख मालूम होता है उसी प्रकार विषय-सेवन की इच्छा करनेवाले जन्तु को भी निन्द्य विषयों का सेवन करना उत्कृष्ट सुख मालूम होता है ॥१८३॥
जो पुरुष, स्त्री आदि विषयों का उपभोग करता है उसका सारा शरीर काँपने लगता है, श्वास तीव्र हो जाती है और सारा शरीर पसीने से तर हो जाता है । यदि संसार में ऐसा जीव भी सुखी माना जाये तो फिर दु:खी कौन होगा ? ॥१८४॥
जिस प्रकार दाँतों से हड्डी चबाता हुआ कुत्ता अपने को सुखी मानता है उसी प्रकार जिसकी आत्मा विषयों से मोहित हो रही है ऐसा मूर्ख प्राणी भी विषय-सेवन करने से उत्पन्न हुए परिश्रम मात्र को ही सुख मानता है । भावार्थ-जिस प्रकार सूखी हड्डी चबाने से कुत्ते को कुछ भी रस की प्राप्ति नहीं होती वह व्यर्थ ही अपने को सुखी मानता है उसी प्रकार विषय-सेवन करने से प्राणी को कुछ भी यथार्थ सुख की प्राप्ति नहीं होती, वह व्यर्थ ही अपने को सुखी मान लेता है । प्राणियों की इस विपरीत मान्यता का कारण विषयों से आत्मा का मोहित हो जाना ही है ॥१८५॥
इसलिए कर्मों के क्षय से अथवा उपशम से जो स्वाभाविक आह्लाद उत्पन्न होता है वही सुख है । वह सुख अन्य वस्तुओं के आश्रय से कभी उत्पन्न नहीं हो सकता ॥१८६॥
अब कदाचित् यह कहो कि स्वर्गों में रहने वाले देवों को परिवार तथा ऋद्धि आदि सामग्री से सुख होता है परन्तु अहमिन्द्रों के वह सामग्री नहीं है इसलिए उसके अभाव में उन्हें सुख कहाँ से प्राप्त हो सकता है ? तो इस प्रश्न के समाधान में हम दो प्रश्न उपस्थित करते हैं । वे ये हैं-जिनके पास परिवार आदि सामग्री विद्यमान है उन्हें उस सामग्री की सत्तामात्र से सुख होता है अथवा उसके उपभोग करने से ॥१८७-१८८॥
यदि सामग्री की सत्तामात्र से ही आपके सुख मानना इष्ट है तो उस राजा को भी सुखी होना चाहिए जिसे ज्वर चढ़ा हुआ है और अन्तःपुर की स्त्रियाँ, धन, ऋद्धि तथा प्रतापी परिवार आदि सामग्री जिसके समीप ही विद्यमान है ॥१८९॥
कदाचित् यह कहो कि सामग्री के उपभोग से सुख होता है तो उसका उत्तर पहले दिया जा चुका है कि परिवार आदि सामग्री का उपभोग करनेवाला, उसकी सेवा करने वाला पुरुष अत्यन्त श्रम और कलह को प्राप्त होता है अत: ऐसा पुरुष सुखी कैसे हो सकता है? ॥१९०॥
देखो, ये विषय स्वप्न में प्राप्त हुए भोगों के समान अस्थायी और धोखा देनेवाले हैं । इसलिए निरन्तर आर्तध्यान रूप रहने वाले पुरुषों को उन विषयों से सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? भावार्थ-पहले तौ विषय-सामग्री इच्छानुसार सबको प्राप्त होती नहीं है इसलिए उसकी प्राप्ति के लिए निरन्तर आर्तध्यान करना पड़ता है और दूसरे प्राप्त होकर स्वप्न में दिखे हुए भोगों के समान शीघ्र ही नष्ट हो जाती है इसलिए निरन्तर इष्ट वियोगज आर्तध्यान होता रहता है । इस प्रकार विचार करने से मालूम होता है कि विषय-सामग्री सुख का कारण नहीं है ॥१९१॥
प्रथम तो यह जीव विषयों के इकट्ठे करने में बड़े भारी दुःख को प्राप्त होता है और फिर इकट्ठे हो चुकने पर उनकी रक्षा की चिन्ता करता हुआ अत्यन्त दुःखी होता है ॥१९२॥
तदनन्तर इन विषयों के नष्ट हो जाने से अपार दुःख होता है क्योंकि पहले भोगे हुए विषयों का बार-बार स्मरण करके यह प्राणी बहुत ही दुःखी होता है ॥१९३॥
जो अतृप्तिकर हैं, विनाशशील हैं और जिनका सेवन जीवों के सन्ताप को दूर नहीं कर सकता ऐसे इन विषयों को धिक्कार है ॥१९४॥
जिस प्रकार ईधन से अग्नि की तृष्णा नहीं मिटती और नदियों के पूर से समुद्र की तृष्णा दूर नहीं होती उसी प्रकार भोगे हुए विषयों से कभी जीवों की तृष्णा दूर नहीं होती ॥१९५॥
जिस प्रकार मनुष्य खारा पानी पीकर और भी अधिक प्यासा हो जाता है उसी प्रकार यह जीव, विषयों के संभोग से और भी अधिक तृष्णा को प्राप्त हो जाता है ॥१९६॥
अहो, जिनकी आत्मा पंचेन्द्रियों के विषयों के अधीन हो रही है जो विषयरूपी मांस की तीव्र लालसा रखते हैं और जो अचिन्त्य दुःख को प्राप्त हो रहे हैं ऐसे विषयी जीवों को बड़ा भारी दुःख है ॥१९७॥
वनों में बड़े-बड़े जंगली हाथी जो कि अपने झुण्ड के अधिपति होते हैं और अत्यन्त मदोन्मत्त होते हैं वे भी हथिनी के स्पर्श से मोहित होकर गड्ढों में गिरकर दुःखी होते हैं ॥१९८॥
जिसका जल फूले हुए कमलों से अत्यन्त स्वादिष्ट हो रहा है ऐसे तालाब में अपने इच्छानुसार विहार करने वाली मछली वंशी में लगे हुए मांस की अभिलाषा से प्राण खो बैठती है-वंशी में फँसकर मर जाती है ॥१९९॥
मदोन्मत्त हाथियों के मद की वास ग्रहण करने वाला भौंरा गुंजार करता हुआ उन हाथियों के कर्णरूपी बीजनों के प्रहार से मृत्यु का आह्वान करता है ॥२००॥
पतंग वायु से हिलती हुई दीपक की शिखा पर बार-बार पड़ता है जिससे उसके शरीर स्याही के समान काला हो जाता है और वह इच्छा न रखता हुआ भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ॥२०१॥
इसी प्रकार जो हरिणियाँ जंगल में अपने इच्छानुसार जहाँ-तहाँ घूमती हैं तथा कोमल और स्वादिष्ट तृण के अंकुर चरकर पुष्ट रहती हैं वे भी शिकारी के गीतों में आसक्त होने से मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं ॥२०२॥
इस प्रकार जब सेवन किया हुआ एक-एक इन्द्रिय का विषय अनेक दुःखों से भरा हुआ है तब फिर समस्त रूप से सेवन किये हुए पाँचों ही इन्द्रियों के विषयों का क्या कहना ? ॥२०३॥
जिस प्रकार नदियों के प्रवाह से खींचा हुआ पदार्थ किसी गहरे गड्ढे में पढ़कर उसकी भँवरों में फिरा करता है उसी प्रकार इन्द्रियों के विषयों से खींचा हुआ यह जन्तु नरकरूपी गहरे गड्ढे में पड़कर दुःखरूपी भँवरों में फिरा करता है और दुःखी होता रहता है ॥२०४॥
विषयों से ठगा हुआ यह मूर्ख जन्तु पहले तो अधिक धन की इच्छा करता है और उस धन के लिए प्रयत्न करते समय दुःखी होकर अनेक बखेड़ों को प्राप्त होता है । उस समय क्लिष्ट होने से यह भारी दुःखी होता है । यदि कदाचित् मनचाही वस्तुओं की प्राप्ति नहीं हुई तो शोक को प्राप्त होता है । और यदि मनचाही वस्तु की प्राप्ति भी हो गयी तो उतने से सन्तुष्ट नहीं होता जिससे फिर भी उसी दुःख के लिए दौड़ता है ॥२०५-२०६॥
इस प्रकार यह जीव राग-द्वेष से अपनी आत्मा को दूषित कर ऐसे कर्मों का बन्ध करता है जो बड़ी कठिनाई से छूटते हैं और जिस कर्मजन्य के कारण यह जीव परलोक में अत्यन्त दुःखी होता है ॥२०७॥
इस कर्मबन्ध के कारण ही यह जीव नरकादि दुर्गतियों में दुःखमय स्थिति को प्राप्त होता है और वहाँ चिरकाल तक अतिशय निन्दनीय बड़े-बड़े दुःख पाता रहता है ॥२०८॥
वहाँ दुःखी होकर यह जीव फिर भी विषयों की इच्छा करता है और उनके प्राप्त होने में तीव्र लालसा रखता हुआ अनेक दुष्कर्म करता है जिससे दुःख देने वाले कर्मों का फिर भी बन्ध करता है । इस प्रकार दुःखी होकर फिर भी विषयों की इच्छा करता है, उसके लिए दुष्कर्म करता है, खोटे कर्मों का बन्ध करता है और उनके उदय से दुःख भोगता है । इस प्रकार चक्रक रूप से परिभ्रमण करता हुआ जीव अत्यन्त दुःख से तैरने योग्य संसाररूपी अपार समुद्र में पड़ता है ॥२०९-२१०॥
इसलिए इस समस्त अनर्थ-परम्परा को विषयों से उत्पन्न हुआ मानकर तीव्र दुःख देने वाले विषयों में प्रीति का परित्याग कर देना चाहिए ॥२११॥
जब कि स्त्रीवेद, पुरुष-वेद और नपुंसकवेद इन तीनों ही वेदों के सन्ताप-क्रम से सूखे हुए कण्डे की अग्नि और ईंटों के अँवा की अग्नि तृण की अग्नि के समान माने जाते हैं तब उन वेदों को धारण करने वाला जीव सुखी कैसे हो सकता है ॥२१२॥
इसलिए हे श्रेणिक, तू निश्चय कर कि अहमिन्द्र देवों का जो प्रवीचाररहित दिव्य सुख है वह विषयजन्य सुख से कहीं अधिक है ॥२१३॥
इस उपर्युक्त कथन से सिद्धों के उस सुख का भी कथन हो जाता है जो कि विषयों से रहित है, प्रमाणरहित है, अन्तरहित है, उपमारहित है और केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है ॥२१४॥
जो स्वर्गलोक और मनुष्यलोक सम्बन्धी तीनों कालों का इकट्ठा किया हुआ सुख है वह सिद्ध परमेष्ठी के एक क्षण के सुख के बराबर भी नहीं है ॥२१५॥
सिद्धों का वह सुख केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है, बाधारहित है, कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है, परम आह्लाद रूप है, अनुपम है और सबसे श्रेष्ठ है ॥२१६॥
जो सिद्ध परमेष्ठी सब परिग्रहों से रहित हैं, शान्त हैं और उत्कण्ठा से रहित हैं जब वे भी सुखी माने जाते हैं तब अहमिन्द्र पद में तो सुख अपने-आप ही सिद्ध हो जाता है । भावार्थ-जिसके परिग्रह का एक अंश मात्र भी नहीं है ऐसे सिद्ध भगवान् ही जब सुखी कहलाते हैं तब जिनके शरीर अथवा अन्य अल्प परिग्रह विद्यमान हैं ऐसे अहमिन्द्र भी अपेक्षाकृत सुखी क्यों न कहलाये ? ॥२१७॥
जिनके पुण्य का फल प्रकट हुआ है ऐसे स्वर्गलोक से आगे सर्वार्थसिद्धि के रहने वाले उन वज्रनाभि आदि अहमिन्द्रों को जो सुख प्राप्त हुआ था वह ऐसा जान पड़ता था मानो मोक्ष का सुख ही उनके सम्मुख प्राप्त हुआ हो क्योंकि जिस प्रकार मोक्ष का सुख अतिशयरहित, उदार, प्रवीचाररहित, दिव्य (उत्तम) और स्वभाव से ही मनोहर रहता है उसी प्रकार उन अहमिन्द्रों का सुख भी अतिशयरहित, उदार, प्रवीचाररहित, दिव्य (स्वर्गसम्बन्धी) और स्वभाव से ही मनोहर था ॥ भावार्थ-मोक्ष के सुख और अहमिन्द्र अवस्था के सुख में भारी अन्तर रहता है तथापि यहां श्रेष्ठता दिखाने के लिए अहमिन्द्र के सुख में मोक्ष के सुख का सादृश्य बताया है ॥२१८॥
इस संसार में जीवों को सुख-दुःख होते हैं वे दोनों ही अपने-अपने कर्मबन्ध के अनुसार हुआ करते हैं ऐसा श्री अरहन्त देव ने कहा है । वह कर्म पुण्य और पाप के भेद से दो प्रकार का कहा गया है । जिस प्रकार खाये हुए एक ही अन्न का मधुर और कटुक रूप से दो प्रकार का विपाक देखा जाता है उसी प्रकार उन पुण्य और पापरूपी कर्मों का भी क्रम से मधुर (सुखदायी) और कटुक (दुःखदायी) विपाकफल-देखा जाता है ॥२१९॥
पुण्यकर्मों का उत्कृष्ट फल सर्वार्थसिद्धि में और पापकर्मों का उत्कृष्ट फल सप्तम पृथिवी के नारकियों के जानना चाहिए । पुण्य का उत्कृष्ट फल परिणामों को शान्त रखने, इन्द्रियों का दमन करने और निर्दोष चारित्र पालन करने से पुण्यात्मा जीवों को प्राप्त होता है और पाप का उत्कृष्ट फल परिणामों को शान्त नहीं रखने, इन्द्रियों का दमन नहीं करने तथा निर्दोष चारित्र पालन नहीं करने से पापी जीवों को प्राप्त होता है ॥२२०॥
जिस प्रकार बहुत ही शीघ्र जिनेन्द्र लक्ष्मी (तीर्थंकर पद) प्राप्त करने वाले इस वज्रनाभि ने शम, दम और यम (चारित्र) की विशुद्धि के लिए आलस्यरहित होकर श्री जिनेन्द्रदेव की कल्याण करने वाली आज्ञा का चिन्तवन किया था उसी प्रकार अनुपम सुख से अभिलाषी दुःख के भार को छोड़ने की इच्छा करने वाले, बुद्धिमान् विद्वान् पुरुषों को भी शम, दम, यम की विशुद्धि के लिए आलस्य (प्रमाद) रहित होकर कल्याण करने वाली श्री जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का चिन्तवन करना चाहिए-दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का चिन्तवन करना चाहिए ॥२२१॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध श्री भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह में श्री भगवान वज्रनाभि के सर्वार्थसिद्धिगमन का वर्णन करने वाला ग्यारहवां पर्व समाप्त हुआ ॥११॥