ग्रन्थ:आदिपुराण - पर्व 12
From जैनकोष
अनन्तर गौतम स्वामी कहने लगे कि जब वह वज्रनाभि का जीव अहमिन्द्रों, स्वर्गलोक से पृथ्वी पर अवतार लेने के सम्मुख हुआ तब इस संसार में जो वृत्तान्त हुआ था अब मैं उसे ही कहूँगा । आप लोग ध्यान देकर सुनिए ॥१॥
इसी बीच में मुनियों ने नम्र होकर पुराण के अर्थ जानने वाले और वक्ताओं में श्रेष्ठ श्री गौतम गणधर से प्रश्न किया ॥२॥
कि हे भगवन् जब इस भारतवर्ष में भोगभूमि की स्थिति नष्ट हो गयी थी और क्रम-क्रम से कर्मभूमि की व्यवस्था फैल चुकी थी उस समय जो कुलकरों की उत्पत्ति हुई थी उसका वर्णन आप पहले ही कर चुके हैं । उन कुलकरों में अन्तिम कुलकर नाभिराज हुए थे जो कि समस्त क्षत्रिय-समूह के अगुआ (प्रधान) थे । उन नाभिराज ने धर्मरूपी सृष्टि के सूत्रधार, महाबुद्धिमान् और इक्ष्वाकु कुल सर्वश्रेष्ठ भगवान् ऋषभदेव को किस आश्रम में उत्पन्न किया था उनके स्वर्गावतार आदि कल्याणकों का ऐश्वर्य कैसा था ? आपके अनुग्रह से हम लोग यह सब जानना चाहते हैं ॥३-६॥
इस प्रकार जब उन मुनियों का प्रश्न समाप्त हो चुका तब गणनायक गौतम स्वामी अपने दाँतों की निर्मल किरणों के द्वारा मुनिजनों को पापरहित करते हुए बोले ॥७॥
कि हम पहले जिस कालसन्धि का वर्णन कर चुके हैं उस कालसन्धि (भोगभूमि का अन्त और कर्मभूमि का प्रारम्भ होने) के समय इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत से दक्षिण की ओर मध्यम–आर्य खण्ड में नाभिराज हुए थे । वे नाभिराज चौदह कुलकरों में अन्तिम कुलकर होने पर भी सबसे अग्रिम (पहले) थे (पक्ष में सबसे श्रेष्ठ थे) । उनकी आयु, शरीर की ऊँचाई, रूप, सौन्दर्य और विलास आदि का वर्णन पहले किया जा चुका है ॥८-९॥
देदीप्यमान मुकुट से शोभायमान और महाकान्ति के धारण करने वाले वे नाभिराज आगामी काल में होने वाले राजाओं के बन्धु थे और अपने गुणरूपी किरणों से लोक में सूर्य के समान शोभायमान हो रहे थे ॥१०॥
वे चन्द्रमा के समान कलाओं (अनेक विद्याओं) के आधार थे, सूर्य के समान तेजस्वी थे, इन्द्र के समान ऐश्वर्यशाली थे और कल्पवृक्ष के समान मनचाहे फल देने वाले थे ॥११॥
उन नाभिराज के मरुदेवी नाम की रानी थी जो कि अपने रूप, सौन्दर्य, कान्ति, शोभा, बुद्धि, द्युति और विभूति आदि गुणों से इन्द्राणी देवी के समान थी ॥१२॥
वह अपनी कान्ति से चन्द्रमा की कला के समान सब लोगों को आनन्द देने वाली थी और ऐसी मालूम होती थी मानो स्वर्ग की स्त्रियों के रूप का सार इकट्ठा करके ही बनायी गयी हो ॥१३॥
उसका शरीर कृश था, ओठ पके हुए बिम्बफल के समान थे, भौंहें अच्छी थीं और स्तन भी मनोहर थे । उन सबसे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कामदेव ने जगत् को जीतने के लिए पताका ही दिखायी हो ॥१४॥
ऐसा मालूम होता है कि किसी चतुर विद्वान् ने उसके रूप की सुन्दरता, उसके हाव, भाव और विलास का अच्छी तरह विचार करके ही नाट्यशास्त्र की रचना की हो । भावार्थ-नाट्यशास्त्र में जिन हाव, भाव और विलास का वर्णन किया गया है वह मानो मरुदेवी के हाव, भाव और विलास को देखकर ही किया गया है ॥१५॥
मालूम होता है कि संगीतशास्त्र की रचना करने वाले विद्वान् ने मरुदेवी की मधुर वाणी में ही संगीत के निषाद, ऋषभ, गान्धार आदि समस्त स्वरों का विचार कर लिया था । इसीलिए तो वह जगत् में प्रसिद्ध हुआ है ॥१६॥
उस मरुदेवी ने अन्य स्त्रियों के सौन्दर्यरूपी सर्वस्व धन का अपहरण कर उन्हें दरिद्र बना दिया था, इसलिए स्पष्ट ही मालूम होता था कि उसने किसी दुष्ट राजा की प्रवृत्ति का अनुसरण किया था क्योंकि दुष्ट राजा भी तो प्रजा का धन अपहरण कर उसे दरिद्र बना देता है ॥१७॥
वह चतुर मरुदेवी अपने दोनों चरणों में अनेक सामुद्रिक लक्षण धारण किये हुए थी । मालूम होता है कि उन लक्षणों को ही उदाहरण मानकर कवियों ने अन्य स्त्रियों के लक्षणों का निरूपण किया है ॥१८॥
उसके दोनों ही चरण कोमल अँगुलियोंरूपी दलों से सहित थे और नखों की किरणरूपी देदीप्यमान केशर से सुशोभित थे इसलिए कमल के समान जान पड़ते थे और दोनों ही साक्षात् लक्ष्मी (शोभा) को धारण कर रहे थे ॥१९॥
मालूम होता है कि मरुदेवी के चरणों ने लाल कमलों को जीत लिया इसीलिए तो वे सन्तुष्ट होकर नखों की किरणरूपी मंजरी के छल से कुछ-कुछ हँस रहे थे ॥२०॥
उसके दोनों चरण नखों के द्वारा कुरबक जाति के वृक्षों को जीतकर भी सन्तुष्ट नहीं हुए थे इसीलिए उन्होंने अपनी गति से हंसिनी की गति के विलास को भी जीत लिया था ॥२१॥
सुन्दर भौंहों वाली उस मरुदेवी के दोनों चरण मणिमय नुपूरों की झंकार से सदा शब्दायमान रहते थे इसलिए गुंजार करते हुए भ्रमरों से सहित कमलों के समान सुशोभित होते थे ॥२२॥
उसके दोनों चरण किसी विजिगीषु (शत्रु को जीतने की इच्छा करने वाले) राजा की शोभा धारण कर रहे थे, क्योंकि जिस प्रकार राजा सन्धिवार्ता को गुप्त रखता है अर्थात् युद्ध करते हुए भी मन में सन्धि करने की भावना रखता है, पार्ष्णि (पीछे से सहायता करने वाली) सेना से युक्त होता है, शत्रु के प्रति यान (युद्ध के लिए प्रस्थान करता है) और आसन (परिस्थितिवश अपने ही स्थान पर चुपचाप रहना) गुण से सहित होता है उसी प्रकार उसके चरण भी गाँठों की सन्धियाँ गुप्त रखते थे अर्थात् पुष्टकाय होने के कारण गांठों की सन्धियां मांसपिण्ड में विलीन थीं इसलिए बाहर नहीं दिखती थीं, पार्ष्णि (एड़ी) से युक्त थे, मनोहर यान (गमन) करते और सुन्दर आसन (बैठना आदि से) सहित थे । इसके सिवाय जैसे विजिगीषु राजा अन्य शत्रु राजाओं को जीतना चाहता है वैसे ही उसके चरण भी अन्य स्त्रियों के चरणों की शोभा जीतना चाहते थे ॥२३॥
उसकी दोनों जंघाओं में जो शोभा थी वह अन्यत्र कहीं नहीं थी । उन दोनों की उपमा परस्पर ही दी जाती थी अर्थात् उसकी वाम जंघा उसकी दक्षिण जंघा के समान थी और दक्षिण जंघा वाम जंघा के समान थी । इसलिए ही उन दोनों का वर्णन अन्य किसी की उपमा देकर नहीं किया जा सकता था ॥२४॥
अत्यन्त मनोहर और परस्पर में एक दूसरे से मिले हुए उसके दोनों घुटने ही क्या जगत् को जीतने के लिए समर्थ है इस चिन्ता से कोई लाभ नहीं था क्योंकि वे अपने सौन्दर्य से जगत को जीत ही रहे थे ॥२५॥
उसके दोनों ही ऊरु उत्कृष्ट शोभा के धारक थे, सुन्दर थे, मनोहर थे और सुख देनेवाले थे, जिससे ऐसा मालूम पड़ता था मानो देवांगनाओं के साथ स्पर्धा करके ही उसने ऐसे सुन्दर ऊरु धारण किये हो ॥२६॥
मैं ऐसा मानता हूँ कि अभी तक संसार में जो 'वामोरु' (मनोहर ऊरु वाली) शब्द प्रसिद्ध था उसे उस मरुदेवी ने अन्य प्रकार से अपने स्वाधीन करने के लिए ही मानो अन्य स्त्रियों के विजय करने में अपने दोनों ऊरुओं को वामवृत्ति (शत्रु के समान बरताव करने वाले) कर लिया था । भावार्थ-कोशकारों ने स्त्रियों का एक नाम 'वामोरु' भी लिखा है जिसका अर्थ होता है सुन्दर ऊरु वाली स्त्री । परन्तु मरुदेवी ने 'वामोरु' शब्द को अन्य प्रकार से (दूसरे अर्थ से) अपनाया था । वह 'वामोरु' शब्द का अर्थ करती थी 'जिसके ऊरु शत्रुभूत हों ऐसी स्त्री' । मानो उसने अपनी उक्त मान्यता को सफल बनाने के लिए ही अपने ऊरुओं को अन्य स्त्रियों के ऊरुओं के सामने वामवृत्ति अर्थात् अनुरूप बना लिया था । संक्षेप में भाव यह है कि उसने अपने ऊरुओं की शोभा से अन्य स्त्रियों को पराजित कर दिया था ॥२७॥
इसमें कोई सन्देह नहीं कि कामदेव ने मरुदेवी के स्थूल नितम्बमण्डल को ही अपना स्थान बनाकर इतने बड़े विस्तृत संसार को पराजित किया था ॥२८॥
करधनीरूपी कोट से घिरा हुआ उसका कटिमण्डल ऐसा मालूम होता था मानो जगत्-भर में विप्लव करने वाले कामदेव का किला ही हो ॥२९॥
जिस प्रकार चन्दन की लता, जिसकी काँचली निकल गयी है ऐसे सर्प को धारण करती है उसी प्रकार वह मरुदेवी भी शोभायमान अधोवस्त्र से सटी हुई करधनी को धारण कर रही थी ॥३०॥
उस मरुदेवी के कृश उदरभाग पर अत्यन्त काली रोमों की पंक्ति ऐसी सुशोभित होती थी मानो इन्द्रनील मणि की बनी हुई कामदेव की आलम्बनयष्टि (सहारा लेने की लकड़ी) ही हो ॥३१॥
जिस प्रकार शरद्ऋतु की नदी भँवर से युक्त और पतली-पतली लहरों से सुशोभित प्रवाह को धारण करती है उसी प्रकार वह मरुदेवी की भी त्रिवलि से युक्त और गम्भीर नाभि से शोभायमान, अपने शरीर के मध्यभाग को धारण करती थी ॥३२॥
उसके अतिशय ऊँचे और विशाल स्तन ऐसे शोभायमान होते थे मानो तारुण्य-लक्ष्मी की क्रीड़ा के लिए बनाये हुए दो क्रीडाचल ही हों ॥३३॥
जिस प्रकार आकाशगंगा लहरों में रुके हुए दो चक्रवाक पक्षियों को धारण करती है उसी प्रकार वह मरुदेवी जिन पर केशर लगी हुई है और जो वस्त्र से ढके हुए हैं ऐसे दोनों स्तनों को धारण कर रही थी ॥३४॥
जिसके स्तनों के मध्य भाग में हार की सफेद-सफेद किरणें लग रही थीं ऐसी वह मरुदेवी उस कमलिनी की तरह सुशोभित हो रही थी जिसके कि कमलों की बोड़ियों के समीप सफेद-सफेद फेन लग रहा है ॥३५॥
सूक्ष्म रेखाओं से उसका शोभायमान कंठ बहुत ही सुशोभित हो रहा था और ऐसा जान पड़ता था मानो विधाता ने अपना निर्माण सम्बन्धी कौशल दिखाने के लिए ही सूक्ष्म रेखाएं उकेरकर उसकी रचना की हो ॥३६॥
जिसके गले में रत्नमय हार लटक रहा है ऐसी वह मरुदेवी पर्वत की उस शिखर के समान शोभायमान होती थी जिस पर कि ऊपर से पहाड़ी नदी के जल का प्रवाह पड़ रहा हो ॥३७॥
शिरीष के फूल के समान अतिशय कोमल अंगों वाली उस मरुदेवी की मणियों के आभूषणों से सुशोभित दोनों भुजाएं, ऐसी भली जान पड़ती थीं मानो मणियों के आभूषणों से सहित कल्पवृक्ष की दो मुख्य शाखाएं ही हों ॥३८॥
उसकी दोनों कोमल भुजाएँ लताओं के समान थीं और वे नखों की शोभायमान किरणों के बहाने हस्तरूपी पल्लवों के पास लगी हुई पुष्पमंजरियाँ धारण कर रही थी ॥३९॥
अशोक वृक्ष के किसलय के समान लाल-लाल हस्तरूपी पल्लवों को धारण करती हुई वह मरुदेवी ऐसी जान पड़ती थी मानो हाथों में इकट्ठे हुए अपने मन के समस्त अनुराग को ही धारण कर रही हो ॥४०॥
जिस प्रकार हंसिनी कुछ नीचे की ओर ढले हुए पंखों के मूल भाग को धारण करती है उसी प्रकार वह मरुदेवी कुछ नीचे की ओर झुके हुए दोनों कन्धों को धारण कर रही थी, उसके वे झुके हुए कन्धे ऐसे मालूम होते थे मानो लटकते हुए केशों का भार धारण करने के कारण खेद-खिन्न होकर ही नीचे की ओर झुक गये हों ॥४१॥
उस कमलनयनी का मुख चन्द्रमण्डल की हंसी उड़ा रहा था क्योंकि उसका मुख सदा कलाओं से सहित रहता था और चन्द्रमा का मण्डल एक पूर्णिमा को छोड़कर बाकी दिनों में कलाओं से रहित होने लगता है, उसका मुख कलंक-रहित था और चन्द्रमण्डल कलंक से सहित था ॥४२॥
चन्द्रमा की शोभा दिन में चन्द्रमा के नष्ट हो जाने के कारण वैधव्य दोष से दूषित हो जाती है और कमलिनी कीचड़ से दूषित रहती हैं इसलिए सदा उज्ज्वल रहने वाले उसके मुख की शोभा की तुलना किस पदार्थ से की जाये ? तुम्हीं कहो ॥४३॥
उसके मन्दहास्य की किरणों से सहित दोनों ओठों की लाली जल के कणों से व्याप्त मूंगा की भी शोभा जीत रही थी ॥४४॥
उत्तम कण्ठ वाली उस मरुदेवी के कण्ठ का राग (स्वर) संगीत की गोष्ठियों में ऐसा प्रसिद्ध था मानो कामदेव के खींचे हुए धनुष की डोरी का शब्द ही हो ॥४५॥
उसके दोनों ही कपोल अपने में प्रतिबिम्बित हुए काले केशों को धारण कर रहे थे सो ठीक ही है शुद्धि को प्राप्त हुए पदार्थ शरण में आये हुए मलिन पदार्थों पर भी अनुग्रह करते हैं-उन्हें स्वीकार करते हैं ॥४६॥
लम्बा और मुख के सम्मुख स्थित हुआ उसकी नासिका का अग्रभाग ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उसके श्वास की सुगन्धि को सूँघने के लिए ही उद्यत हो ॥४७॥
उसके नयन-कमलों की कान्ति कान के समीप तक पहुँच गयी थी जिससे ऐसी जान पड़ती थी मानो दोनों ही नयन-कमल परस्पर की स्पर्धा से एक दूसरे की चुगली करना चाहते हों ॥४८॥
यद्यपि उसके दोनों कान शास्त्र श्रवण करने से अलंकृत थे तथापि सरस्वती देवी की पूजा के पुष्पों के समान कर्णभूषण पहनाकर फिर भी अलंकृत किये गये थे ॥४९॥
अष्टमी के चन्द्रमा के समान सुन्दर उसका ललाट अतिशय देदीप्यमान हो रहा था और ऐसा मालूम पड़ता था मानो कामदेव की लक्ष्मीरूपी स्त्री का मनोहर दर्पण ही हो ॥५०॥
उसके अत्यन्त काले केश मुखकमल पर इकट्ठे हुए भौंरों के समान जान पड़ते थे और उसकी भौंहों ने कामदेव की डोरीसहित धनुष-लता को भी जीत लिया था ॥५१॥
उसके अतिशय काले, टेढ़े और लम्बे केशों का समूह ऐसा शोभायमान होता था मानो मुखरूपी चन्द्रमा को ग्रसने के लोभ से राहु ही आया हो ॥५२॥
वह मरुदेवी चलते समय कुछ-कुछ ढीली हुई अपनी चोटी से नीचे गिरते हुए फूलों के समूह से पृथ्वी को उपहार सहित करती थी ॥५३॥
इस प्रकार जिसके प्रत्येक अंग उपांग की रचना सुन्दर है ऐसा उसका सुदृढ़ शरीर ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो विधाता ने स्त्रियों की सृष्टि करने के लिए एक सुन्दर प्रतिबिम्ब ही बनाया हो ॥५४॥
संसार में जो स्त्रियाँ अतिशय यश वाली, दीर्घ आयु वाली, उत्तम सन्तान वाली, मंगलरूपिणी और उत्तम पति वाली थी वे सब मरुदेवी से पीछे थीं, अर्थात् मरुदेवी उन सबमें मुख्य थी ॥५५॥
वह गुणरूपी रत्नों की खान थी, पुण्यरूपी सम्पत्तियों की पृथिवी थी, पवित्र सरस्वती देवी थी और बिना पढ़े ही पण्डिता थी ॥५६॥
वह सौभाग्य की परम सीमा थी, सुन्दरता की उत्कृष्ट पुष्टि थी, मित्रता की परम प्रीति थी और सज्जनता की उत्कृष्ट गति (आश्रय) थी ॥५७॥
वह कामशास्त्र की सजेता थी, कलाशास्त्ररूपी नदी का प्रवाह थी, कीर्ति का उत्पत्तिस्थान थीं और पातिव्रत्य धर्म की परम सीमा थी ॥५८॥
उस मरुदेवी के विवाह के समय इन्द्र के द्वारा प्रेरित हुए उत्तम देवों ने बड़ी विभूति के साथ उसका विवाहोत्सव किया था ॥५९॥
पुण्यरूपी सम्पत्ति उसके मातृभाव को प्राप्त हुई थी, लज्जा सखी अवस्था को प्राप्त हुई थी और अनेक गुण उसके परिजनों के समान थे । भावार्थ-पुण्यरूपी सम्पत्ति ही उसकी माता थी, लज्जा ही उसकी सखी थी और दया, उदारता आदि गुण ही उसके परिवार के लोग थे ॥६०॥
रूप प्रभाव और विज्ञान आदि के द्वारा वह बहुत ही प्रसिद्धि को प्राप्त हुई थी तथा अपने स्वामी नाभिराज के मनरूपी हाथी को बाँधने के लिए खम्भे के समान मालूम पड़ती थी ॥६१॥
उसके मुखरूपी चन्द्रमा की मुसकानरूपी चाँदनी, नेत्रों के उत्सव को बढ़ाती हुई अपने पति नाभिराज के मनरूपी समुद्र के क्षोभ को हर समय विस्तृत करती रहती थी ॥६२॥
महाराज नाभिराज रूप और लावण्यरूपी सम्पदा के द्वारा उसे साक्षात् लक्ष्मी के समान मानते थे और उसके विषय में अपने उत्कृष्ट सन्तोष को उस तरह विस्तृत करते रहते थे जिस तरह कि निर्मल बुद्धि के विषय में मुनि अपना उत्कृष्ट सन्तोष विस्तृत करते रहते हैं ॥६३॥
वह परिहास के समय कुवचन बोलकर पति के मर्म-स्थान को कष्ट नहीं पहुंचाती थी और सम्भोग-काल में सदा उनके अनुकूल-प्रवृत्ति करती थी इसलिए वह अपने पति नाभिराज के परिहार और लेह के विषय में मन्त्रिणी का काम करती थी ॥६४॥
वह मरुदेवी नाभिराज को प्राणों से भी अधिक प्यारी थी, वे उससे उतना ही स्नेह करते थे जितना कि इन्द्र इन्द्राणी से करता है ॥६५॥
अतिशय शोभायुक्त महाराज नाभिराज देदीप्यमान वस्त्र और आभूषणों से सुशोभित उस मरुदेवी से आलिंगित शरीर होकर ऐसे शोभायमान होते थे जैसे देदीप्यमान वस्त्र और आभूषणों को धारण करने वाली कल्पलता से वेष्टित हुआ (लिपटा हुआ) कल्पवृक्ष ही हो ॥६६॥
संसार में महाराज नाभिराज ही सबसे अधिक पुण्यवान् थे और मरुदेवी ही सबसे अधिक पुण्यवती थी । क्योंकि जिनके, स्वयम्भू भगवान् वृषभदेव पुत्र होंगे उनके समान और कौन हो सकता है ? ॥६७॥
उस समय भोगोपभोगों में अतिशय तल्लीनता को प्राप्त हुए वे दोनों दम्पती ऐसे जान पड़ते थे मानो भोगभूमि की नष्ट हुई लक्ष्मी को ही साक्षात् दिखला रहे हों ॥६८॥
मरुदेवी और नाभिराज से अलंकृत पवित्र स्थान में जब कल्पवृक्षों का अभाव हो गया तब वहाँ उनके पुण्य के द्वारा बार-बार बुलाये हुए इन्द्र ने एक नगरी की रचना की ॥६९॥
इन्द्र की आज्ञा से शीघ्र ही अनेक उत्साही देवों ने बड़े आनन्द के साथ स्वर्गपुरी के समान उस नगरी की रचना की ॥७०॥
उन देवों ने वह नगरी विशेष सुन्दर बनायी थी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो इस मध्य लोक में स्वर्गलोक का प्रतिबिम्ब रखने की इच्छा से ही उन्होंने उसे अत्यन्त सुन्दर बनाया हो ॥७१॥
'हमारा स्वर्ग बहुत ही छोटा है क्योंकि यह त्रिदशावास है अर्थात् सिर्फ त्रिदश=तीस व्यक्तियों के रहने योग्य स्थान है (पक्ष में त्रिदश=देवों के रहने योग्य स्थान है)' -ऐसा मानकर ही मानो उन्होंने सैकड़ों हजारों मनुष्यों के रहने योग्य उस नगरी (विस्तृत स्वर्ग) की रचना की थी ॥७२॥
उस समय जो मनुष्य जहाँ-तहाँ बिखरे हुए रहते थे, देवों ने उन सबको लाकर उस नगरी में बसाया और सबके सुभीते के लिए अनेक प्रकार के उपयोगी स्थानों की रचना की ॥७३॥
उस नगरी के मध्य भाग में देवों ने राजमहल बनाया था वह राजमहल इन्द्रपुरी के साथ स्पर्धा करने वाला था और बहुमूल्य अनेक विभूतियों से सहित था ॥७४॥
जबकि उस नगरी की रचना करनेवाले कारीगर स्वर्ग के देव थे उनका अधिकारी सूत्रधार (मेंट) इन्द्र था और मकान वगैरह बनाने के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी पड़ी थी तब वह नगरी प्रशंसनीय क्यों न हो ? ॥७५॥
देवों ने उस नगरी को वप्र (धूलि के बने हुए छोटे कोट), प्राकार (चार मुख्य दरवाजों से सहित, पत्थर के बने हुए मजबूत कोट) और परिखा आदि से सुशोभित किया था । उस नगरी का नाम अयोध्या था । वह केवल नाममात्र से अयोध्या नहीं थी किन्तु गुणों से भी अयोध्या थी । कोई भी शत्रु उससे युद्ध नहीं कर सकते थे इसलिए उसका वह नाम सार्थक था (अरिभिः योद्धं न शक्या-अयोध्या) ॥७६॥
उस नगरी का दूसरा नाम साकेत भी था क्योंकि वह अपने अच्छे-अच्छे मकानों से बड़ी ही प्रशंसनीय थी । उन मकानों पर पताकाएँ फहरा रही थीं जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो स्वर्गलोक के मकानों को बुलाने के लिए अपनी पताकारूपी भुजाओं के द्वारा संकेत ही कर रहे हों । (आकेतैः गुहैः सह वर्तमाना=साकेता, 'स+आकेता'-घरों से सहित) ॥७७॥
वह नगरी सुकोशल देश में थी इसलिए देश के नाम से 'सुकोशला' इस प्रसिद्धि को भी प्राप्त हुई थी । तथा वह नगरी अनेक विनीत-शिक्षित-पढ़े-लिखे विनयवान् या सभ्य मनुष्यों से व्याप्त थी इसलिए वह 'विनीता' भी मानी गयी थी-उसका एक नाम 'विनीता' भी था ॥७८॥
वह सुकोशला नाम की राजधानी अत्यन्त प्रसिद्ध थी और आगे होने वाले बड़े भारी देश की नाभि (मध्यभाग की) शोभा धारण करती हुई सुशोभित होती थी ॥७९॥
राजभवन, वप्र, कोट और खाई से सहित वह नगर ऐसा जान पड़ता था मानो आगे-कर्मभूमि के समय में होने वाले नगरों की रचना प्रारम्भ करने के लिए एक प्रतिबिम्ब-नकशा ही बनाया गया हो ॥८०॥
अनन्तर उस अयोध्या नगरी में सब देवों ने मिलकर किसी शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभ योग और शुभ लग्न में हर्षित होकर पुण्याहवाचन किया ॥८१॥
जिन्हें अनेक सम्पदाओं की परम्परा प्राप्त हुई थी ऐसे महाराज नाभिराज और मरुदेवी ने अत्यन्त आनन्दित होकर पुण्याहवाचन के समय ही उस अतिशय ऋद्धियुक्त अयोध्या नगरी में निवास करना प्रारम्भ किया था ॥८२॥
इन दोनो के सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे यह समझकर इन्द्र ने अभिषेकपूर्वक उन दोनो की बड़ी पूजा की थी ॥८३॥
तदनन्तर छह महीने बाद ही भगवान् वृषभदेव यहाँ स्वर्ग से अवतार लेंगे ऐसा जानकर देवों ने बड़े आदर के साथ आकाश से रत्नों की वर्षा की ॥८४॥
इन्द्र के द्वारा नियुक्त हुए कुबेर ने जो रत्न की वर्षा की थी वह ऐसी सुशोभित होती थी मानो वृषभदेव की सम्पत्ति उत्सुकता के कारण उनके आने से पहले ही आ गयी हो ॥८५॥
वह रत्नवृष्टि हरिन्मणि इन्द्रनील मणि और पद्मराग आदि मणियों की किरणों के समूह से ऐसी देदीप्यमान हो रही थी मानो सरलता को प्राप्त होकर (एक रेखा में सीधी होकर) इन्द्रधनुष की शोभा ही आ रही हो ॥८६॥
ऐरावत हाथी की सूँड के समान स्थूल, गोल और लम्बी आकृति को धारण करने वाली वह रत्नों की धारा ऐसी शोभायमान होती थी मानो पुण्यरूपी उसके बड़े मोटे अंकुरों की सन्तति ही हो ॥८७॥
अथवा अतिशय सघन तथा आकाश पृथ्वी को रोककर पड़ती हुई वह रत्नों की धारा ऐसी सुशोभित होती थी मानो कल्पवृक्षों के द्वारा छोड़े हुए अंकुरों की परम्परा ही हो ।८८॥
अथवा आकाश रूपी आँगन से पड़ती हुई वह सुवर्णमयी वृष्टि ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो स्वर्ग से अथवा विमानों से ज्योतिषी देवों की उत्कृष्ट प्रभा ही आ रही हो ॥८९॥
अथवा आकाश से बरसती हुई रत्नवृष्टि को देखकर लोग यही उत्प्रेक्षा करते थे कि क्या जगत् में क्षोभ होने से निधियों का गर्भपात हो रहा है ॥९०॥
आकाशरूपी आँगन में जहाँ-तहाँ फैले हुए वे रत्न क्षणभर के लिए ऐसे शोभायमान होते थे मानो देवों के हाथियों ने कल्पवृक्षों के फल ही तोड़-तोड़कर डाले हों ॥९१॥
आकाशरूपी आँगन में वह असंख्यात रत्नों की धारा ऐसी जान पड़ती थी मानो समय पाकर फैली हुई नक्षत्रों की चंचल और चमकीली पङ्क्ति ही हो ॥९२॥
अथवा उस रत्न-वर्षा को देखकर क्षणभर के लिए यही उत्प्रेक्षा होती थी कि स्वर्ग से मानो परस्पर मिले हुए बिजली और इन्द्रधनुष ही देवों ने नीचे गिरा दिये हों ॥९३॥
अथवा देव और विद्याधर उसे देखकर क्षणभर के लिए यही आशंका करते थे कि यह क्या आकाश में बिजली की कान्ति है अथवा देवों की प्रभा है ॥९४॥
कुबेर ने जो यह हिरण्य अर्थात् सुवर्ण की वृष्टि की थी वह ऐसी मालूम होती थी मानो जगत् को भगवान् की 'हिरण्यगर्भता' बतलाने के लिए ही की हो (जिसके गर्भ में रहते हुए हिरण्य-सुवर्ण की वर्षा आदि हो वह हिरण्यगर्भ कहलाता है) ॥९५॥
इस प्रकार स्वामी वृषभदेव के स्वर्गावतरण से छह महीने पहले से लेकर अतिशय पवित्र नाभिराज के घर पर रत्न और सुवर्ण की वर्षा हुई थी ॥९६॥
और इस प्रकार गर्भावतरण से पीछे भी नौ महीने तक रत्न तथा सुवर्ण की वर्षा होती रही थी सो ठीक ही है क्योंकि होने वाले तीर्थंकर का आश्चर्यकारक बड़ा भारी प्रभाव होता है ॥९७॥
भगवान् के गर्भावतरण-उत्सव के समय यह समस्त पृथ्वी रत्नों से व्याप्त हो गयी थी, देव हर्षित हो गये थे और समस्त लोक क्षोभ को प्राप्त हो गया था ॥९८॥
भगवान् के गर्भावतरण के समय यह पृथ्वी गंगा नदी के जल के कणों से सींची गयी थी तथा अनेक प्रकार के रत्नों से अलंकृत की गयी थी इसलिए वह भी किसी गर्भिणी स्त्री के समान भारी हो गयी थी ॥९९॥
उस समय रत्न और फूलों से व्याप्त तथा सुगन्धित जल से सींची गयी यह पृथिवीरूपी स्त्री स्नान कर चन्दन का विलेपन लगाये और आभूषणों से सुसज्जित-सी जान पड़ती थी ॥१००॥
अथवा उस समय वह पृथिवी भगवान् वृषभदेव की माता मरुदेवी की सदृशता को प्राप्त हो रही थी क्योंकि मरुदेवी जिस प्रकार नाभिराज को प्रिय थी उसी प्रकार वह पृथ्वी उन्हें प्रिय थी और मरुदेवी जिस प्रकार रजस्वला न होकर पुष्पवती थी उसी प्रकार वह पृथ्वी भी रजस्वला (धूलि से युक्त) न होकर पुष्पवती (जिस पर फूल बिखरे हुए थे) थी ॥१०१॥
अनन्तर किसी दिन मरुदेवी राजमहल में गंगा की लहरों के समान सफेद और रेशमी चद्दर से उज्ज्वल कोमल शय्या पर सो रही थी । सोते समय उसने रात्रि के पिछले प्रहर में जिनेन्द्र देव के जन्म को सूचित करने वाले तथा शुभ फल देने वाले नीचे लिखे हुए सोलह स्वप्न देखे ॥१०२-१०३॥
सबसे पहले उसने इन्द्र का ऐरावत हाथी देखा । वह गम्भीर गर्जना कर रहा था तथा उसके दोनों कपोल और सूड़ इन तीन स्थानों से मद झर रहा था इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था मानो गरजता और बरसता हुआ शरद् ऋतु का बादल ही हो ॥१०४॥
दूसरे स्वप्न में उसने एक बैल देखा । उस बैल के कन्धे नगाड़े के समान विस्तृत थे, वह सफेद कमल के समान कुछ-कुछ शुक्ल वर्ण था । अमृत की राशि के समान सुशोभित था और मन्द गम्भीर शब्द कर रहा था ॥१०५॥
तीसरे स्वर्ण में उसने एक सिंह देखा । उस सिंह का शरीर चन्द्रमा के समान शुक्लवर्ण था और कन्धे लाल रंग के थे इसलिए वह ऐसा मालूम होता था मानो चाँदनी और सन्ध्या के द्वारा ही उसका शरीर बना हो ॥१०६॥
चौथे स्वप्न में उसने अपनी शोभा के समान लक्ष्मी को देखा । वह लक्ष्मी कमलों के बने हुए ऊँचे आसन पर बैठी थी और देवों के हाथी सुवर्णमय कलशों से उसका अभिषेक कर रहे थे ॥१०७॥
पाँचवें स्वप्न में उसने बड़े ही आनन्द के साथ दो पुष्प-मालाएं देखी । उन मालाओं पर फूलों की सुगन्धि के कारण बड़े-बड़े भौंरे आ लगे थे और वे मनोहर झंकार शब्द कर रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो उन मालाओं ने गाना ही प्रारम्भ किया हो ॥१०८॥
छठे स्वप्न में उसने पूर्ण चन्द्रमण्डल देखा । वह चन्द्रमण्डल तारा से सहित था और उत्कृष्ट चाँदनी से युक्त था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो मोतियों से सहित हँसता हुआ अपना मरुदेवी का मुख-कमल ही हो ॥१०९॥
सातवें स्वप्न में उसने उदयाचल से उदित होते हुए तथा अन्धकार को नष्ट करते हुए सूर्य को देखा । यह सूर्य ऐसा मालूम होता था मानो मरुदेवी के माङ्गलिक कार्य में रखा हुआ सुवर्णमय कलश ही हो ॥११०॥
आठवें स्वप्न में उसने सुवर्ण के दो कलश देखे । उन कलशों के मुख कमलों से ढके हुए थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो हस्तकमल से आच्छादित हुए अपने दोनों स्तनकलश ही हों ॥१११॥
नौवे स्वप्न में फूले हुए कुमुद और कमलों से शोभायमान तालाब में क्रीड़ा करती हुई दो मछलियाँ देखी । वे मछलियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो अपने (मरुदेवी के) नेत्रों की लम्बाई ही दिखला रही हों ॥११२॥
दसवें स्वप्न में उसने एक सुन्दर तालाब देखा । उस तालाब का पानी तैरते हुए कमलों की केशर से पीला-पीला हो रहा था जिससे ऐसा मालूम होता था मानो पिघले हुए सुवर्ण से ही भरा हो ॥११३॥
ग्यारहवें स्वप्न में उसने क्षुभित हो बेला (तट) को उल्लंघन करता हुआ समुद्र देखा । उस समय उस समुद्र में उठती हुई लहरों से कुछ-कुछ गम्भीर शब्द हो रहा था और जल के छोटे-छोटे कण बढ़कर उसके चारों ओर पड़ रहे थे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वह अट्टाहास ही कर रहा हो ॥११४॥
बारहवें स्वप्न में उसने एक ऊँचा सिंहासन देखा । वह सिंहासन सुवर्ण का बना हुआ था और उसमें अनेक प्रकार के चमकीले मणि लगे हुए थे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो वह मेरु पर्वत के शिखर की उत्कृष्ट शोभा ही धारण कर रहा हो ॥११५॥
तेरहवें स्वप्न में उसने एक स्वर्ग का विमान देखा । वह विमान बहुमूल्य श्रेष्ठ रत्नों से देदीप्यमान था और ऐसा मालूम होता था मानो देवों के द्वारा उपहार में दिया हुआ, अपने पुत्र का प्रसूतिगृह (उत्पत्तिस्थान) ही हो ॥११६॥
चौदहवें स्वप्न में उसने पृथिवी को भेदन कर ऊपर आया हुआ नागेन्द्र का भवन देखा । वह भवन ऐसा मालूम होता था मानो पहले दिखे हुए स्वर्ग के विमान के साथ स्पर्धा करने के लिए ही उद्यत हुआ हो ॥११७॥
पन्द्रहवें स्वप्न में उसने अपनी उठती हुई किरणों से आकाश को पल्लवित करने वाली रत्नों की राशि देखी । उस रत्नों की राशि को मरुदेवी ने ऐसा समझा था मानो पृथ्वी देवी ने उसे अपना खजाना ही दिखाया हो ॥११८॥
और सोलहवें स्वप्न में उसने जलती हुई प्रकाशमान तथा धूमरहित अग्नि देखी । वह अग्नि ऐसी मालूम होती थी मानो होने वाले पुत्र का मूर्तिधारी प्रताप ही हो ॥११९॥
इस प्रकार सोलह स्वप्न देखने के बाद उसने देखा कि सुवर्ण के समान पीली कान्ति का धारक और ऊँचे कन्धों वाला एक ऊँचा बैल हमारे मुख-कमल में प्रवेश कर रहा है ॥१२०॥
तदनन्तर वह बजते हुए बाजों की ध्वनि से जग गयी और बन्दीजनों के नीचे लिखे हुए मंगलकारक मंगल-गीत सुनने लगी ॥१२१॥
उस समय मरुदेवी को सुख-पूर्वक जगाने के लिए, जिनकी वाणी अत्यन्त स्पष्ट है ऐसे पुण्य पाठ करने वाले बन्दीजन उच्च स्वर से नीचे लिखे अनुसार मंगल पाठ पढ़ रहे थे ॥१२२॥
हे देवि, यह तेरे जागने का समय है जो कि ऐसा मालूम होता है मानो कुछ-कुछ फूले हुए कमलों के द्वारा तुम्हें हाथ ही जोड़ रहा हो ॥१२३॥
तुम्हारे मुख की कान्ति से पराजित होने के कारण ही मानो जिसकी समस्त चाँदनी नष्ट हो गयी है ऐसे चन्द्रमण्डल को धारण करती हुई यह रात्रि कैसी विचित्र शोभायमान हो रही है ॥१२४॥
हे देवि, अब कान्तिरहित चन्द्रमा में जगत् का आदर कम हो गया है इसलिए प्रफुल्लित हुआ यह तेरा मुख-कमल ही समस्त जगत् को आनन्दित करे ॥१२५॥
यह चन्द्रमा छिपी हुई किरणों (पक्ष में हाथों) से अपनी दिशारूपी स्त्रियों के मुख का स्पर्श कर रहा है जिससे ऐसा मालूम होता है मानो परदेश जाने के लिए अपनी प्यारी स्त्रियों से आज्ञा ही लेना चाहता हो ॥१२६॥
ताराओं का समूह भी अब आकाश में कहीं-कहीं दिखाई देता है और ऐसा जान पड़ता है मानो जाने की जल्दी से रात्रि के हार की शोभा ही टूट-टूटकर बिखर गयी हो ॥१२७॥
हे देवि, इधर तालाबों पर ये सारस पक्षी मनोहर और गम्भीर शब्द कर रहे हैं और ऐसे मालूम होते हैं मानो मंगल-पाठ करते हुए हम लोगों के साथ-साथ तुम्हारी स्तुति ही करना चाहते हों ॥१२८॥
इधर घर की बावड़ी में भी कमलिनी के कमलरूपी मुख प्रफुलित हो गये हैं और उन पर भौंरे शब्द कर रहे हैं जिससे ऐसा मालूम होता है मानो कमलिनी उच्च-स्वर से आपका यश गा रही हो ॥१२९॥
इधर रात्रि में परस्पर के विरह से अतिशय सन्तप्त हुआ यह चकवा-चकवी का युगल अब तालाब की तरंगों के स्पर्श से कुछ-कुछ आश्वासन प्राप्त कर रहा है ॥१३०॥
अतिशय दाह करने वाली चन्द्रमा की किरणों से हृदय में अत्यन्त दुःखी हुए चकवा-चकवी अब मित्र (सूर्य) के समागम की प्रार्थना कर रहे हैं, भावार्थ-जैसे जब कोई किसी के द्वारा सताया जाता है तब वह अपने मित्र के साथ समागम की इच्छा करता है वैसे ही चकवा-चकवी चन्द्रमा के द्वारा सताये जाने पर मित्र अर्थात् सूर्य के समागम की इच्छा कर रहे हैं ॥१३१॥
इधर बहुत जल्दी होनेवाले स्त्रियों के वियोग से उत्पन्न हुए दुःख की सूचना करने वाली मुर्गों की तेज आवाज कामी पुरुषों के मन को सन्ताप पहुंचा रही है ॥१३२॥
शान्तस्वभावी चन्द्रमा की कोमल किरणों से रात्रि का जो अन्धकार नष्ट नहीं हो सका था वह अब तेज किरण वाले सूर्य के उदय के सम्मुख होते ही नष्ट हो गया है ॥१३३॥
अपनी किरणों के द्वारा रात्रि सम्बन्धी अन्धकार को नष्ट करने वाला सूर्य आगे चलकर उदित होगा परन्तु उससे अनुराग (प्रेम और लाली) करने वाली सन्ध्या पहले से ही प्रकट हो गयी है और ऐसी जान पड़ती है मानों सूर्यरूपी सेनापति की आगे चलने वाली सेना ही हो ॥१३४॥
यह उदित होता हुआ सूर्यमण्डल एक साथ दो काम करता है-एक तो कमलिनियों के समूह में विकास को विस्तृत करता है और दूसरा कुमुदिनियों के समूह में म्लानता का विस्तार करना है ॥१३५॥
अथवा कमलिनी के कमलरूपी मुख को प्रफुल्लित हुआ देखकर यह कुमुदिनी मानो ईर्ष्या से म्लानता को प्राप्त हो रही है ॥१३६ ॥ यह सूर्य अपने ऊँचे कर अर्थात् किरणों को (पक्ष में हाथों को) सामने फैलाता हुआ उदित हो रहा है जिससे ऐसा मालूम होता है मानो पूर्व दिशारूपी स्त्री के गर्भ से कोई तेजस्वी बालक ही पैदा हो रहा हो ॥१३७॥
निषध पर्वत के समीप आरक्त (लाल) मण्डल का धारक यह सूर्य ऐसा जान पड़ता है मानो इन्हीं के द्वारा इकट्ठा किया हुआ सब सन्ध्याओं का राग (लालिमा) ही हो ॥१३८॥
सूर्य का उदय होते ही समस्त अन्धकार नष्ट हो गया, चकवा-चकवियों का क्लेश दूर हो गया, कमलिनी विकसित हो गयी और सारा जगत् प्रकाशमान हो गया ॥१३९॥
अब प्रभात के समय फूले हुए कमलिनियों के वन से कमलों की सुगन्ध ग्रहण करता हुआ यह शीतल पवन सब ओर बह रहा है ॥१४०॥
इसलिए हे देवी, स्पष्ट ही यह तेरे जागने का समय आ गया है । अतएव जिस प्रकार हंसिनी बालू के टीले को छोड़ देती है उसी प्रकार तू भी अब अपनी निर्मल शय्या छोड़ ॥१४१॥
तेरा प्रभात सदा मंगलमय हो, तू सैकड़ों कल्याण को प्राप्त हो और जिस प्रकार पूर्व दिशा सूर्य को उत्पन्न करती है उसी प्रकार तू भी तीन लोक को प्रकाशित करने वाले पुत्र को उत्पन्न कर ॥१४२॥
यद्यपि वह मरुदेवी स्वप्न देखने के कारण, बन्दीजनों के मंगल-गान से बहुत पहले ही जाग चुकी थी, तथापि उन्होंने उसे फिर से जगाया । इस प्रकार जागृत होकर उसने समस्त संसार को आनन्दमय देखा ॥१४३॥
शुभ स्वप्न देखने से जिसे अत्यन्त आनन्द हो रहा है ऐसी जागी हुई मरुदेवी फूली हुई कमलिनी के समान कण्टकित अर्थात् रोमांचित (पक्ष में काँटों से व्याप्त) शरीर धारण कर रही थी ॥१४४॥
तदनन्तर वह मरुदेवी स्वप्न देखने से उत्पन्न हुए आनन्द को मानो अपने शरीर में धारण करने के लिए समर्थ नहीं हुई थी इसीलिए वह मंगलमय स्नान कर और वस्त्राभूषण धारण कर अपने पति के समीप पहुँची ॥१४५॥
उसने वहाँ जाकर उचित विनय से महाराज नाभिराज के दर्शन किये और फिर सुखपूर्वक बैठकर, राज्यसिंहासन पर बैठे हुए महाराज से इस प्रकार निवेदन किया ॥१४६॥
हे देव, आज मैं सुख से सो रही थी, सोते ही सोते मैंने रात्रि के पिछले भाग में आश्चर्यजनक फल देने वाले ये सोलह स्वप्न देखे हैं ॥१४७॥
स्वच्छ और सफेद शरीर धारण करने वाला ऐरावत हाथी, दुन्दुभि के समान शब्द करता हुआ बैल, पहाड़ की चोटी को उल्लंघन करने वाला सिंह, देवों के हाथियों द्वारा नहलायी गयी लक्ष्मी, आकाश में लटकती हुई दो माला, आकाश को प्रकाशमान करता हुआ चन्द्रमा, उदय होता हुआ सूर्य, मनोहर मछलियों का युगल, जल से भरे हुए दो कलश, स्वच्छ जल और कमलों से सहित सरोवर, क्षुभित और भँवर से युक्त समुद्र, देदीप्यमान सिंहासन, स्वर्ग से आता हुआ विमान, पृथिवी से प्रकट होता हुआ नागेन्द्र का भवन, प्रकाशमान किरणों से शोभित रत्नों की राशि और जलती हुई देदीप्यमान अग्नि । इन सोलह स्वप्नों को देखने के बाद हे राजन् मैंने देखा है कि एक सुवर्ण के समान पीला बैल मेरे मुख में प्रवेश कर रहा है । हे देव, आप इन स्वप्नों का फल कहिए । इनके फल सुनने की मेरी इच्छा निरन्तर बढ़ रही है सो ठीक ही है अपूर्व वस्तु के देखने से किसका मन कौतुक-युक्त नहीं होता है ? ॥१४८-१५३॥
तदनन्तर, अवधिज्ञान के द्वारा जिन्होंने स्वप्नों का उत्तम फल जान लिया है और जिनकी दाँतों की किरणें अतिशय शोभायमान हो रही हैं ऐसे महाराज नाभिराज मरुदेवी के लिए स्वप्नों का फल कहने लगे ॥१५४॥
हे देवि, सुन, हाथी के देखने से तेरे उत्तम पुत्र होगा, उत्तम बैल देखने से वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा ॥१५५॥
सिंह के देखने से वह अनन्त बल से युक्त होगा, मालाओं के देखने से समीचीन धर्म के तीर्थ (आम्नाय) का चलाने वाला होगा, लक्ष्मी के देखने से वह सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा ॥१५६॥
पूर्ण चन्द्रमा के देखने से समस्त लोगों को आनन्द देने वाला होगा, सूर्य के देखने से देदीप्यमान प्रभा का धारक होगा, दो कलश देखने से अनेक निधियों को प्राप्त होगा, मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा ॥१५७॥
सरोवर के देखने से अनेक लक्षणों से शोभित होगा, समुद्र के देखने से केवली होगा, सिंहासन के देखने से जगत् का गुरु होकर साम्राज्य को प्राप्त करेगा ॥१५८॥
देवों का विमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा, नागेन्द्र का भवन देखने से अवधिज्ञान रूपी लोचनों से सहित होगा ॥१५९॥
चमकते हुए रत्नों की राशि देखने से गुणों की खान होगा, और निर्धूम अग्नि के देखने से कर्मरूपी इन्धन को जलाने वाला होगा ॥१६०॥
तथा तुम्हारे मुख में जो वृषभ ने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि तुम्हारे निर्मल गर्भ में भगवान् वृषभदेव अपना शरीर धारण करेंगे ॥१६१॥
इस प्रकार नाभिराज के वचन सुनकर उसका सारा शरीर हर्ष से रोमांचित हो गया जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो परम आनन्द से निर्भर होकर हर्ष के अंकुरों से ही व्याप्त हो गया हो ॥१६२॥
जब अवसर्पिणी काल के तीसरे सुषमदुःषम नामक काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष आठ माह और एक पक्ष बाकी रह गया था तब आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वज्रनाभि अहमिन्द्र, देवायु का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ और वहाँ सीप के सम्पुट में मोती की तरह सब बाधाओं से निर्मुक्त होकर स्थित हो गया ॥१-३॥
उस समय समस्त इन्द्र अपने-अपने यहाँ होने वाले चिह्नों से भगवान् के गर्भावतार का समय जानकर वहाँ आये और सभी ने नगर की प्रदक्षिणा देकर भगवान् के माता-पिता को नमस्कार किया ॥४॥
सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने देवों के साथ-साथ संगीत प्रारम्भ किया । उस समय कहीं गीत हो रहे थे, कहीं बाजे बज रहे थे और कहीं मनोहर नृत्य हो रहे थे ॥५॥
नाभिराज के महल का आँगन स्वर्गलोक से आये हुए देवों के द्वारा खचाखच भर गया था । इस प्रकार गर्भकल्याणक का उत्सव कर वे देव अपने-अपने स्थानों पर वापस चले गये ॥६॥) उसी समय से लेकर इन्द्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्यों के द्वारा दासियों के समान मरुदेवी की सेवा करने लगीं ॥१६३॥
श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी इन षट्कुमारी देवियों ने मरुदेवी के समीप रहकर उसमें क्रम से अपने-अपने शोभा, लज्जा, धैर्य, स्तुति, बोध और विभूति नामक गुणों का संचार किया था । अर्थात् श्री देवी ने मरुदेवी की शोभा बढ़ा दी, ह्री देवी ने लज्जा बढ़ा दी, धृति देवी ने धैर्य बढ़ाया, कीर्ति देवी ने स्तुति की, बुद्धि देवी ने बोध (ज्ञान) को निर्मल कर दिया और लक्ष्मी देवी ने विभूति बढ़ा दी । इस प्रकार उन देवियों के सेवा संस्कार से वह मरुदेवी ऐसी सुशोभित होने लगी थी जैसे कि अग्नि के संस्कार से मणि सुशोभित होने लगता है ॥१६४-१६५॥
परिचर्या करते समय देवियों ने सबसे पहले स्वर्ग से लाये हुए पवित्र पदार्थों के द्वारा माता का गर्भ शोधन किया था ॥१६६॥
वह माता प्रथम तो स्वभाव से ही निर्मल और सुन्दर थी इतने पर देवियों ने उसे विशुद्ध किया था । इन सब कारणों से वह उस समय ऐसी शोभायमान होने लगी थी मानो उसका शरीर स्फटिक मणि से ही बनाया गया हो ॥१६७॥
उन देवियों में कोई तो माता के आगे अष्ट मंगलद्रव्य धारण करती थीं, कोई उसे ताम्बूल देती थीं, कोई स्नान कराती थीं और कोई वस्त्राभूषण आदि पहनाती थी ॥१६८॥
कोई भोजनशाला के काम में नियुक्त हुई, कोई शय्या बिछाने के काम में नियुक्त हुई, कोई पैर दाबने के काम में नियुक्त हुई और कोई तरह-तरह की सुगन्धित पुष्प मालाएँ पहनाकर माता की सेवा करने में नियुक्त हुई ॥१६९॥
जिस प्रकार सूर्य की प्रभा कमलिनी के कमल का स्पर्श कर उसे अनुरागसहित (लालीसहित) कर देती है उसी प्रकार शृङ्गारित करते समय कोई देवी मरुदेव के मुख का स्पर्श कर उसे अनुरागसहित (प्रेमसहित) कर रही थी ॥१७०॥
ताम्बूल देने वाली देवी हाथ में पान लिये हुए ऐसी सुशोभित होती थी मानो जिसकी शाखा के अग्रभाग पर तोता बैठा हो ऐसी कोई लता ही हो ॥१७१॥
कोई देवी अपने कोमल हाथ से माता के लिए आभूषण दे रही थी जिससे वह ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो जिसकी शाखा के अग्रभाग पर आभूषण प्रकट हुए हों ऐसी कल्पलता ही हो ॥१७२॥
मरुदेवी के लिए कोई देवियाँ कल्पलता के समान रेशमी वस्त्र दे रही थीं, कोई दिव्य मालाएँ दे रही थी ॥१७३॥
कोई देवी अपने हाथ पर रखे हुए सुगन्धित द्रव्यों के विलेपन से मरुदेवी के शरीर को सुवासित कर रही थी । विलेपन की सुगन्धि के कारण उस देवी के हाथ पर अनेक भौंरे आकर गुंजार करते थे जिससे वह ऐसी मालूम होती थी मानो सुगन्धित द्रव्यों की उत्पत्ति आदि का वर्णन करने वाले गन्धशास्त्र की युक्ति ही हो ॥१७४॥
माता की अंग-रक्षा के लिए हाथ में नंगी तलवार-धारण किये हुई कितनी ही देवियाँ ऐसी शोभायमान होती थीं मानो जिनमें मछलियां चल रही हैं ऐसी सरसी (तलैया) ही हो ॥१७५॥
कितनी ही देवियाँ पुष्प की पराग से भरी हुई राजमहल की भूमि को बुहार रही थीं और उस पराग की सुगन्ध से आकर इकट्ठे हुए भौंरों को अपने स्तन ढकने के वस्तु से उड़ाती भी जाती थीं ॥१७६॥
कितनी ही देवियाँ आलस्यरहित होकर पृथिवी को गीले कपड़े से साफ कर रही थीं और कितनी ही देवियाँ घिसे हुए गाई चन्दन से पृथिवी को सींच रही थीं ॥१७७॥
कोई देवियाँ माता के आगे रत्नों के चूर्ण से रंगावली का विन्यास करती थीं-रंग-बिरंगे चौक पूरती थीं, बैल-बूटा खींचती थीं और कोई सुगन्धि फैलाने वाले, कल्पवृक्षों के फूलों से माता की पूजा करती थीं-उन्हें फूलों का उपहार देती थीं ॥१७८॥
कितनी ही देवियाँ अपना शरीर छिपाकर दिव्य प्रभाव दिखलाती हुई योग्य सेवाओं के द्वारा निरन्तर माता की शुश्रूषा करती थीं ॥१७९॥
बिजली के समान प्रभा से चमकते हुए शरीर को धारण करने वाली कितनी ही देवियाँ माता के योग्य और अच्छे लगने वाले पदार्थ लाकर उपस्थित करती थीं ॥१८०॥
कितनी ही देवियाँ अन्तर्हित होकर अपने दिव्य प्रभाव से माता के लिए माला, वस्त्र, आहार और आभूषण आदि देती थीं ॥१८१॥
जिनका शरीर नहीं दिख रहा है ऐसी कितनी ही देवियाँ आकाश में स्थित होकर बड़े जोर से कहती थीं कि माता मरुदेवी की रक्षा बड़े ही प्रयत्न से की जाये ॥१८२॥
जब माता चलती थीं तब वे देवियाँ उसके वस्त्रों को कुछ ऊपर उठा लेती थीं, जब बैठती थीं तब आसन लाकर उपस्थित करती थीं और जब खड़ी होती थीं तब सब ओर खड़ी होकर उनकी सेवा करती थीं ॥१८३॥
कितनी ही देवियाँ रात्रि के प्रारम्भ काल में राजमहल के अग्रभाग पर अतिशय चमकीले मणियों के दीपक रखती थीं । वे दीपक सब ओर से अन्धकार को नष्ट कर रहे थे ॥१८४॥
कितनी ही देवियाँ सायंकाल के समय योग्य वस्तुओं के द्वारा माता की आरती उतारती थी, कितनी ही देवियाँ दृष्टि दोष दूर करने के लिए उतारना उतारती थीं और कितनी ही देवियाँ मन्त्राक्षरों के द्वारा उसका रक्षाबन्धन करती थी ॥१८५॥
निरन्तर के जागरण से जिनके नेत्र टिमकाररहित हो गये हैं ऐसी कितनी ही देवियाँ रात के समय अनेक प्रकार के हथियार धारण कर माता की सेवा करती थी अथवा उनके समीप बैठकर पहरा देती थीं ॥१८६॥
वे देवांगनाएँ कभी जलक्रीड़ा से और कभी वनक्रीड़ा से, कभी कथा-गोष्ठी से (इकट्ठे बैठकर कहानी आदि कहने से) उन्हें सन्तुष्ट करती थी ॥१८७॥
वे कभी संगीतगोष्ठी से, कभी वादित्रगोष्ठी से और कभी नृत्यगोष्ठी से उनकी सेवा करती थीं ॥१८८॥
कितनी ही देवियाँ नेत्रों के द्वारा अपना अभिप्राय प्रकट करने वाली गोष्ठियों में लीलापूर्वक भौंह नचाती हुई और बढ़ते हुए लय के साथ शरीर को लचकाती हुई नृत्य करती थीं ॥१८९॥
कितनी ही देवियाँ नृत्य क्रीड़ा के समय आकाश में जाकर फिरकी लेती थीं और वहाँ अपने चंचल अंगों तथा शरीर की उत्कृष्ट कान्ति से ठीक बिजली के समान शोभायमान होती थी ॥१९०॥
नृत्य करते समय नाट्य-शास्त्र में निश्चित किये हुए स्थानों पर हाथ फैलाती हुई कितनी ही देवियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो जगत् को जीतने के लिए साक्षात् कामदेव से धनुर्वेद ही सीख रही हो ॥१९१॥
कोई देवी रंग-बिरंगे चौक के चारों ओर फूल बिखेर रही थी और उस समय वह ऐसी मालूम होती थी मानो चित्रशाला में कामदेवरूपी ग्रह को नियुक्त ही करना चाहती हो ॥१९२॥
नृत्य करते समय उन देवांगनाओं के स्तनरूपी कमलों की बोड़ियाँ भी हिल रही थीं जिससे ऐसी जान पड़ती थीं मानो उन देवांगनाओं के नृत्य का कौतुहलवश अनुकरण ही कर रही हों ॥१९३॥
देवांगनाओं की उस नृत्यगोष्ठी में बार-बार भौंहरूपी चाप खींचे जाते थे और उनपर बार-बार कटाक्षरूपी बाण चढ़ाये जाते थे जिससे वह ऐसी मालूम होती थी मानो कामदेव की धनुषविद्या का किया हुआ अभ्यास ही हो ॥१९४॥
नृत्य करते समय वे देवियाँ दाँतों की किरणें फैलाती हुई मुस्कराती जाती थीं, स्पष्ट और मधुर गाना गाती थीं, नेत्रों से कटाक्ष करती हुई देखती थीं और लय के साथ फिरकी लगाती थीं, इस प्रकार उन देवियों का वह नृत्य तथा हाव-भाव आदि अनेक प्रकार के विलास, सभी कामदेव के बाणों के सहायक बाण मालूम होते थे और रसिकता को प्राप्त हुई शरीरसम्बन्धी चेष्टाओं से मिले हुए उनके शरीर का तो कहना ही क्या है-वह तो हरएक प्रकार से अत्यन्त सुन्दर दिखाई पड़ता था ॥१९५-१९६॥
वे नृत्य करने वाली देवियाँ अनेक प्रकार की गति, तरह-तरह के गीत अथवा नृत्यविशेष, और विचित्र शरीर की चेष्टासहित फिरकी आदि के द्वारा माता के मन को नृत्य देखने के लिए उत्कण्ठित करती थीं ॥१९७॥
कितनी ही देवांगनाएँ संगीत-गोष्ठियों में कुछ-कुछ हँसते हुए मुखों से ऐसी सुशोभित होती थी जैसे कुछ-कुछ विकसित हुए कमलों से कमलिनियाँ सुशोभित होती हैं ॥१९८॥
जिनकी भौंहें बहुत ही छोटी-छोटी हैं ऐसी कितनी ही देवियाँ ओठों के अग्रभाग से वीणा दबाकर बजाती हुई ऐसी शोभायमान हो रही थीं मानो हंसकर कामदेवरूपी अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए ही प्रयत्न कर रही हों ॥१९९॥
यह एक बड़े आश्चर्य की बात थी कि वीणा बजाने वाली कितनी ही देवियाँ अपने हस्तरूपी पल्लवों से वीणा की लकड़ी को साफ करती हुई देखने वालों के मनरूपी वृक्षों को पल्लवित अर्थात् पल्लवों से युक्त कर रही थी । (पक्ष में हर्षित अथवा शृंगार रस से सहित कर रही थी ।) भावार्थ-उन देवाङ्गनाओं के हाथ पल्लवों के समान थे वीणा बजाते समय उनके हाथरूपी पल्लव वीणा की लकड़ी अथवा उसके तारों पर पड़ते थे । जिससे वह वीणा पल्लवित अर्थात नवीन पत्तों से व्याप्त हुई-सी जान पड़ती थी परन्तु आचार्य ने यहाँ पर वीणा को पल्लवित न बताकर देखने वालों के मनरूप वृक्षों को पल्लवित बतलाया है जिससे विरोधमूलक अलंकार प्रकट हो गया है, परन्तु पल्लवित शब्द का हर्षित अथवा शृंगाररस से सहित अर्थ बदल देने पर वह विरोध दूर हो जाता है । संक्षेप में भाव यह है कि वीणा बजाते समय उन देवियों के हाथों की चंचलता, सुन्दरता और बजाने की कुशलता आदि देखकर दर्शक पुरुषों का मन हर्षित हो जाता था ॥२००॥
कितनी ही देवियाँ संगीत के समय गम्भीर शब्द करने वाली वीणाओं को हाथ की अँगुलियों से बजाती हुई गा रही थी ॥२०१॥
उन देवियों के हाथ की अंगुलियों से ताड़ित हुई वीणाएँ मनोहर शब्द कर रही थीं सो ठीक ही है वीणा का यह एक आश्चर्यकारी गुण है कि ताड़न से ही वश होता है ॥२०२॥
उन देवांगनाओं के ओठों को वंशों (बांसुरी) के द्वारा डसा हुआ देखकर ही मानो वीणाओं के तूँबे उनके कठिन स्तनमण्डल से आ लगे थे । भावार्थ-वे देवियाँ मुंह से बाँसुरी और हाथ से वीणा बजा रही थीं ॥२०३॥
कितनी ही देवियां मृदंग बजाते समय, अपनी भुजाएं ऊपर उठाती थीं जिससे वे ऐसी मालूम होती थी मानो उस कला-कौशल के विषय से अपनी प्रशंसा ही करना चाहती हों ॥२०४॥
उस समय उन बजाने वाली देवियों के हाथ के स्पर्श से वे मृदंग गम्भीर शब्द कर रहे थे जिससे ऐसे जान पड़ते थे मानो ऊँचे स्वर से उन बजाने वाली देवियों के कला-कौशल को ही प्रकट कर रहे हों ॥२०५॥
उन देवियों के हाथ से बार-बार ताड़ित हुए मृदंग मानो यही ध्वनि कर रहे थे कि देखो, हम लोग वास्तव में मृदंग (मृत्+अङ्ग) अर्थात् मिट्टी के अङ्ग (मिट्टी से बने हुए) नहीं है किन्तु सुवर्ण के बने हुए हैं । भावार्थ-मृदंग शब्द रूढ़ि से ही मृदंग (वाद्यविशेष) अर्थ को प्रकट करता है ॥२०६॥
उस समय पणव आदि देवों के बाजे बड़ी गम्भीर ध्वनि से बज रहे थे मानो लोगों से यही कह रहे थे कि हम लोग सदा सुन्दर शब्द ही करते हैं, बुरे शब्द कभी नहीं करते और इसीलिए बड़े परिश्रम से बजाने योग्य हैं ॥२०७॥
प्रातःकाल के समय कितनी ही देवियाँ बड़े-बड़े शंख बजा रही थीं और वे ऐसे मालूम होते थे मानो उन देवियों के हाथों से होने वाली पीड़ा को सहन करने के लिए असमर्थ होकर ही चिल्ला रहे हों ॥२०८॥
प्रातःकाल में माता को जगाने के लिए जो ऊँची ताल के साथ तुरही बाजे बज रहे थे उनके साथ कितनी ही देवियाँ मनोहर और गम्भीर रूप से मंगलगान गाती थीं ॥२०९॥
इस प्रकार उन देवियों के द्वारा की हुई सेवा से मरुदेवी ऐसी शोभायमान होती थी मानो किसी प्रकार एकरूपता को प्राप्त हुई तीनों लोकों की लक्ष्मी ही हो ॥२१०॥
इस तरह बड़े संभ्रम के साथ दिक्कुमारी देवियों के द्वारा सेवित हुई उस मरुदेवी ने बड़ी ही उत्कृष्ट शोभा धारण की थी और वह ऐसी मालूम पड़ती थी मानो शरीर में प्रविष्ट हुए देवियों के प्रभाव से ही उसने ऐसी उत्कृष्ट शोभा धारण की हो ॥२११॥
अथानन्तर, नौवाँ महीना निकट आने पर वे देवियाँ नीचे लिखे अनुसार विशिष्ट-विशिष्ट काव्य-गोष्ठियों के द्वारा बड़े आदर के साथ गर्भिणी मरुदेवी को प्रसन्न करने लगीं ॥२१२॥
जिनमें अर्थ गूढ़ है, क्रिया गूढ़ है, पाद (श्लोक का चौथा हिस्सा) गूढ़ है अथवा जिनमें बिन्दु छूटा हुआ है, मात्रा छुटी हुई या अक्षर छूटा हुआ है ऐसे कितने ही श्लोकों से तथा कितने ही प्रकार के अन्य श्लोकों से वे देवियाँ मरुदेवी को प्रसन्न करती थीं ॥२१३॥
वे देवियाँ कहने लगीं कि हे माता, क्या तुमने इस संसार में एक चन्द्रमा को ही कोमल (दुर्बल) देखा है जो इसके समस्त कलारूपी धन को जबरदस्ती छीन रही हो । भावार्थ-इस श्लोक में व्याजस्तुति अलंकार है अर्थात् निन्दा के छल से देवी की स्तुति की गयी है । देवियों के कहने का अभिप्राय यह है कि आपके मुख की कान्ति जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही चन्द्रमा की कान्ति घटती जाती है अर्थात् आपके कान्तिमान मुख के सामने चन्द्रमा कान्तिरहित मालूम होने लगा है । इससे जान पड़ता है कि आपने चन्द्रमा को दुर्बल समझकर उसके कलारूपी समस्त धन का अपहरण कर लिया है ॥२१४॥
हे माता, आपके मुखरूपी चन्द्रमा के द्वारा यह कमल अवश्य हो जीता गया है क्योंकि इसीलिए वह सदा संकुचित होता रहता है । कमल की इस पराजय को चन्द्रमण्डल भी नहीं सह सका है और न आपके मुख को ही जीत सका है इसलिए कमल के समान होने से वह भी सदा संकोच को प्राप्त होता रहता है ॥२१५॥
हे माता, चूर्ण कुन्तलसहित आपके मुखकमल ने भ्रमरसहित कमल को अवश्य ही जीत लिया है इसीलिए तो वह भय से मानो आज तक बार-बार संकोच को प्राप्त होता रहता है ॥२१६॥
हे माता, ये भ्रमर तुम्हारे मुख को कमल समझ बार-बार सम्मुख आकर इसे सूँघते हैं और संकुचित होने वाली कमलिनी से अपने मरने आदि की शंका करते हुए फिर कभी उसके सम्मुख नहीं जाते हैं । भावार्थ-आपका मुख-कमल सदा प्रफुल्लित रहता है और कमलिनी का कमल रात के समय निमीलित हो जाता है । कमल के निमीलित होने से भ्रमर को हमेशा उसमें बन्द होकर मरने का भय बना रहता है । आज उस भ्रमर को सुगन्ध ग्रहण करने के लिए सदा प्रफुल्लित रहने वाला आपका मुख कमलरूपी निर्बाध स्थान मिल गया है इसलिए अब वह लौटकर कमलिनी के पास नहीं जाता है ॥२१७॥
हे कमलनयनी ! ये भ्रमर आपके मुखरूपी कमल को सूँघकर ही कृतार्थ हो जाते हैं इसीलिए वे फिर पृथ्वी से उत्पन्न हुए अन्य कमल के पास नहीं जाते अथवा ये भ्रमर आपके मुखरूपी कमल को सूँघकर कृतार्थ होते हुए महाराज नाभिराज का ही अनुकरण करते हैं । भावार्थ-जिस प्रकार आपका मुख सूँघकर आपके पति महाराज नाभिराज सन्तुष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार ये भ्रमर भी आपका मुख सूँघकर सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥२१८॥
तदनन्तर वे देवियाँ माता से पहेलियाँ पूछने लगीं । एक ने पूछा कि हे माता, बताइए वह कौन पदार्थ है ? जो कि आप में रक्त अर्थात् आसक्त है और आसक्त होने पर भी महाराज नाभिराज को अत्यन्त प्रिय है, कामी भी नहीं है, नीच भी नहीं है, और कान्ति से सदा तेजस्वी रहता है । इसके उत्तर में माता ने कहा कि मेरा 'अधर' (नीचे का ओठ) ही है क्योंकि वह रक्त अर्थात् लाल वर्ण का है, महाराज नाभिराज को प्रिय है कामी भी नहीं है, शरीर के उच्च भाग पर रहने के कारण नीच भी नहीं है और कान्ति से सदा तेजस्वी रहता है ॥२१९॥
किसी दूसरी देवी ने पूछा कि हे पतली भौंहों वाली और सुन्दर विलासों से युक्त माता, बताइए आपके शरीर के किस स्थान में कैसी रेखा अच्छी समझी जाती है और हस्तिनी का दूसरा नाम क्या है ? दोनों प्रश्नों का एक ही उत्तर दीजिए । माता ने उत्तर दिया 'करेणुका' । भावार्थ-पहले प्रश्न का उत्तर है 'करे+अणुका' अर्थात् हाथ में पतली रेखा अच्छी समझी जाती है और दूसरे प्रश्न का उत्तर है 'करेणुका' अर्थात् हस्तिनी का दूसरा नाम करेणुका है ॥२२०॥
किसी देवी ने पूछा-हे मधुर-भाषिणी माता, बताओ कि सीधे, ऊँचे और छायादार वृक्षों से भरे हुए स्थान को क्या कहते हैं ? और तुम्हारे शरीर में सबसे सुन्दर अंग क्या है ? दोनों का एक ही उत्तर दीजिए । माता ने उत्तर दिया 'साल-कानन' अर्थात् सीधे ऊँचे और छायादार वृक्षों से व्याप्त स्थान को 'साल-कानन' (सागौन वृक्षों का वन) कहते हैं और हमारे शरीर में सबसे सुन्दर अङ्ग 'सालकानन' (स+अलक+आनन अर्थात् चूर्णकुन्तल -- सुगन्धित चूर्ण लगाने के योग्य आगे के बाल-जुल्फें) सहित मेरा मुख है ॥२२१॥
किसी देवी ने कहा-हे माता, हे सति, आप आनन्द देने वाली अपनी रूप-सम्पत्ति को ग्लानि प्राप्त न कराइए और आहार से प्रेम छोड़कर अनेक प्रकार का अमृत भोजन कीजिए (इस श्लोक में 'नय' और 'अशान' ये दोनों क्रियाएँ गूढ़ हैं इसलिए इसे क्रियागुप्त कहते हैं) ॥ २२२॥
हे माता, यह सिंह शीघ्र ही पहाड़ की गुफा को छोड़कर उसकी चोटी पर चढ़ना चाहता है और इसलिए अपनी भयंकर सटाओं (गरदन पर के बाल-अयाल) हिला रहा है । (इस श्लोक में 'अधुनात्' यह क्रिया गूढ़ रखी गयी है इसलिए यह भी 'क्रियागुप्त' कहलाता है) ॥२२३॥
हे देवि, गर्भ से उत्पन्न होने वाले पुत्र के द्वारा आपने ही जगत् का सन्ताप नष्ट किया है इसलिए आप एक ही, जगत् को पवित्र करने वाली हैं और आप ही जगत् की माता है । (इस श्लोक में 'अधुना:' यह क्रिया गूढ़ है अत: यह भी क्रियागुप्त श्लोक है) ॥२२४॥
हे देवि, इस समय देवों का उत्सव अधिक बढ़ रहा है इसलिए मैं दैत्यों के चक्र में अरवर्ग अर्थात् अरों के समूह की रचना बिलकुल बन्द कर देती हूँ । (चक्र के बीच में जो खड़ी लकड़ियाँ लगी रहती हैं उन्हें अर कहते हैं । इस थोक में 'अधुनाम्' यह क्रिया गूढ़ है इसलिए यह भी क्रियागुप्त कहलाता है) ॥२२५॥
कुछ आदमी कड़कती हुई धूप में खड़े हुए थे उनसे किसी ने कहा कि 'यह तुम्हारे सामने घनी छाया वाला बड़ा भारी बड़ का वृक्ष खड़ा है' ऐसा कहने पर भी उनमें से कोई भी वहाँ नहीं गया । हे माता, कहिए यह कैसा आश्चर्य है इसके उत्तर में माता ने कहा कि इस श्लोक में जो 'वटवृक्ष:' शब्द है उसकी सन्धि 'वटों+ऋक्षः' इस प्रकार तोड़ना चाहिए और उसका अर्थ ऐसा करना चाहिए कि 'रे लड़के, तेरे सामने यह मेघ के समान कान्तिवाला (काला) बड़ा भारी रीछ (भालू) बैठा है' ऐसा कहने पर कड़ी धूप में भी उसके पास कोई मनुष्य नहीं गया तो क्या आश्चर्य है (यह स्पष्टान्धक श्लोक है) ॥२२६॥
हे माता, आपका स्तन मुक्ताहाररुचि है अर्थात् मोतियों के हार से शोभायमान है, उष्णता से सहित है, सफेद चन्दन से चर्चित है और कुछ-कुछ सफेद वर्ण है इसलिए किसी विरही मनुष्य के समान जान पड़ता है क्योंकि विरही मनुष्य भी मुक्ताहाररुचि होता है, अर्थात् आहार से प्रेम छोड़ देता है, कामज्वरसम्बन्धी उष्णता से सहित होता है, शरीर का सन्ताप दूर करने के लिए चन्दन का लेप लगाये रहता है और विरह की पीड़ा से कुछ-कुछ सफेद वर्ण हो जाता है । (यह श्लेषोपमांलकार है) ॥२२७॥
हे माता, तुम्हारे संसार को आनन्द उत्पन्न करने वाला, कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाला और तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति धारण करने वाला पुत्र उत्पन्न होगा । (यह श्लोक गूढ़चतुर्थक कहलाता है क्योंकि इस श्लोक के चतुर्थ पाद में जितने अक्षर हैं वे सबके सब पहले के तीन पादों में आ चुके हैं जैसे 'जगता जनितानन्दो निरस्तदुरितेन्धन: । संतप्तकनकच्छायों जनिता ते स्तनन्धय: ॥') ॥२२८॥
हे माता, आपका वह पुत्र सदा जयवन्त रहे जो कि जगत् को जीतने वाला है, काम को पराजित करने वाला है, सज्जनों का आधार है, सर्वज्ञ है, तीर्थंकर है और कृतकृत्य है (यह निरौष्ठय श्लोक है क्योंकि इसमें ओठ से उच्चारण होने वाले 'उकार, पवर्ग और उपध्मानीय अक्षर नहीं हैं) ॥२२९॥
हे कल्याणि, हे पतिव्रते, आपका वह पुत्र सैकड़ों कल्याण दिखाकर ऐसे स्थान को (मोक्ष) प्राप्त करेगा जहाँ से पुनरागमन नहीं होता इसलिए आप सन्तोष को प्राप्त होओ (यह श्लोक भी निरौष्ठय है) ॥२३०॥
हे सुन्दर दाँतों वाली देवि, देखो, ये देव इन्द्रों के साथ अपनी-अपनी स्त्रियों को साथ लिये हुए बड़े उत्सुक होकर नन्दीश्वर द्वीप और पर्वत पर क्रीड़ा करने के लिए जा रहे हैं । (यह श्लोक बिन्दुमान् हैं अर्थात् 'सुदतीन्द्रै:' की जगह सुदन्तीन्द्रै:' ऐसा दकार पर बिन्दु रखकर पाठ दिया है, इसी प्रकार 'नदीश्वरं' के स्थान पर बिन्दु रखकर 'नन्दीश्वरं' कर दिया है और 'मदराग' की जगह बिन्दु रखकर 'मन्दराग' कर दिया है इसलिए बिन्दुच्युत होनेपर इस श्लोक का दूसरा अर्थ इस प्रकार होता है, हे देवि, ये देवदन्ती अर्थात् हाथियों के इन्द्रों (बड़े-बड़े हाथियों) पर चढ़कर अपनी-अपनी स्त्रियों को साथ लिये हुए मदरागं सेवितुं अर्थात् क्रीड़ा करने के लिए उत्सुक होकर द्वीप और नंदीश्वर (समुद्र) को जा रहे हैं ।) ॥२३१॥
हे माता, जिनके दो कपोल और एक सूंड़ इस प्रकार तीन स्थानों से मद झर रहा है तथा जो मेघों की घटा के समान आकाश में इधर-उधर विचर रहे हैं ऐसे ये देवों के हाथी जिन पर अनेक बिन्दु शोभायमान हो रहे हैं ऐसे अपने मुखों से बड़े ही सुशोभित हो रहे हैं । (यह बिन्दुच्युतक श्लोक है इसमें बिन्दु शब्द का बिन्दु हटा देने और घटा शब्द पर रख देने से दूसरा अर्थ हो जाता है, चित्रालंकार में श और स में कोई अन्तर नहीं माना जाता, इसलिए दूसरे अर्थ में 'त्रिधा स्रुता:' की जगह 'त्रिधा श्रुता:' पाठ समझा जायेगा । दूसरा अर्थ इस प्रकार है कि 'हे देवि ! दो, अनेक तथा बारह इस तरह तीन भेदरूप श्रुतज्ञान के धारण करने वाले तथा घण्टानाद करते हुए आकाश में विचरने वाले ये श्रेष्ठदेव, ज्ञान को धारण करने वाले अपने सुशोभित मुख से बड़े ही शोभायमान हो रहे हैं ।) ॥२३२॥
हे देवि, देवों के नगर का परिखा ऐसा जल धारण कर रही है जो कहीं तो लाल कमलों की पराग से लाल हो रहा है, कहीं कमलों से सहित है, कहीं उड़ती हुई जल की छोटी-छोटी बूँदों से शोभायमान और कहीं जल में विद्यमान रहने वाले मगरमच्छ आदि जलजन्तुओं से भयंकर है । (इस श्लोक में जल के वाचक 'तोय' और 'जल' दो शब्द हैं इन दोनो में एक व्यर्थ अवश्य है इसलिए जल शब्द के बिन्दु को हटाकर 'जलमकरदारुणं' ऐसा पद बना लेते हैं जिसका अर्थ होता है जल में विद्यमान मगरमच्छों से भयंकर । इस प्रकार यह भी बिन्दुच्युतक श्लोक है । परन्तु 'अलंकारचिन्तामणि' में इस श्लोक को इस प्रकार पढ़ा है 'मकरन्दारुणं तोयं धत्ते तत्पुरखातिका । साम्बुजं कचिदुद्बिन्दु चकमकरदारुणम् ।' और इसे 'बिन्दुमान् बिन्दुच्युतक' का उदाहरण दिया है जो कि इस प्रकार घटित होता है-श्लोक के प्रारम्भ में 'मकरदारुणं' पाठ था वहाँ बिन्दु देकर 'मकरन्दारुणं' ऐसा पाठ कर दिया और अन्त में 'चलन्मकरन्दारुणं' ऐसा पाठ था वहाँ बिन्दु को च्युत कर चलन्मकरदारुणं (चलते हुए मगरमच्छों से भयंकर) ऐसा पाठ कर दिया है ।) ॥२३३॥
हे माता, सिंह अपने ऊपर घात करने वाली हाथियों की सेना की क्षण-भर के लिए भी उपेक्षा नहीं करता और हे देवि, शीत ऋतु में कौन-सी स्त्री क्या चाहती है ? माता ने उत्तर दिया कि समान जंघाओं वाली स्त्री शीत ऋतु में पुत्र ही चाहती है । (इस श्लोक में पहले चरण के 'बालं' शब्द में आकार की मात्रा च्युत कर 'बलं' पाठ पढ़ना चाहिए जिससे उसका 'सेना' अर्थ होने लगता है और अन्तिम चरण के 'बलं' शब्द में आकार की मात्रा बढ़ाकर 'बालं' पाठ पढ़ना चाहिए जिससे उसका अर्थ पुत्र होने लगता है । इसी प्रकार प्रथम चरण में 'समजं' के स्थान में आकार की मात्रा बढ़ाकर 'सामजं' पाठ समझना चाहिए जिससे उसका अर्थ 'हाथियों की' होने लगता है । इन कारणों से यह श्लोक मात्राच्युतक कहलाता है ।) ॥२३४॥
हे माता, कोई स्त्री अपने पति के साथ विरह होने पर उसके समागम से निराश होकर व्याकुल और मूर्च्छित होती हुई गद्गद् स्वर से कुछ भी खेदखिन्न हो रही है । (इस श्लोक में जब तक 'जग्ले' पाठ रहता है और उसका अर्थ 'खेदखिन्न होना' किया जाता है तब तक श्लोक का अर्थ सुसंगत नहीं होता, क्योंकि पति के समागम की निराशा होने पर किसी स्त्री का गद्गद् स्वर नहीं होता और न खेदखिन्न होने के साथ कुछ भी विशेषण की सार्थकता दिखती है इसलिए 'जग्ले' पाठ में 'ल' व्यञ्जन को च्युत कर 'जगे' ऐसा पाठ करना चाहिए । उस समय श्लोक का अर्थ इस प्रकार होगा कि-हे देवि, कोई स्त्री पति का विरह होने पर उसके समागम से निराश होकर स्वरों के चढ़ाव-उतार को कुछ अव्यवस्थित करती हुई उत्सुकतापूर्वक कुछ भी गा रही है ।' इस तरह यह श्लोक 'व्यञ्जनच्युतक' कहलाता है ॥२३५॥
किसी देवी ने पूछा कि हे माता, पिंजरे में कौन रहता है? कठोर शब्द करने वाला कौन है जीवों का आधार क्या है? और अक्षरच्युत होने पर भी पढ़ने योग्य क्या है ? इन प्रश्नों के उत्तर में माता ने प्रश्नवाचक 'क:' शब्द के पहले एक-एक अक्षर और लगाकर उत्तर दे दिया और इस प्रकार करने से श्लोक के प्रत्येक पाद में जो एक-एक अक्षर कम रहता था उसकी भी पूर्ति कर दी जैसे देवी ने पूछा था 'क: पंजर मध्यास्ते' अर्थात् पिजड़े में कौन रहता है ? माता ने उत्तर दिया 'शुक: पंजरमध्यास्ते' अर्थात् पिजड़े में तोता रहता है । 'क: परुषनिस्वन:' कठोर शब्द करने वाला कौन है ? माता ने उत्तर दिया 'काक: परुषनिस्वन:' अर्थात् कौवा कठोर शब्द करने वाला है । 'क: प्रतिष्ठा जीवानाम्' अर्थात् जीवों का आधार क्या है माता ने उत्तर दिया 'लोकः प्रतिष्ठाजीवानाम्' अर्थात् जीवों का आधार लोक है । और 'क: पाठ᳭योऽक्षरच्युत:' अर्थात् अक्षरों से च्युत होने पर भी पढ़ने योग्य क्या है ? माता ने उत्तर दिया कि 'श्लोक: पाठ᳭योऽक्षरच्युत:' अर्थात् अक्षर च्युत होने पर भी श्लोक पढ़ने योग्य है । (यह एकाक्षरच्युत प्रश्नोत्तर जाति है) ॥२३६॥
किसी देवी ने पूछा कि हे माता, मधुर शब्द करने वाला कौन है? सिंह की ग्रीवा पर क्या होते हैं ? उत्तम गन्ध कौन धारण करता है और यह जीव सर्वज्ञ किसके द्वारा होता है इन प्रश्नों का उत्तर देते समय माता ने प्रश्न के साथ ही दो-दो अक्षर जोड़कर उत्तर दे दिया और ऐसा करने से श्लोक के प्रत्येक पाद में जो दो-दो अक्षर कम थे उन्हें पूर्ण कर दिया । जैसे माता ने उत्तर दिया-मधुर शब्द करने वाले केकी अर्थात् मयूर होते हैं, सिंह की ग्रीवा पर केसर होते हैं, उत्तम गन्ध केतकी का पुष्प धारण करता है, और यह जीव केवलज्ञान के द्वारा सर्वज्ञ हो जाता है (यह द्वंक्षरच्युत प्रश्नोत्तर जाति है) ॥२३७॥
किसी देवी ने फिर पूछा कि हे माता, मधुर आलाप करने वाला कौन है ? पुराना वृक्ष कौन है ? छोड़ देने योग्य राजा कौन है ? ओर विद्वानों को प्रिय कौन है ? माता ने पूर्व श्लोक की तरह यहाँ भी प्रश्न के साथ ही दो-दो अक्षर जोड़कर उत्तर दिया और प्रत्येक पाद के दो-दो कम अक्षरों को पूर्ण कर दिया । जैसे माता ने उत्तर दिया-मधुर आलाप करने वाला कोयल है, कोटर वाला वृक्ष पुराना वृक्ष है, क्रोधी राजा छोड़ देने योग्य है और विद्वानों को विद्वान् ही प्रिय अथवा मान्य है । (यह भी द्व᳭यक्षरच्युत प्रश्नोत्तर जाति है) ॥२३८॥
किसी देवी ने पूछा कि हे माता, स्वर के समस्त भेदों में उत्तम स्वर कौन-सा है ? शरीर की कान्ति अथवा मानसिक रुचि को नष्ट कर देने वाला रोग कौन-सा है ? पति को कौन प्रसन्न कर सकती है और उच्च तथा गम्भीर शब्द करने वाला कौन है इन सभी प्रश्नों का उत्तर माता ने दो-दो अक्षर जोड़कर दिया जैसे कि स्वर के समस्त भेदों में वीणा का स्वर उत्तम है, शरीर की कान्ति अथवा मानसिक रुचि को नष्ट करने वाला कामला (पीलिया) रोग है, कामिनी स्त्री पति को प्रसन्न कर सकती है और उच्च तथा गम्भीर स्वर करने वाली भेरी है । (यह श्लोक भी द्वयक्षरच्युत प्रश्नोतर जाति है) ॥२३९॥
किसी देवी ने फिर पूछा कि हे माता, स्वर के भेदों में उत्तम स्वर कौन-सा है ? कान्ति अथवा मानसिक रुचि को नष्ट करने वाला रोग कौन-सा है ? कौन-सी स्त्री पति को प्रसन्न कर सकती है और ताड़ित होने पर गम्भीर तथा उच्च शब्द करने वाला बाजा कौन-सा है ? इस श्लोक में पहले ही प्रश्न हैं । माता ने इस श्लोक के तृतीय अक्षर को हटाकर उसके स्थान पर पहले श्लोक का तृतीय अक्षर बोलकर उत्तर दिया (यह श्लोक एकाक्षरच्युतक और एकाक्षरच्युतक है) ॥२४०॥
कोई देवी पूछती है कि हे माता, 'किसी वन में एक कौआ संभोगप्रिय कागली का निरन्तर सेवन करता है ।' इस श्लोक में चार अक्षर कम हैं उन्हें पूरा कर उत्तर दीजिए । माता ने चारों चरणों में एक-एक अक्षर बढ़ाकर उत्तर दिया कि हे कान्तानने, (हे सुन्दर मुखवाली) कामी पुरुष संभोगप्रिय कामिनी का सदा सेवन करता है (यह श्लोक एकाक्षरच्युतक है) ॥२४१॥
किसी देवी ने फिर पूछा कि हे माता, तुम्हारे गर्भ में कौन निवास करता है ? हे सौभाग्यवती, ऐसी कौन-सी वस्तु है जो तुम्हारे पास नहीं है? और बहुत खाने वाले मनुष्य को कौन-सी वस्तु मारती है ? इन प्रश्नों का उत्तर ऐसा दीजिए कि जिसमें अन्त का व्यञ्जन एक-सा हो और आदि का व्यञ्जन भिन्न-भिन्न प्रकार का हो । माता ने उत्तर दिया 'तुक्' 'शुक्' 'रुक्' अर्थात् हमारे गर्भ में पुत्र निवास करता है, हमारे समीप शोक नहीं है और अधिक खाने वाले को रोग मार डालता हे । (इन तीनों उत्तरों का प्रथम व्यञ्जन अक्षर जुदा-जुदा है और अन्तिम व्यंजन सबका एक-सा है) ॥२४२॥
किसी देवी ने पूछा कि हे माता, उत्तम भोजनों में रुचि बढ़ाने वाला क्या है ? गहरा जलाशय क्या है ? और तुम्हारा पति कौन है ? हे तन्वंगि, इन प्रश्नों का उत्तर ऐसे पृथक्-पृथक् शब्दों में दीजिए जिनका पहला व्यंजन एक समान न हो । माता ने उत्तर दिया कि 'सूप' 'कूप' और 'भूप', अर्थात् उत्तम भोजनों में रुचि बढ़ाने वाला सूप (दाल) है, गहरा जलाशय कुआँ है और हमारा पति भूप (राजा नाभिराज) है ॥२४३॥
किसी देवी ने फिर कहा कि हे माता, अनाज में से कौन-सी वस्तु छोड़ दी जाती है ? घड़ा कौन बनाता है ? और कौन पापी चूहों को खाता है ? इनका उत्तर भी ऐसे पृथक्-पृथक् शब्दों में कहिए जिनके पहले के दो अक्षर भिन्न-भिन्न प्रकार के हों । माता ने कहा 'पलाल', 'कुलाल' और 'बिलाव' अर्थात् अनाज में से पियाल छोड़ दिया जाता है, घड़ा कुम्हार बनाता है और बिलाव चूहों को खाता है ॥२४४॥
कोई देवी फिर पूछती है कि हे देवी, तुम्हारा सम्बोधन क्या है ? सत्ता अर्थ को कहने वाला क्रियापद कौन-सा है ? और कैसे आकाश में शोभा होती है ? माता ने उत्तर दिया 'भवति', अर्थात् मेरा सम्बोधन भवति, (भवती शब्द का सम्बोधन का एकवचन) है, सत्ता अर्थ को कहने वाला क्रियापद 'भवति' है (भू-धातु के प्रथम पुरुष का एकवचन) और भवति अर्थात् नक्षत्र सहित आकाश में शोभा होती है (भवत् शब्द का सप्तमी के एकवचन में भवति रूप बनता है) (इन प्रश्नों का भवति उत्तर इसी श्लोक से छिपा है इसलिए इसे 'निह्नुतैकालापक' कहते हैं ) ॥२४५॥
कोई देवी फिर पूछती है कि माता, देवों के नायक इन्द्र भी अतिशय नम्र होकर जिनके उत्तम चरणों की पूजा करते हैं ऐसे जिनेन्द्रदेव को क्या कहते हैं और कैसे हाथी को उत्तम लक्षण वाला जानना चाहिए ? माता ने उत्तर दिया 'सुरवरद' अर्थात् जिनेन्द्रदेव को 'सुरवरद'-देवों को वर देने वाला कहते हैं और सु-रव-रद अर्थात् उत्तम शब्द और दाँतों वाले हाथी को उत्तम लक्षण वाला जानना चाहिए । (इन प्रश्नों का उत्तर बाहर से देना पड़ा है इसलिए इसे 'बहिर्लापिका' कहते हैं) ॥२४६॥
किसी देवी ने कहा कि हे माता, केतकी आदि फूलों के वर्ण से, सन्ध्या आदि के वर्ण से और शरीर के मध्यवर्ती वर्ण से तू अपने पुत्र को सिंह ही समझ । यह सुनकर माता ने कहा कि ठीक है, केतकी का आदि अक्षर 'के' सन्ध्या का आदि अक्षर 'स' और शरीर का मध्यवर्ती अक्षर 'री' इन तीनों अक्षरों को मिलाने से 'केसरी' यह सिंहवाचक शब्द बनता है इसलिए तुम्हारा कहना सच है । (इसे शब्द-प्रहेलिका कहते हैं) ॥२४७॥
(किसी देवी ने फिर कहा कि हे कमलपत्र के समान नेत्रों वाली माता, 'करेणु' शब्द में से क्, र् और ण् अक्षर घटा देने पर जो शेष रूप बचता है वह आपके लिए अक्षय और अविनाशी हो । हे देवि ! बताइए वह कौन-सा रूप है माता ने कहा 'आयु:', अर्थात् करेणु: शब्द में से क् र् और ण् व्यंजन दूर कर देने पर अ+ए+उ: ये तीन स्वर शेष बचते हैं । अ और ए के बीच व्याकरण के नियमानुसार सन्धि कर देने से दोनों के स्थान में 'ऐ' आदेश हो जायेगा । इसलिए 'ऐ+उः' ऐसा रूप होगा । फिर इन दोनों के बीच सन्धि होकर अर्थात् 'ऐ' के स्थान में 'आय्' आदेश करने पर आय᳭+उ:=आयुः ऐसा रूप बनेगा । तुम लोगों ने हमारी आयु के अक्षय और अविनाशी होने की भावना की है सो उचित ही है ।) फिर कोई देवी पूछती है कि हे माता, कौन और कैसा पुरुष राजाओं के द्वारा दण्डनीय नहीं होता ? आकाश में कौन शोभायमान होता है ? डर किससे लगता है और हे भीरु ! तेरा निवासस्थान कैसा है ? इन प्रश्नों के उत्तर में माता ने श्लोक का चौथा चरण कहा 'नानागार-विराराजित:' । इस एक चरण से ही पहले कहे हुए सभी प्रश्नों का उत्तर हो जाता है । जैसे, ना अनागा:, रवि:, आजित:, नानागारविराजित: अर्थात् अपराधरहित मनुष्य राजाओं के द्वारा दण्डनीय नहीं होता, आकाश में रवि (सूर्य) शोभायमान होता है, डर आजि (युद्ध) से लगता है और मेरा निवासस्थान अनेक घरों से विराजमान है । (यह आदि विषम अन्तरालापक श्लोक कहलाता है) ॥२४८॥
किसी देवी ने फिर पूछा कि हे माता ! तुम्हारे शरीर में गम्भीर क्या है ? राजा नाभिराज की भुजाएं कहाँ तक लम्बी हैं ? कैसी और किस वस्तु में अवगाहन (प्रवेश) करना चाहिए ? और हे पतिव्रते, तुम अधिक प्रशंसनीय किस प्रकार हो ? माता ने उत्तर दिया 'नाभिराजानुगाधिकं' (नाभि:, आजानु, गाधि-कं, नाभिराजानुगा-अधिकं) । श्लोक के इस एक चरण में ही सब प्रश्नों का उत्तर आ गया है जैसे, हमारे शरीर में गम्भीर (गहरी) नाभि है, महाराज नाभिराज की भुजाएं आजानु अर्थात् घुटनों तक लम्बी हैं, गाधि अर्थात् कम गहरे कं अर्थात् जल में अवगाहन करना चाहिए और मैं नाभिराज की अनुगामिनी (आज्ञाकारिणी) होने से अधिक प्रशंसनीय हूँ । (यहाँ प्रश्नों का उत्तर श्लोक में न आये हुए बाहर के शब्दों से दिया गया है इसलिए यह बहिर्लापक अन्त विषम प्रश्नोत्तर है) ॥२४९॥
इस प्रकार उन देवियों ने अनेक प्रकार के प्रश्न कर माता से उन सबका योग्य उत्तर प्राप्त किया । अब वे चित्रबद्ध श्लोकों द्वारा माता का मनोरंजन करती हुई बोली । हे देवि, देखो, आपको प्रसन्न करने के लिए स्वर्गलोक से आयी हुई ये देवियाँ आकाशरूपी रंगभूमि में अनेक प्रकार के करणों (नृत्यविशेष) के द्वारा नृत्य कर रही है ॥२५०॥
हे माता, उस नाटक में होने वाले रसीले नृत्य को देखिए तथा देवी के द्वारा लाया हुआ और आकाश में एक जगह इकट्ठा हुआ यह अन्तरा का समूह भी देखिए । (यह गोमूत्रिकाबद्ध श्लोक है) ॥२५१॥
हे तन्वि ! रत्नों की वर्षा से आपके घर के आँगन के चारों ओर की भूमि ऐसी शोभायमान हो रही है मानो किसी बड़े खजाने को ही धारण कर रही हो ॥२५२॥
हे देवि इधर अनेक प्रकार के रत्नों की किरणों से चित्र-विचित्र पड़ती हुई यह रत्नधारा देखिए । इसे देखकर मुझे तो ऐसा जान पड़ता है मानो रत्नधारा के छल से यह स्वर्ग की लक्ष्मी ही आपकी उपासना करने के लिए आपके समीप आ रही है ॥२५३॥
जिसकी आज्ञा अत्यन्त प्रशंसनीय है और जो जितेन्द्रिय पुरुषों में अतिशय श्रेष्ठ है ऐसी हे माता ! देवताओं के आशीर्वाद से आकाश को व्याप्त करने वाली अत्यन्त सुशोभित, जीवों की दरिद्रता को नष्ट करने वाली और नम्र होकर आकाश से पड़ती हुई यह रत्नों की वर्षा तुम्हारे आनन्द के लिए हो (यह अर्धभ्रम श्लोक है-इस श्लोक के तृतीय और चतुर्थ चरण के अक्षर प्रथम तथा द्वितीय चरण में ही आ गये हैं ।) ॥२५४॥
इस प्रकार उन देवियों के द्वारा पूछे हुए कठिन-कठिन प्रश्नों को विशेष रूप से जानती हुई वह गर्भवती मरुदेवी चिरकाल तक सुखपूर्वक निवास करती रही ॥२५५॥
वह मरुदेवी स्वभाव से ही सन्तुष्ट रहती थी और जब उसे इस बात का परिज्ञान हो गया कि मैं अपने उदर में ज्ञानमय तथा उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप तीर्थंकर पुत्र को धारण कर रही हूँ तब उसे और भी अधिक सन्तोष हुआ था ॥२५६॥
वह मरुदेवी उस समय अपने गर्भ के अन्तर्गत अतिशय देदीप्यमान तेज को धारण कर रही थी इसलिए सूर्य की किरणों को धारण करने वाली पूर्व दिशा के समान अतिशय शोभा को प्राप्त हुई थी ॥२५७॥
अन्य सब कान्तियों को तिरस्कृत करने वाली रत्नों की धारारूपी विशाल दीपक से जिसका पूर्ण प्रभाव जान लिया गया है ऐसी वह कमलनयनी मरुदेवी किसी दीपक विशेष से जानी हुई खजाने की मध्यभूमि के समान सुशोभित हो रही थी ॥२५८॥
जिसके भीतर अनेक रत्न भरे हुए हैं ऐसी रत्नों की खान की भूमि जिस प्रकार अतिशय शोभा को धारण करती है उसी प्रकार वह मरुदेवी भी गर्भ में स्थित महाबलशाली पुत्र से अतिशय शोभा धारण कर रही थी ॥२५९॥
वे भगवान् ऋषभदेव माता के उदर में स्थित होकर भी उसे किसी प्रकार का कष्ट उत्पन्न नहीं करते थे सो ठीक ही है दर्पण में प्रतिबिम्बित हुई अग्नि क्या कभी दर्पण को जला सकती है अर्थात् नहीं जला सकती ॥२६०॥
यद्यपि माता मरुदेवी का कृश उदर पहले के समान ही त्रिवलियों से सुशोभित बना रहा तथापि गर्भ वृद्धि को प्राप्त होता गया सो यह भगवान् के तेज का प्रभाव ही था ॥२६१॥
न तो माता के उदर में कोई विकार हुआ था, न उसके स्तनों के अग्रभाग ही काले हुए थे और न उसका मुख ही सफेद हुआ था फिर भी गर्भ बढ़ता जाता था यह एक आश्चर्य की बात थी ॥२६२॥
जिस प्रकार मदोन्मत्त भ्रमर कमलिनी के केसर को बिना छुए ही उसकी सुगन्ध मात्र से सन्तुष्ट हो जाता है उसी प्रकार उस समय महाराज नाभिराज भी मरुदेवी के सुगन्धि युक्त मुख को सूँघकर ही सन्तुष्ट हो जाते थे ॥२६३॥
मरुदेवी के निर्मल गर्भ में स्थित तथा मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से विशुद्ध अन्तःकरण को धारण करनेवाले भगवान् वृषभदेव ऐसे सुशोभित होते थे जैसा कि स्फटिक मणि के बने हुए घर के बीच में रखा हुआ निश्चल दीपक सुशोभित होता है ॥२६४॥
अनेक देव-देवियाँ जिसका सत्कार कर रही हैं और जो अपने उदर में नाभि-कमल के ऊपर भगवान् वृषभदेव को धारण कर रही हैं ऐसी वह मरुदेवी साक्षात् लक्ष्मी के समान शोभायमान हो रही थी ॥२६५॥
अपने समस्त पापों का नाश करने के लिए इन्द्र के द्वारा भेजी हुई इन्द्राणी भी अप्सराओं के साथ-साथ गुप्तरूप से महासती मरुदेवी की सेवा किया करती थी ॥२६६॥
जिस प्रकार अतिशय शोभायमान चन्द्रमा की कला और सरस्वती देवी किसी को नमस्कार नहीं करती किन्तु सब लोग उन्हें ही नमस्कार करते हैं इसी प्रकार वह मरुदेवी भी किसी को नमस्कार नहीं करती थी, किन्तु संसार के अन्य समस्त लोग स्वयं उसे ही नमस्कार करते थे ॥२६७॥
इस विषय में अधिक कहने से क्या प्रयोजन है इतना कहना ही बस है कि तीनों लोकों में वही एक प्रशंसनीय थी । वह जगत् के स्रष्टा अर्थात् भोगभूमि के बाद कर्मभूमि की व्यवस्था करने वाले श्रीवृषभदेव की जननी थी इसलिए कहना चाहिए कि वह समस्त लोक की जननी थी ॥२६८॥
इस प्रकार जो स्वभाव से ही मनोहर अंगों को धारण करने वाली है, श्री, ह्री आदि देवियाँ जिसकी उपासना करती हैं तथा अनेक प्रकार की शोभा व लक्ष्मी को धारण करने वाले महाराज भी स्वयं जिसकी सेवा करते हैं ऐसी वह मरुदेवी, तीनों लोकों में अत्यन्त सुन्दर श्रीभवन में रहती हुई बहुत ही सुशोभित हो रही थी ॥२६९॥
अत्यन्त सुन्दर अंगों को धारण करने वाली वह मरुदेवी मानो एक कल्पलता ही थी और मन्द हास्यरूपी पुष्पों से मानो लोगों को दिखला रही थी कि अब शीघ्र ही फल लगने वाला है । तथा इसके समीप ही बैठे हुए मङ्गलमय शोभा धारण करने वाले महाराज नाभिराज भी एक ऊँचे कल्पवृक्ष के समान शोभायमान होते थे ॥२७०॥
उस समय मरुदेवी का मुख एक कमल के समान जान पड़ता था क्योंकि वह कमल के समान ही अत्यन्त सुन्दर था, सुगन्धित था और प्रकाशमान दाँतों की किरणमंजरीरूप केशर से सहित था तथा वचनरूपी पराग के रस की आशा से उसमें अत्यन्त आसक्त हुए महाराज नाभिराज ही पास बैठे हुए राजहंस पक्षी थे । इस प्रकार उसके मुखरूपी कमल को उदित (उत्पन्न) होते हुए बालकरूपी सूर्य ने अत्यन्त हर्ष को प्राप्त कराया था ॥२७१॥
अथवा उस मरुदेवी का मुख पूर्ण चन्द्रमा के समान था क्योंकि वह भी पूर्ण चन्द्रमा के समान सब लोगों के मन को उत्कृष्ट आनन्द देने वाला था और चन्द्रमा जिस प्रकार अमृत की सृष्टि करता है उसी प्रकार उसका मुख भी बार-बार उत्कृष्ट वचनरूपी अमृत की सृष्टि करता था । महाराज नाभिराज उसके वचनरूपी अमृत को पीने में बड़े सतृष्ण थे इसलिए वे अपने परिवाररूपी कुमुद-समूह के द्वारा विभक्त कर दिये हुए अपने भाग का इच्छानुसार पान करते हुए रमण करते थे । भावार्थ-मरुदेवी की आज्ञा पालन करने के लिए महाराज नाभिराज तथा उनका समस्त परिवार तैयार रहता था ॥२७२॥
इस प्रकार जो प्रकटरूप से अनेक मंगल धारण किये हुए हैं और अनेक देवियाँ आदर के साथ जिसकी सेवा करती हैं ऐसी मरुदेवी परम सुख देने वाले और तीनों लोकों में आश्चर्य करने वाले भगवान् ऋषभदेवरूपी तेजःपुंज को धारण कर रही थी और महाराज नाभिराज कमलों से सुशोभित तालाब के समान जिनेन्द्र होनेवाले पुत्ररूपी सूर्य की प्रतीक्षा करते हुए बड़ी आकांक्षा के साथ परम सुख देनेवाले भारी धैर्य को धारण कर रहे थे ॥२७३॥
इस प्रकार श्रीआर्ष नाम से प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रह में भगवान के स्वर्गावतरण का वर्णन करने वाला बारहवां पर्व समाप्त हुआ ॥१२॥